![मानस चिंतन,सरल,नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥ सरल,नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥](https://i0.wp.com/i.ibb.co/g7ZhXSH/Whats-App-Image-2024-02-26-at-8-0-1.webp?resize=600%2C314&ssl=1)
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥
अति अनुरागा। का भाव वनवास सुनकर रामजी के मन में किंचित मात्र भी दुःख नहीं हुआ,राम जी को पिता के वचनों का पालन करने में अत्यंत अनुराग है वनवास के आदेश से पूर्व जैसी श्रद्धा पिता में थी अब आदेश के बाद श्रद्धा और अधिक हो गई है यहाँ रामजी को रघुवीर कह कर बाबा ने उनकी धर्मवीरता (पिता के आदेश का पालन} एवं राज सत्ता का तृण के समान त्याग से रामजी को त्यागवीर भी कहा है। पिता की आज्ञा से रामजी ने भूषण–वस्त्र त्याग दिए और वल्कल वस्त्र पहन लिए। उनके हृदय में न कुछ विषाद था, न हर्ष,इस कारण ही रामजी को रघुवीर कहा गया।
(सूत्र) हर्ष और विषाद में गहरा अंतर है। दोनों का जीवन से रिश्ता तो है, लेकिन दोनों स्थितियों में बड़ा भारी अंतर भी है। हर्ष का मतलब है जीवन में अनुकूलता और विषाद यानी जीवन में प्रतिकूलता पर रामजी तो दोनों से परे है।
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
(पिता की आज्ञा के कारण} ही रामजी को रघुवीर कहा गया।
पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर॥
पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै॥
माता पिता
की आज्ञा और आशीर्वाद मुद मंगल दायक
होती
है ये स्वयं रामजी ने माता कौशिल्या से आज्ञा मांगते समय कहा और पिता को जब सन्देश
सुमंत्र जी के द्वारा भेजा तब भी यही कहा हे पिताजी! आप मेरी चिंता न कीजिए। आपकी कृपा,
अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारा कुशल-मंगल होगा।
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥
बन मग मंगल
कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥
धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥
हर्ष समय
अर्थात आपके सत्य की रक्षा से जगत में आपका सुयश होगा और मुझे भी इस कार्य में उत्साह
है! आपका विस्तृत
यश है। आपके गुण समूहों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता, जिनकी बराबरी का जगत में
कोई नहीं है।
दसरथ गुन
गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं।।
हे पिताजी! सत्य पालन श्रेष्ठ धर्म है! ‘सत्य‘ ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद–पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है।
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥
(सूत्र) बिना पुण्य के यश हो ही नहीं सकता और बिना पाप के कभी भी अपयश नहीं होगा।
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।।
नहिं असत्य
सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।
मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