जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ।
राम जी नारद से हे मुनि! यहाँ प्रभु ने अपना स्वभाव अपने मुख से कहा है कि मैं भक्त से कभी भी दुराव नहीं करता, हे मुनि तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो।भाव यह कि मैं अपने और भक्त के बीच में कोई पर्दा नहीं रखता, मेरा जो कुछ भी है। वह सब का सब बिना रोक टोक के उसका ही है। मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है, जिसे हे मुनि तुम नहीं माँग सकते? (दुराऊ= छिपाना) (जन= अनन्य दास, भक्त) (अदेय= न देने योग्य)
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥
इसी तरह विभीषणजी से भी रामजी ने अपना स्वभाव कहा है।
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।।
पर जीव शरण में किस तरह से आये? उसका तरीका भी रामजी ने स्वयं बताया है।
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
श्रीराम कहते हैं (जननी=माता) (जनक=पिता) (बंधु=भाई) (सुत=पुत्र) (दारा= स्त्री) (तनु=शरीर) (धनु=धन) (भवन=घर) (सुह्रद=मित्र) और (परिवारा= परिवार) इन दस बातों को मुझ से जोड़ दो। सब के ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बांध देता है यानी सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है, अर्थात मेरे प्रति पूर्ण रूप से समर्पित है। जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है। ऐसे भक्त मेरे हृदय में बसते है,जिस
प्रकार लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम–सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। (सूत्र) भगवान का सीधा संदेश है कि मेरे लिए कुछ छोडऩे की जरूरत नहीं है, और तुमसे कुछ छूट भी नहीं सकता अतः श्रीराम कहते हैं जरूरत है तो केवल और केवल मुझ से जुडऩे की।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
अतः में दुष्टों को मारने के लिए जन्म नहीं लेता में तो तुम्हारे जैसे संतो के लिए ही जन्म लेता हूँ।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी।।
भरतजी, शंकरजी ने भी रामजी का कुछ न कुछ स्वभाव कहा हैं।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
रामजी ने केवल अपने प्रेमी जनों से ही नहीं अपितु शत्रु से भी अच्छा व्यवहार किया युद्ध करने से पहले रामजी ने रावण को समझने का बहुत प्रयास किया की सीता को छोड़ दो हम युद्ध करना नहीं चाहते हनुमान, अंगद, विभीषण ने भी समझाने का प्रयास किया पर रावण ने किसी की बात नहीं मानी मेरे राघव का स्वाभाव तो देखिये कि युद्ध भूमि में राम जी ने रावण को प्रणाम किया क्योंकि रावण कैसा भी हैं पर भगवान शिव का भक्त हैं, ब्राह्मण है,वेदज्ञ है,और शंकर भगवान तो रामजी की आत्मा है। (सूत्र) ऐसा स्वभाव तो केवल और केवल रामजी का ही हो सकता है इसी कारण मर्यादा पुर्षोत्तम कहलाये।
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