ता पर मैं रघुबीर दोहाई।
श्री हनुमान जी में भक्ति के सारे गुण है पर फिर भी अपने को गुण हीन कह रहे है वे कार्पण्य शरणागति की रीति से प्रभु श्री राम की स्तुति करते है जो भक्ति का परम आवश्यक अंग है (कार्पण्य=दीन भाव, दैन्यभाव) भगवान को सब कुछ समर्पित कर भी यह भाव रखना कि हमने कुछ भी समर्पित नहीं किया,कार्पण्य या दैन्यभाव कहलाता है। हनुमान जी अपनी अत्यंत दीनता और मन, कर्म, वचन से सरनागति दिखा रहे है। एक का अर्थ “प्रधान “वा “शिरोमणि” है अर्थात में मंदबुद्धि, मोहबस, और कुटिलो का शिरोमणि हूँ। (असोच= जिसे चिंता न हो, चिंतारहित) (शिरोमणि= प्रधान, मान्य और श्रेष्ठ व्यक्ति) (कार्पण्य= दीन भाव ,दैन्यभाव )
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥
(सूत्र) अपने को मतिमंद मानने वाला ही बुद्धि मान है और अपने को बुद्धि मान मानने वाला ही सबसे बड़ा मति मंद है श्री हनुमान जी मति मंद नहीं है ये तो हमारे संतों की महानता है कि अपने को कुटिल, खल, कामी मानते है हनुमान जी संत है।
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।
हे प्रभु दीनों के कष्ट निवारण करने में आप समर्थ है और दीनों की दीनता दूर करने में आप ऐश्वर्यवान है आप कृपालु और सर्व समर्थ होकर भी आपने हमको भुला दिया हे नाथ मेरे में तो उपरोक्त सभी अवगुण तो है लेकिन हे प्रभु आप ही भूल गए मेरा तो बेडा ही गर्त हो गया (सूत्र )सच्चे भक्त की केवल और केवल एक ही इच्छा होती है की उसका ठाकुर उसको भूले नहीं। (बिसारना= भुला देना)
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
हे नाथ।यदपि मुझ में बहुत अवगुण है,फिर भी सेवक को प्रभु भूलते नहीं है।
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥
इस पर भी हे रघुबीर! आपकी शपथ करके कहता हूँ कि मैं कुछ भी भजन का उपाय नहीं जानता।’जानो नहिं कछु भजन उपाई’ कहने का भाव कि माया मोहित जीव का भवसागर को पार करना दो तरह से है। एक तो आपके छोह से, दूसरे आपके भजन से।अतः में भजन का उपाय भी नहीं जानता, प्रभु भवसागर का निस्तार तो केवल और केवल प्रभु आपकी कृपा से ही होगा। माया से तरना केवल और केवल कृपा साध्य है,क्रिया साध्य नहीं। (तरना= भवसागर को पार करना) (छोह= प्रेम,स्नेह) (निस्तार= छुटकारा, उद्धार) (छोह= प्रेम, स्नेह,कृपा)
भजन उपाई॥ भजन का उपाय अर्थात साधन। ‘कछु’ का भाव कि भजन थोड़ा भी हो तो भी माया कुछ नहीं कर सकती, यथाः
भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥
हे प्रभु सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का और माता को अपने बच्चे का पालन-पोषण और सुरक्षा करनी ही पड़ती है।
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥
प्रभु आपने भी तो यही कहा है।
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी।।
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि एक भगवान का ही भरोसा, भगवान को पाने की ही आस और परम मंगलमय भगवान ही हमारे हितकारी हैं, ऐसा विश्वास हमें निर्दुःख, निश्चिंत, निर्भीक बना देता है। जगत का भरोसा, जगत की आस, जगत का विश्वास हमें जगत में उलझा देता है। (असोच= जिसे चिंता न हो, चिंतारहित) (पोसना= पालना, रक्षा करना ) (सहरोसा= प्रसन्नतापूर्वक, खुशी से )
