ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); संशय भ्रम शंका,जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥ - manaschintan

संशय भ्रम शंका,जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥

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संशय भ्रम शंका,जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥
संशय भ्रम शंका,जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥

जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही

काकभुशुण्डि का संशय! हे पक्षीराज! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत गए॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा।।
वो जगह कौन सी है शंकर जी ने कहा
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।
राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।
काकभुशुण्डि जी ने कहा हे पक्षीराज!
करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना।।
मैं यहाँ सदा श्री रघुनाथजी के गुणों का गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं। श्री राम अवतार प्रत्येक कप्ल में एक बार ही होता है उसे देखने के लिए भुसण्डि जी बराबर आया करते है!और लगभग पांच वर्ष तक अयोध्या में रहते है जैसे लोग रामलीला देखने आया करते है!उन पांच वर्षो तक नीलगिरि पर्वत पर कथा जो अविरल चलती है नहीं होती अतः मेने राम जी के 27 अवतार देखे है!


कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा।।
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ।।
क्योकि
इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
हे पक्षीराज गरुड़जी!हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ॥श्री रामजी की कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिए। भुसुंडि जी कहते है की राम जी की कृपा और अपनी जड़ता अर्थात मोह का वर्णन करता हूँ!सरकार जड़ता पर क्रोध नहीं करते बल्कि कृपा करते है!
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥
राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥
हे पक्षीराज गरुड़जी!साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हुआ कि चैतन्य और आनंद की राशि (परब्रह्म) प्रभु यह कौन (महत्त्व का) चरित्र (लीला) कर रहे हैं॥ ऐसा ही संदेह गरुण जी को हुआ था जबकि दोनों ही भगवान के यथार्त रूप को जानने वाले है कि राम चिदानंद संदोह है!यहाँ तो विकार की सम्भावना ही नहीं है! यह तो इनका चरित्र है पर क्या चरित इनके योग्य है?तभी माया व्याप गई! (इव= अव्यय, समान, सदृश,जैसा,मानिंद) (चिदानंद= चिदात्मा,आनन्द और चैतन्य स्वरूप, ब्रह्म) (संदोह= दूध दोहना, समूह,झुंड)
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥
श्री रामजी मुझ से बहुत प्रकार के खेल करते हैं, जिन चरित्रों का वर्णन करते मुझे लज्जा आती है! (ब्रीडा= संकोच,लज्जा) (इव=समान, सदृश,जैसी)
मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा॥
पर साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हुआ!
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह॥
हे पक्षीराज! मन में इतनी (शंका) लाते ही श्री रघुनाथजी के द्वारा प्रेरित माया मुझ पर छा गई, परंतु वह माया न तो मुझे दुःख देने वाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति संसार में डालने वाली हुई
एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥
हे पक्षीश्रेष्ठ! श्री रामजी ने मुझे जब भ्रम से चकित देखा, तब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिए, उस खेल का मर्म किसी ने नहीं जाना, न छोटे भाइयों ने और न माता-पिता ने।
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥
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परशुराम के मन में सन्देह-
भगवान परशुराम कहते हैं कि भगवान विष्णु का वह धनुष, आखिर यह संदेह मिटे कैसे, हे राम, क्या मैं जो देख रहा हूं वह सच है। यह धनुष लीजिए, इसका संधान कीजिए। शारंग, भगवान विष्णु के धनुष का नाम है, यह धनुष, भगवान शिव के धनुष पिनाक के साथ, विश्वव्यापी निर्माता विश्वकर्मा द्वारा तैयार किया गया था। एक बार, भगवान ब्रह्मा जानना चाहते थे कि उन दोनों में से बेहतर तीरंदाज कौन है, विष्णु या शिव। तब ब्रह्मा ने दोनों के बीच झगड़ा पैदा किया, जिसके कारण एक भयानक द्वंद्वयुद्ध हुआ। उनके इस युद्ध के कारण पूरे ब्रह्मांड का संतुलन बिगड़ गया। लेकिन जल्द ही विष्णु ने अपने बाणों से शिव को पराजित किया। ब्रह्मा के साथ अन्य सभी देवताओं ने उन दोनों से युद्ध को रोकने के लिए आग्रह किया और विष्णु को विजेता घोषित किया क्योंकि वह शिव को पराजित करने में सक्षम थे। क्रोधित भगवान शिव ने अपने धनुष पिनाक को एक राजा को दे दिया, जो सीता के पिता राजा जनक के पूर्वज थे। भगवान विष्णु ने भी ऐसा करने का निर्णय किया, और ऋषि ऋचिक को अपना धनुष शारंग दे दिया। समय के साथ, शारंग, भगवान विष्णु के अवतार और ऋषि ऋचिक के पौत्र परशुराम को प्राप्त हुआ। परशुराम ने विष्णु के अवतार भगवान राम को शारंग दे दिया। राम ने इसका प्रयोग किया और इसे जलमण्डल के देवता वरुण को दिया। महाभारत में, वरुण ने शारंग को खांडव-दहन के दौरान भगवान कृष्ण (विष्णु के अवतार) को दे दिया। गोलोक धाम में वापिस जाने के पहले , श्रीकृष्ण ने इस धनुष को महासागर में फेंककर वरुण को वापस लौटा दिया।
भगवान के कथन सुनकर परशुराम के मन में संदेह पैदा हो गया कि ये राजकुमार है या परमेश्वर निश्चित नहीं कर पाते वो कथन है!
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
आप सिर रूप और में चरण रूप हूँ आप उत्तमांग रूप ऊँचे और में अधमांग रूप नीचे हूँ यह विनीत वचन है!
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम मात्र लघुनाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥
देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥
मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
इस पर आपका रोष और मेरा अभिमान  व्यर्थ है
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥
लक्ष्मणजी ने कहा-
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
और जैसे ही राम जी ने कहा- परशुराम जी को कन्फर्म हो गया इतना ब्राह्मण के प्रति आदर केवल नारायण में ही हो सकता है! (सूत्र) जब तक क्रोध का पर्दा पड़ा रहेगा तब तक दिखलाई नहीं पड़ेगा ये राम चरित मानस के अनुसार उघरे पटल परसुधर मति के॥
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥
वह धनुष स्वतः ही राम के पास पहुंचता है जहँ संदेह है वहां विश्वास नहीं रह सकता परशुराम यहाँ तो आत्म विश्वास को भी खो बैठे थे!अपने से चल कर जाने का भाव एक तो पहले से टूटा पड़ा है दूसरा में तो इन्ही का धनुष हूँ! धनुष देते समय जो तेज उनमे था वह भी रामजी में चला गया परशुराम जी निस्तेज से हो गए!
