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अहंकार,नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥

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अहंकार,नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥
अहंकार,नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥

नहिं कोउ अस जनमा

एक अकेला अहंकार ही जीव को नर्क की यात्रा करा देता है। अहंकार अविद्या या अज्ञान से पैदा होता है अहंकार ही महत्वाकांक्षा है अहंकार का घर मन है अभिमान ,वासना ,क्रोध ,भ्रम ,लालच ,ईर्ष्या ,प्रेम और घृणा अहंकार के (परिचारक=सेवक,नौकर)  है। अहंकार हमारे सद्गुणों और मन की शांति को समाप्त  कर देता है जीव का अहंकार से बड़ा कोई शत्रु नहीं है। जिस तरह जीव  की प्रकृति सत्त्व, रजस और तमस की होती है, ठीक उसी तरह अहंकार भी तीन प्रकार के होते हैं- तामसिक अहंकार, राजसिक अहंकार, और सात्त्विक अहंकार। ये अहंकार हम नहीं हैं, हमारे ही अंदर छुपे विकार शत्रु हैं, जिन्हें कमज़ोर नहीं मानना चाहिए। (सूत्र) सहजता का अभाव ही अहंकार है।या ऐसा कहे कि सरलता का अभाव ही अहंकार है। जब हमारा मन अपने आप को अज्ञानता के कारण सर्वश्रेष्ठ मानने लगता है, तो उसे अहंकार कहा है। अपने को ही दूसरों से श्रेष्ठ समझना अन्य सभी को दीन, हीन, नीच, कमजोर समझना और देखना अहंकार की श्रेणी में आता है। अहंकार यानी पीड़ा और पीड़ा से हमें दूर होना हो तो एक ही मार्ग है, सहजता, सरल हो जाओ, पर महाराज क्या सहज होना इनता सरल है? तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कहा।

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥

 

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। इति ऐसा अभिमान रहित पुरुष जगत में दुर्लभ है इसका तात्पर्य मद ही से नहीं है अन्य सब विकारो का जीतने वाला संसार में कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाने पर मद नहीं हुआ ऐसे पुरुष ने संसार में जन्म नहीं लिया अर्थात मद का जीतने वाला पुनर्जन्म नहीं लेता वह भव पार हो जाता है क्योकि जगत की उत्पत्ति अहंकार ही से है। बिना अहंकार संसार में जन्म कैसे संभव है? अन्य भाव केवल और केवल प्रभु ही ऐसे है इनमे प्रभुता पाने पर अभिमान नहीं है सो उनका जन्म नहीं होता वे तो प्रकट हुआ करते है।

काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।

 

तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान।।

 

तुलसी दास जी कहते हैं कि जब तक व्यक्ति के मन में काम, क्रोध, वासना, लोभ और मोह का वास होता है तब तक ज्ञानी और मूर्ख दोनों एक समान ही होते हैं।

 

काकभुशुण्डि जी ने भी गरुण जी से भी यही कहा- हे गरुण जी ज्ञानी तपस्वी कवि कोविद और सर्वगुण धाम इस संसार में कोई भी नहीं है जिसकी काम, क्रोध, वासना, लोभ मोह के कारण हँसी और फजीहत ना हुई हो (कोविद=प्रकांड विद्वान)  (आगार=खज़ाना) (श्री=लक्ष्मी) (सर=बाण, तालाब) (मृगलोचनि=हरिण के समान नेत्रवालीस्त्री)

 

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार। 

 

केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥

 

 

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।

 

मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि।।

 

 

बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥

 

भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ।।

 

सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि  राजमद दीन्ह कलंकू।।

अधिकार पाकर लोग अभिमान के वश में हो जाते है अभिमानी व्यक्ति का तो सहज स्वाभाव हो जाता है कि वह किसी के उपदेश को नहीं सुनता अतः बहरा हो जाता है दक्ष ने सती जी की बात नहीं मानी दूसरा रावण ने स्वयं अपने पत्नी एवं भाई की सलाह भी नहीं मानी परिणाम एक का सिर काटा गया और मंदोदरी रावण के मरने पर कहा-हे नाथ आपकी  प्रभुता, पुत्रों और कुटुंबियों का बल जगत भर में प्रसिद्ध था। पर अभिमान के कारण  राम के विमुख होने पर  तुम्हारी ऐसी (विडंबना=दुर्दशा) हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी नहीं बचा। (बधिर=बहरा) (प्रभुता=अधिकार) (विडंबना=दुर्दशा)

