हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पंक्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल। (खंजन= काले रंग की एक प्रसिद्ध चंचल चिड़िया) (सुक= तोता) (निकर= झुंड, समूह, ढेर) (कपोत= कबूतर,मृग= हिरन, मीना=मछली)
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥
सुनो, जानकी तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों। (अर्थात् तुम्हारे अंगों के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में फूल रहे हैं)
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥
पूज्य राम कमल वेदांती का सुन्दर भजन
है इधर को गई वा उधर को गई, है इधर को गई वा उधर को गई॥
जानकी जानकी वो किधर को गई, जानकी जानकी वो किधर को गई ॥
हे अनुज चूक तुमसे ये भरी हुई,हे अनुज चूक तुमसे ये भरी हुई॥
ले गया हो ना उनको हर कर कोई, ले गया हो ना उनको हर कर कोई॥
हे विधाता बता क्या लिखा भाग्य में, मेरी तकदीर जाने किधर सो गई॥
समान्य से समान्य या ऐसा कहे नादान से नादान व्यक्ति भी नारी के वियोग में इस तरह से विलाप नहीं करेगा जबकि रामजी तो को मालूम है।
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
जबकि रामजी तो
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
जब भगवान ने अवतार लिया भगवान ने सभी देवताओं से कहा कि अब में तुम्हारे दुखों को दूर करने के लिए अवतार लूँगा तब रामजी के अनन्य सेवकों में से कुछ बन्दर बने कुछ रीछ बने कुछ कौल भील बने और उनमें से कुछ (मधुकर=भौंरा) बने ,और कुछ (खग= आकाश में उड़ने वाले पक्षी) (मृग=हिरन) बने।
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा।।
लक्ष्मण जी भी सीता की सुरक्षा में वन के देवताओं,दसों दिशाओं के देवता,को सौंप कर रामजी के पास गए।
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥
जब पूर्ण–काम ही है; तो इनको कामना किसकी? तब वियोग–जन्य विरह कैसा? आनंद –राशि हैं तो दुःख कैसा? ‘अज अविनाशी ‘ अर्थात जन्म और नाश–रहित है,फिर भी मनुष्य जैसे चरित कर रहे हैं। यह माधुर्य लीला है।
आदि अंत कोउ जासु न पावा।मति अनुमानि निगम अस गावा॥
पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्री रामजी मनुष्यों के चरित्र कर रहे हैं। (पूरकनाम= पूर्ण काम) (अज= अजन्मा) (अबिनासी= अमर)
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
पर इस लीला को जब शंकर जी ने देखा तो उनको हर्ष हुआ,जिसके स्वामी, मित्र की पत्नी का हरण हो गया उनको हर्ष कैसे हुआ ? केवल और केवल इस तरह की लीला के कारण।
संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥
हे पार्वती यह लीला केवल इसलिए रची गई कि भक्त यह जान सकें कि यदि वे प्रभु से प्रेम करेंगे, तो भगवान भी उसे दुगुना भाव से प्रेम करेंगे
हनुमान जी ने पंचवटी में कहा हे माता,ऐसा मत समझो कि रामजी का प्रेम तुम्हारे प्रेम से कम है। रामजी तो तुमसे दूना प्रेम करते हैं।
जनि जननी मानह जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥
इस अनादि अनंत लीला में वियोग कहाँ है? यह तो लीला और खेल का एक नगण्य अंग है जो केवल भक्तों की खातिर भक्तवत्सल भगवान द्वारा अभिनीत होता है।
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
यह पंक्ति स्पष्ट करती है कि रावण-वध तक सीता जी अग्नि-प्रवेश कर, सीता जी का दिव्य रूप अग्नि में सुरक्षित रहा, और उनके स्थान पर माया सीता जी लंका गईं।अतः वास्तविक वियोग कभी हुआ ही नहीं।
शक्तिमान से शक्ति कभी अलग नहीं हो सकती। जैसे सूर्य से सूर्य की किरण अलग नहीं होती।वैसे ही सीताजी कभी रामजी से अलग नहीं हो सकतीं।
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥
हे पार्वती स्वयं लक्ष्मणजी भी भगवान की इस गूढ़ लीला को नहीं समझ सके,फिर सामान्य जनों का तो कहना ही क्या।
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
भगवान के चरित्रों के रहस्य कौन जान सकता है? वही कुछ जान सकता है जिसे वे कृपा करके बता दें– बाल्मीक जी से जब राम जी ने रहने का स्थान पूछा तब बाल्मीक जी ने कहा
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन।।
बाल्मीक जी ने कहा हे रामचन्द्रजी! आप के चरित्र को सुन कर मूर्ख मोहित होते हैं और ज्ञानवान प्रसन्न होते हैं। आप जो कहते और करते हैं वह सब सत्य है, क्योंकि जैसी कछनी का? वैसी नाच नाचना चाहिये। जैसा स्वांग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिये। (इस समय आप मनुष्य रूप में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही हैं)
तुम्ह जो कहहु करहु सब साँचा । जस काछिय तस चाहिय नाचा॥
सरल,हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