ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥ - manaschintan

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

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प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।

1 मंगलाचरण


जय जय राम कथा|जय श्री राम कथा
इसे श्रवन कर मिट जाती है |जिसे श्रवन कर मिट जाती है |
कथा श्रवन कर मिट जाती है |सौ जन्म जन्म की  व्यथा ||
जय जय राम कथा |जय श्री राम कथा ||

तुलसीदास जी द्वारा महिमा

राम कथा कलिकामद गाई |सुजन संजीवन मूर सुहाई ||

बुधि विश्राम सकल जन रंजन |राम कथा कली क्लूस विभंजन ||

मेरा परमारथ बन जाये |गाकर तेरा परमारथ बन जाये | सुनकर

श्री नारद कर व्यथा ||जय जय राम कथा |

जय श्री राम कथा ||

यग्वालिक जी  द्वारा महिमा

महा मोह महिसेष विशाला | राम कथा कालिका कराला ||

राम कथा शशि  किरण  समाना | संत चकोर  करहि जेहि  साना  ||

यथा=जिस प्रकार,जैसे

पीकर तभी अमर हो जाये | गाकर तू भी अमर हो जाये ||

श्री हुनमंत यथा

जय जय राम कथा | जय श्री राम कथा  ||

शंकर जी  द्वारा महिमा

राम कथा कलि  बिटप कुठारी  | सादर सुन गिरिराज  कुमारी  ||

राम कथा सूंदर कर तारी | संसय बिहग उड़ाव निहारी ||

मेरा सब संसय भागेगा गाकर|तेरा सब संसय भागेगा सुनकर

माँ पार्वती  कर  जथा

जय जय राम कथा |जय श्री राम कथा

गरुण जी द्वारा महिमा

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।

अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।

सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही।।

इसे श्रवन कर मिट जाती है |सौ जन्म जन्म के व्यथा ||

जय जय राम कथा |जय श्री राम कथा ||

शंकर जी द्वारा महिमा

राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।

भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥

लंकनी हनुमान जी से बोली हृदय में भगवान का नाम धारण करके जो भी काम करेंगे उसमें निश्चित सफलता मिलेगी. (सितलाई  सीतल+आई=शीतलता)

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

शिव ने पार्वती जी को राम कथा सुनाई। बोले-मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ,जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले बालरूप श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥कुल मिलाकर प्रकार आठ सिद्धियां हैं-अणिमा,लघिमा,गरिमा,प्राप्ति,प्राकाम्य, महिमा,ईशित्व और वशित्व(सुलभ=सहज ही प्राप्त हो जाता है) (जिसु=जिसका) जब निर्गुण से सगुन हुए तब प्रथम बालरूप धारण किया इसी से शिव जी की उपासना बालरूप की है।शिव जी चाहते है की हमारे हृदय रुपी आँगन में प्रभु बसे क्योकि बालक ही आँगन में विचरता है

(द्रवउ=कृपा कीजिये,द्रवित) (अजिर=आँगन)(अजिर बिहारी=भक्तो के मन में बिना थके रमते रहना)

बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू।।

मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।

शिव जी शांत रस में रामजी को भजते है इसी से बल रूप को इष्ट मानते है बाल रूप अवस्था में विधि अविधि को नहीं देखते अपितु  थोड़ी सेवा में बहुत प्रसन्न हो जाते है जैसे बच्चा मिटटी के खिलोने के बदले अमूल्य पदार्थ दे देता है इस कथन से भगवान में अज्ञानता का आरोपण होता है की वे ऐसे अज्ञानी है कि किसी के फुसलाने में आ जाते है पर वस्तुतः भाव इसमें यह है कि भगवान को जो जिस तरह से भजता है भगवान उसके साथ उसी प्रकार का नाटक करते है दूसरा भाव यह है की बालक रूप में जितनी सेवा भक्त कर सकता है उतनी सेवा अन्य रूप में नहीं हो सकती  लोमेश जी और भुसण्डी जी की सेवा भी बाल रूप की है यथा (बपुष=शरीर,देह)(कोटि सत=अरबों)

इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥S

निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥

हे गरुण जी कपानिधान मुनि ने मुझे बालक रूप श्री रामजी का ध्यान (ध्यान की विधि) बतलाया। सुंदर और सुख देने वाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वह ध्यान मैं आपको पहले ही सुना चुका हूँ॥

बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥s

सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥s

स्वामी जी के मत अनुसार शिव जी बाल रूप के उपासक नहीं है

जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥S

चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥

शिव जी ने जिस राम प्रभु की इच्छा से विवाह स्वीकार किया और जिसकी मूर्ती को हृदय में रखा था उसी का स्मरण किया यह बाल रूप नहीं है (जथा=अव्य=यथा,जैसे,धन)(जथारथ=यथार्थ,विश्वसनीय व्यक्ति)

बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई।। S

देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥

सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।s

जानकीजी ने हनुमान्जी से कहा हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना- हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है),तथापि दीनों (दुःखियों) पर दया करना आपका विरद है (और मैं दीन हूँ) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए॥ (विरद=बिरद=स्वभाव=बड़ा और सुंदर नाम,कीर्ति, यश) (अस= शब्द कह कर ये भी जनाया है की मेरा संदेसा ज्यो का त्यों कह देना) (प्रभु सब प्रकार से पूर्ण काम है अर्थात आपको किसी बात की इच्छा नहीं है,किसी से कुछ चाहते नहीं,अतएव हमारे बिना आपको कुछ कमी नहीं है) (संभारी=संभारी से जनाया कि आपका “दीनदयाल”बाना गिरने को है उसे सभालिये दूसरा भाव भारी का अर्थ है जिन जिन दीनो आपने संकट हरा उन सबसे मेरा संकट भारी है)

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।

दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।

तुलसीदासजी ने कहा जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है,

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।।

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।

तुलसीदासजी ने कहा-वह देश धन्य है जहाँ गंगाजी हैं,वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है॥

धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥

धन्य सो भूपु नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥

तुलसीदासजी ने कहा-वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति होती है (जो दान देने में व्यय होता है) वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखण्ड भक्ति हो॥(धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है। जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।)

सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥

धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥

तुलसीदासजी ने कहा शुकदेवजी,सनकादि,नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ। अगर एक हो तो उनके चरणों में सिर धरु पर जे तो अनेक है इसी लिए धरती पर सिर रख कर सभी को नमन किया (बिसारद=पंडित,विद्वान्,विशेषज्ञ)

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥

प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥

तुलसीदासजी ने कहा वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जाम्बवानजी, राक्षसों के राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों (कीस=वानरों)का समाज है। तुलसीदासजी ने कहा पशु,पक्षी,देवता,मनुष्य,असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ,जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं॥(सरोज=कमल)

कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥

बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते।।

बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥

सीता जी पार्वती से बोली -हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥/तुलसीदासजी जानकी की उत्तमता दिखाते हुए कहते हैं,कि मैं जनक महाराज की पुत्री,जगत् की माता,करुणानिधान रामचन्द्र जी अतिशय प्रिय जो जानकी जी हैं,उनके दोनों चरण कमलों को मनाता हूँ जिनकी कृपा से मैं निर्मल बुद्ध पाऊँ क्योंकि निर्मल मन से ही रामजी को पाया जा सकता है।

देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।s

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥

तुलसीदासजी ने कहा जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥(पाणि=कर,हाथ)

जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राममय जानि।

बंदउँ सब के पद कमल, सदा जोरि जुग पानि॥

तुलसीदासजी ने कहा:-देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी (खग), प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥ (रजनिचर=निशाचर,चंद्रमा,राक्षस,जो रात में घूमता-फिरता हो) (गंधर्ब=ये पुराण के अनुसार स्वर्ग में रहते हैं और वहाँ गाने का काम करते हैं) (किंनर=एक प्रकार के देवता,विशेष-इनका मुख धोड़े के समान होता है और ये संगीत में अत्यंत कुशल होते हैं।ये लोग पुलस्त्य ऋषि के वशंज माने जाते हैं) (सर्ब=समस्त,सब,सारा,संपूर्ण)

देव दनुज नर नाग खग, प्रेत पितर गंधर्ब।

बंदउँ किंनर रजनिचर, कृपा करहु अब सर्ब॥

तुलसीदासजी ने कहा- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥(सूत्र )तुलसीदास ने संसारिक जीव ईश्वर का अंश माना है!

(आकर=उत्पत्ति-स्थान,खान,योनियों)

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी।।

सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।

कबीरा कुंआ एक हैं पानी भरैं अनेक।

बर्तन में ही भेद है, पानी सबमें एक।।

भगवान शंकर ने भी माता पार्वती से कहा कि:-उमा, जो मनुष्य काम क्रोध मोह मद जैसे समस्त विकारों को त्याग कर राम नाम का ही आधार पर जीते है तो समस्त जगत उन्हें राममय ही दिखता है और राम में ही समस्त जगत मिल जाता है | फिर उन्हें राम के अतिरिक्त कुछ भी पाने की जिज्ञासा नहीं रह जाती |

उमा जे राम चरण रति, विगत काम मद क्रोध,

निज प्रभु मय देखहिं जगत, केहिं सन करहिं विरोध।s

कबीर साहेब जी हमे बताते है कि जिस तरह से हाथ की सभी ऊंगली समान नही होती। उसी प्रकार इस संसार में अलग अलग तरह के अलग अलग गुणों व स्वभावो के मनुष्य है। जिन में से कुछ तो मनुष्य है अच्छे स्वभाव रखने वाले किसी से कोई मतलब नहीं। कुछ देवता यानी भगवान को मानने वाले पूर्ण सतगुरु से नाम दीक्षा लेकर अपने अच्छे कर्म करते हुए साधू संतों जैसे स्वभाव वाले। ओर फिर आखिर में ढोर के ढ़ोर पत्थर जैसे खुद तो भगवान पर अविश्वास है। साधू संतो से भी लड़ाई झगड़ा करने से बिल्कुल भी नहीं हिचकते।

तुलसी एहि संसार में, भाँति भाँति के लोग।

सब सो हिल मिल बोलिए,नदी नाव संयोग।।

काकभुशुण्डि ने गरुड़ से कहा- स्वयं सुखराशि होते हुए भी जीव दुःखो के भीषण प्रवाह में डूबता उतरता जा रहा है। देह को सच्चा मानकर, संसार को सच्चा मानकर मर्कट की नाँई बन्धकर नाच कर रहा है।(मायादौलत=भ्रम,इंद्रजाल,जादू,कपट,धोखा,दया, ममता)

(माया मोह मतलब=माया जाल,सांसारिक आकर्षण; ममता)

(मायाजाल मतलब=धोखे का जाल; मोह का फंदा 2. माया 3. घर-गृहस्थी का जंजाल)

(मायापट मतलब=माया का परदा; माया रूपी आवरण या पट)

(मायाबद्ध मतलब=माया में बँधा हुआ,जो माया रूपी जाल में फँसा या बँधा हो)

(मायामंत्र मतलब=मोहनी विद्या,सम्मोहन क्रिया)

(मायावर्ग मतलब=(गणित) वह बड़ा वर्ग जिसमें अनेक छोटे-छोटे वर्ग होते हैं और उनमें कुछ संख्याएँ या अंक कुछ ऐसे क्रम से रखे रहते हैं कि उनका हर तरफ़ से जोड़ बराबर या एक सा ही आता है; (मैज़िक स्क्वायर)

(मायावाद मतलब = वह सिद्धांत कि केवल ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है तथा भ्रम के कारण जगत सत्य प्रतीत होता है; संसार को मिथ्या मानने का सिद्धांत)

ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन विमल सहज सुख राशी |

सो माया वश भयो गोसाईं बंध्यो जीव मरकट के नाहीं ||

शिवजी कहते हैं हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥

पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥

कैसे पहचाना? आकाशवाणी और प्रभु की वाणी का मिलान करके एक समझकर पहिचान लिया आकाशवाणी क्या है ?

