ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥ - manaschintan

तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥

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तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥

तदपि एक मैं कहउँ

पार्वती विवाह- हे पर्वतराज! ब्रह्मा जी ने जो ललाट पर लिख दिया है, उसे देवता, देत्य,मनुष्य, नाग और मुनि,किसी में बदलने की समर्थ नहीं है इसी को भावी” भी कहते है जीव  के कर्म अनुसार  हस्त रेखा और ललाट की रेखा ब्रह्मा जी बनाते है।
यदि दैव (भाग्य) साथ दे तो कार्य पूरा होगा


तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥

जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥
जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥

पार्वती को जो वर प्राप्त होगा उसमें तो मेरे बताये
अनुसार दोष तो होंगे पर महाराज जो-जो दोष मैंने बताये हैं, वे सभी दोष मेरे अनुमान
से शिवजी में हैं यदि शिवजी के साथ विवाह हो तो दोषों को में ही नहीं सभी लोग गुण ही
कहते है
 क्योंकि

भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ
नाहीं।।
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।।
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाई।।

प्रभु का मुख अग्नि, नेत्र सूर्य है और गंगाजी के प्रभु के चरणों से प्रकट
हुई है अग्नि सूर्य अपने तेज और किरणों से मल मूत्र नदी समुद्र के रसों का भक्षण करते
है और भक्षण करने में अच्छे बुरे का विचार भी नहीं करते फिर भी इनकी आलोचना नहीं होती
अतः हम सभी दोष ना देकर स्तुति ही करते है गंगा में यमुना सरस्वती और कर्मनाशा का अशुभ
जल भी बहता है वही अशुभ जल गंगा में मिल कर शुभ हो जाता है।
सर्व रस भोग के कारण सामर्थ को दोष नहीं लगता जिसमें
ईश्वर तत्व है वे ही समर्थ होते है उनको दोष नहीं लगता वरंच उनके संयोग से दूषण भी
भूषण हो जाते है। (वरंच=बल्कि, अपितु)

जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥

यदि तुम्हारी कन्या तपस्या करे तो त्रिपुरारि अर्थात
शिव जी भावी को मिटा सकते है, महाराज भजन तो पार्वती को स्वयं ही करना पड़ेगा मेरे या
आपके अथवा किसी अन्य के करने से समाधान नहीं होगा। क्योकि

सकल पदारथ एहि जग मांही। कर्महीन नर पावत नाही।।
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई।।

(सूत्र) अपवादों को छोड़ दे तो समान्य सिद्धांत तो यही
है कि भाग्य रुपी ताले में जब तक पुरुषार्थ रुपी चाबी नहीं लगेगी तब तक ताले का खुलना
असंभव है फिर भी अगर ताला (भाग्य) ही ख़राब
तो कितना भी प्रयास करें किसी भी चाबी से खुलने वाला नहीं है।

त्रिपुरासुर को कोई देवता मार नहीं सकता था पर शिव
ने उसका वध किया ठीक वैसे ही जिस भावी को सुर नर नाग मुनि सभी मिलकर नहीं मिटा सकते,
इसे शिव जी ही मिटा सकते है हे पर्वत राज यद्यपि संसार में इन लक्षणों के भी अनेक वर
हैं, पर पार्वती के लिए शिवजी को छोड़कर दूसरा वर नहीं है। क्योकि

सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥

नारद जी यह जानते है कि पार्वती जी सती है शिव जी की
शक्ति है
 

बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥

पर्वतराज का नारद के वचन में दृण विश्वास है कहते हे
मैना नारद जी का वचन तीनों कालों में अन्यथा होने वाला नहीं है चन्द्रमा जल मय है जल
अग्नि का नाशक है चन्द्रमा में अग्नि का होना असंभव है वह भी संभव हो जाये पर नारद
के वचन गलत नहीं हो सकता, दूसरा चन्द्रमा हिमकर है,हिमालय पर हिम बरसाता ही रहता है। हिमालय पर अग्नि का प्रकट होना असंभव है। वैसे ही नारद के वचनों का उल्टा होना भी असंभव है।
चन्द्रमा देवता और नारद देवऋषि है। चन्द्रमा भगवान के मन से पैदा हुआ है और नारद भी भगवान के मन ही है।
(बरु=भले ही,चाहे)

अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि
कलेसू॥
करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥

हे मैना अब तुम पर्वती को जाकर ऐसी शिक्षा दो वह ऐसा
तप करे कि महादेव जी मिलें, क्योंकि अन्य किसी
उपाय से क्लेश नहीं मिटेगा क्योंकि नारद जी ने तो स्पष्ट ही कहा

जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥

प्रारब्ध के अनुसार पार्वती को भोले नाथ अवश्य प्राप्त
होते पर पार्वती जी हम सभी को सन्देश देती है कि बिना संघर्ष के हमको जो प्राप्त होता
है उसका मूल्य मालूम नहीं होता।

उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥

अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु
भोगू॥

प्रानपति चरना से पार्वती की निष्ठा पति भाव से शिव जी को पाने की है जब सती ने अपने प्राणों का त्याग किया था तब भी
शिव जी के चरणों का ही ध्यान रखा। पार्वती जी कहती है कि पति के संग से जो कैलाश पर
सुख था उसके सम्मुख सांसारिक भोग तुच्छ है

 तजिहउँ तुरत
देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥

पार्वतीजी का अत्यन्त सुन्दर और कोमल  शरीर तप के योग्य नहीं है, फिर भी पति के चरणों
का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को त्याग दिया।

नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥

पार्वती का स्वामी शंकर जी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा
और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और
फल खाए, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए। (सूत्र) भजन
की सफलता साधक के भोजन पर ही निर्भर है जिसका आहार शुद्ध नहीं है उसका भजन बेकार
ही है (साग=शाक =पत्ते फूल फल कंद ,नये नये अंकुर)

कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥

कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर
उपवास किए, जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया
 (बारि=जल)  (बतासा=बतास=हवा)

पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥

फिर सूखे पर्ण (पत्ते) भी छोड़ दिए, तभी पार्वती का
नाम ‘अपर्णा’ हुआ। (परिहरे= परिहार= त्यागना, छोड़ना) (परना=पर्ण = पत्ते) तप से उमा
का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गंभीर ब्रह्मवाणी हुई

भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥

हे पर्वतराज की कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ।
तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को) त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे।

अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥

हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, हे भवानी
ऐसा कठिन तप पति के लिए अभी तक किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी
को सदा सत्य और निरंतर पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर।

मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥

जब तेरे पिता बुलाने को आवें, तब हठ छोड़कर घर चली
जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक समझना। 
(बागीसा=
ब्रह्म वाणी)

सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥

इस प्रकार आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते
ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया। (याज्ञवल्क्यजी
भरद्वाजजी से बोले कि-) मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया,अब शिवजी का सुहावना
चरित्र सुनो

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तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