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥
इसके बाद पुनः भगवान परशुराम के मुंह से निकल पड़ता है: हे रघुकुलरूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुलरूपी घने जंगल को जलानेवाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गौ का हित करनेवाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरनेवाले! आपकी जय हो।हे रघुकुल के पताका स्वरूप राम! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुराम तप के लिए वन को चले गए।(कोह= अर्जुन वृक्ष, क्रोध,गुस्सा) (बनज= कमल) (कृसानू= लौ,आग, प्रकाश) (अग्याता= अनजाने में) (छमामंदिर= क्षमा के मंदिर) (भृगुकुल केतु= भृगुवंश की पताका रूप परशुराम) (दनुज= राक्षस,दानव)
जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन, दनुज कुल दहन कृसानू।
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।
करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता॥
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।
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मुनि वशष्ठजी वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम श्री रामजी थे।रामजी  ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया-मुनि ने हाथ जोड़कर कहा- हे कृपासागर! मेरी कुछ विनती सुनिए! आपके आचरणों (मनुष्योचित चरित्रों)को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है॥ आप मुझसे धर्म शास्त्र सुनते हो और शास्त्रों के सम्बन्ध में जब जिज्ञासा करते हो तब मेरे हृदय में  आपके ईश्वरत्व के सम्बन्ध में संदेह हो जाता है!
एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए।।
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।।s
(पादोदक =चरणामृत)
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा।।
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥s
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥
देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा॥
स्वयं परम ब्रह्म श्रीराम जी को देख लीजिए कि जिनके चरण कमलों की प्राप्ति हेतु बड़े बड़े योगी वैरागी विविध प्रकार के जप, योग आदि करते हैं वही प्रभु गुरु पद कमलों पर लोट पोट हो रहे हैं…
जिन्ह के चरन सरोरूह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।गुरु पद कमल पलोटत प्रीते।।
महिमा अमिति बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥
तुलसीदास की दीनता में कहा आपकी महिमा असीम है जब वेद नहीं जानते फिर में कैसे कह सकता! तुलसीदास की दीनता में कहा 
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥
उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥
मुनि वशिष्ठजी कहा-पुरोहिती का कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निंदा करते हैं॥ (उपरोहित्य= ब्राह्मण का कर्म) (स्मृति= धर्म,दर्शन,आचार-व्यवहार आदि से संबंध रखने वाले प्राचीन हिंदू धर्मशास्त्र जिनकी रचना ऋषि-मुनियों ने की थी; प्राचीन हिंदू विधि संहिता,जैसे- मनुस्मृति) (स्मृति= हिन्दू धर्म के उन धर्मग्रन्थों का समूह है जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। इनमें वेद नहीं आते) स्मृति का शाब्दिक अर्थ है-“याद किया हुआ”।
नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥
मुनि वशिष्ठजी कहा- हे  राम! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिए। प्रभु (आप) के चरणकमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मांतर में भी कभी न घटे॥ हम यह नहीं चाहते की मेरे जन्मो का आभाव हो किन्तु आपसे प्रीती एक रस बनी रहे!यही चाहता हूँ और यही भरत और बाली ने भी मांगी है!
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।
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भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥
इतना श्रेष्ठ मुनि पूछ रहा है क्या? राम कौन है जो तापस अर्थात तपस्वी है,तप से तन को कसते है सम दम दया निधाना है अर्थात भीतर बाहर की इन्द्रीयों को कसते है ! यह भी तप है! दूसरे के लिए दया के  तो खजाना समुद्र ही  है इन्द्रियों को बस में करने और दुष्कर्मो से बचने के विचार से बस्ती छोड़ कर शरीर को कठिन उपवास व्रत नियम से कष्ट दिए जाने की रीति प्राचीन काल से चली आ रही है इसी को तप कहते है !(दम =कर्म इन्द्रियों को वश में करना )पुनः इन विशेषणों से सूचित किया है कि ये कर्मकांडी है पुनः तापस सम दम दया का भाव-इन शब्दों से हम लोगो को यह उपदेश लेना चाहिए कि केवल तप (शारीरिक कष्ट )मनुष्य का कर्तव्य नहीं है इन्द्रियों का निग्रह भी परमावश्यक है नहीं तो वह तप तामसिक हो जायेगा और लाभ की जगह हानि की संभावना बड़ जाती है अनेक ऋषियों की प्रार्थना करने पर भरद्वाज स्वर्ग जाकर आयुर्वेद सीख आये थे!ये बाल्मीक जी के शिष्य थे ! (जामिनि= रात) (बियोगी= बिछुड़ा हुआ) (प्रपंच= मायिक जगत) यथाः परमारथ पथ=परलोक का मार्ग-क्या है?
लक्ष्मण जी निषाद से
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥s
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू।।s
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा।।
परमार्थपथ”-परलोक का मार्ग, यथार्थ परमतत्व की प्राप्ति या जानने का मार्ग ।परमार्थ क्या है? इस जगतरूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब संपूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए।,(परमारथ= परम,अर्थ = वस्तु,पदार्थ) राम की प्राप्ति के लिए जितने भी साधन कहे गए वे सभी परमार्थ पथ ही है ! जो कर्मकांड में परम सुजान है वही परमार्थ पथ को निभा सकता है और उसी से  राम जी ने पुछा (पाहीं= पास,निकट) (पाहि= रक्षाकरो) (मग= रास्ता,मार्ग) (केहि= किसे,किसको,किसी प्रकार, किसी भाँति) (सुजान = चतुर,जानकर,कुशल) यथाः
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं।।
भरद्वाज जी जैसे संत को जो परम सुजान है! को संसय हो गया -हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है, वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है (अर्थात्‌ आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा संदेह निवारण कर सकते हैं) पर उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है. भय इसलिए कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है और लाज इसलिए कि इतनी आयु बीत गई पर अब तक ज्ञान न हुआ. यदि अपने मन की बात नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है क्योंकि इस तरह तो आजीवन अज्ञानी बना रहूंगा।
(करगत= हाथ में आया हुआ,हस्तगत हाथो में प्राप्त,मुठ्ठी में) (संसउ= दो या कई बातो में से किसी एक का भी मन में ना बैठना) (तत्त्व= सिद्धांत, वास्तविक सार वस्तु) (अकाजा= अनर्थ,हानि, कार्य का बिगड़ जाना)
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
(बड़=का भाव है की संसय समान्य नहीं है क्योकि यह अपने आप समझने समझाने से नहीं जाता) (तत्व=सिद्धांत= वास्तविक सार वस्तु) (अकाजा= अनर्थ,हानि) यदि संसय समान्य होता तो अपने ही समझने समझाने से चला जाता नहीं तो अन्य ऋषि विवेकी के समझाने से चला जाता अतः आप जैसे परम विवेकी से ही संसय जा सकता है यथाः
नाना भाँति मनहि समझावा।प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा॥s
(भय लाजा =परम महर्षि बाल्मीक के शिष्य होने के बाद भी बोध नहीं हुआ,जब सूर्य से यग्वालिक जी को विद्या प्राप्त हुई तब विद्यार्थी इनसे बड़े उग्र प्रश्न करने लगे ये बात जब सूर्य को बताई तब सूर्य भगवान ने यह वरदान दिया की जब कोई तुमसे उग्र प्रश्न करेगा तब उसका सिर फट जायेगा) जगत को बोध करने के लिए संसय हुआ लाला भगवानदास जी कहते है की भारतद्वाज जी को संदेह नहीं था। जब तक आप अपना अज्ञान,दीनता,भय,संसय प्रकट ना करो तब तक कोई ऋषि पूरे तत्व का मर्म नहीं बताता इस विचार से केवल और केवल सत्संग के लिए भारतद्वाज जी ने ऐसा कहा भक्ति तत्व इतना सूक्ष्म (छोटा)है की इन सिद्धांतों को बराबर पूछते कहते सुनते रहना चाहिए यदि एक ही बार वेद शास्त्र पड़ कर समझ लेने से काम चलता तो शिव जी आदि संत क्यों उसकी चर्चा करते और क्यों सत्संग के लिए ऋषियों के यहाँ बार बार जाया करते? शंकर ने भी रामजी से यही माँगा!