यह आकाश वाणी है

कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥

ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥

तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥ नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥

और नारद के वचन ये है

बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।।

मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।।

भगवान ने अपने मुख से कहकर अपना चरित जनाया

कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु बचन मानि बन आए॥

इहाँ हरि निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही।।

आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।।

अर्थात कौशलपुरी में राजा दसरथ के यहाँ अवतार लेंगे वही यहाँ कहते है

नृप तन धारण किये है ,नारी विरह में दुखी है ,और सुग्रीव के यहाँ आये है हनुमान जी वहां शिव रूप में थे जहाँ आकाशवाणी हुई थी पुनः भगवान ने अपने मुख से कहकर अपना चरित जनाया है इसी से हनुमान जी ने पहचान लिया!

प्रभु के ना पहिचाने का अन्य भाव कि माया के बस भूले रहे इससे नहीं पहिचाना यथा

तव माया बस फिरउँ भुलाना। ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना।।

पर हे प्रभु

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥s

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥s

तव माया बस फिरउँ भुलाना। ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना।s

अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया।।s

(सूत्र) भगवान जब स्वयं कृपा करके किसी को बताना चाहे तभी वह जान सकता है !जब भगवान अपनी इच्छा,वचन वा हास्य  से योग माया का आवरण हटाते है तभी जीव उसको पहचान सकता है अन्यथा नहीं !जीव के प्रयत्न से या विचार शक्ति से माया का आवरण कभी नहीं हटता है !

श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।s

ब्रह्मा जी से सुना था की शक्ति समेत वन में आएंगे पर यहाँ शक्ति समेत नहीं देखा इससे राम जी को नहीं पहिचाना पर जब कहा इहाँ हरी निसिचर बैदेही

नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ।।

इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥

हे उमा उस सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता!

 

 

 

 

 

2 संशय

हे पक्षीराज गरुड़जी!हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ॥श्री रामजी की कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिए।

जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥

राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥

हे पक्षीराज गरुड़जी!साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हुआ कि चैतन्य और आनंद की राशि (परब्रह्म) प्रभु यह कौन (महत्त्व का) चरित्र (लीला) कर रहे हैं॥

प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।

कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह॥

हे पक्षीराज! मन में इतनी (शंका) लाते ही श्री रघुनाथजी के द्वारा प्रेरित माया मुझ पर छा गई, परंतु वह माया न तो मुझे दुःख देने वाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति संसार में डालने वाली हुई॥मुझ से बहुत प्रकार के खेल करते हैं, जिन चरित्रों का वर्णन करते मुझे लज्जा आती है!

मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा॥

एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥

सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥

भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥

हे पक्षीश्रेष्ठ! श्री रामजी ने मुझे जब भ्रम से चकित देखा, तब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिए॥उस खेल का मर्म किसी ने नहीं जाना, न छोटे भाइयों ने और न माता-पिता ने ।

तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥

परशुराम के मन में सन्देह- भगवान परशुराम कहते हैं कि भगवान विष्णु का वह धनुष, आखिर यह संदेह मिटे कैसे, हे राम, क्या मैं जो देख रहा हूं वह सच है। यह धनुष लीजिए, इसका संधान कीजिए।

वह धनुष स्वतः ही राम के पास पहुंचता है

राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥

देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥

इसके बाद पुनः भगवान परशुराम के मुंह से निकल पड़ता है: हे रघुकुलरूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुलरूपी घने जंगल को जलानेवाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गौ का हित करनेवाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरनेवाले! आपकी जय हो।हे रघुकुल के पताका स्वरूप राम! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुराम तप के लिए वन को चले गए।(कोह=अर्जुन वृक्ष,क्रोध,गुस्सा)(बनज=कमल)(कृसानू=लौ, आग, प्रकाश) (अग्याता=अनजाने में) (छमामंदिर=क्षमा के मंदिर) (भृगुकुल केतु=भृगुवंश की पताका रूप परशुराम)

जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन, दनुज कुल दहन कृसानू।

जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।

करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥

अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता॥

कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।

 

मुनि वशिष्ठजी वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम श्री रामजी थे।रामजी  ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया-मुनि ने हाथ जोड़कर कहा- हे कृपासागर! मेरी कुछ विनती सुनिए! आपके आचरणों (मनुष्योचित चरित्रों)को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है॥

एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए।।

गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।।s

(पादोदक =चरणामृत)

अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा।।

कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥s

राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥

देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा॥

स्वयं परम ब्रह्म श्रीराम जी को देख लीजिए कि जिनके चरण कमलों की प्राप्ति हेतु बड़े बड़े योगी वैरागी विविध प्रकार के जप, योग आदि करते हैं वही प्रभु गुरु पद कमलों पर लोट पोट हो रहे हैं…

जिन्ह के चरन सरोरूह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।गुरु पद कमल पलोटत प्रीते।।

मुनि वशिष्ठजी कहा-पुरोहिती का कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निंदा करते हैं॥ (उपरोहित्य- ब्राह्मण का कर्म)(स्मृति- धर्म,दर्शन,आचार-व्यवहार आदि से संबंध रखने वाले प्राचीन हिंदू धर्मशास्त्र जिनकी रचना ऋषि-मुनियों ने की थी; प्राचीन हिंदू विधि संहिता,जैसे- मनुस्मृति)

महिमा अमिति बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥

उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥

तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥

इतना श्रेष्ठ मुनि पूछ रहा है क्या? राम कौन है जो तापस अर्थात तपस्वी है,तप से तन को कसते है सम दम दया निधाना है अर्थात भीतर बाहर की इन्द्रीयों को कसते है !दूसरे के लिए दया के निधान है पुनः इन विशेषणों से सूचित किया है कि ये कर्मकांडी है पुनः तापस सम दम दया का भाव केवल तप (शारीरिक कष्ट )मनुष्य का कर्तव्य नहीं है इन्द्रियों का निग्रह भी परमावश्यक है नहीं तो वह तप तामसिक हो जायेगा और लाभ की जगह हानि की संभावना बड़ जाती है (जामिनि=रात) (बियोगी=बिछुड़ा हुआ) (प्रपंच=मायिक जगत) यथाः

