मोहि सम यह अनुभयउ
गुरु संत की महिमा- नारायण दास नाभा जी कहते है भगवान, भगवान का भक्त, भक्ति, और गुरु–कहने को तो ये चार है, किन्तु वास्तव में इनका स्वरूप एक ही है।इनके चरणों में नमस्कार करने से समस्त विध्नों का नाश हो जाता है। 2– जैसे गाय के थन देखने में चार है, लेकिन चारो थनों में एक ही समान दूध भरा रहता है, वैसे ही भक्त, भक्ति, भगवान और गुरु ये चारों अलग अलग दिखायी देने पर भी सर्वदा (सर्वथा=हर तरह से) अभिन्न है।चारो में किसी से एक से प्रेम हो जाने पर तीनों स्वत: प्राप्त हो जाते है। 3–जैसे
माला में चार वस्तुएँ मुख्य होती है– मनका, धागा, सुमेरू और गुच्छा वैसे ही भक्त जन मनका है, भक्ति है सूत्र (धागा) और जो सुमेरू होता है वे गुरुदेव और सुमेरू जो गाँठ रूपी गुच्छा वह भगवान है जैसे माला में चार वस्तुएँ मुख्य होती है–ये चारों नाम और स्वरूप अलग अलग दिखते हैं अर्थात् इनके पृथक्–पृथक् चार नाम हैं और पृथक पृथक चार शरीर भी हैं। परन्तु वस्तुतः ये एक ही हैं, अर्थात् एक–दूसरे से अभिन्न हैं, या ऐसा कहे एक परमेश्वर ही चार रूपों में हमें दिख रहे हैं। इनके श्रीचरणों का वन्दन करने से अनेक विघ्न नष्ट हो जाते हैं। इसलिये मैं नारायणदास नाभा इन चारों के श्रीचरण कमलों का वन्दन कर रहा हूँ (बपु=रूप, अवतार,देह,शरीर)
भक्त भक्ति भगवंत गुरु,चतुर नाम बपु एक।
इनके पद बंदन किएँ, नासत विध्न अनेक ।।
कबीर जी गुरु महिमा का तुलनात्मक वर्णन करते हुए कहा है कि ये पूरी धरती एक कोरे कागज के समान है, और जंगल की सारी लकड़ियां कलम हैं। सातों समुद्र का जल स्याही है लेकिन इन सब को मिलाकर भी ये गुरु की महिमा नहीं लिखी जा सकती अतः गुरु की महिमा को शब्दों में पिरो कर उसका वर्णन करना असंभव ही है। (बनराय=वनराज,जंगल) (मसि=स्याही)
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
चकोर चंद्रकिरणों पीकर जीवित रहता है। चकोर चंद्रमाका (एकांत= अकेला) प्रेमी है और रात भर उसी को एकटक देखा करता है। अँधेरी रातों में चद्रमा और उसकी किरणों के अभाव में वह अंगारों को चंद्रकिरण समझकर चुगता है।चंद्रमा के प्रति उसकी इस प्रसिद्ध मान्यता के आधार पर कवियों द्वारा प्राचीन काल से,अनन्य प्रेम और निष्ठा के उदाहरण स्वरूप चकोर संबंधी उक्तियाँ बराबर की गई हैं। गुरु मूरति मुख चंद्रमा – गुरु की मूर्ति जैसे चन्द्रमा,और सेवक नैन चकोर – शिष्य के नेत्र जैसे चकोर पक्षी।चकोर पक्षी चन्द्रमा को निरंतर निहारता रहता है, वैसे ही हमें,गुरु मूरति की ओर, गुरु ध्यान में और गुरु भक्ति में, आठो पहर रत रहना चाहिए। (निरखत, निरखना= ध्यान से देखना)
गुरु मूर्ति मुख चंद्रमा, सेवक नैन चकोर।
अष्ट पहर निरख़तरहूँ, मैं गुरु चरनन की ओर।।
जो मनुष्य, गुरु की आज्ञा नहीं मानता है, और गलत मार्ग पर चलता है,वह, लोक और वेद दोनों से ही, पतित हो जाता है , वेद अर्थात धर्म दुख और कष्टों से, घिरा रहता है।
गुरु आज्ञा मानै नहीं,चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गए,आए सिर पर काल॥
जो व्यक्ति सतगुरु की शरण छोड़कर और उनके बताये मार्ग पर न चलकर, अन्य बातो में विश्वास करता है, उसे जीवन में दुखो का सामना करना पड़ता है और उसे नरक में भी जगह नहीं मिलती।
गुरु शरणगति छाडि के,करै भरोसा और।
सुख संपती को कह चली,नहीं नरक में ठौर॥
कबीर ते नर अन्ध हैं,गुरु को कहते और।
हरि के रुठे ठौर है,गुरु रुठे नहिं ठौर॥
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।।
