किस कारण अयोध्या को विश्व का मस्तक कहा गया है।
अवध प्रभाव जान तब प्राणी। जब उर बसें राम धनु पाणी।।
वेद और उपनिषदों में श्री अयोध्या धाम का अनुपम रहस्य वर्णन है।अयोध्या को विश्व का मस्तक कहा गया है।अवध में समस्त ब्रह्माण्डों के अधिनायक परात्पर पूर्णब्रह्म श्रीराम जी का अवतार होने के कारण अवध का दिव्य प्रभाव है।इस धाम के सात्विक प्रकाश का प्रत्यक्ष अनुभव तो प्रेमी मर्मज्ञ (गूढ़ रहस्य को जाननेवाला) केवल प्रभु की कृपा से कर सकता है।
(मर्मज्ञ=गूढ़ अर्थ, रहस्य को जाननेवाला) (परात्पर=सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि)
बाल्मीक जी ने कहा हे राम तुम्हारे रहस्य को जानना हर किसी के बस की बात नहीं है।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
हे रामजी आपको जानते ही जीव आपका हो जाता है। अर्थात संसार का नहीं रह जाता जैसे प्रह्मदजी ने जब श्रीरामजी को जाना तब पिता को त्याग दिया।
मलयगिरि पर्वत के चन्दन वृक्ष की सुगंध से पास के अन्य वृक्ष भी चन्दन जैसे सुगंधित हो जाते हैं, भले ही उनका स्वरुप तो नहीं बदलता पर चन्दन के गुण (सुगंध}आ जाती हैं।उसी प्रकार, हे राम जो भक्त आपको जान लेते है,वे आपके गुणों से युक्त हो जाते हैं। उनके भीतर आपका तेज, करुणा, शांति और दिव्यता प्रतिबिंबित होने लगती है।
चार कारणों से अयोध्या को विश्व का मस्तक कहा गया है।
पहला:पूर्णब्रह्म के सगुण रूप का प्राकट्य। श्रीराम का जन्म अयोध्या मैं हुआ।
दूसरा:सात मोक्षदायिनी पुरी में प्रथम अयोध्या पुरी को माना गया है।
तीसरा:राम का शासन पूरे संसार की मानवता के लिए आदर्श शासन का उदहारण अर्थात मॉडल (रोड मैप} है।
चौथा:अयोध्या सांस्कृतिक चेतना की धुरी रामायण, तुलसीकृत राम चरितमानस, और अनगिनत भक्तों की श्रद्धा का केन्द्र है।
अयोध्या नाभि नहीं, मस्तक है। क्योंकि मस्तक ही नेतृत्व, प्रकाश, और उच्चतम आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक होता है।
मस्तक का अर्थ
जहाँ से संचालन, स्मृति, और सर्वोच्च चेतना का उद्गम हो।
जो पूजनीय हो,और शरीर के अन्य अंगों से श्रेष्ठ माना जाए।
तो जब कहा जाता है कि अयोध्या विश्व का मस्तक है,इसका आशय यह होता है कि अयोध्या सम्पूर्ण धरती की आध्यात्मिक चेतना का केंद्र अयोध्या है। शरीर के अंगो मे मस्तक सबसे ऊँचा होता है और सब अंगो का राजा कहलाता है।
इसका कारण बताते हुए संत कहते है की, संसार के प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री थे। स्वयंभुव मनुजी और शतरूपाजी है। स्वयंभुव मनुजी ब्रह्मा के मानस पुत्र थे, ब्रह्मा जी ने मनुजी को अपने मन से उत्पन्न किया था। शतरूपा ब्रह्मा की पुत्री थी।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, इन्हीं दोनों से संसार के सभी स्त्री पुरुष की उत्पत्ति हुई, इन दोनों के मिलन से ही इस सृष्टि का मानवीय विस्तार आरंभ हुआ।
स्त्री और पुरुष की समस्त वंश परंपरा का मूल बीज यही दम्पति रहा है।
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दोनों ने इच्छा की पूर्ती के लिए तपस्या भी की और,
उर अभिलाष निरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं।।
इच्छा के अनुरूप वरदान भी मंगा,
दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।
इच्छा के अनुरूप वरदान भी प्राप्त किया।
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई।।
हे राजन मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ, अतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा।
कुछ समय बाद इसी वरदान को पूरा करने के लिए अयोध्या में मनु शतरूपा दशरथ कौसिल्या बने और इनके आँगन में प्रभु का प्राकट्य हुआ।अतः
अवध प्रभाव जान तब प्राणी। जब उर बसें राम धनु पाणी।।
हे गरुण जी ऐसी अवध का प्रभाव जीव तभी जान सकता है।जब हाथ में धनुष वाण धारण करने वाले श्री राम जी उसके हृदय में निवास करते है।
इसका भाव यह कि जब श्रीरामजी धनुष-बाण लेकर हदय की रक्षा करें,अपना धाम यहाँ बनावें और अपना घर दिखावें तब तो जीव देख सकता है अन्यथा नहीं