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥

जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥s

इस जगत् रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥ (परमारथ=परम,अर्थ माने वस्तु ) राम की प्राप्ति के लिए जितने भी साधन कहे गए वे सभी परमार्थ पथ ही है ! जो कर्मकांड में परम सुजान है वही परमार्थ पथ को निभा सकता है और उसी से श्री राम जी ने पुछा (पाहीं=पास,निकट)(पाहि=रक्षा करो)(मग=रास्ता,मार्ग) (केहि= किसे,किसको, किसी प्रकार,किसी भाँति) यथाः

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं।।

भरद्वाज जी जैसे संत को जो परम सुजान है!को संसय हो गया -हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है, वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है (अर्थात् आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा संदेह निवारण कर सकते हैं) पर उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है. भय इसलिए कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है और लाज इसलिए कि इतनी आयु बीत गई पर अब तक ज्ञान न हुआ. यदि अपने मन की बात नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है क्योंकि इस तरह तो आजीवन अज्ञानी बना रहूंगा।

(करगत=हाथ में आया हुआ,हस्तगत हाथो में प्राप्त,मुठ्ठी में) (संसउ=दो या कई बातो में से किसी एक का भी मन में ना बैठना) (तत्त्व=सिद्धांत,वास्तविक सार वस्तु) (अकाजा=अनर्थ ,हानि,कार्य का बिगड़ जाना)

नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥

कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥

(बड़=का भाव है की संसय समान्य नहीं है क्योकि यह अपने आप समझने समझाने से नहीं जाता) यदि संसय समान्य होता तो अपने ही समझने समझाने से चला जाता नहीं तो अन्य ऋषि के समझाने से चला जाता अतः आप जैसे परम विवेकी से ही संसय जा सकता है यथाः

नाना भाँति मनहि समझावा।प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा॥s  लाला भगवानदास जी कहते है की भारतद्वाज जी को संदेह नहीं था। जब तक आप अपना अज्ञान,दीनता,भय,संसय प्रकट ना करो तब तक कोई ऋषि पूरे तत्व का मर्म नहीं बताता इस विचार से केवल और केवल सत्संग के लिए भारतद्वाज जी ने ऐसा कहा भक्ति तत्व इतना सूक्ष्म (छोटा)है की इन सिद्धांतों को बराबर पूछते कहते सुनते रहना चाहिए यदि एक ही बार वेद शास्त्र पड़ कर समझ लेने से काम चलता तो शिव जी आदि संत क्यों उसकी चर्चा करते और क्यों सत्संग के लिए ऋषियों के यहाँ जाया करते? भगवान शंकर ने रामजी से यही माँगा

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥

भरद्वाज जी ने कहा-हे नाथ!संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता.(बिमल बिबेक= शुद्ध निर्मल ज्ञान)= राम जी का स्वरुप भली प्रकार समझ पड़ना ही निर्मल ज्ञान है और यह सदगुरु की कृपा अनुकम्पा और करुणा से ही संभव है।अन्यथा नहीं। (संजम=संयम)

संत कहहिं असि नीति, प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।

होइ न बिमल बिबेक उर, गुर सन किएँ दुराव॥

तुलसीदास हरि गुरु करुना बिनु, बिमल विबेक न होई।

बिन विबेक संसार घोर निधि, पार न पावै कोई ।S

सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥S

नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा।।S

बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई।।S

नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥

रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥

परन्तु उनके चरित्र को देख कर मुझे मोह हो गया! क्यों? रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। का भाव कि बिना पूछे राम तत्व नहीं कहना चाहिए! कृपानिधि मोही॥ का भाव कि ऐसा प्रश्न करने पर क्रोध की संभावना है कि कही आप क्रोधित ना हो जाय जैसे शंकर जी सती पर हुए! पर मुझे तो रामजी में तीनो दोष दिख रहे है! 1काम-मुझे रामजी में काम भी दिख रहा है तभी तो नारी का वियोग हुआ2क्रोध-राम जी में क्रोध भी दिख रहा है,क्रोध आया तो युद्ध में रावण को मार डाला3लोभ-राम जी में लोभ भी दिख रहा है तभी स्वर्ण मृग के पीछे दौड़ पड़े !मेरा प्रश्न ये कि यदि इनमे तीनो दोष है तो शंकर जी इनका नाम जपते कैसे है?

एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥

नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा॥

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥s

और ये भी जनता हूँ

कबहूँ जोग,बियोग न ताके।देखा प्रकट बिरह दुख ताके।।s

तो शंकर जी इनका नाम जपते कैसे है?

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि??।

सत्य धाम सर्वज्ञ तुम्ह , कहहु बिबेक बिचारि?।।

भरद्वाज जी ने कहा हे नाथ! (बिदित=जाना हुआ; जिसे जाना-समझा जा चुका हो;अवगत;ज्ञात;मालूम)

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥

जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी।

भारतद्वाज जी ने अपने में मोह,भ्रम,और संसय तीनो कहे है  जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। (यहाँ)इसी प्रकार पार्वतीजी, गरुणजी, और गोस्वामीजी, इन तीनो ने अपने अपने में इन तीनो का होना बताया है पार्वतीजी,गरुणजी, तुलसी दासजी

पार्वती जी कहा हे नाथ! मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए॥ (जनि=मत,नहीं)

ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी।।S

अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू।।S

अब भी मेरे मन में कुछ संदेह है। आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ।

अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।।S

शंकर जी का उत्तर

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत् हित लागी॥S

हे पार्वती! मेरे विचार में तो राम की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥ (तव=तुम्हारा,तुम्हारे)

राम कृपा तें पारबति, सपनेहुँ तव मन माहिं।

सोक मोह संदेह भ्रम मम, बिचार कछु नाहिं॥ S

गरुण जी ने कहा- यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता? मैं अब उस भ्रम (संदेह) को अपने लिए हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझ पर यह बड़ा अनुग्रह किया॥

जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥S

सोई भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥S

देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥S

काकभसुंडजी हे- नाथ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्री रघुनाथजी के कृपापात्र हैं॥

सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे।।S

तुम्हहि न संसय मोह न माया।मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दायाS पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥

तुलसीदास जी को

निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी।।S

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी।

जागबलिक ने कहा हे भरद्वाज जी आपने जगत के कल्याण के लिए प्रश्न किया।आपको कोई संशय नहीं है मुस्कुराने का कारण चतुराई ही है तुमको रघुनाथ जी की प्रभुता विदित है तुम मन, क्रम,वचन, से रामचंद्र जी के भगत हो राम जी के गूढ़ गुणों को (गुप्त रहस्य) को सुनना चाहते हो इसी से ऐसे प्रश्न किये है जैसे मानो अत्यंत मूर्ख हो।(मूढ़ा=मूर्ख) (गूढ़ा=छिपा हुआ,गुप्त रहस्य) (सूत्र) ऐसेइ=ऐसे ही दूसरा भाव इसी प्रकार से  कहने का भाव पार्वती और भाद्वाज दोनों के संसय को एक तरह का ही बताया!

जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई।।

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥

चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा।।

ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥

देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसे द्वौ भाई॥s

विभीषण के मन में सन्देह =विभीषण जी को विजय में संदेह कभी नहीं था उन्होंने चलते समय पुकार कर कहा था। श्री रामजी सत्य संकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु हैं और (हे रावण) तुम्हारी सभा काल के वश है। अतः मैं अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना॥

(खोरि=ऐब,दोष) (जनि=उत्पत्ति, जन्म,स्त्री,नारी,मत, नहीं) (सत्यसंकल्प=दृढ़संकल्प)

रामु सत्यसंकल्प प्रभु, सभा कालबस तोरि।

मैं रघुबीर सरन अब जाउँ, देहु जनि खोरि॥s

जबकि विभीषण जी राम जी के ऐश्वर्य को जानते है विभीषण ने स्वयं कहा यथाः तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।।

ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता।।

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।ये सभी वचन विभीषण के है पर इस समय अधीरता और संदेह का कारण “अधिक प्रीति “ही है !

पर उस समय सरकार को देखा नहीं था देखने पर प्रीत बड़ी अधिक प्रीती बढ़ने पर चित्त अधिक आशंकित हो उठता है अतएव “उर  भा संदेहा” स्वाभविक होता ही है।दूसरा भाव यहाँ सब जोड़ी से जोड़ी भिड़े है पर यहाँ विषमता देख रहे है की एक अस्त्र शस्त्र ध्वजा पताका सारथी आदि से सुसज्जीत होकर रथ पर सवार है और दूसरा पैदल है इस प्रकार जोड़ी ना देखकर विभीषण रह ना सके उनसे रहा ना गया। (बंदि चरन=चरणों की वंदना करके) ((बंदी=

अत्यंत आज्ञाकारी,तुच्छ,हीन,परम अधीन)

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥

अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥

स्वामी धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में) और स्वार्थ में विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता (मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनों में ही भूल होने का भय है)॥

स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥s

हे नाथ “ना तो रथ है ,ना ही शरीर की  रक्षा करने वाला (कवच )है,और ना ही चरण की  रक्षा करने वाली (जूती )ही है तब वीर और बलवान रावण को किस तरह जितीयेगा ? “बीर बलवाना”का भाव रावण कोई सामान्य वीर नहीं है !यह त्रिलोक विजयी है ! “कृपानिधाना” का भाव राम जी कृपा करके इसी बहाने बिभषण को धर्मोपदेश देंगे “सखा” का भाव यह की तुम सखा भाव के भक्त हो अतः तुम गूढ़ रहस्य के जानने के अधिकारी हो  (स्यंदन-रथ)

नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।

सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।

(सौरज=शौर्य=शूरता) अर्थात सौरज और धीरज दोनों धर्म रथ के आधार और गति दाता है सत्य और शील उसकी दृंढ ध्वजा और पताका है शूर और धीर रण में पीछे नहीं हटते और ना ही अधीर होते है !साथ ही धर्म रथ पीछे नहीं हटता है अर्जुन ,और कर्ण के पास यही रथ था !अपने स्वभाव को धर्म के अनुकूल रखना शूरता है और चाहे कितना भी विघ्न या दुःख हो पर धर्म से नहीं हटते ये धीरता ही है !  सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥सत्य और सील मुख (बाणी  )और नेत्र से जाने जाते है !ये दोनों अंग शरीर में ऊँचे है !ध्वजा पताका दृंढ होना चाहिए ,अन्यथा उसके  कट जाने से पराजय समझी जाती है ! जैसे रथ में  ध्वजा पताका  ऊँची रहती है वैसे ही धर्म में सत्य और शील  श्रेष्ठ है यथाः

धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।

तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरें॥s

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

बल बिबेक दम परहित घोरे। बल,बिबेक,दम, परहित, घोड़े है जो छमा ,कृपा ,और समता रुपी डोरी से रथ में जोड़े गए है ! बल का अभिप्राय आत्मबल से है विवेक का अभिप्राय सत्य और असत्य को जान कर सत्य को ग्रहण करना विवेक है !असत्य माने जिसकी सदा स्थिति नहीं है वह असत्य है पर सत्य वह है जिसका कभी नाश नहीं होता !

बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥

‘बिरति चर्म”रथ,घोड़े,सारथी,होने के साथ साथ रथी की  रक्षा के लिए रथ पर ढाल तलवार आदि रखी होनी चाहिए ,जैसे ढाल से देह की रक्षा होती है ,वैसे ही वैराग्य से रथी (जीव)की कामादि विघनों से रक्षा  होती है अन्यत्र भी कहा है

वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद,लोभ और मोह रूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करती है,वह हरि भक्ति ही है,हे पक्षीराज!इसे विचार कर देखिए॥

बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।

जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥

ईश्वर का भजन चतुर सारथी है वैराग्य ढाल है और संतोष दोधार खंडक है !संतोष का अर्थ इच्छा से रहित होना है यथाः

गोधन गजधन बाजिधन, और रतनधन खान।

जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान॥

सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥

आठव जथा लाभ संतोषा । सपनेहु नहीं देखई परदोषा ॥

भगवान ने स्वयं कहा है कि जो जीव (अव्यभिचारी=सदाचारी)भक्ति योग के द्वारा मुझको निरंतर भजता है !वह मुझको पाने के योग्य हो जाता है इस प्रकार की भक्ति के द्वारा जो विज्ञान प्राप्त होता है यह  “बर विज्ञान”  है ,क्योकि इसमें भगवान विज्ञानी भक्त की विघनों से  बचाते है !भगति करने से ही सुक ,सनकादि ,नारद जी विज्ञान विशारद कहलाए है यथाः

