रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥
मंदोदरी का चौथी बार समझाना- आज सभा के बीच में एक बानर के बालक ने मान-मर्दन कर दिया, इससे रावण ने रो दिया,उसे अत्यन्त दुःखी हुआ। दूसरा भाव रावण जनता है कि भवन में भी जाने से सुख न मिलेगा, क्योंकि मंदोदरी बेटे का वध और सभी की व्यथा सुन चुकी होगी,इस कारण वह भी अंगद से भी अधिक लज्जित करेगी। अतः, भवन जाते हुए रावण रो दिया। इस पर भी रोया कि अब राक्षस-गण डर से बानरों का सामना कैसे करेंगे?
हे प्रियतम! जिनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी, तुम उस रेखा को सुने में भी नहीं लाँघ सके और उनका दूत तुम्हारी तरफ की सिंहिका, लकिनी और काल के रहते हुए भी तुम्हारे जल-दुर्ग-रूप विशाल समुद्र को खेल में लाँघ आया! ऐसा तो आपका पुरुषत्व है? उस दूत ने संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था?(मनुसाई=पुरुषार्थ)
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥
तुलसी बाबा ने तो इतने बलशाली रावण की तुलना कुत्ते से कि वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई (चोरी) के लिए चला। ऐसा तो आपका पुरुषत्व है? (सूत्र) इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता। (स्वान=कुत्ता) (इमि=इस प्रकार)
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥
हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल खेल में हनुमान वानरों में सिंह समुद्र लाँघकर आपकी लंका में निर्भय चला आया! सम्पूर्ण लंका जलाकर उसने राख कर दिया तब तुम्हारा बल का घमड कहाँ रहा?अर्थात् उस समय उसे पकड़कर क्यों नहीं मारा।(कौतुक=उत्सुकता,खेल खेल में)
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥
कौतुक सिंधु नाघि तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका॥
आप तो बड़े गर्व से कहते है मनुष्य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (की सामग्री) हैं।तब सभी मिलकर उस बानर को ना खा सके! तब भूख को क्या हो गया था? (छुधा=भूख)
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥
छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू॥
हे प्रियतम! शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली,तो भी आपके हृदय में (रामजी से लड़ने की बात सोचते) हो तुमको विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती।
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी॥
जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) करुणामय भगवान ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा,सुबेल रावण का युद्ध-मैदान है,इसे शत्रु का दखल कर लेना भी राजनैतिक दृष्टि से लंका के लिये विशेष हानि कारक है। इसे कहकर भी प्रभु प्रताप ही दिखाया।इस पर्बत पर रावण की ओर से काल का पहरा रहता था,उस पर भी प्रभु प्रताप से ही हनुमान जी को भय नहीं हुआ था और अब तो उस पर प्रभु स्वय ठहरे ही है!यह सुवेल ही वह पर्वत था।महा देवदत्त जी के मतानुसार इस पर्वत पर रावण की ओर से काल का पहरा रहता था।काल को कैद कर लाने पर काल ने रावण से प्रार्थना की थी कि आप मुझे कोई स्थान रहने का दें,जिस पर रहकर मैं आपके नगर की रक्षा शत्रुओं से करता रहूँ।तब रावण ने यही स्थान बताया कि इस पर रहो जो समुद्र पार करके इधर आवे उसको खा जाओ।दूसरी कथा यह है कि इसी पर्व॑त पर ब्रह्मा का एक सिर जब शिवजी ने काट लिया तब ब्रह्मा ने शाप दिया था कि जो इस पर्वत पर चरण रखेगा उसका सिर फट जायगा और काल-व्याल उसे ग्रास कर लेगा। जिस पर्व॑त पर काल का पहरा था उसी पर उन्होंने डेरा डाला और काल ने उनका भक्षण न किया,यह आश्चर्य है और इससे निश्चय है कि वे काल के भी भक्षक हैं। दिनकर कुलकेतु का भाव कि जैसे सूर्य का प्रकाश सब पर बराबर रहता है वैसे ही उनकी करुणा सब पर समान है। (जलनाथ=समुद्र) (हेला=खिलवाड़ में सहज ही)(सुबेला=समुद्र तट)
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥
आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए।
दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥
हे स्वामी-काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है।
काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
यही भरत ने कैकई से कहा राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया? (जान पड़ता है,) विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी।
भूपँ प्रतीति तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥
हा प्रियतम! आपने श्री रामजी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता। हे स्वामी! जिसका काल (मरण समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है।
अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥
प्रथम उपदेश श्री हनुमान के लोटने पर हुआ उसमें श्री हनुमान के उपदेश की छाया है। दूसरा सेतु-बंधन पर हुआ,उसमें पूर्वात विभीपण और शुक सारन के उपदेश की छाया है।तीसरा छत्र,मुकुट,(तांटक=कानों में पहनने का एक लटकन)गिरने के पीछे हुआ।उसमे सभा और मदोदरी आदि सभी डर गये थे,चौथी बार श्री अंगद जी के द्वारा मान मर्देन होने पर उपदेश दिया ! मंदोदरी ने प्रथम बार नीति कही, दूसरी बार भजन करने की कहा,जिससे सुहाग अचल हो, तीसरी बार सुहाग बना रह जाय यह प्रार्थना की और अन्त में अपना स्वार्थ न कहकर’ विमल यश के प्राप्त करने की प्रार्थना की।
रावण के मरने पर मंदोदरी बोली =
पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती है।
पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥
मंदोदरी कहती हैं- हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। ये दोनों भी रावण की रुचि के अनुकूल तप्त एवं शीतल होते थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है । (तरनी= तरणी=नाव, यमुना,कालिंदी, सूर्य)
तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥
वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो। अनाथ की नाइ का भाव आपके मृत शरीर को कोई संबंधी सहायक उठाने वाला भी नहीं रह गया।
बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥
तुम्हारी प्रभुता जगत् भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्री रामचंद्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया।
जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥
हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु ! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात् उचित ही है)। चाहे ऐश्वर्य और प्रताप क्यों न प्राप्त हो सब सांसारिक सुख भी क्यों न प्राप्त हों,त्रिलोक विजयी भी क्यों न हो तब भी यदि प्राणी राम विमुख है तो ये सब व्यर्थ हो जाते हैं।(जंबुक=जामुन, गीदड़,सियार) (दिसिप=दिक्पाल)
तव बस बिधि प्रचंड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥
अतःहे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य समझा ।
काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥
अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान् ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है। (आन=दूसरा)
अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥
मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थ वादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले) श्रेष्ठ मुनि थे। (परमार्थ वादी= परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले)