भगवान राम का स्वभाव सहज और सरल है। ऐसा स्वभाव जिस भक्त का होता है उस भक्त को भगवान तुरंत अपना बना अर्थात अपनी शरण में ले लेते हैं। जिसको रामजी अपना बना लेते हैं अगर वह रामजी और रामजी के कार्य को भूल भी जाए तब भी अपनाए हुए भक्त का रामजी त्याग नहीं करते हैं। भगवान ने स्वयं कहा (सहज=प्राकृत,स्वाभाविक,जो वास्तव-रूप है)
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पावहि निज सहज सरूपा।।
(सूत्र) सहज स्वरूप जीव का क्या है? माया रहित सरूप ही जीव का सहज सरूप है! सहज सरूप के प्राप्ति के समान और किसी पदार्थ की प्राप्ति नहीं है! अतः इसको अनूपा कहा! सहज स्वरूप की प्राप्ति ही (कैवल्य=मुक्ति) पद है। यह मेरे दर्शन का फल है। मेरे साक्षात्कार के विना मुक्ति नही होती। मेरा दर्शन (साक्षात्कार) परम अनूप है। जो मेरा स्वरूप ही बना देता है। (कैवल्य= मोक्ष, मुक्ति)(अनूप= उपमारहित, अतिसुंदर,निराला)
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥
पर माया में लिप्त होने से जीव का सहज सरूप नहीं रहता
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥ मायाबस स्वरुप बिसरायो। तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो ॥
प्रभुदर्शन किस प्रकार होता है और जीव का सहज स्वरूप कैसा है? वेद रीति यह कहती है कि करोड़ों कल्पों तक ज़प, तप, होम, योग, यज्ञ और ब्रह्म ज्ञान में रत रहे तब अन्तरबाहर शुद्ध होकर भक्ति प्राप्त होती हे, तब दर्शन होते हेँ। यह साधन साध्य (क्रियासाध्य रीति) है। पर प्रभु के दर्शन केवल और केवल कृपा साध्य रीति से होता है! क्योकि प्रभु ने स्वयं कहा है! (अघ=अपवित्र, पापी,पाप)
सन्मुख होय जीव मोय जबहीं। कोटि जन्म अघ नासों तबहीं।
——————————————————————————– श्रीरामजी को जहाँ भी कार्य आरंभ में हर्ष हुआ है पर कार्य की सफलता में एक भी स्थान पर हर्ष का उल्लेख नहीं मिलता है।(सूत्र) कार्य आरंभ में उत्साह कार्य सिद्धि का सूचक होता है।
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥
श्री रामजी तो हर्ष विषाद रहित है तब यहाँ स्वभाव-विरुद्ध हर्ष कैसे हुआ ? (समाधान) श्रीरामजी केवल दो कारणों से हर्षयुक्त होते हैं, एक तो जब भक्त का अनन्य प्रेम देखते हैं, दूसरा जब वे स्वयं भक्त पर परम अनुग्रह करना चाहते हैं। उठे हरषि जिस कार्य के लिए चौदह वर्षो का वनवास स्वीकार किया एवं प्रतिज्ञा पूरी होने का लक्षण देखकर उठे हरषि कहा ।रामजी सब कारण जानते हैं। रावण का भेजा मारीच आ गया।इसीलिए इसका वध नहीं किया था। समुद्र पार फेंक दिया था। क्योंकि इसी के द्वारा देवताओ के सब कार्य होंगे। अन्य भाव क्योकि सुर काज सवारना है । प्रभु सब जानते हैं कि यह मारीच है और साथ में रावण भी आया है। बाल्मीक रामायण में तो श्री लखन जी ने और श्री रामजी ने भी स्पष्ट कहा है कि यह मारीच है, इसे तो मुझे मारना ही है! यदि देवकार्य को सँवारना न होता तो वहीं से मार देते जेसे जयन्त को दण्डित किया । पर बिना यहाँ से उठकर दूर गए न तो रावण आयेगा, न सीताहरण होगा, न उसका वध होगा और न ही देवकार्य होगा ।आगे भी कहा गया है! यद्यपि देवताओं की रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं, तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं।(सुरत्राता= विष्णु श्रीकृष्ण)
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥
जिनको मन सहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्कना नहीं कर सकते; जिनकी महिमा को वेद ‘नेति’ कहकर वर्णन करता है और जो (सच्चिदानंद) तीनों कालों में एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं। (निर्विकार= विकाररहित)
मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।। महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।
वेद जिनके विषय में ‘नेति-नेति’ कहकर रह जाते हैं और शिव भी जिन्हें ध्यान में नहीं पाते (अर्थात् जो मन और वाणी से नितांत परे हैं), वे ही राम माया से बने हुए मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। (नेति-नेति=यह नहीं, यह नहीं’ या ‘यही नहीं)
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
यह आश्चर्य ही है की भक्त जनों का उद्धार करने के लिए लीला चरित्र ही करते हैं, नहीं तो ऐसे रामजी को रावण और निशाचर वध करने के लिये ऐसी क्या आवश्यकता है? जब ‘भृकुटि बिलास जासु लय होई” राम जी ने स्वयं कहा
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥
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हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पंक्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल। (खंजन= काले रंग की एक प्रसिद्ध चंचल चिड़िया)( सुक= तोता) (कपोत= कबूतर) (मृग= हिरन) (मीना=मछली) (निकर= झुंड,समूह,ढेर)
