तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ।
काकभुशुण्डि हे पक्षीराज! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत गए, संत का मत सम्पूर्ण विश्व में भारत ही केवल एक ऐसा अद्भुत राष्ट्र है, जहां पक्षी भी राम चरित्र गुणगान का करता है। यह केवल और केवल भारत में संभव है। काकभुशुण्डि जी कौआ वेष में सत्ताईस कल्पों से राम कथा सुना रहे है, अतः काकभुशुण्डि जी कह रहे हे गरुण जी मेने राम जी के सत्ताईस अवतार देखे है। मैं यहाँ सदा श्री रघुनाथजी के गुणों का गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं।
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।
राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।
हे गरुण जी भुशुण्डि जी राम भक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल के है। शिव जी गरुण जी के माध्यम से कथा वाचकों को सन्देश (सूत्र) देते हैं कि कथा वाचकों में पांच गुण होने चाहिए सुशील, राम भक्ति पथ परम प्रवीण, ज्ञानी, गुन गृह, और बहुकालीन होना चाहिए सुशील वक्ता से श्रोता का मन खिन्न नहीं होता वह अपने संसयो को ठीक से कहता है हे गरुण जी वह तुम्हारा आदर करेगा क्योंकि भुसुंड जी सुशील है 2 वक्ता को राम भक्ति में प्रवीण होना है भक्ति में प्रवीण होने से नवधा भक्ति, प्रेम भक्ति, परा भक्ति, के भेदों को ठीक से समझा देता है 3 ज्ञानी होने से सभी संसय को दूर कर देगा 4 गुन गृह होने से श्रोता उसके गुणों को ग्रहण करेगा 5 बहु कालीना बहुत समय तक सत्संग करने से उसको ईश्वर तत्व का बोध हो जाता है और अपने अनुभवों को बताता है। (सुसीला=सुशील= सज्जन तथा सदाचारी,सरल,सीधा)
करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना।।
हे गरुण जी मैं यहाँ सदा श्री रघुनाथजी के गुणों का गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं।पर रघुनाथजी के गुणों का गान तो में गुरु जी की कृपा और शंकर की कृपा से करता हूँ। (विहंग=पक्षी) (चारु=सुंदर) (सुजाना=सुजान= समझदार,सयाना, कुशल,निपुण)
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें॥
शंकर जी ने कहा- तेरा जन्म श्री रघुनाथ जी की पुरी में हुआ। फिर तूने मेरी सेवा में मन लगाया। पुरी के प्रभाव और मेरी कृपा से तेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न होगी। (अविरल= निरन्तर, सतत)
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें।।
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी॥
हे गरुड़ जी! सुनिए, मुनि का आशीर्वाद सुनकर आकाश में गंभीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि! तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो। यह कर्म, मन और वचन से मेरा भक्त है। (एवमस्तु=ऐसा ही हो) (मतिधीर=धीर बुद्धि)
काकभुशुण्डि जी ने कहा हे पक्षीराज-
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ।।
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा।।
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा।।
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ।।
श्री राम अवतार प्रत्येक कप्ल में एक बार ही होता है,उसे देखने के लिए भुसण्डि जी अयोध्या बराबर आया करते है! और लगभग पांच वर्ष तक अयोध्या में रहते है जैसे लोग रामलीला देखने आया करते है! उन पांच वर्षो तक नीलगिरि पर्वत पर कथा जो अविरल चलती है नहीं होती।क्योकि बालक रूप श्री रामजी मेरे इष्टदेव हैं, जिनके शरीर में अरबों कामदेवों की शोभा है। हे गरुड़ जी! मैं मेरे बाल रूप प्रभु का मुख देख-देखकर मैं नेत्रों को सफल करता हूँ। (बपुष= शरीर) (कोटि= करोड़)
इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥
(सूत्र) संतो का मत जिसको संसार का वैभव चाहिए सीता राम का ध्यान करे, मुक्ति के लिए राम का ध्यान करे और जिसको भक्ति चाहिए वह बालक राम का ध्यान करे! हे पक्षीराज गरुड़जी! हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ, श्री रामजी की कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिए। भुसुंडि जी कहते है की राम जी की कृपा और अपनी जड़ता अर्थात मोह का वर्णन करता हूँ! सरकार जड़ता पर क्रोध नहीं करते बल्कि कृपा करते है! (जड़ताई=जड़ता= जड़ होने की अवस्था, मूर्खता) (खगेस= पक्षियों का राजा गरुड़)
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥
राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥
हे गरुड़जी साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हुई कि चैतन्य और आनंद की राशि (परब्रह्म) प्रभु यह कौन (महत्त्व का) चरित्र (लीला) कर रहे हैं। ऐसा ही संदेह गरुण जी को हुआ था, जबकि दोनों ही भगवान के यथार्त रूप को जानने वाले है कि राम चिदानंद संदोह है! यहाँ तो विकार की सम्भावना ही नहीं है! यह तो इनका चरित्र है पर क्या चरित इनके योग्य है? तभी माया व्याप गई! (इव=अव्यय,समान,सदृश,जैसा,मानिंद) (चिदानंद=आनन्द और चैतन्य स्वरूप, ब्रह्म) (संदोह=दूध दोहना, समूह, झुंड) (अतिशय= अत्यधिक,श्रेष्ठता)
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥
श्री रामजी मुझसे बहुत प्रकार के खेल करते हैं, जिन चरित्रों का वर्णन करते मुझे लज्जा आती है! (ब्रीडा=संकोच,लज्जा) (इव=समान, सदृश, जैसी) (चिदानंद= आनन्द और चैतन्य स्वरूप, ब्रह्म)
मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा॥
पर साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हुई!
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह॥
हे पक्षीराज! मन में इतनी (शंका) लाते ही श्री रघुनाथजी के द्वारा प्रेरित माया मुझ पर छा गई, परंतु वह माया न तो मुझे दुख देने वाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति संसार में डालने वाली हुई।
एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥
हे पक्षीश्रेष्ठ! श्री रामजी ने मुझे जब भ्रम से चकित देखा, तब वे हँसे।वह विशेष चरित्र सुनिए उस खेल का मर्म किसी ने नहीं जाना, न छोटे भाइयों ने और न ही दशरथ महराज और माता कौसिल्या जी ने उस लीला का मर्म नहीं जाना।
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥
———————————————————————————————————