

यह सब माया कर
माया का परिवार-संतो द्वारा सुन्दर व्याख्या माया अकेली नहीं है इसके परिवार में के आठ पुत्र,आठ पुत्र वधु और माया स्वयं मिल कर कुल सत्रह सदस्य है माया (मा=ना,नहीं) (या=जो) जो है नहीं पर सत्य समझ में आता है।
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि।।
1 (मोह की पत्नी मूर्छा)
मोह निशा सब सोवनहारा | देखहिं स्वप्न अनेक प्रकारा ||.
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
जब मोह और काम ने ब्रह्मा जी शंकर जी सनकादिक नारद जी तक को नहीं छोड़ा तो इस संसार में ऐसा कौन है जो मोह और काम के वशीभूत नहीं हुआ।
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके।।
रामजी ने नारद जी से कहा- हे मुनि सुनिए मोह तो उसके मन में होता है जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है।
2 (काम=कामना की पत्नी रति =आसक्ति)
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं।।
आसक्ति का अर्थ लगाव है। आसक्ति से जीव को सकारात्मक ऊर्जा और प्रेरणा तो मिलती है, पर जब व्यक्ति को किसी से इतना अधिक लगाव हो जाता है कि वह उसके बिना रह नहीं पाता या उसे उसके अभाव में कुछ भी अच्छा नहीं लगता तो यह प्रवृत्ति आसक्ति बन जाती है, जो एक प्रकार का नशा है। किसी वस्तु के प्रति अत्यधिक रुचि होना ही आसक्ति है।आसक्ति एक बंधन है, जिसमें फंसकर जीव छटपटाता रहता है। आसक्ति के कारण पुनः जन्म पुनः मरण होता है।
सती मरत हरिसन वर मांगा । जन्मजन्म शिवपद अनुराग ॥
तेहि कारण हिमगिरि गृह जाई । जन्मी पारवती तनु पाई॥
3 (क्रोध =की पत्नी हिंसा) (हिंसा=हत्या,अनिष्ट या हानि) ऐसा कार्य जिसके करने से अन्य का अनिष्ट या हानि या असुविधा हो हिंसा की श्रेणी में आते है (सूत्र) किसी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से यदि कोई नुकसान पहुँचता है तो वह हिंसा ही है। मन से अहित का सोचना, वाणी से बुरा अभद्र बोलना भी हिंसा है। जैन धर्म का तो मूलमंत्र ही अहिंसा परमो धर्म: कहा गया है। (परम =सबसे बड़ा)
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।
4 (लोभ की पत्नी तृष्णा )
(सूत्र) संतो का मत जीव को संसार के सभी भोग प्राप्त भी हो जाये तो भी तृप्ति नहीं होती।
काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।।
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
तृष्णा =जीव का स्वाभाव कितना भी मिल जाये पर संतोष नहीं होता मरते समय भी मनुष्य इसके पाश से बंधा रहता है। इसका नशा मनुष्य को बबला बना देता है भर्तहरि जी ने कहा मनुष्य जीर्ण हो जाता पर उसकी तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती वह तो नित्य नवीन ही बनी रहती है।
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार।।
ज्ञानी तपस्वी शूरवीर कवि (कोविद=प्रकांड विद्वान) और सर्वगुणधाम ऐसा इस संसार में कोई भी नहीं है जिसकी लोभ ने मट्टी पलीत न की हो।
5 (दंभ की पत्नी मलिन आशा)
भुसुण्ड जी ने कहा हे पक्षीराज गरुड़जी! कलिकाल में तो कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्ड भर में व्याप्त है (दंभ=प्रतिष्ठा के लिए झूठा आडंबर, पाखंड)
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड।।
6 (मद =की पत्नी अविद्या)
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि।।
नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
अहंकारी मूर्ख ही होता है मद में डूबा हुआ व्यक्ति अपने बारे में सदैव अच्छा ही सुनना चाहता है। उसकी चाहत होती है कि हर कोई उसकी तारीफ करे और उसे सम्मान दे। अहंकारी को किसी की भी बात सुनना पसंद नहीं होता है।
7 ( अधर्म की पत्नी स्पर्धा )
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
8 (अज्ञान की पत्नी दुर्गति)
ये सभी मिल कर संसार को दुखी कर रहे है।
जब माया पति अर्थात भगवान चाहेंगे तभी माया से जीव बच सकता है अन्यथा कोई बचने का उपाय नहीं है।
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया।।
ब्रह्म माया को नहीं देखता,पर माया हमेशा ब्रह्म की ओर देखती रहती है यथाः
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा।नाच नटी इव सहित समाजा॥
क्योकि
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा।।
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा।।