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥ खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥
सुनो,जानकी तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों। (अर्थात् तुम्हारे अंगों के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में फूल रहे हैं) पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्री रामजी मनुष्यों के चरित्र कर रहे हैं। (पूरकनाम= पूर्ण काम) (अज= अजन्मा) (जन्य= साधारण मनुष्य)
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥
जब पूर्ण-काम ही है; तो इनको कामना किसकी? तब वियोग- जन्य विरह कैसा? आनंद -राशि हैं तो दुःख कैसा? ‘अज अविनाशी ‘ अर्थात जन्म और नाश-रहित है, फिर भी मनुष्य जैसे चरित कर रहे हैं। यह माधुर्य लीला है।
आदि अंत कोउ जासु न पावा।मति अनुमानि निगम अस गावा॥ पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
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श्री रामजी महाराज दशरथ से बोले- (बिसमउ= विस्मय,आश्चर्य, ताज्जुब)
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥ पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै॥
हे पिताजी! आप मेरी चिंता न कीजिए। आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारा कुशल-मंगल होगा। (अनुग्रह=कृपा)
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥
हर्ष समय अर्थात आपके सत्य की रक्षा से जगत में आपका सुयश होगा और मुझे भी इस कार्य में उत्साह है! आपका विस्तृत यश है। आपके गुण समूहों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता,अधिक क्या कहू, आपके बराबरी का जगत में कोई नहीं है।
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं।।
धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥ पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥
रामचन्द्जी वाल्मीकि से बोले- यह संसार आपके लिए “करगत बेर के फल के समान है। अर्थात् संसार में जो कुछ हो रहा है वह सब आपको (प्रत्यक्ष= सामने) है। बदरी फल कहने का भाव यह कि आप संसार को (अपथ्य= बुरा,अहितकर) जानते हैं। आप जानते हैं कि राज्य महा बंधन है। इसके छूटने से मुझे हर्ष है! हे मुनिनाथ आप त्रिकालग्य है भूत भविष्य वर्तमान तीनो को आप देख सकते है यहाँ मुनि का ऐश्वर्य राम कहते है! वैज्ञानिकों ने पृथ्वी को गोल बाद में बताया !(बदर= बेर का पेड़ या फल) (करगत= हाथ में रखा हुआ)
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।। तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥
देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे।। सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥
रघु महाराज ने वेद मर्यादा का पालन किया उनके कुल में सब मर्यादा की रक्षा करते आये है और आप तो उस कुल में ध्वजा सरूप है!
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥
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रामजी परशुरामजी से हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा-सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम। (सूत्र) जब हम आपके चरणों में हम अपना मस्तक धरते है! तब बराबरी कहाँ रही? हमहि तुमहि का भाव हम सेवक है आप नाथ है! क्या सेवक स्वामी में कभी बराबरी होती है? हम छत्रिय है और आप ब्राह्मण है क्या बराबरी संभव है? (सरिबरि= बराबरी)
राम मात्र ‘ पद से नाम जाप करने वालों को श्री रामजी के मुखारविन्द से उपदेश हो रहा है (क) हमारा दो अक्षर का मंत्र है, इसमें और कुछ न मिलावें। (ख)-लघु’ कहकर सूचित किया कि मंत्र जितना ही छोटा होता हे, उतना ही उसका प्रभाव अधिक होता है | (ग) ‘हमारा! (बहु वचन) कहने का भाव कि इस मंत्र पर हमारा बड़ा ममत्व है, इसी से (राम नाम सब नामों से अधिक है, पुनः भाव कि हमें यह, दो अक्षर का ही नाम प्रिय है ओर जो इसे जपते हैं वे भी हमें प्रिय हैं। पुनः इसमें समस्त योगी लोग रमते हैं और आपका पाँच अक्षर का नाम है सो उसमें केवल फरसा ही रमा है।
राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा।।
जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यंत छोटा होता है। जैसे मतवाले हाथी को छोटा-सा अंकुश वश में करता है।(खर्ब= लघु,छोटा)
मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब। महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥
छोटा तो है पर
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।