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
और रामजी के प्रभाव की व्याख्या विभीषण जी ने की,
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।।
लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार और मान जैसे अनेक दुर्गुण नाना प्रकार के खल तब तक हमारे हृदय में निवास करते है, जब तक श्री रघुनाथजी धनुष-बाण और तरकश धारण कर हमारे हृदय में निवास नहीं करते।
हे रामजी! आप संसार के सभी प्राणियों के शासक है, इस कारण आप सबको भय देने वाले अत्यंत पराक्रमी है। आप कृपा कर हमारे बाह्य और अंतर के सभी शत्रुओं का उसी प्रकार नाश करें।जैसे कोई धर्मनिष्ठ राजा अपने प्रजा के शत्रुओं का वध करता है।
विभीषण जी हे रामजी आपके दर्शन से नेत्रों को तो परम आनंद हुआ पर जब तक मेरे हृदय में आप साकार श्री रघुनाथ रूप से नहीं बसेंगे,तब तक मेरे हृदय को पूरी शान्ति नहीं मिलेगी। अतएव यह कृपा कर दीजिये।
प्रभु आपने ही कहा है
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
आज प्रायः भक्त मंदिर में केवल दर्शन लाभ के लिए जाते हैं।नेत्रों को तो प्रभु के दर्शन से कुछ क्षणों का सुख मिलता है। परंतु हमारे हृदय में जो विकारों का जाल बिछा है उस पर हमारा ध्यान नहीं जाता।हृदय के वास्तविक खल तो (मत्सर=ईर्ष्या) (मोह=आसक्ति) (लोभ=लालच) (मान=अहंकार) (मद= घमंड) (डाह=जलन) है।
आज के समय में तो हमारे पास इन उपद्रियो के बारे में सोचने का समय ही नहीं रहता। क्योंकि हमारी साधना, भक्ति और पूजा केवल बाहरी रूप तक सिमट कर रह गई है।
हम मंदिर में आकर घंटा बजाते है,पर अपने भीतर के शोर को शांत करने करने का कोई प्रयास भी नहीं करते। हम दीप तो जलाते है,पर अपने अंतरतम में जमी अज्ञानता की कालिमा को दूर करने का प्रयास तक नहीं करते।
यदि हम केवल दर्शन तक सीमित रहेंगे और आत्म निरीक्षण नहीं करेंगे, तो हमारी भक्ति केवल एक आडंबर बनकर रह जाएगी।
हकीकत मे भक्ति वही है, जो अंतर के विकारों को जलाए, समाप्त कर दे
न कि केवल दिखावे के दीप जलाए।
अवध प्रभाव जान तब प्राणी। जब उर बसें राम धनु पाणी।।
वास्तव में हम सभी को श्रीराम जैसा रक्षक चाहिए जैसे रावण के विरुद्ध युद्ध में श्रीराम ने धनुष-बाण उठाए, वैसे ही हमारे हृदय में बैठे ये (मत्सर=ईर्ष्या) (मोह=आसक्ति), (लोभ= लालच) (मान=अहंकार) (मद= घमंड) (डाह=जलन) विकारों के रावण तब तक दूर नहीं होंगे,जब तक प्रभु स्वयं हमारे हृदय में
धनुष-बाण के साथ रक्षक रूप में नहीं बसते। शत्रुओ को मारने के लिये धनुष बाण लेकर हृदय में बास कर दास की रक्षा करते है।
(भाव)अयोध्या धाम राम जी की राजधानी है। वे इसके देवता और स्वामी हैं। राम जी को भक्ति के प्रभाव से जाना जा सकता है।
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तन नहीं संसारा।।
अवधपुरी मोक्षदायिनी है, जिन जीवों का शरीर श्री अयोध्या धाम में छूटता है,उन्हें दोबारा फिर इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता। वे पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाते है। उनके लिए यह भवसागर (जन्म-मरण का बंधन) पार करना कठिन नहीं रह जाता।
इस दिव्य धाम का महात्म्य अनन्त है। इसलिये इसका सेवन करना ही मुमुक्षु का कर्त्तव्य है। जो अयोध्या का आश्रय लेकर यहां रहने लग जाय वही प्रेम कृपा का पूर्ण अधिकारी बन जायेगा। जैसे तैसे कैसे भी यहां रहो।
अवध झलक जो जन लख,भूलै सब संसार।
जल थल चर सब भक्तिमय, भक्ति भरे भंडार ||
श्रीरघुनाथ जी कपीस अंगद विभीषण जी से कहते है।
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा।।
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना।।
श्रीरघुनाथ जी सुग्रीव अंगद और विभीषण से कहते हैं कि सुर-मुनि आदि देवता, ऋषि-मुनि आदि सब वैकुण्ठ की महिमा का गुणगान करते है, क्योंकि वेदों और पुराणों में उसका माहात्म्य वर्णित है।अतः यह ज्ञान तो सभी को है सब जानते हैं। कि संपूर्ण सृष्टि की रक्षा लोकपालन-शक्ति भगवान विष्णु में है और वे वैकुण्ठ धाम में निवास करते हैं। पर अयोध्या नित्य विहार स्थान है, इसी से रघुनाथजी कहते हैं कि इसके समान मुझे वह वैकुण्ठ भी प्रिय नहीं है।
