ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥ - manaschintan

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

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स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

स्वायंभू मनु अरु

अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने सभी चरित्रों कोअतिशय अर्थात पूर्ण रूप से  किया है। (अतिशय=अत्यधिक ,अधिकता,श्रेष्ठता)


एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥ 

इसी अवतार में उमा को मोह हुआ था।

राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥

शिवजी ने अवतारों केअनेकों करण में से अभी तक तीन हेतु ही कहे। 

1 वैकुण्ठ से भगवान विष्णु-का जय विजय को,सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार के श्राप के कारण 

2 वैकुण्ठ से महा विष्णु का जलंधर की स्त्री के श्राप,के कारण 

3 क्षीरशायी श्रीमन्नारायण का नारद के श्राप कारण रामअवतार हुआ। 

शंकर जी पार्वती से तीन कल्पो मे विष्णु का रामावतार कहकर अब ब्रह्म का रामावतार कहते है। बल्लभ मत के अनुसार विष्णु के अवतार का कारण कोई न कोई ब्रह्म श्राप है।उसकी पूर्ती के लिए हरि काअवतार होता है।

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥

पर ब्रह्म के अवतार का कारण केवल भक्तानुग्रह ही है। 

शिव जी अब चौथे कल्प की कथा कहते है।तीन कल्पो मे विष्णु का रामावतार कहकर अब ब्रह्म का अवतार कहते है। बाबा तुलसी का संकल्प भी इसी ब्रह्म केअवतार की कथा को विस्तार से कहने का है। शैल परोपकारी होते हैं तुम शैल की कन्या हो अतः तुमने जगत के कल्याण  लिये ही प्रश्न किया है। हे पार्वती मैं विस्तारपूवक इस विचित्र कथा कहता हूँ। (अपर=दूसरा,अन्य) (शैल=पर्वत)

जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥

जिसके  कारण अज, अगुण, अरूप, ब्रह्म अवधपुरी के राजा हुए। (अरूप=निराकार,आकृतिहीन)  (अलख= अव्यक्त) (अज=अजन्मा, ईश्वर)  (अगुण=सत्व रज, तम आदि गुणों से रहित, निर्गुण)  

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥

इसी अवतार में उमा को मोह हुआ था। शिवजी सती जी को  याद दिलाते है, कि उस जन्म में रामजी को जो विरहावस्था में देखा था। वह साक्षात ब्रह्म का अवतार का चरित बड़ा गहन था। भगवान के इसी चरित्र ने तुमको पागल कर दिया था। तीन कल्पों की कथा सुनने के बाद भी पार्वती जी की शंका दूर नहीं हुई इसका मुख्य कारण-शिवजी ने तीन कल्पों की कथा में  विष्णु जी के अवतार का कारण बताया पार्वती को विष्णु अवतार में शंका ही नहीं है उन्होंने तो स्वयं कहा है। 

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥

पार्वती को शंका तो ब्रह्म अवतार की है। 

ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥ 

जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है। और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? (बिरज= निर्मल, शुद्ध, रजोगुण रहित, गुणहीन) (अज= अजन्मा,ईश्वर) (अकल= अखंड,खंडहीन, निराकार,जिसका अनुमान न लगाया जा) (अनीह= कामना रहित, उदासीन)

अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥

हे सती प्रभु के चरित देखकर भ्रम होता है तुम्हारे साथ साथ गरुण जी को भी हुआ पर प्रभु के चरित सुनकर उनका भ्रम दूर हुआ। हे सती भ्रम तो प्रभु के चरित्र सुनने से ही जायेगा।आज भी तुम्हारे ऊपर से वह छाया हटती नही है। अब उसी का चरित्र को सुनो। जो भ्रम रूपी रोग को हरण करनेवाला है। उन्होंने अवतार ग्रहण करके जो लीलाएँ की में अपनी बुद्धि के अनुसार सब कहूँगा। (सूत्र) एक जन्म के कर्मफल भोग पूरा हो जाने पर भी कर्मलेश रह जाता है जो दूसरे जन्म का  कारण होता है। यह कर्मघाट की बात है, अत इसे बाबा तुलसी ने कर्मघाट के वक्ता यग्वालक जी के मुख से ही कहलाया। यग्वालक जी उमा शंकर  संवाद से आरंभ करते है। (छाया=असर) (रुज=रोग,घाव) (हारी=हरण करनेवाला)

भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥
लगे बहुरि बरनै बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥