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥
भरद्वाज जी ने कहा-हे नाथ!संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता.(बिमल बिबेक= शुद्ध निर्मल ज्ञान)= राम जी का स्वरुप भली प्रकार समझ पड़ना ही निर्मल ज्ञान है और यह सदगुरु की कृपा अनुकम्पा और करुणा से ही संभव है।अन्यथा नहीं। (संजम= संयम)
संत कहहिं असि नीति, प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर, गुर सन किएँ दुराव॥
(बिमल विवेक= शुद्ध निर्मल ज्ञान।श्री रामजी का स्वरूप भली प्रकार समझ पड़ना ही निर्मेल ज्ञान है और यह सदगरु की कृपा अनुकम्पा करुणासे ही सम्भव है,अन्यथा नहीं।)
तुलसीदास हरि गुरु करुना बिनु, बिमल विबेक न होई।
बिन विबेक संसार घोर निधि, पार न पावै कोई ।S
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥S
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई।।S
नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा।।s
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
परन्तु उनके चरित्र को देख कर मुझे मोह हो गया! क्यों? रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। का भाव कि बिना पूछे राम तत्व नहीं कहना चाहिए! कृपानिधि मोही॥ का भाव कि ऐसा प्रश्न करने पर क्रोध की संभावना है कि कही आप क्रोधित ना हो जाय जैसे शंकर जी सती पर हुए! पर मुझे तो रामजी में तीनो दोष दिख रहे है! 1काम-मुझे रामजी में काम भी दिख रहा है तभी तो नारी का वियोग हुआ2क्रोध-राम जी में क्रोध भी दिख रहा है,क्रोध आया तो युद्ध में रावण को मार डाला3लोभ-राम जी में लोभ भी दिख रहा है तभी स्वर्ण मृग के पीछे दौड़ पड़े !मेरा प्रश्न ये कि यदि इनमे तीनो दोष है तो शंकर जी इनका नाम जपते कैसे है?
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा॥
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥s
पर परमात्मा में
कबहूँ जोग,बियोग न ताके।देखा प्रकट बिरह दुख ताके।।s
तो शंकर जी इनका नाम जपते कैसे है?
संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥s
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि??।
सत्य धाम सर्वज्ञ तुम्ह, कहहु बिबेक बिचारि?।।
“जाहि जपत त्रिपुरारि”त्रिपुर दैत्य तीनो लोको में एक एक रूप से रहता था !इसको वरदान था कि जब कोई इसके तीनो रूपों को एक साथ ही परास्त करेगा तब यह मारा जायेगा !तीनो लोक में इसके किले थे जिसमे अमृत रहता था शिव जी ने संग्राम बहुत किया पर मारा नहीं पाए तब शिव जी ने राम जी का ध्यान किया तब राम जी ने वत्स रूप से अमृत पी लिया तब शिवजी से त्रिपुर का संहार हुआ !इसी से त्रिपुरारी का विशेषण दिया !अतः त्रिपुर दैत्य को मरने में जिन राम का सहयोग लिया क्या वे ही राम है या यही अवधेश कुमार राम है या कोई और है !जो त्रिपुर को जीतने वाले है और काम क्रोध जिनके वश में है तो  भला शंकर जी  ऐसे कामी क्रोधी को क्यों भजने लगे?केवल और केवल भारी समर्थ सेवको के द्वारा ही स्वामी का ईश्वरत्व प्रकट होता हैअन्यथा नहीं
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
“कि अपर कोउ’ का भाव कि शिवजी के इष्ट देव का चरित्र अज्ञानता का नहीं हो सकता अतः मेरी समझ में तो उनके राम तो कोई और ही है! भरतद्वाज जैसे मुनियो को सगुन चरित्र देख कर ही मोह हुआ! उत्तर कांड में
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोई।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होई॥
निर्गुण रूप अत्यंत सुलभ (सहज ही समझ में आ जाने वाला) है, परंतु (गुणातीत दिव्य) सगुण रूप को कोई नहीं जानता, इसलिए उन सगुण भगवान के अनेक प्रकार के सुगम और अगम चरित्रों को सुनकर मुनियों के भी मन को भ्रम हो जाता है॥
भरद्वाज जी ने कहा हे नाथ! (बिदित=जाना हुआ,  जिसे जाना-समझा जा चुका हो, अवगत, ज्ञात,मालूम)
जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
जैसें मिटै मोर भ्रम भारी।
भारतद्वाज जी ने अपने में मोह,भ्रम,और संसय तीनो कहे है  जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। (यहाँ)इसी प्रकार पार्वतीजी, गरुणजी, और गोस्वामीजी, इन तीनो ने अपने अपने में इन तीनो का होना बताया है पार्वतीजी,गरुणजी, तुलसी दासजी
पार्वती जी कहा हे नाथ! मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए॥ (जनि= मत,नहीं)
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी।।S
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू।।S
अब भी मेरे मन में कुछ संदेह है। आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ।
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।।S
शंकर जी का उत्तर
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत् हित लागी॥S
हे पार्वती! मेरे विचार में तो राम की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥ (तव= तुम्हारा,तुम्हारे)
राम कृपा तें पारबति, सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम, बिचार कछु नाहिं॥ S
गरुण जी ने कहा- यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता? मैं अब उस भ्रम (संदेह) को अपने लिए हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझ पर यह बड़ा अनुग्रह किया॥
देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥S
सोई भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥
जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥S
काकभसुंडजी हे- नाथ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्री रघुनाथजी के कृपापात्र हैं॥(मिस= बहाना,ढोंग, बहाने से)
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे।।S
तुम्हहि न संसय मोह न माया।मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दायाS
पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥
तुलसीदास जी को-रामकुमारजी का भाव यहाँ कोई श्रोता नहीं है अतः “निज” शब्द बडे महत्व का है।’निज’ का अर्थ है.“अपना”जो गोस्वामी जी में भी लग सकता है एवं अन्य लोगों मे भी जो भी इसे सुने।’मेरे अपने! तथा “उनके अपने।? इसी भाव से ‘मम’ शब्द न देकर निज!शब्द का प्रयोग किया है।जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने संदेह,अज्ञान और भ्रम को हरनेवाली कथा रचता हूँ,जो संसाररूपी नदी के पार करने के लिए नाव है।“कहहु सो कथा”भाव कि श्री रामकथा कहकर ही संशय,मोह और भ्रम दूर कीजिये,अन्य उपायो से नहीं।
