ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥ - manaschintan

मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥

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मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥

मोरेहु कहें न संसय जाहीं।

पार्वती जी के मन में संशय- जगत को पवित्र करनेवाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले शिव चल पड़े। कृपानिधान शिव बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सती के साथ चले जा रहे थे। (मनोज=कामदेव, मदन)


जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥

जय सच्चिदानंद- प्रभु ने यह वेश रावण वध के लिए रखा है इसलिए शिव जी स्वामी और सखा भाव से आशीर्वाद देते है आपकी जय अर्थात विजय हो। जग पावन-जगत राक्षस के उपद्रवों से अपावन हो गया है अतः जगत को पावन करने के लिए ही आपने अवतार लिया  आप तो परम धाम के वासी है जगत को आनंद देने के लिए आप विचर रहे हो।

चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥

पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता-जैसे जैसे प्रभु की छवि और उनके चरित्रों का शंकर जी को स्मरण होता है वैसे वैसे शंकर जी आनंदित होते है पर इस दशा को देखकर सती जी को भारी संसय हो जाता है।

संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥

सती को संसय हुआ की शंकर जी तो जगत पूज्य जगदीश्वर है देवता,मनुष्य मुनि सभी शंकर जी को माथा नवाते है पर शिव जी ने एक राजकुमार को सच्चिदनन्द परम धाम कहकर प्रणाम किया।

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥

सतीजी- राम जी ज्ञान के भंडार है, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु  भगवान विष्णु ने देवताओं के हित के लिए नर तन धारण किया वे रामजी भी शिवजी की तरह सर्वज्ञ होंगे, अज्ञानी की तरह स्त्री को क्यों खोजेंगे? अतः सती जी के मन में संसय हुआ(इव=समान, नाई ,तरह, सदृश, तुल्य) (अग्य=अज्ञानी, जिसे ज्ञान या समझ न हो) (अपारा=असीम बेहद)  (प्रबोध=बोध ,ज्ञान)

अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥
नाना भाँति मनहिं समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा॥

शंकर जी हे सती जी! जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीर जी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं।

जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥

शंकर जी हे सती जी!अज्ञानी मूर्ख मनुष्य अपना भ्रम तो समझता नहीं, उलटे मोह का आरोपण राम जी पर करता है जैसे आकाश में मेघ पटल देख कर कुविचारी मनुष्य कहता है कि मेघो ने सूर्य को ढक लिया। (जड़ =मुर्ख प्राणी जीव मनुष्य) (पटल=परदा) (झापना=ढक लेना ,छिपा देना )(जथा =यथा=जैसे,जिस तरह से,पहले जैसा)

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी।।
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी।।

शंकर जी हे सती जी! श्री राम जी सूर्य है ,मोह रात्रि है ,और सूर्य के यहाँ रात्रि कभी होती ही नहीं वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान तो नित्य ज्ञान स्वरूप हैं)। सच्चिदानन्द मुख्यतः तीन शब्दों व पदों को जोड़कर बनाया गया है जिसमें पहला पद है सत्य, दूसरा है चित्त और तीसरा पद आनन्द है। यह ईश्वर का स्वाभाविक स्वरूप अनादि काल से है व अनन्त काल अर्थात हमेशा ऐसे का ऐसा ही रहेगा, इसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं होगा, देश-काल-परिस्थितियों का इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा। (दिनेसा=सूर्य) (लवलेसा=अत्यंत अल्प मात्रा,नाममात्र का परिमाण) (बिहाना= छोड़ना,त्यागना)

राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा।।
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना।।

यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा,पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए।

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥

क्योकि ऐसा संशय हृदय में लाने से ज्ञान -वेराग्यादि गुण नष्ट हो जाते!यथाः

अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥

शिव हे सती जी से कहते है बिना परीक्षा के ‘अति संदेह”नहीं जाता! (किन=क्यों नहीं)

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥

क्योंकि बिना जाने किसी पर विश्वास नहीं जमता और बिना विश्वास के प्रीति नहीं होती। भक्ति का आधार ही प्रेम है! और प्रेम कैसा जिसमे कोई भी हेतु ना हो अगर कोई हेतु है तो वह प्रेम नहीं होता! (परतीती=विश्वास) 

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥

इसलिए हे सती 

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥

परीक्षा लेने की इच्छा तो थी पर बिना स्वामी की आज्ञा के बिना कैसे ले जैसे ही शंकर जी ने कहा तुरंत सती चल दी।

चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई।।
इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥

मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥

पं०रामकुमारजी- प्रभु की परीक्षा लेने के लिये उनके सम्मुख जाना विपरीत विधि’ है दूसरा भाव यदि सती वहाँ जाकर कोई विपरीत बात करे तो भलाई नहीं। तीसरे हम इनके पति हैं। पतिव्रता होकर भी हमारे बचन से प्रीति नहीं है, इसी से बिधाता विपरीत हैं।उत्तम शिक्षा को मान लेना “उत्तम (कल्याणकारी) विधि? है और उस पर ध्यान न देना, उसे न मानना विपरीत विधि? है। यथाः

मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

मन में अनुमान करना ही तर्क है और तर्क पर तर्क होना ही शाखा बढ़ाना है ज्यों ज्यों विचार करेंगे तर्क पर तर्क बढ़ता ही जायेगा मन सोच में डूब जायेगा और कुछ भी हासिल नहीं होगा भक्त जन असमंजस की दशा में तर्क वितर्क ना करके प्रभु पर छोड़ देते है और प्रभु की इच्छा को मुख्य मानते है   (साखा =बुद्धि के विचारों का विस्तार)

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना।।
नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥

क्योकि हरि भजन ही माया से  बचने का एक मात्र उपाय है।

लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥

रामजी ने जान लिया कि सतीजी को दुख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि रामजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए )। (वृष=बैल =धर्म ) (बृषकेतू=धर्म की ध्वजा) (केतु=पताका, झंडा)

जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥

तब उन्होंने पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी  लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ राम जी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु  राम जी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं।

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥

सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता रामजी की चरण वन्दना और सेवा कर रहे हैं।

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥

सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथ जी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे।

देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥

उन्होंने देखा कि अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु  राम जी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु  राम जी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित  रघुनाथ जी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे।

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥

सब जगह वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीता जी- सती ऐसा देख कर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं।

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥

फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार  राम जी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ  शिवजी थे।

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥

कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का  राम जी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई।

मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥

जब पास पहुँचीं, तब शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो।

गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥

सतीजी ने  रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामि! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया।

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥

आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिव जी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, वह सब जान लिया।

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥

फिर राम जी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है।

बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥

सती जी ने सीता जी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है। (बिषाद=दुख)

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥

शिव माता पार्वती से कहते है रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो।
(कर तारी=हाथ की ताली दोनों हथेलियों के परस्पर आघात का शब्द) (कलि= कलयुग,कलह,  पाप,मलिनता) (कुठारी= कुल्हाड़ी)
राम कथा को “करतारी “जनाया कि सबको सुलभ है ,कयोंकि हाथ सब के होते है ताली बजाना अपने अधीन है “करतारी ” अपने पास है ,मानो कामधेनु अपने घर में बंधी है सभी घर बैठे सुख प्राप्त कर सकते है ,दूसरा भाव वक्ता और श्रोता दोनों सुन्दर अर्थात ज्ञानी विज्ञानी हो जब ऐसे श्रोता वक्ता परस्पर  राम कथा कहते सुनते  है तब उनके शब्द सुनकर सब जीवो के संसय रुपी  पक्षी उड़ जाते है ये उड़ कर संसय रुपी पेड़ पर बैठते है विटप कुठारी इन पेड़ो को कटती है जिससे संसय रुपी  पक्षीयो  का अड्डा समाप्त हो जाता है।

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥

सादर सुनु ॥ का भाव राम चरित आदर पूर्वक सुनना चाहिए चारो वक्ताओं ने अपने अपने श्रोताओ को सादर सुनने के लिए बारबार सावधान किया है दूसरा भाव “सादर सुनु”  पाप का नाश तथा संसय की निवृति एवं बुद्धि की मलिनता का सर्वथा अभाव तभी होगा जब कथा सादर सुनी जाएगी और सादर श्रवण तभी होगा जब उसमे श्रद्धा हो कथा औषधि है,श्रद्धा उसका अनुपान है। (अनुपान=दवा के साथ या बाद ली जानेवाली वस्तु)यथा

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।

इसी से राम कथा सादर सुनने की परम्परा है। यदि कथा को आदर पूर्वक नहीं सुनते तो वह ना सुनने के बराबर ही है। (सादर=आदरपूर्वक)

तुलसी बाबा ने अपने मन को सुनाई- 

सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही।।
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई।।

यग्वालिकजी ने भरतद्वाज जी से कहा- 

तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई।।
कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥

भुशुण्ड जी ने गरुण जी से कहा- 

सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई॥

 शिवजी ने पार्वतीजी से कहा- यहाँ शिवजी ने “सादर सुनु गिरिराजकुमारी” कहा

रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥

 (सूत्र)अतः कथा को सादर ही सुना जाए।
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मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