ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।। - manaschintan

मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।

Spread the love
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।

मागी नाव न केवटु आना।

जब सुमंत्र जी ने रामजी से वापस चलने को कहा- तो (राम लक्ष्मण सीता) में से कोई भी वापस चलने को राजी नहीं हुआ श्री जानकी जी ने बड़ा ही सुन्दर सन्देश समाज को दिया।

मंत्री सोने की चमक
सोने,से अलग नहीं होती।

चरणों की रेखा चरणों
के,धोने से अलग नहीं होती।

चाँदनी चाँद के संग रहती है।
बिजली घन के संग रहती है।

पत्नी पति की अनुगामिनी है।
और नीति यही तो कहती है॥

श्री रामजी की आज्ञा मेटी नहीं जा सकती। कर्म की गति कठिन है, उस पर कुछ भी वश नहीं चलता। श्री राम,लक्ष्मण और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमंत्र इस तरह लौटे जैसे कोई व्यापारी अपना मूलधन (पूँजी) गँवाकर लौटे।

मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई॥

राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥

बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए।।

मागी नाव न केवटु आना।कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।

राम जी गंगा के तट पर ही आये किसी अन्य नदी सरयु, गोदावरी, यमुना के तट पर नहीं आये इसका कारण सुरसरि है। सुरसरि का अर्थ गंगा जी और गंगा जी (गंगा=भक्ति) है।

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥

भगवान तो केवल और केवल भक्त से ही माँगते है भगवान ने केवट से माँगा ,राजा बलि से भी माँगा केवट कौन है? श्रृष्टि के आरम्भ में जब सम्पूर्ण जगत जलमग्न था केवट का जन्म कछुवे की योनि में हुआ। उस योनि में भी उसका भगवान के प्रति अत्यधिक प्रेम था। अपने मोक्ष के लिये उसने शेष शैया पर शयन करते हुये भगवान विष्णु के अँगूठे का स्पर्श करने का असफल प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी अधिक काल तक अनेक जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अन्त में त्रेता युग में केवट के रूप में जन्म लिया और भगवान विष्णु, ने श्रीराम के रूप में अवतार लिया।

ओ ज्ञानी ध्यानी बात
सुनो, झीरसागर विष्णु विराजे थे।
जब जननी सेवा करती
थी, और शेष नाग रक्षा में थे।

उस समय ये केवट कच्छप
था, और झीर सिंधु में रहता था।
प्रभु चरणों का अनुरागी
था,और सेवा करना चाहता था।

कर्म करना मना नहीं है पर कर्म भक्ति मय होना चाहिए सदन कसाई, सेन नाई,कबीर दास ये सभी कार्य करते थे और काम करते करते सफल भी हुए। जो सारे संसार को पार करता है वो एक भक्त के सामने गंगा से पार जाने के लिए खड़े है बाबा तुलसी इस कथा का आरम्भ मांगी नाव ना केवट आने से करते है। राम किसके यहाँ आते है? जिसकी नाव (आजीविका) गंगा (भक्ति) मय हो अब हम सभी को तय करना है कि हमारी आजीविका कहाँ होनी चाहिए, कर्म करते करते राम को इसी तरह प्राप्त कर सकते है हमें अपने जीवन को प्रयाग बनाने के लिए जमुना (कर्म) को गंगा (भक्ति) में डालना ही पड़ता है।

कर्म करो पर ध्यान रहे पथ छूटे ना।
इतनी देना हवा गुब्बारा फूटे ना।।

वास्तव में असली भक्त
वो है जो भगवान से कुछ भी नहीं मांगे जहाँ भी लेन देन है वह व्यापार है पूजा किया और कुछ मांगने वाला भक्त नहीं बनिया है (सूत्र) भक्ती तो केवट जैसी होनी चाहिए तब भगवान उसके द्वार पर माँगने आते है उसके श्रम को पूरा मान-सम्मान देते हैं। श्रीराम ने केवट से नाव मांगी, पर वह लाता नहीं है। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म जान लिया।
राम जी ने सोचा मेरे मर्म को चार वेद,छह शास्त्र , अठारह पुराण , और तो और लक्ष्मण भी नहीं जानते पर केवट बोल रहा है तुम्हारा मर्म मै जनता हूँ।(निरूपहिं= निरूपण= विवेचना करना) (नेति=यही नहीं, वही नहीं, अन्त नहीं) (नित= नित्य,निरंतर)

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥
विधि हरि हर सुर सिद्ध घनेरा। कोउ ना जाने मरम प्रभु तेरा॥

सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥

राम जी बोले मेरा मरम क्या है? केवट बोला में आपके एक नहीं तीन तीन मरम जनता हूँ {क} राम जी आपको तारना तो आता है पर आपको तैरना नहीं अतः आपकी मजबूरी है की आपको पार जाने के लिए नाव तो चाहिए  (ख) आपके हाथो में जादू है। मैंने सुना है  की  शिव धनुष  को हाथ लगाया था और वो टूट गया (ग) तुम्हारे चरण कमलों की धूल में कोई जड़ी है।जो पत्थर को नारी बना देती है अतः पहले पांव धुलवाओ, फिर नाव पर चढ़ाऊंगा। (मूरि=जड़ी)

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥

संत जन कहते है केवट भगवान की बात नहीं मानने का कारण अगर राम नाव में बैठ गए तो चले जायेगे जब रामजी दशरथ,गुरु वसिष्ठ, निषादराज, और सुमन्त्र  के रोकने पर भी न रुके तो मेरे रोकने से भी नहीं रुकेंगे। अतः में नाव ही नहीं लाऊंगा तो कैसे जायेगे ये तो केवल भक्त प्रेम ही है भक्त कभी नहीं चाहता कि भगवान जाए। गोस्वामीजी कहते है गजब की बात है अयोध्या के राजकुमार केवट जैसे सामान्य जन का निहोरा कर रहे हैं। जो सबको पार उतारते है वो आज कह रहे है की केवट हमें पार उतार दे भैया। यह समाज की व्यवस्था की अद्भुत घटना है।राम वह सब करते हैं, जैसा केवट चाहता है। (भवसिंधु= संसाररूपी समुद्र) (निहोरा= निवेदन, प्रार्थना)

जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोक को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं। प्रभु जब  छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी)।  (पाहन= पत्थर) (घरिनी= घरनी=पत्नी) (तरनिउ= नाव भी) (बाट= मार्ग ,रास्ता) (बाट पड़ना =यह देहाती मोहवरा है= हरण होना, डाका पड़ना)

छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥

प्रभु दो दो नारी होने पर जीवन नरक के सामान हो जायेगा अतः में ऐसी गलती नहीं करूँगा राम जी कहते है

तुम बड़भागी हो केवट,जो नार और मिल जायेगी ।
घर की शोभा बड़ जाएगी,जब एक से दो हो जायेगी।

सेवा चरणों की एक करे, दूजी सिर बैठ दबाएगी।
जब एक रसोई तैयार करें,तो  दूजी बैठ जिवायेगी।

अब केवट हँस कर बोला,

जिनके दो दो नारि बिहाई,वे नर बिन मारे मर जाये।
जीवन नरक होता है जग में ,स्वामी साफ लिखा ग्रंथन में।

सुरुचि सुनित दो नारी यदि,उत्तानपाद की न होती।
तो ध्रुव वन को ना जाते,राजा की खारी ना होती।।

और सुनो प्रभु,

पिता तुम्हारे ओ प्रभु जी,यदि तीन नारियाँ न होती।

तो तुम भी वन को न जाते,बरबादी ऐसी न होती।।

अगर नाव से जाने की
मजबूरी है तो पैर धोने को कहो नवधा  भक्ती में श्रवण,कीर्तन ,स्मरण ,सेवा, में से सेवा चौथे नंबर पर है केवट जो चाह रहा है वह तो रामजी की इच्छा पर ही संभव  है अगर रामजी मना कर दे तो चरण धोना संभव नहीं होता इसलिए केवट बोल रहा है  कि चरण धोने को कहो,
(सूत्र) सेवा तो तभी संभव है जब सामने वाला लेने को तैयार हो।

एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥

बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥

राम और दशरथ जी की शपथ लेने पर लक्ष्मण जी ने तीर तान दिया केवट की भक्ती में भय और लोभ नहीं है उतराई के लिए भी मना कर दिया (सूत्र) हमें आपको सोचना पड़ेगा की हम केवट के सामने कहाँ खड़े है केवट बोला मेरे मरने से आप १३ दिन और लेट जाओगे मेरी अंतिम क्रिया तक आपको यहीं रहना पड़ेगा मेरा तो इसमें लाभ ही लाभ है क्योकि राम के लिए, राम के सामने, राम के भाई द्वारा, और गंगा जी का तट, इसमें मेरा शुभ ही शुभ पर आप दोनों भाई फस जाओगे यह सुनते ही लक्ष्मण ने तीर को वापस चुपचाप रख लिया।

सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥

केवट की प्रमोदमय वाणी को सुनकर राम जी लखन और सीता की ओर देख कर हँसे इसका कारण सीता जी भक्ति है लक्ष्मण आचार्य है केवट दोनों को ही बाईपास कर रहा है दूसरा भाव रामजी की शादी के पूर्व लक्ष्मण जी चरणों की सेवा करते थे विवाह के बाद दोनों के खाते में एक एक चरण आया पर केवट तो
दोनों के दोनों माँग रहा है।

————————————————————————
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।