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी।।S
जैसें मिटै मोर भ्रम भारी।
जागबलिक ने कहा हे भरद्वाज जी आपने जगत के कल्याण के लिए प्रश्न किया।आपको कोई संशय नहीं है मुस्कुराने का कारण चतुराई ही है तुमको रघुनाथ जी की प्रभुता विदित है तुम मन,क्रम,वचन,से रामचंद्र जी के भगत हो राम जी के गूढ़ गुणों को (गुप्त रहस्य) को सुनना चाहते हो इसी से ऐसे प्रश्न किये है जैसे मानो अत्यंत मूर्ख हो। (मूढ़ा= मूर्ख) (गूढ़ा= छिपा हुआ, गुप्त रहस्य) (सूत्र) ऐसेइ= ऐसे ही दूसरा भाव इसी प्रकार से  कहने का भाव पार्वती और भाद्वाज दोनों के संसय को एक तरह का ही बताया! मुस्कुराने का कारण “चतुराई” है।
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई।।
रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा।।
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसे द्वौ भाई॥s
विभीषण के मन में सन्देह =
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
जबकि विभीषण जी राम जी के ऐश्वर्य को जानते है पर माधुर्य लीला की अदभुतता गहनता और प्रबलता ऐसी ही है!की वह ऐश्वर्य को दबा देती है ! इसी कारन अधीर हो गए, विभीषण ने स्वयं कहा यथाः
तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।।s
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता।।s
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।s
ये सभी वचन विभीषण के है पर इस समय अधीरता और संदेह का कारण “अधिक प्रीति “ही है! विभीषण जी को विजय में संदेह कभी नहीं था उन्होंने चलते समय पुकार ललकार कर रावण से कह दिया था: श्री रामजी सत्य संकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु हैं और (हे रावण) तुम्हारी सभा काल के वश है। अतः मैं अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना॥(खोरि= ऐब,दोष)
(जनि=उत्पत्ति, जन्म,स्त्री, नारी,मत, नहीं) (सत्यसंकल्प= दृढ़संकल्प)
रामु सत्यसंकल्प प्रभु, सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ, देहु जनि खोरि॥s
पर उस समय सरकार को देखा नहीं था देखने पर प्रीत बड़ी अधिक प्रीती बढ़ने पर चित्त अधिक आशंकित हो उठता है अतएव “उर  भा संदेहा” स्वाभविक होता ही है।दूसरा भाव यहाँ सब जोड़ी से जोड़ी भिड़े है पर यहाँ विषमता देख रहे है की एक अस्त्र शस्त्र ध्वजा पताका सारथी आदि से सुसज्जीत होकर रथ पर सवार है और दूसरा पैदल है इस प्रकार जोड़ी ना देखकर विभीषण रह ना सके उनसे रहा ना गया। (बंदि चरन=चरणों की वंदना करके) ((बंदी=अत्यंत आज्ञाकारी, तुच्छ,हीन, परम अधीन)
विभीषण आज प्रभु के माधुर्य में ऐश्वर्य को भूल गये । स्वामी धर्म-वासना रहित है और स्वार्थ वासना सहित है अतः परस्पर विरोध है स्वामी धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में) और स्वार्थ में विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता (मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनों में ही भूल होने का भय है)॥पर प्रेम तो अँधा होता है
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥s
समर में बराबरी के विचार् से विभीषण को रथ की आवश्यकता प्रतीत हुई । विभीषण के इस विचार से देवता भी सहमत थे |
देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥
गौड़जी का भाव-“विभीषण रघुनाथजीको चाहे जो समझता रहा हो, परन्तु वह रामजीका समर-मन्त्री भी था |अतः संदेह होना उचित था!
रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी।।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
हे नाथ”ना तो रथ है,ना ही शरीर की रक्षा करने वाला (कवच)है,और ना ही चरण की  रक्षा करने वाली (जूती)ही है तब वीर और बलवान रावण को किस तरह जितीयेगा? “बीर बलवाना”का भाव रावण कोई सामान्य वीर नहीं है!यह त्रिलोक विजयी है! “कृपानिधाना” का भाव राम जी कृपा करके इसी बहाने बिभषण को धर्मोपदेश देंगे “सखा” का भाव यह की तुम सखा भाव के भक्त हो अतः तुम गूढ़ रहस्य के जानने के अधिकारी हो (स्यंदन-रथ) जिस रथ से वास्तविक जय होती है;वह ओर ही है।वह आध्यात्मिक है,आधिभोतिक नहीं | जय का अवलम्ब आज भी सेना और सामग्री पर नहीं है; वरन्‌ विजेताकी बुद्धि, चरित्र और आत्मबल तथा  साहस पर है | विश्वामित्र का शस्त्र बल  वशिष्ठजीके आत्मबल से परास्त हो गया था। विभीषण तो रावण के जय को विधि पूछते थे पर सरकार ने उन्हे संसार के जय की विधि बता दी।कहने लगे कि मरुत  वेग रथ से जय नही होती।जय प्रद रथ दूसराहै।भाव यह कि वह रथ अब रावण के पास नही रह गया।तुम्हारे चले आने के पहले कुछ टूटी फूटी अवस्था मे था।जिससे उसने सुरासुर का विजय किया था।अब तो उसे पास रथ के दो चक्र शौर्य और धैर्य  तथा एक घोडा बल  मात्र रह गया। उस रथ का शेष भाग तो तुम्हारे गुणगण थे।यथाः
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।s
तुम्हारे दोनों भाइयो में से टूटा-फूटा अदृढ्पंगु रथ तो तुम्हारे पास है और पहिए.तथा एक घोड़ा रावणके पास है; इसलिये तुम दोनों के एक साथ रहने से वह अजेय रहा,पर यथाःतुम्हारे त्याग से उसका विजय रथ ही टूट गया।यथाः
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥s
राम जी अब उस जयप्रद रथ वा वर्णन करते हैं।
(सौरज=शौर्य=शूरता=पराक्रम)(शील=चरित्र की दृढ़ता=सदवृत्ति) सौरज और धीरज दोनों धर्म रथ के आधार और गति दाता है शूर और धीर रण में पीछे नहीं हटते और ना ही अधीर होते है! (भाव कि जैसे चक्रके बिना रथ नहीं चलता वैसे ही शौर्य और धैर्य के बिना धर्मरथ नहीं चल सकता) धर्मरथ के चाक पीछे नहीं हटते।भाव कि हम जिस रथ पर सवार हैं वह पीछे तिल भर किसी के हटाये नहीं हट सकता ।अर्जुन ओर कर्णादि के रथ की तरह यह रथ पीछे नहीं हटेगा|अपने स्वभाव को धर्म के अनुकूल रखना शूरता है और चाहे कितना भी विघ्न या दुःख हो पर धर्म से नहीं हटते ये धीरता ही है!  महाभारत बताया है कि ‘सुख या ढुःख प्राप्त होने पर मन में विकार ना होना ही धैर्य है सदा सत्य बोलने: सदा क्षमा करने तथा हर्ष भय और क्रोध का परित्याग करने से धैर्य की प्राप्ति होती है!बिदुर जी बोले जिस आत्मनदी का संयम पवित्र तीर्थ है, सत्य जल है; शील  तट हैं; और दया तरंग  है; हे पाण्डु पुत्र युधिष्टिर! उसी नदीमें स्नान करों अंतरात्मा जल से नहीं शुद्ध होती है! सत्य और सील मुख (बाणी) और नेत्र से जाने जाते है!ये दोनों अंग शरीर में ऊँचे है !
