की तजि मान अनुज इव ,प्रभु पद पंकज भृंग।
लक्ष्मण ने पत्रिका के माध्यम से रावण को सलाह दी।अरे मूर्ख! बातें बनाकर अपनी आत्मा को घोखा देना शठता की पराकाष्ठा है। इस दोष से तेरे कुल का सर्वनाश होगा। लक्ष्मण हनुमान से सुन चुके हैँ कि रावण ऐसी ही बातें किया करता हैँ। अतः लिखकर चेतावनी देते हैं कि यह समय बातें बनाकर मन के रिझाने का नही है। तुम सबसे विरोध करके बच गये पर अब राम का विरोध कर बेठे अतः अब तुम नही बच सकते । केवल तुम्हारा ही नही सम्पूर्ण कुल का नाश अवश्य होगा। पुलस्ति ऋषि का उत्तम कुल है। इसलिये कुल के नाश होने पर भी खेद होता है! हे रावण यदि तुमको ब्रह्मा, (रुद्र=शंकर) का भरोसा हो तो उनको भी छोड़ दो! उन दोनों की कौन कहे तीनो देव मिलकर भी तेरी रक्षा नहीं कर सकते। बातों में मन का रिझाना यह कि मैंने तो शिव-ब्रह्मा से ऐसे-ऐसे वरदान पाये है,और हमारे अमुख अमुख वीर हैं।सभी दिकपाल मेरे अधीन हैं,मेने केलास तक को उठा लिया,त्रिदेव मुझ से डरते हैं,इत्यादि। तब नर-वानर किस गणना में है? ये सब के सब राम के सम्मुख बेकार ही है! (ऊबरे=रक्षा करना) (खीस=नष्ट,बरबाद,नाश) (घालना=करडालना)
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ,जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि, सरन बिष्नु अज ईस॥
रावण सुन (ओही=उसे,उसको,उस व्यक्ति को)
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥
जौं खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥
हे रावण क्या तुम जयंत की व्यथा को नहीं जानते राम से विमुख होने पर उसका क्या हाल हुआ! (समन=शमन=यम)(हरिजान=हरिकी सवारी, गरुड़) (बिवुध = देवता, देव) (विवुधनदी=सुरसरि, गंगा)(बेतरनी=वैतरणी) यह एक प्रसिद्ध पौराणिक नदी है. जो यम के द्वार पर है। कहते है कि यह नदी बहुत तेज़ बहती है, इसका जल बहुत ही गर्म और बदबूदार है, और उसमें हडिडयां, लहू तथा वाल आदि भरे हुए हैं। यह भी माना जाता है कि प्राणी के मरने पर पहले यह नदी पार करनी पड़ती.है, जिसमें उसे बहुत कष्ट होता है | यहाँ राम से विमुख होने का परिणाम बताया !
काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना।।
मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी।।
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता।।
राम कृपा पात्र की व्यवस्था इससे उलटी है!और यदि तुम रामजी की शरण में आ जओगे तो राम जी ने स्वयं ही कहा है!
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
और रावण राम जी की शरणागत का फल
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
जा पर कृपा राम की होई।ता पर कृपा करहिं सब कोई।॥
और रावण राम जी की शरणागत का फल परम फल
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू।।
लक्ष्मण=या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! राम के बाण रूपी अग्नि में कुल सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥अब तुम्हें दो गति है। भृंग बनो या पतंग बनो।यदि अभिमान नही छोड सकते तो कुल के सहित पतंग बनोगे। आसक्त तो दोनों होते हैं भृंग भी और पतंग भी,पर परिणाम दो का अलग अलग होता है भृंग’ आनंद से रस लेते हैं और पतंग काल के मुख में पड़ते हैं।सो तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो। (सूत्र) जीव की दो ही गति होती है! (इव=अव्यय,समान, सदृश) (भृंग=भौंरा) (यूथप=बंदरों का समूह) (सरानल =बाणरूपी अग्नि)