देह धरे कर यह फलु भाई।
रामचंद्रजी ने स्वयं कहा – मनुष्य को जो देह से प्यार है उसमे कोई सा भी ऐसा आइटम नहीं है जो रखा जा सके आत्मा निकलने के बाद दो दिन में शरीर सड़ जाता है इस देह की तीन ही परिणाम है या तो जलना, दफ़न, या पानी में बहाना चाहे कोई भी हो इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता हमसे तो अच्छे पशु है जो खाते है भूसा और देते है गोबर जो घर लीपने के काम और पूजा के पहले गोबर की जरूरत पड़ती है! फिर भी भगवान ने स्वयं कहा है रामजी अपने मन से कोई बात नहीं कहते संत पुराण एवं ग्रथ का आधार लेकर कहते है।
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।
शेष सभी शरीर भोग केलिये है दिव्य तन वाले देवता भी भोगी ही होते है ! तो हीन शरीर वालो मनुष्य की कौन बात? हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पड़े हैं। जो सब में रमा हुआ है वो राम है जो सबके चित्त को आकर्षित करता वह है वह कृष्ण और जो सबकी उपासना आराधना का केंद्र है वह राधा है! हितेषियों में सबसे पहला कोई हितेषी है तो वह है गुरु! गुरु देव वह है जो सब में रमा है सभी के चित्त को आकर्षित करता है और सभी की आराधना का केंद्र है वही उपास्य देव बनकर अपने में रमाने के लिए वही है गुरुदेव। यथाः (भवभीति= जन्म-मरण का भय, संसृति (संसार) का भय, सांसारिक भय)
तुलसी दासजी की पत्नी ने तुलसी दास से कहा
हाड़ मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि मनुष्य बड़ा या छोटा नहीं होता समय ही बलवान होता है । जब अर्जुन ने अपने गांडीव बाण से महाभारत का युद्ध जीता था पर एक ऐसा भी समय आया जब वही भीलों के हाथों लुट गए और वह अपनी गोपियों को भीलों के आक्रमण से नहीं बचा पाए।
तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण|।।
तुलसीदासजी कहते हैं राम जी केवल और केवल भक्तो,गाय के लिये ही अवतार लेते है।
राम भगत हित नर तनु धारी । सहि संकट किए साधु सुखारी ।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप॥
रामजी ने विभीषण से कहा भी
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।
बिभीषन ने रावण से स्वयं कहा-(जन=सेवक, सर्वसाधारण लोग,मनुष्य समूह) (रंजन=प्रसन्न करना, मन प्रसन्न करनेवाला) (भंजन=मिटाने वाला, नष्ट करने वाला) (ब्राता= समूह)
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥
राम जी ने दिव्य ज्ञान तारा को दिया।
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले- (अपबर्ग=मोक्ष)
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥
के आधार पर भुशुण्डि जी को अपनी देह अतः कौवे को श्रेष्ठ बताना चाहिए, पर भुशुण्डि जी जैसा महा ज्ञानी जो 27 कल्पो से बैठ कर राम कथा कर रहे है।भुशुण्डि जी ने राम जी के 27 अवतार देखे है। यथाः
कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
भुशुण्डि बता रहे है सब से दुर्लभ कौन सरीरा॥
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।।
क्योकि केवल और केवल इसी शरीर से माला, जप, दान, कथा, परहित, सेवा, चार धाम की यात्रा संभव है ! मनुष्य शरीर ही बैकुंठ के दरवाज़े की चाबी है मनुष्य शरीर ही एक मात्र साधन है।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
के आधार पर भुशुण्डि जी कह रहे है की बाकी सभी योनि भोग योनि है। जो आगे कर के आये है वही भोग रहे है केवल और केवल नर तन ही कुछ कर सकता है! भगवान भी मनुष्य अवतार ले कर आये। पर महराज यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है की भगवान इस पृथ्वी पर मनुष्य रूप लेकर आये और इंसान भगवान बनने का प्रयास कर रहा है। मनुष्य शरीर क्यों कीमती है? क्योकि शरीर यह एक सीडी है नर्क, स्वर्ग, अपवर्ग (मोक्ष) की, मनुष्य का शरीर एक जंक्शन है यहाँ से तीन रास्ते जाते है यह तो हम आपको तय करना है कौन सी ट्रैन पकडे।(चराचर=जड़ और चेतन, स्थावर और जंगम,संसार, संसार के सभी प्राणी)
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
सुग्रीव ने अंगद, नल, हनुमान से कहा
लक्ष्मण जी ने निषाद से कहा वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनकी कथा सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं।
भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु, सुनत मिटहिं जग जाल॥
कबीर देह धारण करने का दंड– भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है. अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए दुखी मन से सब कुछ झेलता है।