ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); सलाह,मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥ - manaschintan

सलाह,मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥

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सलाह,मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥
सलाह,मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥

रावण को 19 बार वैर छोड़ कर राम का भजन करने का उपदेश दिया गया तब भी उसने किसी की नहीं सुनी अपने मन की ही की (सूत्र)अतः दृण पद दिया।भाग्यहीन रावण ने सारी कथा अभिमान सहित मारीच के सामने कही।


दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥

अभिमान सहित बोलने से (दसमुख कहा कि मानो दसो मुख से कह रहा हो।महराज रावण अभिमान सहित क्यों ना कहे? जब इन्द्रादि को छल से वश में कर किया, तो इन राजपुत्रो की क्या गिनती है? ‘अभागे’-कहने का भाव क्योंकि श्रीरामजी से वैर ठान रहा है! कवितावली में तुलसी दास जी ने रावण का वर्चस्व बताया कि जिस रावण के यहाँ भय से ब्रह्मा रोज वेद पढ़ते थे और तो और देवादि देव महादेव शंकर (रावण के गुरु) खुद स्वयं नित्य पूजा कराने आते थे। सब दानव-देव दीन और दुखी होकर रोज  दूर ही से ही रावण को सिर नवाते है!

बेद पढ़ैं बिधि, संभु सभीत पुजावन रावन सों नित आवैं।
दानव देव दयावने दीन दुखी दिन दूरिहि तेँ सिर नावैं॥

रावण ने मारीच से कहा-वे राजपुत्र हैं शिकार के लिये आवश्यक दौड़ेंगे। तुम छल करने वाले कपटमृग बनो, जिस उपाय से मैं उस राजवधू को हर लाऊँ।

होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥

तब मारीच ने कहा- हे दशशीश! क्या तुमने राम को देखा है रावण बोला नहीं, मारीच ने कहा मेने राम को देखा है और में तो उनके बाण का प्रभाव भी जनता हूँ ! सुनिए। वे मनुष्य रूप में (चराचर=संसार,संसार के सभी प्राणी) के ईश्वर हैं। हे तात! उनसे वैर न कीजिए। उन्हीं के मारने से मरना और उनके जिलाने से जीना होता है (हम सबका जीवन-मरण उन्हीं के अधीन है) ‘मारे मरिय जियाये जीजे’।  हे रावण में तो उनको त्रिदेव रूप से देखता हूँ ब्रम्हा के रूप में उत्पन्न कर सकते है विष्णु जी के रूप में पालन कर सकते है और शंकर जी के रूप से संहार कर सकते है ।उन्होंने सुवाहु को मारा, श्री रघुनाथ जी ने मुझे जीवित रखने के लिए ही बिना फर के बाण से मारा अतः में जीवित रहा ,नहीं तो में कब का  मार डाला गया होता। खर दूषण आदि उनके मारने से ही मरे, (चराचर=जड़ और चेतन, स्थावर और जंगम,संसार) (ईसा=ईश्वर)

तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररूप चराचर ईसा॥
तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥

हे नाथ जहाँ समर्थ में  बहुत बड़ा  अंतर हो वहां विरोध नहीं करना चाहिए क्योकि मंदोदरी ने भी तो यही कहा-आप में और रघुनाथ में निश्चय ही अंतर है, जैसा जुगनू और सूर्य में! यही माता सीता ने कहा -हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? (खद्योत=जुगनूँ) (नलिनी= कमलिनी,कमल)

नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहिं रघुपति अंतर कैसा।खलु खद्योत दिनकरहि जैसा।
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥

रावण सुन वैर करने से क्या होता हे? (सूत्र) बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जाएँ), परंतु श्रीराम से विमुख होकर कोई भी जीव सुखी  नहीं रह  सकता।

हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥

क्या इंद्र के पुत्र जयंत का दोष तुमको नहीं मालूम?

धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं।।
काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही।।
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता।।

हे रावण नहीं मानते तो तुम परिणाम सुनो 

राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।। 

(सूत्र) दरअसल यदि हमारे (अंतरतम=हृदय, दिल) में धर्य, प्रसन्नता और शांति नहीं है तो सारी सफलताएं बरसाती नदी की तरह होंगी। राम विमुख का अर्थ है यथार्थ को नकारते हुए भ्रम में जीना। राम की ओर मुख रख कर जीने का अर्थ यह भी नहीं होता कि संसार छोड़ दें। रावण उस समय सफलतम व्यक्तियों में से था, लेकिन उसकी सारी प्रभुता सिर्फ इसीलिए चली गई क्योंकि उसने जीवन के सत्य से मुंह मोड़ लिया था।हे दशशीश! यही राजकुमार मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए गए थे। उस समय श्री रघुनाथजी ने बिना फर का बाण मुझे मारा था, जिससे मैं क्षणभर में सौ योजन (चार सौ कोस) पर आ गिरा,फिर भी मुझे जीवित रखा क्योकि आगे सीताहरण में रावण का सहयोग करूँगा और मेरे भाई सुवाहु को  मार डाला । बचाने के लिये ही फर रहित बाण से मुझे  लंका तट  पर फेंका था और अब फर सहित मारेंगे तो मेरा मरण अवश्य होगा जेसे सुबाहु का हुआ !अतः उनसे वैर करने में भलाई नहीं है।

मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥

सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥

हे रावण तभी से मेरी दशा तो भृंगी के कीड़े की सी हो गई है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को ही देखता हूँ। जैसे कृष्ण भगवान कंस को सर्वत्र दिखाई पड़ते थे वैसे ही मारीच को ‘राम लक्ष्मण “सर्वत्र दिखाई पड़ते थे! तात्पर्य कि मैं भय के मारे उनके समीप नहीं जा सकता।

भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥

और हे तात! यदि वे मनुष्य हैं, तो भी बड़े शूरवीर हैं। उनसे विरोध करने में सफलता नहीं मिलेगी।

जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥

हे नाथ जिसने ताड़का और सुबाहु को मारकर शिवजी का धनुष तोड़ दिया और खर, दूषण और त्रिशिरा का वध कर डाला, ऐसा प्रचंड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है?अर्थात कभी नहीं।ये चारों के चारों (अमानुष=वह जो मनुष्य न हो, देवपुरुष) कर्म थे।(कोदंड=धनुष) (हति=वध,विनाश,हत्या)(बरिबंड=बलवान,प्रचंड,विकट,प्रतापशाली)

जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥

हे रावण मैंने ही नहीं अन्य लोगों ने भी दोनों भाइयों के प्रताप को देखा है  तड़का वध से मुनि ने (चीन्हा=पहिचाना) । तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भंडार समझते हुए भी (लीला को पूर्ण करने के लिए) ऐसी विद्या दी,यथा

तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥

सुबाहु बघ से देव मुनि ने (चीन्हा=पहचानना)  ।समस्त मुनिवृंद श्री रामजी की स्तुति कर रहे हैं (और कह रहे हैं) शरणागत हितकारी करुणा कन्द (करुणा के मूल) प्रभु की जय हो। यथा

अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा॥

धनुष भंग से तुलसी ने चीन्हा। खर दूषण वध से सूर्पनखा और रावण ने स्वयं चीन्ही। यथा

अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥

और आपने भी तो स्वयं कहा है यथा

खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।।

अतः मारीच  कहता है मनुज कि अस बरिवड।इस तर्क से आप भी जान जाइये।  (बचपन से ही इनके सब अमानुष कर्म) है।अतः दोनों भाई ऐसे कार्य आज से नहीं बचपन से ही कर रहे है।
अतः अपने कुल की कुशल विचारकर आप घर लौट जाइए। यह सुनकर रावण जल उठा और उसने बहुत सी गालियाँ दीं (दुर्वचन कहे)। (कहा-) अरे मूर्ख! तू गुरु की तरह मुझे ज्ञान सिखाता है? बता तो संसार में मेरे समान योद्धा कौन है?

जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥

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