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास।।
चातक दुनिया में एक ऐसा पक्षी है, जिसकी प्यास झील, नदी या तालाब के पानी से नहीं बुझती है, बल्कि उसकी प्यास बारिश की पहली बूंदों से बुझती है! जगत में जितने भी प्राणी है उन्हें जिंदा रहने के लिए खाना और पानी दोनो चाहिए, इनके बगैर किसी का जिंदा रहना नामुमकिन है.भले ही कुछ जीव पानी की कम मात्रा पीकर ही जिंदा रहते हैं लेकिन सबको पानी चाहिए ही चाहिए.लेकिन दुनिया में एक चातक ऐसा पक्षी है, जो सिर्फ और सिर्फ बारिश का ही पानी पीकर जिन्दा रहता है. अनोखा पक्षी है इस पक्षी को आप कटोरे में पानी दे देंगे, तब भी यह पानी नहीं पिएगा।
तुलसी भरोसे राम के निर्भय होके सोये।
अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होये।।
यह प्रपन्न-शरणागति का लक्षण है। इसमें दो भेद हैं।एक पुरुषार्थ -युक्त, दूसरा पुरुषार्थ-हीन अतः दोनों के उदाहरण देते हैं।सेवक में कुछ पुरुषार्थ है, हम छोटे वालक के समान पुरुषार्थ हीन हैं। केवल आप ही के भरोसे है। यही शरणागति श्री राम जी ने नारद जी से कही हे! हमारे शरीर और मन के स्वस्थ पर ‘आस्था ‘ का प्रभाव पड़ता है (सूत्र) इसका विश्लेषण चिकित्सको ने किया है ऐसा अनेक अध्यनो में सामने आया है! अस्पतालों में प्राण लेवा रोगो से झूलते हुए मरीजों पर प्रयोग किया गया भगवान में विस्वास करने वाले और उनकी सत्ता को नकारने वालों दोनों के एक से उपचार हुए। अंत में देखा गया की नास्तिको के स्वस्थ में दवाइयों से मामूली सुधर हुआ पर आस्तिक रोगी ना केवल रोग मुक्त हुए बल्कि उनकी प्रतिरोधक छमता भी बढ़ गई। हनुमानजी भक्तों में आदर्श हैं, इनमें भक्ति के सब अंग है ,पर फिर भी भगवान कीअपेक्षा में उन्हें कुछ न गिनते हुए वे कार्पण्य-शरणा गति की रीतिसे स्तुति कर रहे हैं,जो भक्ति का परम आवश्यक अंग है। हनुमानजी कहते हैं शाखामृग का भाव यह कि मे तो शाखा पर रहने वाला पशु हूँ। एक डाल पर से दूसरे पर उछल जाऊ और डाल न चूके।इतनी ही मेरी बहादुरी है। यह सामर्थ अन्य किसी पशु मे नहीं है।अत यह मेरी जाति की प्रभुताई है।समुद्र लांघना (ग्राहदि=मगर,घड़ियाल) से भी (अशक्य=जो न हो सके, असाध्य) है। (हाटक=सोना) का जलाना स्वर्णकार से भी अशक्य है। निशिचरों को मारना देवताओं से भी अशक्य हैऔर अशोक वन उजाडना इन्द्र से भी अशक्य है। इन सब कामो को मैंने किया तो क्या इनमे मेरी प्रभुता थी? यह सब सरकार की प्रभुता ने किया।यह कह कर हनुमानजी ने बुद्धि में इन्द्रादिक को भी जीत लिया। ‘न कछू मोरि प्रभुताई।-अर्थात मेरा पुरुषार्थ किसी कार्य में भी किंचित् मात्र नहीं है, सब में आपके प्रताप ने ही काम किया ।श्री हनुमानजी की इतनी निरभिमानता भी श्री प्रभु की प्रसन्नता का कारण है। (हाटक= सोना,स्वर्ण) (बिपिन= वन) (मनुसाई= पुरुषार्थ) (शाखामृग= कपि, मर्कट, वानर, कपीस) (अशक्य= जो न हो सके, असाध्य)
साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।
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ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