एक कलप सुर देखि
अवतार के हेतु, एक कल्प में सब देवताओं को जलन्धर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुखी थे। जालंधर ने देवताओं को जीतकर उनके सब लोक छीन लिये थे, इसी से देवता दुखी हुए। देवताओं का दुख देखकर शिवजी ने जलन्धर साथ बड़ा घोर युद्ध किया, पर जलन्धर को शिवजी नहीं मार सके इसका मुख्य कारण जलन्धर की पत्नी वृंदा जो कालिनेमी की कन्या बड़ी ही पतिव्रता थी। परम सती के पति को शिवजी भी नहीं मार सकते इसलिए वह मरता नहीं था। इस कारण संग्राम भी बड़ा भारी अपार हुआ। जलन्धर भी शिवजी के बल को पार पाने मे असमर्थ था। अब बात वृन्दा के सतीत्व पर आ गई। उसका सतीत्व टले तब जाकर कही जलन्धर मरे। जलन्धर शंकर के सामान बलवान नहीं था पर वह केवल वृंदा के सतीत्व धर्म की रक्षा से बचता रहा नहीं तो शिवजी उसे कभी का जीत लेते। प्रश्न परम सती तो गिरजा जी भी है जालंधर के स्त्री वृंदा की जोड़ी में गिरजा जी को क्यों नहीं कहा?
कारण शंकर जी का समर्थ श्री पार्वती के सतीत्व से नहीं है वे तो सहज स्वयं समर्थ भगवान है। ईश्वर और जीव में यही अंतर होता है कि ईश्वर में सामर्थ्य और ऐश्वर्य सहज ही रहता है। पर जीव में सामर्थ्य तो ईश्वर कृपा से,अथवा तपस्या, साधना आदि से कुछ समय के लिए, कुछ शर्तों के साथ मिलता है।
संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना।।
समरथ को नहीं दोष गोसाई। रवि पावक सुरसरि की नाई।।
और जालंधर को केवल उसकी स्त्री के पति व्रत का बल और समर्थ है उसमे स्वयं का समर्थ नहीं है।
“सब हारे”अतः तेतीस कोटि देवता हार गये।
तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते।।
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
(सती स्त्रियों के पतिव्रता धर्म का बल बड़ा भारी होता है जलन्धर की कथा में प्रमाण देखिये) (सुराधिप=देवताओं के स्वामी,इंद्र दैत्यों का अधिपति) (असुराधिप=जलंधर नामक असुरराज)
भगवान देवताओं का दुख नहीं देख सकते।
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो।।
छल करि टारेउ तासु ब्रत, प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब, श्राप कोप करि दीन्ह॥
वृन्दा का व्रत भंग करना विष्णुजी के लिए भी संभव नहीं था विष्णु जी ने जलन्धर के रूप में वृन्दा का व्रत भंग किया। जलन्धर भी शिव जी का रूप धारण करके उमा के पास गया था इसी बीच वृन्दा का व्रत भंग हो गया। इसका समाचार पाकर जलन्धर क्रोध से युद्ध करने शिवजी के सम्मुख गया और मारा गया। भगवान अपने अपयश के लिये नहीं डरे भक्तों का कार्य किया। जब वृन्दा को अपने सतीत्व भंग और अपने पति के वध का पता चला तब वृंदा ने क्रोध करके भगवान को श्राप दिया।
प्रभु ने छल से वृंदा का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया।
और जब वृंदा ने यह भेद जाना, तब वृंदा ने क्रोध करके भगवान को श्राप दिया।
जब भगवान ने स्वयं कहा मोहि कपट छल छिद्र न भावा तब छल क्यों किया ?
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भगवान ने छल जगत की भलाई के लिए किया (सूत्र) केवल परोपकार कि द्रष्टि से किया गया कार्य में दोष नहीं लगता धर्म अधर्म के बीच बहुत मामूली फर्क होता है। भगवान ने भोग की इच्छा से नहीं अपितु सुर कार्य के लिए असुराधिप नारी से भोग किया। छल करना दोष है पर “प्रभु “शब्द देकर उनको दोष से निवृत किया वे समर्थ है। अतः छल करने का अधर्म उनको नहीं हो सकता या ऐसा कहे कि।
समरथ को नहीं दोष गुसाईं।रवि पावक सुरसरि की नाई॥
लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने वृंदा के श्राप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)।
वही जलन्धर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे श्री रामजी ने युद्ध में मारकर परम पद दिया।
भगवान ने मर्म को जनाया जिससे वृंदा भगवान को श्राप देवे और भगवान लीला करे नहीं तो जिस मर्म को भगवान छिपावे उसे कौन जान सकता है? जैसे
मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥
यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना।।
निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥
बाल्मीक जैसे संत बोल रहे है -जिसको प्रभु कृपा करके स्वयं जना दे केवल और केवल वही जान सकता अन्यथा कोई भी नहीं।
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
तब वृंदा कैसे जान सकती है प्रभु को तो लीला करनी थी।
यह सब उनकी इच्छा से हुआ। यथाः
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला।।
मरम! यह की ये विष्णु है इन्होने छल से हमारा पति व्रत छुड़ाया और व्रत भंग होते ही मेरा पति मारा गया! वृंदा ने श्राप यह दिया कि तुमने हमसे छल किया, हमारा पति तुम्हारी स्त्री को छल कर हर लेगा, तुमने हमे पति वियोग से व्याकुल किया है वैसे ही तुम स्त्री वियोग से व्याकुल होंगे, तुमने मुझे मनुष्य तन धर कर छला है,अतः तुमको मनुष्य होना पड़ेगा।
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
(कौतुकनिधि= कुतूहल,आश्चर्य, अचंभा, विनोद,हँसी-मज़ाक, खेल-तमाशा, उत्सुकता,कौतुक करने वाला, विनोदशील) (प्रमान= प्रमाण=आदर,मान) (हति= मारकर)
“श्राप कोप कर दीन” बिना क्रोध के श्राप नहीं होता,जब होता है तो केवल और केवल क्रोध से होता है।जैसे
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा।।
बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई।।
भगवान के स्मरण से तो लोगो के श्राप मिट जाते है तो हरि को श्राप कैसे लगेगा? यथाः
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी।सहज बिमल मन लागि समाधी॥
फिर भला उनको क्यों कर श्राप लग सकता है?
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
हरि ने वृंदा के श्राप का आदर दिया, क्योंकि प्रभु तो बड़े ही कौतुकी है जय विजय से भी भगवान ने यही कहा था कि हम श्राप को मेट सकते हैं पर यह हमारी भी यही इच्छा है इसलिए श्राप अंगीकार करो, तुम दोनों का कल्याण होगा। किसी में समर्थ नहीं कि प्रभु को श्राप अंगीकार करा सके। प्रभु ने भृगु जी का श्राप स्वीकार नहीं किया, तब भृगु जी ने यह विचारकर कि श्राप के अंगीकार न करने से हमारा ऋषित्व नष्ट हो जायेगा तब भृगु जी ने कठोर तप कर प्रभु से ही वरदान माँगा कि मेरे श्राप को अंगीकार करो यही नारद जी ने कहा कि मेरा श्राप मृषा हो पर कौतुकी निधि ने कहा-
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला।।
अतः प्रभु ने सतीत्व की मर्यादा प्रतिष्ठा की रक्षा एवं लीला के हेतु श्राप को अंगीकार किया। कृपा ही प्रभु के अवतार का हेतु है। (कौतुकनिधि = लीला के भंडार, खज़ाना)
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