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।।
अवधपुरी भगवान को मन,वचन और कर्म तीनों से प्रिय है।
यह बात ग्रन्थ में प्रमाण कर दिखायी है।सीताजी सहित दोनों भाई रथ पर चढ़कर वनवास के लिए हृदय में अयोध्या को सिर नवाकर चले।
चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥
वनवास में,
जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥
लंका पर विजय पाने के बाद अयोध्या लौटते समय पुष्पक विमान से अयोध्या को देखकर कहा हे सीता,
पुनि देखु अवधपुरि अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥
सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥
रामजी ने कहा हमको वैकुण्ठ प्रिय है पर अवध के समान प्रिय नहीं है, वैकुण्ठ तीनों लोकों से अधिक है और अयोध्या वैकुण्ठ से भी अधिक है।
चाहे जो कुछ हो पर यह बात तो निर्विवाद है कि इस वर्णन से बाबा तुलसी ने
हमें यह शिक्षा दी है कि यह मातृ भूमि हमें वैकुण्ठ से भी प्रिय लगनी चाहिये।
बैकुण्ठ श्रीरामजी की नित्य विभूति है और अवध लीला विभूति है।
लीला चरित रामजी को अति प्रिय है इसलिये अवध विशेष प्रिय है।
वैकुण्ठ प्रिय है पर अवध अति प्रिय है, क्योंकि यह लीलास्थल है,यहाँ रहकर 12 हजार वर्ष नर क्रीड़ा करते है।
वैकुण्ठ में नित्य निवास है परन्तु क्रीड़ा स्थल यहीं है, खेलने की जगह और साथ के खेलाड़ी भगवान को अत्यन्त प्रिय है। और खेलाड़ियों को भी भगवान का क्रौड़ा स्थल और भगवान दोनों ही अत्यन्त प्यारे हैं।
भगवान जब अपने नित्य धाम को जाने लगते हैं तब साथ के खेलाड़ियों को लेते जाते है,और जब आने लगते हैं तब खेलाड़ी भी नित्य धाम में नहीं रहते,साथ ही लेते आते है।
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा।।
यह सुहावनी मेरी पुरी मेरी जन्मभूमि है। इसके उत्तर दिशा में पावनी (स्वयं पवित्र और दूसरोंको पवित्र करनेवाली) श्रीसरयूजी बहती है। जिसमें स्नान करने पर मनुष्य बिना परिश्रम के अर्थात बिना (योग, यज्ञ, जप,तप) के ही मनुष्य मेंरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पाते हैं
श्रम रहित स्नान वह है कि जिसमें अपने सम्बन्धियों,प्रेमियों,के नाम से बुड़की लगाते जिससे इसका फल उनको प्राप्त हो जाता है।
रघुवंश महाकाव्य। महाकवि कालिदास अयोध्या राजधानी में यह वही पवित्र सरयू नदी है जिसके तट पर यज्ञ स्तम्भ गाड़ कर इक्ष्वाकुवंशियों ने अनेक यज्ञ करके जिसके जल को अधिक पवित्र कर दिया है। इस सरयू में स्नान मात्र से ही, बिना तत्त्व ज्ञान हुए भी,शरीर त्याग करनेपर पुनः शरीर नहीं धारण करना पड़ता।
श्री सरयूजी अयोध्यापुरी का अंग हैं। दोनों का नित्य सम्बन्ध है।श्रीसरयूजी अयोध्या के ही निमित्त आयीं।
इसी से जहाँ अयोध्यापुरी का वर्णन करते हैं वहाँ सरयूजी का भी वर्णन करते हैं।
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी।।
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी।।
संत कहते है अवधवासी चार प्रकार के कहे गये है, अव्वल श्रेणी के वे जिनका जन्म श्रीअयोध्याजी में है, क्योंकि जहाँ ब्रह्य का अवतार वा जन्म हुआ वहाँ उनका भी जन्म है। वे चाहे जहाँ रहें, अपनी जन्मभूमि तो अवध को ही मानेंगे।
दूसरी श्रेणी में वे हैं जिनका जन्म तो और जगह हुआ, किन्तु जिन्होंने सब छोड़कर नियम से अवध वास कर लिया।
तीसरे दर्जे (श्रेणी) के वे हैं जो नियम से निवास नहीं करते, आते-जाते बने रहते है।
चौथे दर्जे श्रेणी में वे हैं जो श्रीअवधजी में आ नहीं सकते मगर मन उनका यहाँ ही लगा रहता है। श्रीअयोध्या महारानी उनको भी श्रीअवधवासियों में अति दयालुता से कृतार्थ करने में गिनती कर लेती है।
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी।।
अवध प्रभाव जान तब प्राणी। जब उर बसें राम धनु पाणी।।
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