
बोला बचन नीति अति पावन।
माल्यवंत की रावण को सलाह- माल्यवंत में यहाँ चार विशेषता कहीं गई -( १) (अति जरठ=अत्यन्त बूढ़ा) (सूत्र) राम जी की सेना में जामवंत वृद्ध है उनकी सलाह को रामजी मानते है और विजयी हुए पर रावण की सेना में माल्यवंत वृद्ध है पर रावण उनकी सलाह को नहीं माना अतः मारा गया (२) (निशिचर= राक्षस) निशिचर से सजातीय और अपने पक्ष का जनाया (३) (रावण की माता का पिता=नाना) रावण का नाना है अतः रावण के हित की ही कहेगा और निर्भय उपदेश भी देगा यह गुण श्रेष्ठ मंत्री का है । ठकुर सोहती नहीं कहेगा । (४) मंत्री बर (बर=श्रेष्ठ) श्रेष्ठ मन्त्री इतनी विशेषता, होने पर भी रावण ने माल्यवंत की सलाह को नहीं मानी और मारा गया !
माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर॥
जामवंत
मंत्री अति बूढ़ा। सो कि होइ अब समरारूढ़ा॥
पर रामजी सर्वज्ञ,सर्वसमर्थ होकर भी जामवंत से सलाह लेते है और राम जी के सेवक हनुमान जी भी यही करते है।
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥
मालयवंत ने तीन तरह से समझाया | प्रथम तो अपशकुन सुनाकर, फिर श्री राम जी की ईश्वरता प्रतिपादन करके और तीसरे, राम विमुखता का फल कहकर ।प्रथम उपदेश ( विभीषणके समर्थन ) में अपशकुन न कहे गये थे, अब की यह विशेषता है।असगुन उसी समय प्रारम्भ हुए जिस समय यहाँ सीता आयी। इसका आशय आशय यहीं कि सीता के साथ अपशकुन आये, अतः सीता को लौटा देने पर असगुन भी स्वतः चले जायेगे । मलयवंत कहते हैं कि तुम लोगो को कुछ होश नहीं है। में बेठे बेठे देखा करता हूँ । कि लंका सदा (निरापद= बिना संकट के) रहा है। परन्तु जब से तुम सीता का हरण करके ले जाये हो तब से ऐसे असगुन लंका मे हो रहे हैं कि में उनका वर्णन नहीं कर सकता । पहिले अधर्म से प्रकृति में विकार आता है। पीछे अनिष्ट होता है। वही प्रकृति का विकार ही असगुन है। अतःअसगुन से अशुभ फल होना निश्चय है । असगुन भविष्य घटना का द्योतक है। अतः असगुन कभी खाली नहीं जाता!
जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥
बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥
राम जगत भर के आत्मा और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख रहने वाला शांति कैसे पा सकता है? पहिले भी जो उनसे बिमुख हुए उनको भी सुख नही मिला है।
राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥s
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥
आगे मंदोदरी ने भी रावण के मरने पर कहा–
राम विमुख अस हाल तुम्हारा। रहा ना कोउ, कुल रोविनि हारा ।।s
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥
हे नाथ कृपानिधि ,कृपासिंधु ,दयानिधि ,दयानिधान ,दयासागर ये सब रामजी के ही नाम है राम कोई विशेष समूह या कोई विशेष जाति ,या वर्ग के नहीं है ओर तुम्हारे तो गुरु जी शंकर जी ने भी हम सभी को सुन्दर (सूत्र ) दिया है।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
अतः
परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥
अतः वैर छोड़कर बेदेही को रामजी को दे दो और दयासागर परमसनेही रामजी
का भजन करो। देहीः का भाव कि सीता तुम्हारे हाथ न लगेगी तुम चाहे जितना उपाय करो सीताजी प्राण ही छोड़ देंगी। क्योकि सीता जी देह सम्बन्धी विषय भोग विलास से पूर्ण उदासीन हैं। अतः तेरे वश में नहीं होंगी।भजहु कृपानिधि परम सनेही॥ कृपानिधि का भाव कि
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥s
तुमने तो एक ही जन्म पाप किया है और उनकी प्रतिज्ञा तो जन्म कोटि कि है!
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥s
“परम सनेही “है तुम्हारा हित ही करेंगे।
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥
हे रावण यही तो विभीषण ने तुमसे कहा है।
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥
हे रावण यदि तुम ये कहो की राम जी के भजने का परिणाम क्या होगा ? तो
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू।।
किया कि इसे कृपानिधान श्री रामजी अब मारना ही चाहते हैं।
ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुँह करि जाहि अभागे॥
तेहिं अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना॥
बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