प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।
हनुमान जी ने अपना विप्र रूप का वेष रखकर राम जी से पूछा– हे सावले और गौर शरीर वाले वीर! तुम कौन हो, और किस कारण क्षत्रिय रूप से वन मे विचरण कर रहे हो। इस वन की भूमि बड़ी कठोर है बिना पादत्राण अर्थात नंगे पैर काटे कंकड़ भरे मार्ग में विचरण करने वालों के पद भी कठोर हो जाते है, पर तुम्हारे चरण अत्यंत कोमल है। दूसरे आपके चरण जहाँ जहाँ पड़ते है वह भूमि भी कोमल हो जाती है यह अलौकिक गुण कोई साधारण मानव में नहीं होता, इससे आपका ऐश्वर्य झलक रहा हैअतः हनुमान जी रामजी को देव बुद्धि से स्वामी कहते है और पूछते है कि आप है कौन?
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ।।
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा।।
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी।।
हनुमान जी जब भी रूप बदलते है तब ब्राह्मण का ही रूप धारण करते है रामजी से विप्र रूप से मिले, विमीषण जी और भरतजी,से भी विप्र रूप से ही मिले।
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥
हनुमान जी भक्त शिरोमणि है और भक्त हृदय में प्रभु की ऐसी प्रेरणा होती है कि झूठे वचन निकलते ही नहीं है। अतः हनुमान जी अपना विप्रत्व भूल गए हनुमान जी में दास भाव जाग गया अतः रामजी को स्वामी कहा
मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता।।
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ।।
हनुमान जी जिन चरणों का ध्यान करते है उन्ही चरणों को देखकर पूछा, पुनः मनोहर सुन्दर शरीर देखकर पूछते है। आपका शरीर वन की भयानक लू और धूप सहने के योग्य नहीं है। पर फिर भी सुन्दर हो यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। ऐसा कौन सा कारण है कि आप वन में जेठ मास की भयंकर लू और धूप सहन करते हुए भी बिना छाता जूता के इस निर्जन वन मे घूम रहे हो? आप सामान्य देवता भी नहीं हो। (आतप= गरमी ,धूप) (बाता= वात= हवा, वायु) (दुसह= अत्यंत कष्टदायक)
रामजी ने संक्षेप में हनुमान जी से कहा
कोसलेस दसरथ के जाए।हम पितु बचन मानि बन आए॥
नाम राम लछिमन दौउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई।।
इहाँ हरि निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही।।
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।।
श्री रामजी ने हनुमान जी को अपनी अरण्यकाण्ड तक की यात्रा का दर्शन कराया अर्थात पूरी कथा कह दी।
कोसलेस दसरथ के जाए। कहकर बालकाण्ड की कथा कही।
हम पितु बचन मानि बन आए।
नाम राम लछिमन दौउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई।।
कहकर अयोध्या काण्ड की कथा कही।
इहाँ हरि निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही।।
कहकर अरण्यकाण्ड को कथा कही
जैसे ही रामजी ने कहा
इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥
तब हनुमान जी ने पहिचाना लिया।
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।।
रामजी ने कहा महाराज हम पर तो विपत्ति पड़ी इस कारण जंगल छान रहे है पर हे विप्र तुमको ऐसी कौन सी समस्या है जिसके कारण इस भयानक जंगल में घूम रहे हो।
हनुमान जी ने कैसे पहचाना?
पृथ्वी और देवताओ की करुण पुकार से आकाशवाणी हुई थी, नारदजी ने भगवान को श्राप दिया था,और अब जो रामजी ने जो अपनी कथा सुनाई इन सभी का मिलान करके हनुमान जी ने रामजी को पहिचान लिया।
आकाशवाणी क्या है?
कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥
तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
और नारद का श्राप क्या है? (अपकार= अहित, अमंगल, अनिष्ट)
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।।
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।।
वही भगवान यहाँ कहते है।
कोसलेस दसरथ के जाए । हम पितु बचन मानि बन आए।।
हनुमान जी ने ये सब बातें श्री राम में देखी नृप तन धारण किए हैं,नारि-विरह से दुखी है।और सुग्रीव के यहाँ आये है, अब वानर सहायता करेंगे, हनुमान जी शिवरूप से वहाँ थे जहाँ आकाशवाणी हुई थी।
अर्थात कौशलपुरी में राजा दसरथ के यहाँ अवतार लेंगे वही यहाँ कहते है पुनः भगवान ने अपने मुख से कहकर अपना चरित गाकर जनाया है इसी से हनुमान जी ने पहचान लिया। जिस व्यक्ति का राज्य चला गया, पत्नी का हरण हो गया ,वन में मारे मारे घूम रहा हो और मुख पर कोई दुख का भाव नहीं हो और तो और सभी घटना को गा कर सुना रहा हो वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो सकता ये केवल और केवल राम ही है।
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।।
अतः हनुमान जी ने पहिचान लिया।
दूसरा करण-अभी तक प्रभु के ना पहिचाने का कारण माया के बस भूले रहे इससे नहीं पहिचाना।प्रभु की वाणी सुनने से माया निवृत्त हुई तब पहिचाना। हनुमान जी महान उच्च कोटि के साधक भी हैं। वीर योद्धा व अखण्ड तपस्वी हैं। (सूत्र) लेकिन उनकी दीनता तो देखिए वे बड़े बुलंद स्वर में श्रीराम जी से पहली ही भेंट में स्वीकार कर लेते हैं कि हे प्रभु! मैं तो मंद, मोह बस, कुटिल व अज्ञानी हूँ। माया के वशीभूत हूँ, जिस कारण आपको पहचाना नहीं− यथा
तव माया बस फिरउँ भुलाना। ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना।।
जिन हनुमान जी के भजन सुमिरण से समस्त जीवों के तीनों ताप हरे जाते हैं। वे हनुमान जी कह रहे हैं कि हे प्रभु! मैं आपकी दुहाई देकर कहता हूँ।
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।।
जब तक प्रभु को नहीं पहिचाना था तब हनुमान जी ने माथा नवाकर प्रश्न किया था, और जब भगवान को पहिचान लिया तब चरणों में गिर पड़े।
कोई व्यक्ति भगवान को कब जान सकता है? जब भगवान स्वयं कृपा करके किसी को जनाना चाहें तभी वह जान सकता। (सूत्र) इस लिए व्यक्ति को इस भ्रम में कभी नहीं रहना चाहिए कि हम सब कुछ जानते है पल भर में नारद जैसे ज्ञानी को मूढ़ बनने वाले भी कोईऔर नहीं राम जी ही है।
शंकर जी ने हम सभी को बड़ा ही सुन्दर (सूत्र) दिया।
बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
(सूत्र) भगवान जब स्वयं कृपा करके किसी को बताना चाहे तभी वह जान सकता है! जब भगवान अपनी इच्छा, वचन वा हास्य से योग माया का आवरण हटाते है। तभी जीव उसको पहचान सकता है अन्यथा नहीं (सूत्र) जीव के प्रयत्न, साधन से या विचार शक्ति से माया का आवरण कभी नहीं हटता है। सुग्रीव जी ने कहा जीव के प्रयत्नों से या विचार शक्ति से माया का आवरण कभी भी नहीं हटता।
अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।
जब पहचान में संदेह नहीं रह तब
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥
जिस परानन्द का अनुभव करके हनुमानजी मग्न हो गये हैं वह वही जाने जिसे वह प्राप्त हुआ हो, शिवजी ही जब नहीं कह सकते तब दूसरा कौन कह सकता है? हनुमानजी बोल नहीं सकते हैं। प्रभु के प्रश्न का उत्तर तो हनुमानजी ‘परेउ गहि चरना’ से दे रहे हैं।