ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥ - manaschintan

रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥

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रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥

रामहि केवल प्रेमु पिआरा।

गोपियों ने कहा- हे उद्धवजी! हम जानते  हैं कि संसार में किसी से  आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है, फिर भी हम श्रीकृष्ण के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं। उनके शुभागमन की आशा ही तो हमारा जीवन है। हे उद्धवजी! हम किसी प्रकार मर कर भी उन्हें नहीं भूल सकती हैं। गोपियों के अलौकिक प्रेम को देखकर उद्धव के ज्ञान अहंकार का नाश हो गया। वे कहने लगे- मैं तो इन गोप कुमारियों की चरण रज की वन्दना करता हूँ। इनके द्वारा गायी गयी श्रीहरि कथा तीनों लोकों को पवित्र करती है। पृथ्वी पर जन्म लेना तो इन गोपांगनाओं का ही सार्थक है।मेरी तो प्रबल इच्छा है कि मैं इस ब्रज में कोई वृक्ष, लता अथवा तृण बन जाऊँ, जिससे इन गोपियों की पदधूलि मुझे पवित्र करती रहे।

 

यह तो प्रेम की बात है उधो,बंदगी तेरे बस की नहीं है।

यहाँ सर देके होते सौदे,आशकी इतनी सस्ती नहीं है॥

कबीर साहिब कहते हैं कि पुस्तकें पढ़कर ज्ञान हासिल किया जा सकता है, परन्तु  ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो  सकता है जब तक ईश्वर का साक्षात्कार न प्राप्त हो जाये तब तक किसी व्यक्ति को पंडित या ज्ञानी नही माना जा सकता है। इस संसार में अनगिनत लोग जीवन भर ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करते हुए संसार से विदा हो गये परन्तु कोई पंडित या ज्ञानी नहीं हो पाया क्योंकि वे अपने जीवन में ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर पाए.गुरु महाराज कहते हैं कि ढाई अक्षर का एक शब्द है-प्रेम,जो उसको पढ़ लिया यानि परमात्मा से जिन्हें प्रेम हुआ और उसका दर्शन पा लिए वही वास्तव में पंडित हैं।

 

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥

(सूत्र) अनेक जन्मों तक भी यदि प्रेम का संचार नहीं होता, तब तक भगवान  प्राप्त नहीं होते, प्रेम प्रकट हो जाने पर भगवान एक ही जन्म में मिल जाते हैं। जिस समय भक्त भगवान से मिलने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वाध्याय, ध्यान आदि को प्राप्त होता है, उस समय भगवान को अवश्य प्रकट होना पड़ता है। 

हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।।

आप्तकाम, पूर्णकाम, आत्माराम, परम निष्काम भगवान परम स्वतन्त्र हैं, तथापि  भक्त के  प्रेम में पराधीन होना उनका एक स्वभाव है।

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥

फिर भी रामजी को केवल  एक मात्र प्रेम प्यारा है 

रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥

राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥

जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के धाम प्रभु श्री रामजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं, जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है। श्री रामजी को केवल प्रेम प्यारा है, जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्री रामजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट किया। भगवान को प्रेम सर्वाधिक प्रिय है। प्रेम से अर्पित पत्ते व पुष्प भगवान को सहज ही स्वीकार हैं। भगवान साधन अथवा साध्य नहीं केवल प्रेम से मिलते हैं। राम को प्राप्त करने का एक मात्र आधार प्रेम है। सबरी, भील, केवट, जनजाति, जटायू,राम ने सबका हाथ पकड़ा, सबके भीतर प्रेम, सम्मान व एका का भाव भरा। अगर मन में निश्चल प्रेम नहीं है तो हमें राम प्राप्त नहीं होंगे ।अगर राम को प्राप्त करना है तो प्रेम को आधार बनाना होगा।

उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥

सूरदास जी का सुन्दर भजन 

सबसे ऊँची प्रेम सगाई।
दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर पाई॥
जूठे फल सबरी के खाये बहुबिधि प्रेम लगाई॥

 

प्रेम के बस नृप सेवा कीनी आप बने हरि नाई॥
राजसुयज्ञ युधिष्ठिर कीनो तामैं जूठ उठाई॥

