सजल नयन कह जुग कर जोरी।
तीसरा उपदेश मंदोदरी का-पिछले दो बार के उपदेशों में मन्दोदरी ने “कन्त और प्रिय! शब्दों का प्रयोग किया और श्रंगार रस की सामर्थ्य से समझाने का प्रयत्न किया, पर उस से कुछ बात नहीं बनी, अतः अब ‘सजल नयन’ होकर करुण रस का आश्रय लेकर समझाने का प्रयत्न करती है। स्त्रियों का स्वभाव है कि जब श्रंगार से काम नहीं चलता तब रो-रोकर विनती करती है। जिससे पुरुष का हृदय द्रवित हो जाता है, उसे दया आती है और वह विनती मान लेता है! प्राणपति” का भाव कि हमारे प्राणों के आप स्वामी हैं, आपके रखने से ये प्राण रह सकते है। (बिनती मोरी) अर्थात मैं नम्रता पूर्वक आप से यह प्रार्थना करती हूँ। क्योंकि आप मेरे प्राणों के रक्षक है। आप के बिना मैं मृतक तुल्य हो जाऊँगी। अतः मैं अपने कल्याण के लिए प्रार्थना करती हूँ। में कुछ आपको उपदेश नहीं देती।
कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ लग धरहू॥
मन्दोदरी पति को “राम-विरोध करने से रोकती है क्योंकि राम द्रोही की रक्षा कोई नहीं करता, यह बात वह जयन्त के प्रसंग से जानती है। हनुमान जी से भी सुना है, और शुक ने भी कहा है। मारीच ने भी रावन को समझाया है। उसने भी यही कहा था, यह भी मन्दोदरी जानती है। जनि हठ लग धरहू॥ का भाव कि रामजी को मनुष्य समझते हो इसी से हठ करते हो, ईश्वर जानते तो हठ नहीं करते। क्योंकि रावण ने स्वर्ण मृग की परीक्षा से रामजी को मनुष्य मान लिया है। इस से मारीच, विभीषण, प्रहस्त, मन्दोदरी, कुम्भकरण ने बहुत कहा कि वे नर नहीं है,पर रावण हट नहीं छोड़ता और पूरे जीवन में छोड़ी भी नहीं नहीं। इसी हठ के कारण रावन किसी की सलाह भी नहीं मानता। (परिहरहू= त्यागने या तजना, छोड़ना) (सुरपतिसुत=जयन्त) (कंत=कान्त=पति)
सुरपतिसुत जानइ बल थोरा॥राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥
हनुमान जी ने तो आपसे कहा भी
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥
हे नाथ ऐसा नहीं की राम के बाण का प्रभाव को नीच मारीच नहीं जानता था। परंतु आपने उसका कहना भी नहीं माना।
बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥
उसने तो आपसे कहा भी-
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररूप चराचर ईसा॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥
हे नाथ जनक की सभा में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल बल वाले आप भी थे।
जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥
अब मन्दोदरी रावण को राम जी के भगवान होने का पुनः प्रमाण देती है। विश्वरूप राम जी का चरण पाताल है, सिर ब्रह्मलोक है और अन्य सभी लोक (जो ब्रह्मलोक और पाताल के बीच के हैं) राम जी के एक-एक अंग में विश्राम (ठहरने का स्थान) है। भौंह का फेरना भयंकर काल है। नेत्र सूर्य है, केश मेघ माला है। जिनकी नाक अश्विनीकुमार है, रात और दिन अपार पलकों का मारना (खोलना, बंद करना) है। (सूत्र) बाल और मेघ श्याम है, और इनमें सघनता की भी समनता है नासिका मे दो छिद्र होते है वैसे ही अश्वनीकुमार भी जुड़वाँ दो भाई हैँ। ये अश्विनी कुमार सूर्य के दो यमज पुत्र है जो देवताओं के वैद भी है पलकें बराबर खुलती-मुँदती है। वैसे ही लगातार दिन और रात हुआ करते है। (यमज= गर्भ से एक समय में एक साथ पैदा होनेवाली दो संतानों को यमज कहते है)
पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥
(पाताल=अधोलोक=सबसे नीचे का लोक) (अजधाम=सत्य वा ब्रह्म लोक) (अपार=असीम,जिसका पार न हो, असहमति) (दिवाकर=दिनकर, सूर्य) (कच=बाल, केश) (घन=मेघ, बादल) (अपार=संख्यारहित, अमित)
भृकुटि बिलास और नयन दिवाकर
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥
तब सिव तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा।।
मन्दोदरी रावण से बोली- अस्विनीकुमार जिनकी नासिका है, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) है।
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥
वेदों मे कहा है प्रभु के कान दसो दिशाएँ है, पवन श्वास है, वेद खास वाणी है, लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत है, माया हँसी है, मायाहास’। हास्य को माया कहा क्योंकि हँसे नहीं कि मोहित कर लिया। दिक्पाल भुजाएँ है। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय उनकी इच्छा है। (कर्म वा चेष्टा) (क्रिया) है। (अंबुपति=वरुण देव) (समीहा=कामना, संकल्प) (आनन=मुख, मुँह) (अंबुपति=समुद्र, जलधि,वरुण)
अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥
आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥
मंदोदरी कहती हे नाथ! शिव जिनका अहंकार हैं ब्रह्मा बुद्धि हैं चंद्रमा मन हैं और महान (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचर रूप भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है (भाव कि देवताओं की विनती पर विश्वरूप से मनुष्य रूप हुए)
अहंकार सिव बुद्धि अज मन,ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर, रुप राम भगवान।।
यह तो मेने लक्ष्मणजी से सुना- जिनके भ्रृकुटि विलास (भौं के इशारे) मात्र से सारी सृष्टि का लय (प्रलय) हो जाता है, वे श्री रामजी क्या कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते है?
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥
और तो और हे नाथ आपके गुरु शंकर जी ने भी तो यही कहा है
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।
(आदि अंत-तो तन धारण करने से होता है स्मरण रहे प्रभु का प्राकट्य होता है जन्म नहीं) (मति अनुमानि- वेद भी यथार्थ नहीं जानते और ना ही कह सकते है बुद्धि से अनुमान लगाते है क्योंकि आदि अंत कुछ है ही नहीं) (बकता=वक्ता, बोलनेवाला) (जोगी=योगी) (परस= स्पर्श,छूना) (घ्राण=नाक) (बास=गंध, सुगंध, बू) (असेषा=सम्पूर्ण) (अलौकिक=इस लोक से परे की ,इस लोक की नहीं,दिव्य)
अतः हे प्राणपति! सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग पर कोई संकट ना आये। (अहिवात=सौभाग्य,सुहाग)
अस बिचारि सुनु प्रानपति, प्रभु सन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु रघुबीर पद, मम अहिवात न जाइ।।
रावण तो कुछ समझा ही नहीं तब दुखी होकर मंदोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है।