पार्वती के मन में बड़ा ही संकोच है कि सती रूप से  प्रभु की परीक्षा लेकर मैंने बड़ी अनीति की थी।शिवजी धर्म के पालक है,धर्म की ध्वजा धारण किये हुए है सदा उनकी दृष्टि धर्म पर रहती है। धर्म की वृद्धि के निमित्त ही वे प्रभु का गुणगान करते है। (वृषकेतु=शिव, जिनकी ध्वजा पर बैल का चिह्न माना जाता है)

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥

देखने में श्राप अवतार के कारण है। पर मुख्य रूप से  उनकी इच्छा ही अवतार लेने  का कारण है, और श्राप भी तो उनकी  इच्छा से ही होता है। यथा : 

मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥

 इसीलिए प्रभु के जन्म कर्म सुन्दर, सुखद और बडे विचित्र होते है इसलिए दिव्य कहलाते है।इस प्रकार भगवान के अनेक सुंदर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म है। प्रत्येक कल्प में जब जब भगवान अवतार लेते हैं और नाना प्रकार की सुंदर लीलाएँ करते है। (चारु= सुंदर) (मृषा=व्यर्थ, असत्य, झूठा)

शंकर जी पार्वती से बोले स्वायम्भुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे।आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं। मनु का आद्यात्मिक अर्थ मन है शतरूपा का आद्यात्मिक अर्थ बुद्धि है।(भै=हुई) (लीका= मर्यादा) (नीक=उत्तम)

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

ब्रह्मा जी प्रथम मानसी सृष्टि करते थे। सृष्टि वृद्धि न होने से ब्रह्मा जी चिन्तित हुए और देव की शरण गये, उसी समय उनका  शरीर दो खंडों में विभक्त हो गया। उनमे से  एक खंड से पुरुष  हुआ वह मनु कहलाया और  दूसरे से स्त्री उत्पन्न  हुई वह सतरूपा कहलायी। मनु सतरूपा से मैथुनी सृष्टि शुरू हुई। मनु सतरूपा ने प्रजा की वृद्धि कर , प्रजा का पालन किया।

नर सृष्टि जैसी दूसरी सृष्टि नहीं है, इस कारण नर सृष्टि को अनूप  कहा। भगवान ने कहा भी है। 

मम माया संभव संसारा । जीव चराचर विविध प्रकारा ।।
सब मम प्रिय सब सम उपजाए। सब तें अधिक मनुज मोहि भाए।।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥

तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥

वेद और मनु दोनों ही ब्रह्मा जी से प्रकट हुए वेदों के धर्म मनु जी  करते है। मनु जी जो आचरण करते है, वे सभी वेदों में मिलते है इसलिए वेदों का गाना कहा गया मनु जी ने धर्म का आचरण किया जैसा ऊपर कह आये यह सब प्रभु की आज्ञा थी। उन्हीं की आज्ञा से बहुत दिन राज्य किया,नहीं तो उनको कुछ भोग की इच्छा न थी। मनु जी ने 71 चतुर्युग राज्य करने पर जब फिर सतयुग आया तब उसके भी लगभग 185142 वर्ष और कुछ दिन राज्य किया। पर फिर भी वैराग्य नहीं हुआ। (लीका= मर्यादा ,रेखा) (प्रतिपाला= माना, पालन किया) (चराचर= जड़ और चेतन)

होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥

चौथेपन में राजाओं के लिए वन जाने की आज्ञा नीति में है। यथा 

संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन॥

(सूत्र) धर्म का फल वैराग्य है चौथापन वैराग्य का समय है मगर फिर भी चौथा पन आते आते वैराग्य नहीं हुआ तो यह निश्चित मानिये कि आपने धर्म का ठीक से पालन नहीं किया। कलयुग का कड़वा सत्य कब चौथा पन आ जाय अथवा ऐसा कहे कब आयु पूरी हो जाये कोई भी नहीं कह सकता यह कोई निश्चित नहीं। (चौथपन=वृद्ध अवस्था)

मनु जी को दुख के दो कारण है पहला विषय भोग करते करते युग के युग बीत गए, दूसरा यह कि घर में रहते रहते चोंथापन आ गया, जन्म भगवत भक्ति रहित बीता जा रहा है। (सूत्र) भजन के बिना में मर रहा हूँ यह दुख सभी को नहीं होता यह दुख तो किसी किसी विरले व्यक्ति को ही होता है। पर जिस पर राम जी की कृपा होती है उसी में यह भावना फूटती है। सामान्य सिद्धांत तो खाओ पियो और मौज करो हम सभी इसी को जीवन समझते है।

