ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥ - manaschintan

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥

Spread the love
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा

ये तो भारत जैसे सनातन धर्म की महिमा है कि श्रद्धा और विश्वास के कारण इस देश का एक निम्न कोटि का पक्षी उच्च कोटि के पक्षी को राम कथा का रस पान करता है  यह तो केवल और केवल सनातन संस्कृति  की  विचार धारा है! सनातन संस्कृति की सोच के ही कारण बाबा ने भी तो संसार को सिया राम मय माना। हमारे बीच ऐसे कई उदाहरण भी है कि जिन जिन लोगों ने मन को नियंत्रित कर श्रद्धा और विस्वास के सानिध्य में रहे उनको भक्ति प्राप्त हुई और अंत में  भगवान भी प्राप्त हुए बाबा तुलसी भी उनमें एक है।

सिय राम मय सब जग जानी।करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ॥

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़! मन बड़ा ही चंचल है जैसे वायु का स्थिर करना (दुष्कर= जिसे करना कठिन हो= कष्टसाध्य) है , वैसे से ही मन का स्थिर होना भी कठिन है! अर्जुन ने भी कृष्ण से यही कहा कि मन बड़ा चंचल होता है इसका एक जगह रहना मनुष्यों के लिए बड़ा ही कठिन है प्रभु भी अर्जुन के मत से सहमत होते हुए भी मन को वश में करने का उपाय बताते  है, भगवान कृष्ण ने कहा मन  निःसदेह चंचल और (दुर्निग्रह=जिसपर काबू पाना कठिन हो) है पर अभ्यास और वैराग्य से मन को भी वश में किया जा सकता है ! (सूत्र) जब तक मन एक जगह नहीं होगा तब तक (निज-सुख= निजानंद=आत्मानंद) होगा भी नहीं ! (सूत्र) मन शांत रहेगा तो बड़ी-बड़ी समस्या का हल  भी आसानी से  हो सकता  है। और यदि मन अशांत रहेगा तो छोटी  से छोटी समस्या भी हल हो ही नहीं सकती।  भजन में भी यही कहा जाता है।

यह मन बड़ा चंचल है, कैसे तेरा भजन करूँ।
जितना इसे समझाऊं, उतना ही मचल जाए॥
श्यामा तेरे चरणों की गर धूल जो मिल जाए।।

क्या वायु-तत्त्व के बिना  स्पर्श हो सकता है? क्या विश्वास के बिना कोई भी सिद्धि हो सकती है? उत्तर कभी नहीं! इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता। (थीरा=स्थिर) (परस=स्पर्श)

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा॥

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥

श्रद्धा विस्वास कौन है? तुलसी बाबा ने कहा

भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ।

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥

इसको राम जी ने कन्फर्म किया शंकर ही विश्वास है इस की पुष्टि स्वयं राम जी ने की,

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥

विश्वास कैसा ? सप्तऋषि से पार्वती ने कहा- जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती, जो गुरु के वचन नहीं छोड़ता सारे संसार का वैभव उसके चरणों में आ जाते है। जब ऋषियों ने पार्वती का गुरु नारद के वचनों में में ऐसे प्रेम को देखा तो वे जय हो!, जय हो! कहकर सिर नवाकर चले गए।(सूत्र) पार्वती जी एक निष्ट गुरु भक्ति कि आचार्य भी है

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।।

बाल्मीक के जाप से निकला ये परिणाम।
बस श्रद्धा होनी चाहिए मारा कहो या राम॥

उलटा नाम जपत जग जाना।वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।

हे उमा

मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास॥

मुनियों को दुर्लभ क्या है? रामजी ने स्वयं कहा -साधना के विभिन्न साधनों से मुनि जो जप और योग की अग्नि से शरीर जलाते रहते हैं, करोड़ों यत्न करते है अगर विश्वास नहीं है तो वे भी  भक्ति  नहीं पाते।

जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं॥

यही तो बाली ने रामजी से कहा-

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥

सुग्रीव जी ने बड़ा ही सुन्दर राम जी से कहा

यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥

तो जीव को करना क्या है?  शंकर ने कहा हे उमा श्रद्धा और विस्वास के साथ प्रभु के चरित को कहे अथवा सुने अथवा प्रभु की महिमा का अनुमोदन (प्रशंसा) करें  है।

कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं।।

काकभुशुण्डि ने कहा हे गरुड़! भक्ति के लिए विश्वास आवश्यक है। बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती और बिना भक्ति के राम द्रवित नहीं होते तथा राम कि कृपा के बिना जीव को विश्राम (मोक्ष) नहीं मिलता। इस प्रसंग में श्री राम-कृपा की ही प्रधानता दिखाते है। (विश्राम=चैन, सुख)

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥

यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है पर महाराज करना ही तो असंभव है।

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥

उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥

———————————————————————————————————–