 

प्रेम के बस अर्जुन-रथ हाँक्यो भूल गए ठकुराई॥
ऐसी प्रीत बढ़ी बृन्दाबन गोपिन नाच नचाई॥

 

सूर क्रूर इस लायक़ नाहीं कहँ लगि करौं बड़ाई॥

 

रसखान का सुन्दर भजन-शेष, महेश, गणेश, दिनेश (सूर्य) और सुरेश (इन्द्र) जिसके गुण निरन्तर गाते हैं, जिसे वेद अनादि, अनन्त, अखंड, अछेद्य, और अभेद बताते हैं, नारद, शुकदेव और व्यास जैसे मुनि जिसका नाम रटते हैं और प्रयत्न करके भी उसका पार नहीं पाते है।

सेस महेस, गनेस, दिनेस, सुरेसहु जाहिं निरन्तर गावैं
जाहि अनादि, अनन्त अखंड, अछेद, अभेद सुवेद बतावैं

नारद से सुक व्यास रटैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावैं॥

और शंकर जी जैसे देव जिसे जपते है और ब्रह्मा जी धर्म की वृद्धि के लिये जिसका ध्यान करते हैं, उस प्रभु के  बस तनिक ही हृदय में आ जाने पर मेरा जैसा जड़, मूढ़ रसखान (रस की खान) कहलाता है, जिस पर देवता, राक्षस, नाग अपने प्राणों को न्योछावर करते हैं, उसी (कृष्ण) को अहीरों की कन्यायें केवल  और  केवल  प्रेम के ही कारण  कटोरे भर छाछ के लिये नाच नचाती हैं।
स्वायंभुव मनुशतरूपा एक आदर्श पति-पत्नी के रूप में वैदिक काल से विख्यात है। और उनसे ही यह मनुष्यों की अनुपम सृष्टि हुई है। वृद्धावस्था में भी विषयों से विरक्त नहीं होने के कारण वे अत्यंत दुःखी हुए और अपने पुत्र को जबर्दस्ती राज्य देकर तपस्या हेतु नैमिषारण्य प्रस्थान कर गए।

द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥  

सहित अनुराग-द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया। (सूत्र) माँ  और  पुत्र  में  प्रेम  नहीं  ममता होती है। (सूत्र) पति पत्नी में प्रेम नहीं  आसक्ति होती है। कृष्ण के प्रति मीरा के प्रेम के कुछ अलग ही मायने थे,मीराबाई भक्ति और प्रेम की एक ऐसी मिसाल मानी जाती हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण दर्शन के लिए समर्पित कर दिया। 

जो मैं जानती के प्रीत करे दुख होय।
तो नगर धिंडोरा पीटती
कहती प्रीत ना करियो कोई।

शंकर जी  गरुण जी से कहा कोई कितना भी योग, तप, ज्ञान या वैराग्य का पालन करे, उसको भगवान नहीं मिलेंगे जब तक जिसके मन में उनके लिए सच्चा प्रेम नहीं होगा।

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।
पूजा कीन्ह अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बर मांगा।

(सूत्र) पूजा में अधिक अनुरागा होना अत्यंत आवश्यक है माता सीता ने प्रभु राम को पाने के लिए गौरी पूजन के लिए गई। जब फुलवारी में श्रीराम को देखा तो अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक लय लगाया अर्थात विशेष अनुराग के साथ पूजा किया। जब जब अधिक अनुराग होगा तब तब वरदान प्राप्त होता है हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा। 

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥

(सूत्र) जिसमें अपनी इच्छा की प्रधानता हो वह काम है और जहाँ अपनी इच्छा को प्रेमी  प्रेमास्पद इच्छा में मिला दी जाये उसको प्रेम कहते है । 

राजेश्वर महाराज की सुन्दर व्याख्या 

राजेश्वर आनंद अगर सुख,चाहो तो मानो शिक्षा।
तज अभिमान मिला दो उसकी,इच्छा में अपनी इच्छा।

यही भक्ति का भाव है प्यारे,सूत्र यही मुक्ती का है।
जिसको हम परमात्मा कहते,ये सब खेल उसी का है।।

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