सरल,गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥
रामचन्द्रजी ने मुनि से आज्ञा माँगी समस्त जगत के स्वामी राम सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की-सी चाल से स्वाभाविक ही चले।गुरुपद वंदन में अनुराग होना आवश्यक है,अनुराग न होना दोष है! श्रीरामजी ने गुरुजी की आज्ञा सुनकर उनको प्रणाम किया ही था और अब पुनः गुरुपद वंदन करते हैं, इससे उनके हृदय का अनुराग प्रगट दिख रहा है। बारम्बार प्रणाम करना अनुराग का सूचक है। गुरु को प्रणाम किया इससे गुरु का मान रखा और मुनियों से आज्ञा माँगकर उनका मान रखा।बड़ों से आज्ञा लेना नीति है ओर भगवान नीति के बड़े पोषक हैं- (मत्त=मस्त) (मंजु=सुंदर,मनोहर) ( कुंजर=हाथी,हस्त नक्षत्र,पीपल)
तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा।हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।
रामजी ने गुरु के चरणों में सिर नवाया राम जी को हर्ष विषाद कुछ भी नहीं हुआ क्योकि वे हर्ष विषाद रहित है। संतो का मत हर्ष और विषाद कुछ ना हुआ क्योकि पुराने धनुष को तोड़ने में कोई वीरता नहीं हर्ष विषाद तो जीव के धर्म है और श्री राम जी ब्रह्म है अतः हर्ष विषाद कैसा? राजा लोग जब दनुष तोड़ने चले तब अपने अपने इष्टदेव को सिर नवाकर चले इसी तरह रामजी गुरु को प्रणाम करके चले इससे जनाया की हमारे गुरु ही इष्टदेव है। दूसरा भाव गुरु के वचन सुनकर गुरु चरणों में सिर नवाने का भाव कि आपकी आज्ञा का प्रतिपालन मेरे परूषार्थ से नहीं केवल और केवल आपके चरणों की ही कृपा से होगा।
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।।
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
अर्थात धनुष टूटने पर रामजी को हर्ष विषाद कुछ न हुआ क्योंकि जीर्ण धनुष के तोड़ने में कोई वीरता नहीं है! हानि लाभ से ही विषाद और हर्ष होता है।जब इसके तोड़ने से श्री रामजी को न कुछ लाभ है न हानि तब हर्ष या विषाद क्यों होता। हर्ष विषाद जीव के धर्म है! हर्ष,शोक, ज्ञान, अज्ञान,(अहंता=अभिमान) ये सब जीव के धर्म हैं।
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥
राम तो व्यापक ब्रह्म, परमानंदस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है। अतः उनके मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ इसके प्रतिकूल सीता, सुनयना को पहले विषाद हुआ फिर धनुष टूटने पर हर्ष हुआ!
सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।।
मूर्ख सुख के समय खुश और दुख की घड़ी में रोते बिलखते हैं, जबकि धैर्यवान व्यक्ति दोनों समय में मन में समान रहते हैं।
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।
सहज स्वभाव से उठकर खडे हुए पर उस उठने के तरीके को देखकर जैसे युवा सिंह लज्जित हो जाय। (मृगराजु=शेर, सिंह) (महिपाल=राजा) (पंकज नाल=कमल की डंडी) (परेस=उच्चतम भगवान ब्रह्मा, भगवान राम, प्रभुओं के प्रभु का एक अन्य नाम होता है) (परात्पर=सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि) (अहमिति= अपने आपको औरों से बहुत अधिक योग्य, समर्थ या बढ़कर समझना)