राम विमुख अस हाल तुम्हारा। रहा ना कोउ, कुल रोविनि हारा।। 

पुनः काकभुशुण्डि जी ने गरुण जी से यही कहा- अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों तथा समस्त शोकों का देने वाला है। अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। (संसृत=जन्म-मरण रूप संसार)

संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥

 

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥

 

इसी कारण से समय समय पर सभी संतो ने वेद पुराणों ने और स्वयं भगवान ने इसको त्यागने को कहा है और तो और राक्षसों ने भी अभिमान को छोड़ने को कहा- कुंभकर्ण को अहंकार का  माना गया है। व्यक्ति का अहंकार जब तक सोया रहे, तब तक उसका कल्याण है फिर भी  कुम्भकर्ण ने भी यही कहा-  

अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥

रामजी ने लक्ष्मणजी कहा- हे तात! तुमने बड़ी सुंदर नीति कही। हे भाई! राज्य का मद सबसे कठिन मद है।

कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥

रामचंद्रजी ने लक्ष्मणजी से कहा-पर हे लक्ष्मण अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं हो सकता! क्या कभी काँजी की बूँदों से क्षीरसमुद्र नष्ट हो सकता (फट सकता) है? (क्षीर सिंधु= क्षीरसागर =दूध का समुद्र) (काँजी=मट्ठा, दही का पानी)

भरतहि होइ न राजमदु,बिधि हरि हर पद पाइ।

 

कबहुँ कि काँजी सीकरनि, छीरसिंधु बिनसाइ॥

 

क्योंकि भरत संत है इसलिए

भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥

जिस धनुष को कोई नहीं उठा सका उस धनुष को तोड़ने पर स्वयं राम जी परशुराम जी से क्या कह रहे है?  हे मुनि! धनुष पुराना तो था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?  यह धनुष सतयुग में बनाया गया था अब त्रेता युग का अंत है। ये तो केवल और केवल राघव जी का स्वभाव है।  

छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥

भगवान ने माता शबरी के माध्यम से भी कहा है (अमान=निरभिमान,अभिमान रहित )

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

 

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥

 

विभीषण जी ने अपने भाई रावण से कहा-हे नाथ अभिमान को छोड़ दो- (परिहरि=छोड़ना, त्यागना) (परिहार=त्यागने वाला, तजने वाला)

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।

 

सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।

 

 

 

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।

 

परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥

 

यही बात कुम्भकरण ने अपने भाई रावण से कही-जबकि राम युद्ध के मैदान में है जरा कुम्भकर्ण का राम जी में भरोसा तो देखिये की अपने भाई रावण से कह रहा है कि अब भी सभल जाओ अभिमान को छोड़ दो। 

अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥

रावण के गुरु शंकर जी ने हनुमान रूप से भी अभिमाना छोड़ने को कहा –

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥ 

 हनुमान ने कहा-हे रावण! मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्री रामचंद्रजी का भजन करो। (तम=अँधेरा, अंधकार)

मोहमूल बहु सूल प्रद, त्यागहु तम अभिमान।

 

भजहु राम रघुनायक, कृपा सिंधु भगवान॥

 

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा अभिमान करने से प्रभु की कृपा नहीं होती 

होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना।।

संतों ने किस तरह के अभिमान का समर्थन किया।

अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥

 

सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥

 

मैं सेवक हूँ और भगवान सेव्य (स्वामी) है, इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से पार नहीं हो सकते। ऐसा सिद्धांत विचारकर श्री रामचंद्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए। यह अभिमान भक्ति का प्रण है (अस=तुल्य,समान,इस जैसा) 

नारदजी ने अभिमान के साथ कहा- भगवान! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है। मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा, जिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो।जो प्रभु के अवतार का एक कारण हुआ। 

नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥

नारदजी कहते है।

जेहि विधि होई नाथ हित मोरा। करो सुवेगि दास मंह तोरा ॥

(सूत्र) जीवन में जब भी धन संपत्ति वैभव ये सभी आये तब ये सभी धन संपत्ति वैभव मिलकर चौथे अहंकार को साथ ले ही आते है  यह अहंकार ना आये अतः इन सभी को प्रभु के चरणों में अर्पित कर दो और निवेदन करो  प्रभु तू मेरा मालिक और में तेरा दास मेरी व्यवस्था को आपको ही सभालना है में तो तेरे आदेश का पालन करूँगा यही अहंकार से बचने का मूल मंत्र है। 
हनुमाना ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले- बंदर का बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है (साखामग=वानर,शाखा पर घूमने वाले पशु)(मनुसाई=पुरुषार्थ,मर्दानगी)

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥

 

साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥

 

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