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
शौर्य और धैर्य दोनों आवश्यक हैं,केवल एक हो तो जय न होंगी। आपातकाल में धीरज और धर्मकी परीक्षा होती है-
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।।s
सत्य;को दृढ़ ध्वजा कहने का भाव कि-सत्य सब संत धमो मे श्रेष्ठ है; इससे बड़ा दूसरा धर्म नहीं।यह सब धर्मोका मूल है; ‘सत्य’ ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड़ है।यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है॥ यथा-
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।s
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥s
“शील”महाभारत में बताया-की धर्म,सत्य,सदाचार बल और लक्ष्मी ये सब शील के ही आधार पर रहते है!शील प्राप्ति के उपाय ये है!मन,वचन,कर्म से किसी से भी द्रोह ना करे !सब पर दया करे शक्ति अनुसार दान देवे! यही शील का स्वरुप है जिस तरह जिस काम के करने से मानव समाज में प्रसंसा हो वह काम उसी तरह से करना चाहिए!
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। बल,बिबेक, दम, परहित, ये धर्म रथ के चारो घोड़े है ! जो छमा, कृपा,और समता रुपी डोरी से रथ में जोड़े गए है ! बल का अभिप्राय आत्मबल से है विवेक का अभिप्राय सत्य और असत्य को जान कर सत्य को ग्रहण करना विवेक है!असत्य माने जिसकी सदा स्थिति नहीं है वह असत्य है पर सत्य वह है जिसका कभी नाश नहीं होता ! रथ मे दो घोड़े आगे और दो पीछे जोते जाते हैं। श्री जानकी दास का भाव तीन रस्सियों से चार घोड़े केसे बँघे? उत्तर-रथमें दो घोड़े आगे और दो उनके पीछे हैं। आगेके दो घोड़े दो रस्सियोंसे बंधे हैं और उनके पीछे के दो घोड़े एक रस्सी में  बँघे हैं । आगेके घोड़े दहिने बायें फेरे जाते हैं ओर पीछे वाले उनके अधीन चलते हैं, उनको मुरकाना वा फेरना नहीं पड़ता।यहाँ बल और परहित आगे के घोडे हैं।क्षमा रूपी रस्सी से बल बंधा है और कृपा से परहित; क्योंकि बल क्षमा के अधीन दे और परहित कृपा के अधीन है।विवेक और दम पीछे के घोड़े हैँ, ये समता-रूपी रस्सी मे बधे हैँ यहाँ बल का अर्थ आत्मबल से है! पं० विजयानन्द त्रिपाठीजीका मत है निर्बल या अविवेकी पुरुष क्षमा नहीं कर सकता। जहाँ क्षमा है वहाँ बल ओर विवेक अवश्य हैं | इसी प्रकार जहाँ कृपा नहीं है वहाँ इन्द्रियदमन या परहितका अभाव है। बिना इन्द्रियदमन के मनुष्य दयावीर नहीं हो सकता|
परहित-निस्वार्थ दूसरे के साथ भलाई करना परहित है।यथाः 
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥S
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥S
और समता का यथाः 
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥S
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
ईश्वर का भजन चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल हैऔरसंतोष दोधार खंडक है!
(ईस= शंकर) रथ सारथी के अधीन है तथा घर्मरथ शंभु भजनाधीन है। क्योंकि शिवजी धर्मके मूल हैं, देव दानव से भी  दुर्जय जिसकी लंका का कोट है  और जो रावण स्वयं  इन्द्र, ब्रह्मा  और विष्णु से भी अजेय है उसे आप बिना शंकर की कृपा के कैसे मार सकते हैं ?
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥s
जो ईश्वर का भजन करता है; समय पड़ने पर स्वयं ईश्वर उसकी सहायता करता है । वह सुजान है; उससे कहना नहीं पड़ता; वह स्वयं ही जानकर रक्षा करता है। करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥s
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥s
जो संसारके पदार्थो का त्याग करे वह ‘वैरागी? और जो दिव्य पदार्थो का त्याग करे वह परम वेरागी’ । मन में विषय भोगो की कामना न होने देना वेराग्य है | कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥s
24 सिद्धि वा तीन गुणों की यानी ब्रह्मा विष्णु महेश ये ही तीन देवता है!और ये ही तीन गुण है !जो इन तीनो गुणों की भक्ति वा सिद्धि को तिनके के सामान त्याग देगा तब भक्ति की पहली सीडी चढ़ पायेगा!