राम परशुराम से – हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र(शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान,विज्ञान और आस्तिकता-ये) नौ गुण हैं। आप नाम में ही बड़े नही,आप गुण में भी बड़े है। मुझ मे केवल एक गुण है। धनुर्वेद जानता हूँ। रामजी ने परशुरामजी से बारबार ‘मुनि’ और विप्रवर कहा (अर्थात एक वार भी उनको वीर न स्वीकार किया),तब (परशु राम) रुष्ट होकर बोले कि तू भी तेरे भाई जैसा सरीखा टेड़ा है।
देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें।। सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे।।
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श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण से बोले-॥ सहज सुभाऊ’ अर्थात् उनका मन स्वतः वश में रहता है, उनको साधन करके मन को वश करना नहीं पड़ता। जैसे योगी लोग साधन से मन को कुपंथ से निवारण करते हैँ वैसे इन्हें नहीं करना पड़ता, स्वाभाविक ही इनका मन कुपंथमें नहीं जाता। ‘रघुबंसिन्ह’ से केवल अपने कुल से,रघु महाराज से लेकर रामजी तक से है! जैसे सब रघुवंशी इन्द्रियजित हैं .वैसे ही मैं भी हूँ । राम जी मर्यादापुरुषोत्तम हैं, कितने सभल कर बोल रहे हैं जिनमें (आत्मश्लाघा= आत्मप्रशंसा) स्वाभिमान छू भी नहीं सकता,ये कैसे अभिमानरहित वचन हैं। सपनेहु’ का भाव कि लोगों को जाग्रत में ज्ञान रहता है पर सोते में ज्ञान नहीं रहता, पर मेरा मन तब भी परनारी को नहीं देखता। ‘पर-नारि’ ही कुपथ हैं।
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥ मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥
श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण से बोले-॥ जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं।
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥ सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥
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राम जी नारद से हे मुनि! यहाँ प्रभु ने अपना स्वभाव अपने मुख से कहा है कि मैं भक्तसे कभी भी दुराव नहीं करता । तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो। क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव /पर्दा नहीं कर्ता करता हूँ? मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है,जिसे हे मुनि तुम नहीं माँग सकते? (दुराऊ= छिपाना) (जन= अनन्य दास, भक्त) (अदेय= न देने योग्य)
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥ कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥
इसी तरह विभीषणजी से भी अपना स्वभाव कहा है!
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।। जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम । ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥
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राम जी हनुमान्जी से बोले: यहाँ (वन में) राक्षस ने (मेरी पत्नी) जानकी को हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिए। (सूत्र) इस अवस्था में भी अपनी व्यथा को गा कर सुनने वाला रामजी ही हो सकता है।
कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु बचन मानि बन आए॥ इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥ आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥
‘आपन चरित’ अर्थात् जो हमने कहा है। वह हमारा चरित है। अर्थात रामायण है। यथा-‘कौसलेस दसरथ के जाए! यह बालकाण्ड है, हम पितु वचन मानि वन आये यह अयोध्याकाण्ड है, ‘इहाँ हरी निसिचर वेदेही’ यह अरण्यकाण्ड है और “विप्र फिरहिं हम खोजत तेही यह किष्किधाकाण्ड है।अर्थात वर्तमान तक की कथा कही।
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गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥
रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा माँगी समस्त जगत के स्वामी राम सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की-सी चाल से स्वाभाविक ही चले।गुरुपद वंदन में अनुराग होना आवश्यक है,अनुराग न होना दोष है! श्रीरामजी ने गुरुजी की आज्ञा सुनकर उनको प्रणाम किया ही था और अब पुनः गुरुपद वंदन करते हैं, इससे उनके हृदय का अनुराग प्रगट दिख रहा है। बारम्बार प्रणाम करना अनुराग सूचक का है। गुरुको प्रणाम किया इससे गुरु का मान रखा और मुनियों से आज्ञा माँगकर उनका मान रखा। बड़ों से आज्ञा लेना नीति है ओर भगवान नीति के बड़े पोषक हैं- (मत्त= मस्त) (मंजु= सुंदर,मनोहर) ( कुंजर=हाथी,हस्त नक्षत्र,पीपल)
यहाँ मत्त गज की उपमा दी क्योकि आगे कमल नाल की तरह घनुष का तोड़ना कहेंगे। जैसे मतवाला हाथी सर में प्रवेश करके कमल की डंडी को तोड़ कर फेंक देता है वैसे ही श्री रामजी ने धनुष को तोड़ कर प्रथ्वी पर फेंक दिया,यह बात जनकपुर के दूतों ने चक्रवर्ती महाराज से कही है!
तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल। भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।
रामजी ने गुरु के चरणों में सिर नवाया राम जी को हर्ष विषाद कुछ भी नहीं हुआ क्योकि वे हर्ष विषाद रहित है। हर्ष और विषाद कुछ ना हुआ क्योकि पुराने धनुष को तोड़ने में कोई वीरता नहीं हर्ष विषाद तो जीव के धर्म है और श्री राम जी ब्रह्म है अतः हर्ष विषाद कैसा? राजा लोग जब दनुष तोड़ने चले तब अपने अपने इष्टदेव को सिर नवाकर चले इसी तरह रामजी गुरु को प्रणाम करके चले इससे जनाया की हमारे गुरु ही इष्टदेव है दूसरा भाव गुरु के वचन सुनकर गुरु चरणों में सिर नवाने का भाव कि आपकी आज्ञा का प्रतिपालन आपके चरणों की कृपा से होगा।
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥
पर रामजी को हर्ष विषाद कुछ भी न हुआ,क्योकि वे हर्ष-विषाद-रहित है।
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।। राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
अतः हर्ष विषाद कुछ न हुआ क्योंकि जीर्ण धनुष के तोड़ने में कोई वीरता नहीं है! हानि लाभ से ही विषाद और हर्ष होता है।जब इसके तोड़ने से श्री रामजी को न कुछ लाभ है न हानि तब हर्ष या विषाद क्यों होता। हर्ष विषाद जीवके धर्म है! हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान -ये सब जीव के धर्म हैं।(अहमिति=अपने आपको औरों से बहुत अधिक योग्य, समर्थ या बढ़कर समझने का भाव)
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
पर राम तो
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥
राम तो व्यापक ब्रह्म, परमानंदस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है। अतः उनके मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ इसके प्रतिकूल सीता, सुनयना को पहले विषाद हुआ फिर धनुष टूटने पर हर्ष हुआ! (परेस=उच्चतम भगवान ब्रह्मा, भगवान राम, प्रभुओं के प्रभु का एक अन्य नाम होता है) (परात्पर= सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि)
मूर्ख सुख के समय खुश और दुख की घड़ी में रोते बिलखते हैं, जबकि धैर्यवान व्यक्ति दोनों समय में मन में समान रहते हैं।
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।
सहज स्वभाव से उठकर खडे हुए पर उस उठने के तरीके को देखकर युवा सिंह लज्जित हो जाय। (मृगराजु=शेर,सिंह)
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हे पक्षीराज गरुड़जी! श्री रामचंद्रजी का सहज स्वभाव सुनिए। वे भक्त में अभिमान कभी नहीं रहने देते, क्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों तथा समस्त शोकों का देने वाला है।
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥
श्रीरामजी को भक्त प्रिय है, इससे उनका नाश वे नहीं देख सकते, सदा उनकी रक्षा करते हैं। अभिमान ही संसार का मूल है। सष्टि का बीज अहंकार ही कहा गया है। वर्णाश्रम के अभिमान , भक्ति बेराग्य आदि के अभिमाना ये सब भी शोक दायक हैं! ओरो के अमिमान पर उतनी चिन्ता नहीं करते, जैसे कि रावण के अभिमान पर बहुत काल तक उन्होंने ध्यान नहीं दिया श्री भुसुंडिजी श्रीराम स्वभाव के यथार्थ ज्ञाता है ! (संसृत= संसार)
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।। संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥
भरतजी से बोले-
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥ मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहूँ खेल जितावहिं मोही॥
हनुमानजी ने कहा- हे विभीषणजी! हनुमानजी ने विभीषणजी की हीन भावना से निकालने के लिए अपने को उनसे भी हीन रूप में प्रस्तुत किया। यह उनका वाक चातुर्य था। वे बोले “मैं ही कौन सा कुलीन हूँ विभीषण? एक बन्दर के रूप में मैं भी तो सब तरह से हीन ही हूँ।(सूत्र)जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।। कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।s
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।s गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥s
जल में दोष नहीं है जोंक में दोष है जो समान जल में टेड़ी चलती है ये जोंक का स्वाभाव है ! पर अपनी कुटिलता का आरोप जल पर ही करती है ! इसी तरह रामजी के वचनों में कोई दोष नहीं है कैकई की कुमति का दोष है !
रामकुमार जी के अनुसार अपनी कुमति कुटिलता या नीचता के कारण कैकई राम जी के वचनो में कुटिलता देखती है ! अर्थात जो जैसा होता है दूसरा भी उसे वैसा ही सूझता है! दूसरा भाव कैकई की तामसी बुद्धि के कारण उसे सभी बातें उलटी ही समझ में आ रही है! (सलिल= जल, वर्षा,वर्षा का जल)
सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान। चलइ जोंक जल बक्र गति जद्यपि सलिल समान।।
ये रामजी के सरल सहज वचन है!
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।। सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।। तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।