सरल,दुनिया में जो देव पुजे है सभी पुजे है प्रभाव से।
भगवान राम का स्वभाव सहज और सरल है। ऐसा स्वभाव जिस भक्त का होता है उस भक्त को भगवान तुरंत अपना बना लेते हैं अर्थात अपनी शरण में ले लेते हैं। जिसको रामजी अपना बना लेते हैं अगर वह रामजी और रामजी के कार्य को भूल भी जाए तब भी अपनाए हुए का रामजी त्याग नहीं करते हैं।(सूत्र) भगवान का मिलना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन हमारा सरल होना है अतः हम सरल होते नहीं इसका परिणाम यह कि भगवान हमको मिलते नहीं। भगवान ने स्वयं कहा (सहज=प्राकृत, स्वाभाविक,जो वास्तव रूप है) भगवान राम का स्वभाव सहज और सरल है।
लेकिन मेरे राम पुजे है अपने सरल स्वाभाव से।।
प्रभु ने स्वयं कहाहै!(अनूप=उपमारहित, अतिसुंदर)
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पावहि निज सहज सरूपा।।
(सूत्र) सहज
स्वरूप जीव का क्या है? माया रहित सरूप ही जीव का सहज सरूप है। सहज सरूप के प्राप्ति
के समान और किसी पदार्थ की प्राप्ति नहीं है। अतः इसको अनूपा कहा! सहज स्वरूप की प्राप्ति ही (कैवल्य=
मोक्ष,मुक्ति) पद है। राम जी ने स्वयं कहा है यह मेरे दर्शन का फल है। मेरे साक्षात्कार
के बिना मुक्ति नहीं होती। मेरा दर्शन (साक्षात्कार) परम अनूप है। जो मेरा स्वरूप ही
बना देता है।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥
इसी लिए तो
बाबा तुलसी ने इस संसार की सुन्दर व्याख्या की है।
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
(सूत्र) ऐसा
भाव जिस किसी साधक का है उसको कोई और साधन करने की जरूरत नहीं है। पर माया में लिप्त
होने से जीव का सहज सरूप नहीं रहता।और फिर यह माया जीव से पूरे जीवन भर किसी न किसी रूप में लिपटी ही रहती है।
मेघ मण्डल का जल पवित्र होता है पर पृथ्वी का (संसर्ग=संयोग) होते ही गन्दा हो जाता है, इसी तरह जीव का यहाँ संसार आते ही माया उसे लपेट लेती है और गंदा और अपवित्र बना देती है।
ऐसा ही गुणों का हाल है। सत, रज और तम तीनों ही गुण नीचे आने पर अशुद्ध हो जाते हैं, उनमें विषमता आ जाती है।लैम्प की चिमनी (शीशा) पर जब धूल व कालोच
चढ़ जाती है तब वह पूरा प्रकाश नहीं देती ,उस प्रकाश में धुंधलापन होता है। इसी प्रकार स्थूल मल सत, रज और तम गुणों के प्रभाव को दबा देते हैं, उनकी करैण्ट (शक्ति) ठीक ठीक प्रवाहित नहीं हो पाती और वे जीव के पतन का कारण बन जाते हैं।
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
मायाबस स्वरुप
बिसरायो। तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो ॥
प्रभु दर्शन
किस प्रकार होता है और जीव का सहज स्वरूप कैसा है? वेद रीति यह कहती है कि करोड़ों
कल्पों तक ज़प, तप, होम, योग, यज्ञ और ब्रह्म ज्ञान में रत रहे तब अन्तरबाहर शुद्ध
होकर भक्ति प्राप्त होती हे,तब दर्शन होते हेँ। यह साधन साध्य (क्रियासाध्य रीति) है। (सूत्र)
पर इस साधन में कोई निश्चित नहीं कि प्रभु की प्राप्ति या दर्शन होगे ही।
पर प्रभु
के दर्शन केवल और केवल कृपा साध्य रीति से होता है! क्योकि प्रभु ने स्वयं कहाहै! (अघ=अपवित्र,पापी,पाप)(कोटि=करोड़)
सन्मुख होय जीव मोय जबहीं। कोटि जन्म अघ नासों तबहीं।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
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