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥s
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥s
यहाँ रजोगुण के (अधिष्ठाता= मुखिया=ईश्वर)  विधि, सत्वगुण के अधिष्ठाता हरि और तमोगुण के अधिष्ठाता हर अपने गुण सम्बन्धी सब प्रकार- के सुख तथा सिद्धियोंका लोभ दिखा रहे हैँ,पर परम बैराग्वान्‌ स्वयंभू  मनु को उन  गुणों तथा सिद्धियोंकी इच्छा नहीं हुई |
भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥s
‘बिरति चर्म”रथ,घोड़े,सारथी,होने के साथ साथ रथी की  रक्षा के लिए रथ पर ढाल तलवार आदि रखी होनी चाहिए,जैसे ढाल से देह की रक्षा होती है,वैसे ही वैराग्य से रथी(जीव)की कामादि विघनों से रक्षा  होती है अन्यत्र भी कहा हैवैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद,लोभ और मोह रूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करती है,वह हरि भक्ति ही है,हे पक्षीराज!इसे विचार कर देखिए॥
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥s
संतोष का अर्थ इच्छा से रहित होना है यथाः
गोधन गजधन बाजिधन, और रतनधन खान।
जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥
आठव जथा लाभ संतोषा । सपनेहु नहीं देखई परदोषा ॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
“दान परसु?श्रुति की आज्ञा है कि अपने  ऐश्वर्य के अनुसार श्रद्धा, अश्रद्धा ,लज्जा अथवा डर से जानकर वा अनजान में चाहे जेसे दे, पर दान अवश्य देना चाहिये।धन की उत्तम गति दान ही है।
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥
दान से पाप कटता है,परसु से पेड़ और पर्वत कटते हैं| रथ का मार्ग वृक्ष और पर्वत से बंद हो जाता है| पाप वन और पर्व॑त हैं|
गीता में!हे पार्थ प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति  मार्ग को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को एवं भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को जो बुद्धि  यथार्थ जानती है वह सात्विक है।ऐसी बुद्धि शक्ति रूपा है।शक्ति जितनी  पैनी हो उतनी उत्तम है,वैसे ही बुद्धि भी पेनी(तीव्र)ही उत्तम होती है; शक्ति के देवता ब्रह्मा होने से ही वह अमोघ है|उसने लक्ष्मण जी को  भी न छोड़ा तब दूसरेकी क्या चली?वह व्यर्थ न हुई।शक्ति अस्त्र और शस्त्र दोनों है अर्थात्‌ यह हाथ से भी मारी जाती है और फेककर भी चलयी जाती है।
भगवान ने स्वयं कहा है कि जो जीव (अव्यभिचारी= सदाचारी)भक्ति योग के द्वारा मुझको निरंतर भजता है !वह मुझको पाने के योग्य हो जाता है इस प्रकार की भक्ति के द्वारा जो विज्ञान प्राप्त होता है यह  “बर विज्ञान”  है ,क्योकि इसमें भगवान विज्ञानी भक्त की विघनों से  बचाते है ! जैसे समस्त साधनों में विज्ञान सर्वश्रेष्ठ हे वेसे ही समस्त उपकरणों में धनुष सर्वश्रेष्ठ है।जिस विज्ञान में भक्ति भी हो वह “वर विज्ञान” है! (वरविज्ञान= ज्ञान युक्त भक्ति)
भगति करने से ही सुक ,सनकादि ,नारद जी विज्ञान विशारद कहलाए है यथाः
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥s
पर विज्ञान काम-क्रोधादि के अधीन हो जाता है। यथा
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥
हे तात! काम, क्रोध और लोभ-ये तीन अत्यंत प्रबल दुष्ट हैं। ये विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पलभर में क्षुब्ध कर देते हैं॥
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
विषय-रूपी मल से रहित मन अमल है(अचल= चंचलता रहित)ऐसा मन तर्कश के समान है।जिस तरह तर्कश में बहुत-से बाण रहते हैं! उसी तरह शुद्ध मन में शम,यम और नियम के ही संकल्प हुआ करते हैं! संयम-नियमादि के सामने विषय नहीं ठहर सकते,शम, यम और नियम का आधार निर्मल मन है जैसे बाण का आधार (तूण=तरकश है)। विषयों में ही मन का अनुराग ही मन का मल है विषयों मे जिनका चित्त नहीं लगा हैउनको निर्मल मन कहतेहै। जैसे अशुद्ध मन में विषय सम्बन्धी मनोरथ हुआ करते है!यहाँ पर शम,यम और नियमोंको नाना प्रकारके बाण कहा है| वाण हमेशा लक्ष्य वेध करता है;जैसे चंचल को  रस्सी से बाँध देने से वह अचल हो जाता है वैसे ही समस्त विषयों से मन को हटाकर उसे प्रभुपद लगा देने से वह बँध जायगा अर्थात अचल हो जायगा। यथा राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥s
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।s
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥s
“शम यम नियम? इति | अन्तःकरण तथा अन्तर इन्द्रियों कों वश में करना “शम? है। यम-चित्त को धर्म कार्य में स्थिर रखने वाले कर्मो का साधन |नियम-शौच-संतोष आदि क्रियाओं का पालन करना और उनको ईस्वर को अर्पित करना।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥
अभेद=अभेद्य=जिसका छेदन न हो सके, जिसके भीतर अस्त्र-शस्त्र  न घुस सके कवच-लोहें के कड़ियों के जाल का बना हुआ पहनावा जिसे योद्धा छड़ाई के समय पहनते थे |ब्राह्मण और गुरु की पूजा अभेद्य कवच है | इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है ॥ यथाः
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥s
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥s
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥s
ब्राह्मण और गुरु की पूजा में छिद्र न हों तो पूजक पर शत्रु का शस्त्र कुछ भी काम नहीं कर सकता।
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥s
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥s
विष्णु भगवान ने  विप्र पद चिह् ( भृगुलता ) को हृदय में  धारण किया,इससे उन्होंने समस्त दैत्यों को जीत लिया |
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥s
सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं,॥ (अभेद= जिसके भीतर आयुध ना घुस सके)
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥
“धर्ममय अस रथ?से जनाया कि इस रथ के जितने अंग ऊपर कहे हैं वे सब भी धर्म ही हैं।“जाके!अर्थात्‌ जिसके पास हो वह ही शत्रु-रहित हो सकता है। आशय से जनाया कि ये सब अंग हम में स्थित हैं; इससे रावण को पराजित ही समझो।शत्रु देखने मात्र को है;नहीं तो वह मारा हुआ है ही।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥
(मतिधीरा= बुद्धिमान व्यक्ति को धैर्य वान होना चाहिए कभी कभी बुद्धि की अधिकता जीव को अधीर बना देती है!इस समय जब शिक्षा का युग में बुद्धिमान होना सरल है पर धैर्य वान होना उतना ही कठिन होता जा रहा है !अगर बुद्धि के साथ धैर्य जुड़ जाये तो लक्ष्य बिलकुल ही सरल होगा ही या हो जायेगा! सुंदरकांड में हनुमान के लिए मति धीरा कहा गया है) यह ससार रूपी शत्रु बड़ा अजय है। इसको वही वीर जीत सकता है।जिसके पास ऐसा दृंढ  रथ हो ।हे मतिधीर सखा! सुनो।यह ससार वन्धन का कारण है इसलिए शत्रु है। सारा दुख इसी के कारण से भोगना पडता है।और यह महा अजय है। अनादि काल से प्राणी दु ख उठा रहा है पर इससे छूट नही सकता। जिन्होंने ने इन्द्रादिक को जीता वे भी इसके जीतने मे सफल अर्थात समर्थ नही हुए।
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अंगद के मन में सन्देह =अंगद के लिए कहा जाता है कि उसको गुरु का श्राप था कि अक्छय कुमार के एक घूसे से मारा जायेगा इसलिए कहा जियँ संसय कछु था इसको हनुमानजी ने पहली बार में ही मार डाला! (भाखा= बात,कथन, भाषा,बोली)
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
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सीता के मन में सन्देह (सीता ने कहा-) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान(नन्हें-नन्हें से)होंगे,राक्षस तो बड़े बलवान,योद्धा हैं॥    (जातुधान= राक्षस,असुर)(भट= योद्धा)
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।।
मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!)।यह सुनकर हनुमान्‌जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान्‌ और वीर था॥ (भूधराकार= पर्वताकार)
मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।।
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है। (अत्यंत निर्बल भी महान्‌ बलवान्‌ को मार सकता है)॥
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।
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श्री रामचंद्जी के मन में संशय-बालि प्रभु को लेकर अत्यंत भ्रम की स्थिति में था।इधर सुग्रीव के मन की अवस्था भी लगभग वैसी ही थी।उसमें भी श्रीराम जी के प्रति अडिग विश्वास का अभाव था। तभी तो सुग्रीव श्रीराम जी की परीक्षा तक ले लेता है। उनसे ताड़ के पेड़ कटवाता है व दुदुंभि राक्षस के पिंजर तक उठवाता है।केवल श्रीराम जी के प्रति ही नहीं अपितु सुग्रीव तो बालि के प्रति भी भ्रम की स्थिति में है। वह बालि को कभी अपने परम शत्रु के रूप में देखता है और कभी अपने क्षणिक वैराग्य के कारण माया रचित कोई लीला का अंश मानता है। अर्थात् सुग्रीव सिर्फ भ्रम नहीं अपितु महाभ्रम की स्थिति में है।