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥

दान फरसा,बुद्धि प्रचंड शक्ति ,और श्रेष्ट विज्ञान कठिन धनुष है ! “दान फरसा” जैसे फरसे से शत्रु के अंग एवं वन पर्वत आदि कटते है वैसे ही दान से पाप रुपी वन पर्वत कटते है! सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं,॥ (अभेद=जिसके भीतर आयुध ना घुस सके)

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥

करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥s

 

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥

(मतिधीरा= बुद्धिमान व्यक्ति को धैर्य वान होना चाहिए कभी कभी बुद्धि की अधिकता जीव को अधीर बना देती है!इस समय जब शिक्षा का युग में बुद्धिमान होना सरल है पर धैर्य वान होना उतना ही कठिन होता जा रहा है !अगर बुद्धि के साथ धैर्य जुड़ जाये तो लक्ष्य बिलकुल ही सरल होगा ही या हो जायेगा! सुंदरकांड में हनुमान जी के लिए मति धीरा कहा गया है) भगवान ने स्वयं बिभीषन से शुरू में ही कहा है !सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।

जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥

अंगद के मन में सन्देह =अंगद के लिए कहा जाता है कि उसको गुरु का श्राप था कि अक्छय कुमार के एक घूसे से मारा जायेगा इसलिए कहा जियँ संसय कछु था इसको हनुमानजी ने पहली बार में ही मार डाला! (भाखा=बात,कथन,भाषा,बोली)

निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥

 

सीता के मन में सन्देह (सीता ने कहा-) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान(नन्हें-नन्हें से)होंगे,राक्षस तो बड़े बलवान,योद्धा हैं॥    (जातुधान=राक्षस,असुर)(भट=योद्धा)

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।।

मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!)।यह सुनकर हनुमान्जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत(सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान् और वीर था॥

(भूधराकार=पर्वताकार)

मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।

कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।।

सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।

हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है। (अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है)॥

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।

प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।

श्री रामचंद्जी के मन में संशय-बालि प्रभु को लेकर अत्यंत भ्रम की स्थिति में था।इधर सुग्रीव के मन की अवस्था भी लगभग वैसी ही थी।उसमें भी श्रीराम जी के प्रति अडिग विश्वास का अभाव था। तभी तो सुग्रीव श्रीराम जी की परीक्षा तक ले लेता है। उनसे ताड़ के पेड़ कटवाता है व दुदुंभि राक्षस के पिंजर तक उठवाता है।केवल श्रीराम जी के प्रति ही नहीं अपितु सुग्रीव तो बालि के प्रति भी भ्रम की स्थिति में है। वह बालि को कभी अपने परम शत्रु के रूप में देखता है और कभी अपने क्षणिक वैराग्य के कारण माया रचित कोई लीला का अंश मानता है। अर्थात् सुग्रीव सिर्फ भ्रम नहीं अपितु महाभ्रम की स्थिति में है।

प्रभु ने जब देखा कि सुग्रीव और बालि दोनों ही भ्रम की स्थिति में हैं तो निष्कर्ष यही था कि भ्रम का भ्रम से कभी युद्ध हो ही नहीं सकता। केवल मिलन होता है। ठीक वैसे जैसे अंधकार और अंधकार का मिलन स्वाभाविक है। लेकिन युद्ध की बात हो तो युद्ध अंधकार और प्रकाश के मध्य होता है। बालि अंधकार है और सुग्रीव प्रकाश,तो युद्ध होना निश्चित ही था। लेकिन यहाँ तो वह दोनों भाई ही अंधकार व भ्रम के रूप में एक जैसे हैं।ऐसे में भला मैं किसे मारूँ और किसे छोडूँ। इस स्थिति में हमने भी आपके इस भ्रम−भ्रम के खेल में शामिल होनें का मन बना लिया। और कह दिया कि हमें भी भ्रम हो गया।

एक रूप तुम्ह भ्राता दोऊ तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥

मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥

सुग्रीव के मन में संशय ने कहा- हे रघुवीर! सुनिए, बालि महान् बलवान् और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने श्री रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए।श्री रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया।

(रनधीरा=युद्ध में धैर्यपूर्वक लड़नेवाला)

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा॥

दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥

श्री रामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालि का वध अवश्य करेंगे। वे बार-बार चरणों में सिर नवाने लगे। प्रभु को पहचानकर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे॥ (परतीती-किसी बात या विषय के संबंध में होने वाला दृढ़ निश्चय या विश्वास,यकीन) (अलोल=अचंचल,इच्छा या तृष्णा से रहित) (लोल=चंचल) (अलोल=शांत)

देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥

बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥

उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥

शंकर जी हे पार्वती!अज्ञानी मूर्ख मनुष्य अपना भ्रम तो समझता नहीं,उलटे मोह का आरोपण राम जी पर करता है जैसे आकाश में मेघ पटल देख कर कुविचारी मनुष्य कहता है कि मेघो ने सूर्य को ढक लिया (जड़ =मुर्ख प्राणी जीव मनुष्य) (पटल=परदा )(झापना=ढक लेना ,छिपा देना )(जथा =यथा=जैसे,जिस तरह से,पहले जैसा)

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी।।

जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी।।

शंकर जी हे पार्वती!श्री राम जी सूर्य है ,मोह रात्रि है ,और सूर्य के यहाँ रात्रि कभी होती ही नहीं वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान तो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं)। सच्चिदानन्द मुख्यतः तीन शब्दों व पदों को जोड़कर बनाया गया है जिसमें पहला पद है सत्य,दूसरा है चित्त और तीसना पद आनन्द है। यह ईश्वर का स्वाभाविक स्वरूप अनादि काल से है व अनन्त काल अर्थात् हमेशा ऐसे का ऐसा ही रहेगा, इसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं होगा, देश-काल-परिस्थितियों का इस पर कोई प्रभाव नहीं होगा।

(दिनेसा=सूर्य) (लवलेसा=अत्यंत अल्प मात्रा,नाममात्र का परिमाण) (बिहाना=छोड़ना,त्यागना)

राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा।।

सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना।।

पार्वती जी के मन में संशय -जगत को पवित्र करनेवाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करनेवाले शिव चल पड़े। कृपानिधान शिव बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सती के साथ चले जा रहे थे।

जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥

चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥

सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥

संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥

सती वाक्य -वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?(इव=समान, नाई ,तरह, सदृश, तुल्य)(अग्य= अज्ञानी,जिसे ज्ञान या समझ न हो)

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥

खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥s

अतः सती जी के मन में संसय हुआ

अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥

शंकर जी हे पार्वती!जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥

जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥

सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥

 

 

यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा,पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए॥

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥

सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥

शिव माता पार्वती से कहते है

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥

इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥

मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥

लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥

कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥

सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥

कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥

कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई॥

मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥

जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥

श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।)॥

जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥

सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥

(तब उन्होंने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥3॥

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥

जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥

सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥

बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥

सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे॥

देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥

जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥

(उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे॥

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥

अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥

(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं॥

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥

हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥

फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे॥

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥

पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥

जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥

गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।

लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥

सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया॥

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥

कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥

आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥

तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥

फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥

बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥

हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥

सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥

जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥

शिव माता पार्वती से कहते है रामकथा कलियुगरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है।हे गिरिराजकुमारी!तुम इसे आदरपूर्वक सुनो।

(कर तारी=हाथ की ताली दोनों हथेलियों के परस्पर आघात का शब्द) (कलि= कलयुग,कलह,पाप,मलिनता) (कुठारी=कुल्हाड़ी)

राम कथा को “करतारी “जनाया कि सबको सुलभ है ,कयोंकि हाथ सबके होते है ताली बजाना अपने अधीन है “करतारी ” अपने पास है ,मानो कामधेनु अपने घर में बंधी है सभी घर बैठे सुख प्राप्त कर सकते है ,दूसरा भाव वक्ता और श्रोता दोनों सुन्दर अर्थात ज्ञानी विज्ञानी हो जब ऐसे श्रोता वक्ता परस्पर  राम कथा कहते सुनते  है तब उनके शब्द सुनकर सब जीवो के संसय रुपी पक्छी उड़ जाते है ये उड़ कर संसय रुपी पेड़ पर बैठते है विटप कुठारी इन पेड़ो को कटती है जिससे संसय रुपी पेड़ो का अड्डा समाप्त हो जाता है

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥

रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥

सादर सुनु ॥ का भाव राम चरित आदर पूर्वक सुनना चाहिए चारो वक्ताओं ने अपने अपने श्रोताओ को सादर सुनने के लिए बारबार सावधान किया है दूसरा भाव “सादर सुनु” कि पाप का नाश तथा संसय की निवृति एवं बुद्धि की मलिनता का सर्वथा अभाव तभी होगा जब कथा सादर सुनी जाएगी और सादर श्रवण तभी होगा जब उसमे श्रद्धा हो कथा औषधि है,श्रद्धा उसका अनुपान है यथा

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।

इसी से राम कथा सादर सुनने की परम्परा है

तुलसी बाबा

सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही।।s

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥s

सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥s

सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥s

सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥s

सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥s

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई।।s

यग्वालिक

तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई।।s

कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।

भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥s

भुशुण्ड जी

सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई॥s

तथा यहाँ शिवजी ने “सादर सुनु गिरिराजकुमारी” कहा

शिवजी पार्वतीजी से बोले-॥

सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा॥

उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।

लक्ष्मण-निषाद संवाद, विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥

सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥

 

बिनु सतसंग बिबेक न होई।राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

राम कथा कछु संशय नाहीं।जिमि रबि उदय तिमिर जग नाहीं!S

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा॥

इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो॥

बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥

मन को समझाना या समझना बहुत ही कठिन है!इसका कारण यह है कि मन बाहर भी है और अंदर भी है,भला भी है और बुरा भी है,सूच्छम परमाणु भी है और असीम ब्रम्हांड भी है,इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं जो मन से पृथक हो ऐसी स्थति में मन का निरूपण करना अत्यंत कठिन कार्य है!

नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा।।

खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।

 

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।

सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया।।

महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥ चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होई निदेसा॥

शिवजी कहते है – तब पक्षीराज गरुड़ ब्रह्माजी के पास गए और अपना संदेह उन्हें कह सुनाया।उसे सुनकर ब्रह्माजी ने रामचंद्रजी को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यंत प्रेम छा गया॥ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान् की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है॥

तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ॥

सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥

गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले-॥ नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था मनुष्यों का सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया।हे तात! यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?॥

देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥

जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥

काकभुशुण्डि गरुड़जी से बोले-॥

तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥

पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥

गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले-॥

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥

गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले-॥ जानेहु सदा मोहि निज किंकर। का भाव यह है कि में अजीवन आपका दास हूँ आज्ञा देते रहियेगा!मेरे जीवन और जन्म दोनों सफल हुए और आपकी कृपा से सब संसय दूर हो गए है !

जीवन जन्म सफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥

जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर।।

गरुड़जी काकभुशुण्डि से बोले-॥ शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैं, जिसे श्री रामजी कृपा करके देखते हैं। श्री रामजी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया॥

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥

राम कपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥

(गरुड़जी ने कहा-) हे तात! मुझे संदेह रूपी सर्प ने डस लिया था और (साँप के डसने पर जैसे विष चढ़ने से लहरें आती हैं वैसे ही) बहुत सी कुतर्क रूपी दुःख देने वाली लहरें आ रही थीं॥आपके स्वरूप रूपी गारुड़ी (साँप का विष उतारने वाले) के द्वारा भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी ने मुझे जिला लिया।

संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।

तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक।।

तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना।।

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! भुशुण्डिजी के वचन सुनकर गरुड़जी हर्षित होकर कोमल वाणी से बोले- हे प्रभो! आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब संदेह, शोक, मोह और कुछ भी नहीं रह गया॥

सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥

तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥

 

 

 

 

 

 

 