विधाता ने इस जड़ चेतन विश्व को गुण दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं। (सूत्र) विषय-विकार रुपी वारि का त्याग कर ईश्व रीय गुन रुपी दूध ही जिसका जीवन हो गया हो, वे संत हंस कहलाते है! जैसे मछली को जल से बाहर निकाल कर रखे तो क्या वो जीवित रहेगी? इसी प्रकार हंस वे संत है जो ईस्वरीय गुन के विपरीत जीवत नहीं रह सकते! इस ऊंचाई पर साधना के पहुंचने पर आनंद ही आनंद है मस्ती ही मस्ती है! (पय=दूध) (परिहरि= त्यागकर) (विकार= दोष) (करतार= सृजन करनेवाला, सृष्टिकर्ता,परमेश्वर) (बारि = जल)
जड़ चेतन गुन दोषमय, बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार॥
संत शिरोमणि तुलसीदास जी राम जी के अनन्य सेवक ने हनुमान चालीसा के अंत में हनुमान जी से मांगा तो क्या माँगा– जैसे गुरु अपने शिष्य पर कृपा करता
है वैसी कृपा कर दो क्योकि इस जगत में सर्व श्रेष्ठ कृपा गुरु की शिष्य पर है।
जय–जय हनुमान गोसाई। कृपा करहुगुरुदेव की नाई ॥
हनुमान चालीसा की शुरुवात भी गुरु वंदना से होती है।
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।
बरनौ रघुवर बिमल जसु, जो दायक फल चारि ॥
गरुड़ जी किसी ने भी भुसुंडि जी से कहा– यदि किसी के पास ब्रह्माजी और शिवजी जैसा ज्ञान और शक्ति भी हो तो भी यदि गुरु का सान्निध्य नहीं है तो इस भवनिधि,संसार–सागर से तरना असम्भव है। (बिरंचि=ब्रह्माजी)
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
स्वयं परम ब्रह्म श्रीराम जी को देख लीजिए कि जिनके चरण कमलों की प्राप्ति हेतु बड़े बड़े योगी वैरागी विविध प्रकार के जप, योग आदि करते हैं वही प्रभु दोनों भाई गुरु विस्वामित्र के पद कमलों पर लोट पोट हो रहे है। (सरोरूह=कमल) (लागी=कारण, हेतु,निमित्त,लिए)
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरनसरोरूह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।गुरु पद कमल पलोटत प्रीते।।
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा॥
प्रात काल उठि कै रघुनाथा । मात पिता गुरु नावइँ माथा॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई।।
यह सब भगवान ने किया।वही सब भगवान ने स्वयं विभीषण से कहा–
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
वही भगवान ने स्वयं लंका विजय के बाद अपने सभी सखा से कहा–
गुरु वशिष्ठ कुल पूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥
राजा दशरथ तो पूर्व जन्म में मनु और शतरूपा थे जब भगवान का पुत्र रूप में प्राप्त होना पहले से तय था तब दशरथ जी चौथे पन तक निसंतान रहने का मुख्य कारण दशरथ जी संतान की लालसा से कभी गुरु के पास गए ही नहीं।
एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
और जब गुरूजी के पास गए तो वसिष्ठ जी ने कहा-
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥
वही तो महाराज दशरथ ने कहा–
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।
गुरुपद–प्रीति प्रश्न यह है अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति सांसारिक उपायों का आश्रय ले, जैसा कि अधिकांश व्यक्ति लेते हैं या अपूर्णता की अनुभूति होने पर गुरु का आश्रय लें। महाराज श्री दशरथ इस स्थिति में आ गए हैं कि जिसमें
उन्होंने अभाव की पूर्ति के लिए गुरुजी का आश्रय लिया साधक अगर गुरु के पास सांसारिक कामनाओं को लेकर जाय और गुरु केवल उसकी उन कामनाओं को ही पूर्ण कर देतो यह गुरु का गुरुत्व नहीं है। अपितु गुरु का गुरुत्व यह है कि वह सांसारिक कामनाओं की पूर्ति करके साधक के अन्तःकरण में ईश्वर के प्रति अनुरागउत्पन्न कर दे। वही कार्य हनुमान जैसेदास या संत की कृपा से संभव है!
दुर्गम काज जगतके जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।