प्रभु ने जब देखा कि सुग्रीव और बालि दोनों ही भ्रम की स्थिति में हैं तो निष्कर्ष यही था कि भ्रम का भ्रम से कभी युद्ध हो ही नहीं सकता। केवल मिलन होता है। ठीक वैसे जैसे अंधकार और अंधकार का मिलन स्वाभाविक है। लेकिन युद्ध की बात हो तो युद्ध अंधकार और प्रकाश के मध्य होता है। बालि अंधकार है और सुग्रीव प्रकाश,तो युद्ध होना निश्चित ही था। लेकिन यहाँ तो वह दोनों भाई ही अंधकार व भ्रम के रूप में एक जैसे हैं।ऐसे में भला मैं किसे मारूँ और किसे छोडूँ। इस स्थिति में हमने भी आपके इस भ्रम−भ्रम के खेल में शामिल होनें का मन बना लिया। और कह दिया कि हमें भी भ्रम हो गया। वाल्मीकिजीके वचन-दोनों वीर समान थे। अश्विनीकुमारोंके समान उनमें कुछ भी भेद  न जान पड़ता था । अलंकार,वेष,शरीरकी उँचाई लम्बाई चौड़ाई इत्यादि और चालसे तुम दोनों समान हो ।स्वर,तेज,दृष्टि,पराक्रम ओर वाक्यों से दोनों में भेद न जान पड़ा। इसी रूप-सादश्य से मोहित होकर मैंने शत्रुनिहंता वाण नहीं छोड़ा। वीरकवि जी बालिको परमहित कहा था,इसीसे न मारा पुनः,भ्रम करुणा को भी कहते हैं इससे यह अर्थ हुआ कि श्री रामचन्द्र- जी ने विचारा कि यदि वालि भी सुग्रीव ऐसा अनुरागी हो जाता तो बच जाता। तुमको तो मेरा विस्वास सप्त ताल वेधन से हो गया पर वालि ने भी मुझे समदर्शी कहा हैं । अतएवं शरणागत के भ्रमसे नहीं मारा! प्रभु तो शत्रुमित्रभाव रहित सबसे एकरस हैं ! (ख) वालि ने समदर्शी कहा और सुग्रीवने भी उसे परमहित कहा ।(अतएव यदि बालि को मारते तो संभव था कि सुग्रीव कहता कि उसको व्यर्थ मारा,उससे तो मेरा वेर भाव नहीं रह गया था)इस विचार से दोनों को एकरूप कहा।
एक रूप तुम्ह भ्राता दोऊ तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥
सुनो सुग्रीव तुम्हारा भ्रम (तुम दोनों ही भ्रम की अवस्था में थे)
हे रघुवीर! सुनिए,बालि महान्‌ बलवान्‌ और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए। रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया।
(रनधीरा= युद्ध में धैर्यपूर्वक लड़नेवाला) श्री रामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालि का वध अवश्य करेंगे। वे बार-बार चरणों में सिर नवाने लगे। प्रभु को पहचानकर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे॥ (परतीती-किसी बात या विषय के संबंध में होने वाला दृढ़ निश्चय या विश्वास, यकीन) (अलोल= अचंचल,इच्छा या तृष्णा से रहित) (लोल= चंचल) (अलोल= शांत)
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा॥
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥
बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥
उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥
बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥
और तुम्हारे भाई का भ्रम तुम्हारा भ्रम तो ये सब देख कर भी दूर नहीं हुआ पर बाली तो बिना देखे ही अपनी पत्नी से बोल रहा है!
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥
कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥
कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥
दूसरे, कोई शरणागति का चिन्ह भी सुग्रीव को ना दिया था जिससे बालि जान लेता कि सुग्रीव रामाश्रित हो चुका है,अब भागवतापराध अब प्रभु  न क्षमा करेंगे।अब सुग्रीव ने उसे काल कहा है,अतःअब मारेगे!
मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना॥
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी॥
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पार्वती जी के मन में संशय -जगत को पवित्र करनेवाले सच्चिदानंद की जय हो,इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करनेवाले शिव चलपड़े।कृपानिधान शिव बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सती के साथ चले जा रहे थे।
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
सती वाक्य -वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?(इव= समान, नाई ,तरह, सदृश, तुल्य) (अग्य= अज्ञानी, जिसे ज्ञान या समझ न हो)
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥s
अतः सती जी के मन में संसय हुआ
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥
शंकर जी हे पार्वती!जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥
जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥
शंकर जी हे पार्वती!अज्ञानी मूर्ख मनुष्य अपना भ्रम तो समझता नहीं,उलटे मोह का आरोपण राम जी पर करता है जैसे आकाश में मेघ पटल देख कर कुविचारी मनुष्य कहता है कि मेघो ने सूर्य को ढक लिया (जड़ =मुर्ख प्राणी जीव मनुष्य) (पटल= परदा )(झापना= ढक लेना ,छिपा देना )(जथा = यथा= जैसे,जिस तरह से, पहले जैसा)
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी।।
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी।।
शंकर जी हे पार्वती!श्री राम जी सूर्य है ,मोह रात्रि है ,और सूर्य के यहाँ रात्रि कभी होती ही नहीं वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान तो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं)। सच्चिदानन्द मुख्यतः तीन शब्दों व पदों को जोड़कर बनाया गया है जिसमें पहला पद है सत्य,दूसरा है चित्त और तीसरा पद आनन्द है। यह ईश्वर का स्वाभाविक स्वरूप अनादि काल से है व अनन्त काल अर्थात् हमेशा ऐसे का ऐसा ही रहेगा, इसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं होगा, देश-काल-परिस्थितियों का इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा।
(दिनेसा= सूर्य) (लवलेसा= अत्यंत अल्प मात्रा, नाममात्र का परिमाण) (बिहाना= छोड़ना,त्यागना)
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा।।
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना।।
यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा,पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥
क्योकि ऐसा संशय हृदयमें लाने से ज्ञान -वेराग्यादि गुण नष्ट हो जाते!यथाः
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
शिव माता पार्वती से कहते है बिना परीक्षा के ‘अति संदेह”नहीं जाता! (किन= क्यों नहीं)
जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥
पं०रामकुमारजी-प्रभुकी परीक्षा लेनेके लिये उनके सम्मुख जाना विपरीत विधि’ है दूसरा भाव यदि सती  वहाँ जाकर कोई विपरीत बात करे तो भलाई नहीं।तीसरे हम इनके पति हैं| पतिव्रता होकर भी हमारे बचन से  प्रीति नहीं है,इसीसे बिधाता विपरीत हैं!उत्तम शिक्षा को मान लेना “उत्तम ( कल्याणकारी ) विधि? है और उस पर ध्यान न देना, उसे न मानना विपरीत विधि? है।यथाः
संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥s
बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥s
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥s
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥s
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना।।s
नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥s
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥
श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।)॥
जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥ 
(तब उन्होंने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी  लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री राम जी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥
सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥
सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे॥
देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥
(उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥
(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय  और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं॥
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥
फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे॥
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥
कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई॥
मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥
जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥
गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥
सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्‌! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया॥
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥
आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥
फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥
बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥
सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥
शिव माता पार्वती से कहते है रामकथा कलियुगरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है।हे गिरिराजकुमारी!तुम इसे आदरपूर्वक सुनो।
(कर तारी=हाथ की ताली दोनों हथेलियों के परस्पर आघात का शब्द) (कलि= कलयुग,कलह,पाप,मलिनता) (कुठारी=कुल्हाड़ी)
राम कथा को “करतारी “जनाया कि सबको सुलभ है ,कयोंकि हाथ सबके होते है ताली बजाना अपने अधीन है “करतारी ” अपने पास है ,मानो कामधेनु अपने घर में बंधी है सभी घर बैठे सुख प्राप्त कर सकते है ,दूसरा भाव वक्ता और श्रोता दोनों सुन्दर अर्थात ज्ञानी विज्ञानी हो जब ऐसे श्रोता वक्ता परस्पर  राम कथा कहते सुनते  है तब उनके शब्द सुनकर सब जीवो के संसय रुपी पक्छी उड़ जाते है ये उड़ कर संसय रुपी पेड़ पर बैठते है विटप कुठारी इन पेड़ो को कटती है जिससे संसय रुपी पेड़ो का अड्डा समाप्त हो जाता है
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
सादर सुनु ॥ का भाव राम चरित आदर पूर्वक सुनना चाहिए चारो वक्ताओं ने अपने अपने श्रोताओ को सादर सुनने के लिए बारबार सावधान किया है दूसरा भाव “सादर सुनु” कि पाप का नाश तथा संसय की निवृति एवं बुद्धि की मलिनता का सर्वथा अभाव तभी होगा जब कथा सादर सुनी जाएगी और सादर श्रवण तभी होगा जब उसमे श्रद्धा हो कथा औषधि है,श्रद्धा उसका अनुपान है यथा
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
इसी से राम कथा सादर सुनने की परम्परा है
तुलसी बाबा
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही।।s
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥s
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥s
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥s
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥s
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥s
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई।।s
यग्वालिक
तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई।।s
कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥s
भुशुण्ड जी
सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई॥s
तथा यहाँ शिवजी ने “सादर सुनु गिरिराजकुमारी” कहा
शिवजी पार्वतीजी से बोले-॥
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा॥
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।
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रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बाँध लिया, किन्तु उससे देवताओं को बड़ा भय हुआ॥
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा॥
इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो॥
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥
नारद जी को विशेष चिंता हुई इसका कारन यथाः
मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥s
बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥
जिसके नाम से सभी बंधन कट जाते है उसके बंधन मेने काटे! ये कैसा भगवान
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
मन को समझाना या समझना बहुत ही कठिन है!इसका कारण यह है कि मन बाहर भी है और अंदर भी है,भला भी है और बुरा भी है,सूच्छम परमाणु भी है और असीम ब्रम्हांड भी है,इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं जो मन से पृथक हो ऐसी स्थति में मन का निरूपण करना अत्यंत कठिन कार्य है!
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।।s
नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा।।
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।
ये कैसा भगवान
बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।
सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया।।
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही॥
महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥
ब्रह्माजी चार वेद के रचयता के पंडित है उनके पास जाओ
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होई निदेसा॥
शिवजी कहते है – तब पक्षीराज गरुड़ ब्रह्माजी के पास गए और अपना संदेह उन्हें कह सुनाया।उसे सुनकर ब्रह्माजी ने रामचंद्रजी को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यंत प्रेम छा गया॥ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान्‌ की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है॥ प्रणाम का यह भी हेतु है कि आप और आपकी माया घन्य है,कि,गरुढ़ तक को भी तमाशा बना लिया!
तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ॥
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥
हे गरुड़! मेरे को तुम वैद समझ रहे हो अब तुम (वैदनाथ=शंकरजी) के पास जाओ!हे तात! और कहीं किसी से न पूछना।
बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू॥
मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥
तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥
कथा वाचक को सुसील,प्रबीना,ग्यानी,बहु कालीना होना चाहिए!
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला॥
राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा॥s
राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥
कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा॥
आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा॥
अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥
करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥
गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले-॥ नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था मनुष्यों का सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया।हे तात! यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?॥
देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥
जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥
गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले-॥
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥
क्योकि लोमेश जी का भुसुंड जी को वरदान है कि- इतना ही नहीं, श्री भगवान को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया मोह) नहीं व्यापेगी॥
जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत॥s
गरुड़जी ॥ जानेहु सदा मोहि निज किंकर। का भाव यह है कि में अजीवन आपका दास हूँ आज्ञा देते रहियेगा!मेरे जीवन और जन्म दोनों सफल हुए और आपकी कृपा से सब संसय दूर हो गए! (प्रसाद=अनुग्रह,कृपा)
जीवन जन्म सफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर।।
गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले-॥ शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैं, जिसे श्री रामजी कृपा करके देखते हैं। श्री रामजी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया॥
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥
राम कपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥
(गरुड़जी ने कहा-) हे तात! मुझे संदेह रूपी सर्प ने डस लिया था और (साँप के डसने पर जैसे विष चढ़ने से लहरें आती हैं वैसे ही) बहुत सी कुतर्क रूपी दुःख देने वाली लहरें आ रही थीं॥आपके स्वरूप रूपी गारुड़ी (साँप का विष उतारने वाले) के द्वारा भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी ने मुझे जिला लिया।
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक।।
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना।।
काकभुशुण्डि गरुड़जी से बोले-॥ (मिस= बहाना,ढोंग, बहाने से)
तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥
पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥
(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! भुशुण्डिजी के वचन सुनकर गरुड़जी हर्षित होकर कोमल वाणी से बोले- हे प्रभो! आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब संदेह, शोक, मोह और कुछ भी नहीं रह गया॥
सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥
 
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