मनु जी को विषय और भवन दो की ग्लानि हुई पर महराज आजकल तो सभी जीव प्रायः इन दोनों की ही चाह में सारा जीवन निकल देते है और मरते समय भी इनकी तृष्णा नहीं जाती, धरम का फल है वैराग्य पर मनु सतरूपा को वैराग्य नहीं हुआ। (विरति=वैराग्य, विराग) जबकि

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥

प्रश्न मनुजी ने आयु भर धर्म का ही पालन किया उनको तो पश्चाताप नहीं होना चाहिए बाबा तुलसी की शैली बड़ी अदूभुत है। धर्म करना तो सूद पर रुपया लगाने जैसा है। धर्मो से सुख भोग तो प्राप्त होता है, पर धर्म से भक्ति की प्राप्ति नहीं होती, और बिना भक्ति के मुक्ति नहीं होती। यथाः 

बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।

जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है। (अपेल=जो हटे नहीं, जो टले नहीं,अटल)

हरि नाम नहीं तो जीना क्या

अमृत है हरि नाम जगत में,

इसे छोड़ विषय विष पीना क्या ॥

काल सदा अपने रस डोले,

ना जाने कब सर चढ़ बोले।

हर का नाम जपो निसवासर,

अगले समय पर समय ही ना ॥

हरि नाम नहीं तो जीना क्या

अमृत है हरि नाम जगत में,

इसे छोड़ विषय विष पीना क्या ॥

भूषन से सब अंग सजावे,

रसना पर हरि नाम ना लावे।

देह पड़ी रह जावे यही पर,

फिर कुंडल और नगीना क्या ॥

हरि नाम नहीं तो जीना क्या

अमृत है हरि नाम जगत में,

इसे छोड़ विषय विष पीना क्या ॥

तीरथ है हरि नाम तुम्हारा,

फिर क्यूँ फिरता मारा मारा।

अंत समय हरि नाम ना आवे,

फिर काशी और मदीना क्या ॥

हरि नाम नहीं तो जीना क्या

अमृत है हरि नाम जगत में,

इसे छोड़ विषय विष पीना क्या ॥

हरि नाम नहीं तो जीना क्या

अमृत है हरि नाम जगत में,

इसे छोड़ विषय विष पीना क्या ॥

भगवत धर्म से वैराग्य की प्राप्ति होती है! वही यहाँ कहते है कि वैराग्य न हुआ जन्म हरिभक्ति बिना व्यर्थ बीता जा रहा है। धर्म से वैराग्य और वैराग्य से भक्ति होती है,जरा विचार करें जिन मनु महाराज के कुल में ध्रुव,प्रियव्रत जैसे  परम भक्त,और देवहूति जैसी पुत्री थी  देवहूति के गर्भ से कपिल भगवान प्रकट हुए उनका यह सिद्धान्त है कि घर में रहते हुए विषयों से वेराग्य होना कठिन है।

तब वैराग्य कब होगा-

प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥

(सूत्र) मोह को बरबस (जबर्दस्ती) ही छोड़ना पड़ता है निर्मोही बनना ही पड़ता है। महराज संसार ऐसे ही नहीं छूटता परिवार रेशम की डोर है, रेशम की डोर जल्दी से टूटती नहीं है, जबरजस्ती तोड़नी पड़ती है। वन कोई जंगल नहीं है, अपने मन को ही वन बनना होता है। जो कुछ भी उपलब्ध है वह पर्याप्त है मन की यही भावना ही वन है।(सूत्र) मनु ने जबरदस्ती राज्य को दिया तब आगे चलकर राम को पाए जबकि सत्यकेतु ने धर्म निति के अनुरूप प्रताप भानु को राज दिया तो आगे चलकर रावण को पाया! इसका मुख्य कारण  प्रतापभानु के मन में राज की लालसा है। जबकि ध्रुव,प्रियव्रत को तो राज्य की लालसा नहीं थी। 

जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥

(सूत्र) भजन में सफलता के लिए गोमती में स्नान करना जरूरी है। 

अपनी मति को श्रद्धा में डूबने के बाद ही भजन ही सफल है। गो+मती (गो=श्रद्धा, मती=बुद्धि) आध्यात्मिक अर्थ है।(सूत्र) भजन की शुरूवात ही श्रद्धा से होती है। श्रद्धा के अभाव में केवल खिट किट है भजन नहीं। तीर्थों में स्थाई निवास नहीं बनाइए, स्कन्द पुराण के अनुसार सतयुग में नेमिषारण्य द्वापर में कुरुक्षेत्र त्रेता में पुष्कर, कलयुग में जहाँ जहाँ पवित्र नदी है उनका तट पवित्र पावन है।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

माला बनाये काठ की, बिच मे डारा सूत माला।
माला बिचारी क्या करै, फेरनहार कपूत।

माला तो रावन, हिरण्यकश्यप भी खूब किया था।

श्रद्धावान् श्रद्धालुः लभते ज्ञानम्।

(सूत्र) भक्ति के लिए कथा सुनना जरूरी है कथा सुनकर ही भगवान से प्रेम होता है। वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं। श्रीराम जी की नाना प्रकार की कथाएँ उन पर्वतों में सुंदर खानें हैं।

पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना॥
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर॥

द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥

मनु शतरूपा जी द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरण कमलों में उन राजा रानी का मन बहुत ही लग गया। (महारामायण) जो सब विश्व में बसा हुआ है और जिसमें से विश्व का निवास हो, वही वासुदेव है अर्थात श्रीरामजी ही वासुदेव है। पुराणों केअनुसार वासुदेव शब्द का अति उदारअर्थ है। प्रभु समस्त भूतों में व्याप्त है और समस्त भूत भी उन्हीं में रहते है, तथा वे ही संसार के रचयिता और रक्षक है, इसलिये वे वासुदेव कहलाते है। 

भजन को अनुराग के साथ क्यों किया? क्योकि अनुराग से कार्य सिद्ध होता है। 

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।

प्रेम बढ़ने से भगवत दर्शन के लिए प्राण व्याकुल हो उठे। ध्यान में दर्शन से सन्तोष न हुआ। मनु शतरूपा जी अब आंखों से देखना चाहते है।

उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई।।
करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥

पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥

मनु सतरूपा जी जब से तीर्थ में रहे तब सेअन्न को छोड़ कर कंद मूल-फल,फलहार का सेवन करते है। क्योंकि अन्न की अपेक्षा कंद मूल-फल, नीरस होते है और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्री हरि के लिए तप करने लगे और मूल-फल को त्यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे। (पंकरुह=कमल) सच्चिदानंद (सत= जो किसी से उत्पन्न नही  हुआ हो,जिसका विनाश न हो ,ये केवल और केवल भगवान ही है) (चित= प्रकाश,सर्वप्रकाशक) (आनंद= सुखरूप) (नीरस= रसहीन,फीका)

क्योकि तप बल से ही सब कुछ संभव है।

तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता।।
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा।।

तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी।।
बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा।।

मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए।।
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा।।

तप के फल दाता त्रिदेव हैं, इसी से वे मनु जी के समीप आए। कर्मफल देने में विधाता मुख्य है। त्रिदेव ने विचार किया कि यदि हम से वर माँग लें तो ब्रह्म को क्‍यों अवतरण होना पड़े, इसी से कई बार आए और बहुत भाँति से लोभ भी दिया। ब्रह्मा जीने कहा कि तुम ब्रह्म लोक ले लो, शिवजीने कहा कि तुम हमारे कैलाश में वास करो और  विष्णु भगवान ने कहा कि तुम हमारे बैकुंठ में वास करो। इस प्रकार तीनों ने अपने-अपने लोकों की प्राप्ति का लोभ दिया। मनु जी का तो एक ही संकल्प है 

लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥

सर्वज्ञ प्रभु ने जान लिया कि यह मेरा निज दास है और मुझे छोडकर इन्हे दूसरे की गति भी नहीं है।त्रिदेव से भी अपेक्षा नहीं रखते। 

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी।।

सब के हृदय की जानने वाले प्रभु ने तपस्वी राजा-रानी की अनन्यगति देख उनको निज दास जाना त्रिदेव तप देखते है पर प्रभु तो अन्तःकरण का प्रेम देखते हैं। वे समझ गए कि हमारे दर्शन  बिना अब ये शरीर ही त्याग देंगे, क्योकि प्रभु को तो वही प्रिय है। (गति=शरण)

तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥

आपकी भक्ति में अगर विकल्प है या विकल्प वाली है तो आप कभी सफल नहीं हो सकते फेल ही होंगे। मनु जी के पास तीन तीन विकल्प आये पर राम को ही माँगा। (सूत्र) एक निष्ठा भक्ति  का उदाहरण  मनु सतरूपा प्रसंग है।

पार्वती की सफलता का मुख्य कारण भी एक निष्ठ भक्ति ही है।

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥

तब आकाश वाणी हुई-

मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी।।
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए।।

मनु-शतरूपा ने कहा-

जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥

भगवान अनाथ पर कृपा करते है। यथाः

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥

मनु का सिद्धांत है – शिवजी भगवान है राम-भक्ति के आचार्य है, योग ज्ञान-वैराग्य के निधि है। पर प्रभु आपका स्वरूप को कोई नहीं जानता, वेद भी नेति नेति कह करआपके स्वरुप का वर्णन नहीं कर पाते तब भला में उसको कैसे जान सकता हूँ ? मेरे विचार से तो मुनि वाल्मीकि,व्यास आदि सर्वज्ञ मुनि भी तो इन्द्रिय विषय सुख को त्यागकर अनेक कष्ट सहकर, उपाय करते है तो वे भी भगवान के परात्पर रूप ही के लिए करते होंगे।और भुशुंडी जी तो ऐसे परम भक्त है जिनके आश्रम के आस पास एक योजन तक माया नहीं व्यापती वे भी तो परात्पर रूप की ही  उपासना करते होंगे और वेद भी तो परात्पर रूप की ही, अगुण सगुण  कहकर, प्रशंसा करते है।अतः इन तीनों के सिद्धान्त से जो ब्रह्म हो वही परात्पर होगा में भी उसी रूप को देखना चाहता हूँ। (परात्पर=सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि)

कौन सा रूप

इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥

श्री मनु जी ने सोचा कि शिवजी और भुशुण्डीजी एवं मुनिजन को तो ब्रह्म का दर्शन ध्यान में हुआ करता है, कहीं ऐसा न हो कि हमें भी ध्यान ही में दर्शन देकर चले जाए हमने तो उनको पुत्र बनाने के लिये तप किया है अतः कहते है की हम तोअपने इन नेत्रों से प्रत्यक्षऔर भरपूर देखना चाहते है, आपके दर्शन बिना  हम दोनों अत्यन्त आर्त  है। हम इस योग्य नहीं है कि आप हमको दर्शन दें, और हमारे ऐसे सुकृत भी नहीं है कि दर्शन प्राप्त हो सके, हमें तो आपकी कृपा का ही भरोसा है, आप अपनी ओर से कृपा करके हमको दर्शन दीजिए। हमें एक मात्र आपकी कृपा का भरोसा है। कठोपनिषद में भी कहा है कि जिस पर वह कृपा करता है उसी को प्राप्त  होता है। 

नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे।।
एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥

तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥

फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यन्त कठिन भी, इसी से उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी आपके लिए तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अत्यन्त कठिन मालूम होता है, एक गृहस्थ की लालसा तो देखिये। जिसके उत्तानपाद और प्रियत्रत जैसे  पुत्र हुए, किसी से न प्राप्त होने वाले पद को प्राप्त करने वाले घ्रुव-जेसे पौत्र हुए, साक्षात भगवत अवतार कपिल देव-जैसे जिसके नाती हुए,उसे अब प्रभु सा पुत्र प्राप्त करने की लालसा हुई अतः इस लालसा को बड़ी बतलाया।अति सुगम का भाव कि दानी को सुगम है और आप तो महादानी है अतः आप को अति  सुगम है।  

सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥

वरदान की यह मर्यादा  है कि माँगा जाय तब दिया जाय, 

दानि सिरोमनि कृपानिधि, नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत, प्रभु सन कवन दुराउ॥

राजा संकोच में सोचते है कि ब्रह्माण्ड नायक, ब्रह्मांड भर के स्वामी और जगत पिता को पुत्र होने के लिये कैसे कहे यह तो बड़ी ध्रृष्टता होगी। हे दानियों के शिरोमणि हे कृपानिधान हे नाथ मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से भला क्या छिपाना। (सतिभाउ=सच्चा भाव) 

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥

राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले ऐसा ही हो। हे राजन मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ अतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा। (तव=तुम्हारा) (सरिस=समान, तुल्य)

राम अवतार के कारण NEXT

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