3 विश्वास भरोसा

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़! निज-सुख (आत्मानंद) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? वायु-तत्त्व के बिना क्या स्पर्श हो सकता है? क्या विश्वास के बिना कोई भी सिद्धि हो सकती है? इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता॥(थीरा-स्थिर) (परस- स्पर्श)

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा॥

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़! जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता है, वह सब सुखों की खान इस भक्ति रूपी मणि को पा जाता है। हे प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं

भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।

मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़! पंडितजनों की सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त हो सकता है? हे गोसाईं! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं मिलता॥क्या विश्वास के बिना कोई भी सिद्धि हो सकती है? इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता॥ (बुध- बुद्धिमान एवं विद्वान् व्यक्ति)

सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़! चैन, सुख ।भक्ति के लिए विश्वास आवश्यक है। बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती और बिना भक्ति के श्रीराम द्रवित नहीं होते तथा श्रीराम क8 कृपा के बिना जीव को विश्राम (मोक्ष) नहीं मिलता। (विश्राम-चैन, सुख,मोक्ष)

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।

राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥

तुलसीदासजी ने कहा यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री रामजी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?

जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥

सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥

तुलसीदास जी ने कहा अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥ प्रयाग में जाने के लिए अर्थ की आवश्यक्ता पड़ती है मगर संत समाज रुपी प्रयागराज में आदर पूर्वक सेवन करने से सब कलेशो को नष्ट करने वाला है मुफ्त में प्राप्त होता है वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥ अतः संत समाज रुपी प्रयागराज  की महिमा वास्तविक प्रयागराज से अधिक है(बटु=वटवृक्ष) (सद्य=तत्काल,शीघ्र) (अकथ=जिसका वर्णन न किया जा सके) (अलौकिक=लोक से परे,जिसकी समानता की कोई वस्तु इस लोक में नहीं)(अकथ=जो कहा ना जा सके) (देइ= देता है) (संत समाज प्रयाग)सभी को ,सब दिन ,और सभी ठौर प्राप्त होता है।

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।

 

निज धर्म =अपना साधु धर्म,वेद संवत धर्म ,अपने गुरु का अपने को उपदेश किया हुआ धर्म यथाः जप, तप, नियम, योग, अपने-अपने (वर्णाश्रम के) धर्म, श्रुतियों से उत्पन्न (वेदविहित) बहुत से शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इंद्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँ तक वेद और संतजनों ने धर्म कहे हैं (उनके करने का)-॥

वशिष्ठ जी

जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा॥

ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन॥s

वशिष्ठ जी हे प्रभो!अनेक तंत्र,वेद और पुराणों के पढ़ने और सुनने का सर्वोत्तम फल एक ही है और सब साधनों का भी यही एक सुंदर फल है कि आपके चरणकमलों में सदा-सर्वदा प्रेम हो॥

आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका॥

तव पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर॥

ईश्वर को पाने के लिए सच्ची श्रद्धा, अनन्य भक्ति, पूर्ण विश्वास एवं गहरी आस्था चाहिए, तभी उनके दर्शन हो सकते हैं।कहा तुलसीदास जी ने कहा है, 1जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे वैसी ही मूरत नज़र आती है.2मात्र ग्रहणता की बात है कि आप क्या ग्रहण करते हैं, गुण या अवगुण?3दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जो पूरी तरह सर्वगुण संपन्न हो या पूरी तरह गुणहीन हो. एक न एक गुण या अवगुण सभी में होते हैं.4और जिनकी गुणग्रहण की प्रकृति है, वे हज़ार अवगुण होने पर भी गुण देख लेते हैं!5जिनकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूंढने की आदत पड़ गई है, वे हज़ारों गुण होने पर भी दोष ढूंढ लेते हैं! सत्य सनेह के फल दाता भगवान है तन मन वचन तीनो से स्नेह होना है सच्चा स्नेह कहलाता है भावना के कारण ही मनुष्य पत्थरों मे प्रभु का दर्शन करता है और मन को आनंदित करता है किंतु विपरीत सोच के कारण लोग केवल पत्थर ही समझते हैं!

सीता जी श्री राजा राम जी शरण के अनुसार जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। प्रेम के विस्वास का मूल मंत्र है

जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू।।

जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥

श्री रामचंद्जी शबरी से बोले-॥ मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है।सबसे पहले ये ध्यान रखें कि मंत्र आस्था से जुड़ा है और यदि आपका मन इन मंत्रों को स्वीकार करता है तभी इसका जाप करें। मंत्र जप करते समय शांत चित्त रहने का प्रयास करें। ईश्वर और स्वयं पर विश्वास आवश्यक है।

मंत्र शब्द का निर्माण मन से हुआ है। मन के द्वारा और मन के लिए। मन के द्वारा यानी मनन करके और मन के लिए यानी ‘मननेन त्रायते इति मन्त्रः’ जो मनन करने पर त्राण यानी लक्ष्य पूर्ति कर दे, उसे मन्त्र कहते हैं।/ हे सती! रामजी के चरणों में विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है॥

मंत्रजाप मम दृढ़ विश्वासा।पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।

उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।

पार्वती सप्तऋषि से कहा:-अतः मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती॥

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥

गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।।

श्री रामजी का प्रजा को उपदेश मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है?(अर्थात उसकी मुझ पर आस्था बहुत ही निर्बल है।)बहुत बात बढ़ाकर क्या हूँ?हे भाइयों! मैं तो इसी आचरण के वश में हूँ॥

मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा।।

बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई॥

न किसी से वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रखे, न भय ही करे। उसके लिए सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई भी आरंभ (फल की इच्छा से कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घर में ममता नहीं है), जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो (भक्ति करने में) निपुण और विज्ञानवान् है॥(अनारंभ=आरंभ का अभाव, फल की इच्छा से कर्म नहीं करता) (अनिकेत-बेघर) (अमानी-निरभिमान,मानहीन) (अनघ-पुण्य,पापहीन) (बिग्यानी-अध्यात्म संबंधी अनुभव, आत्मा का अनुभव,जैसे—आत्मा ज्ञान)

अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी॥

बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा॥

सीता जी ने राम जी एवं सुमन्त्र से कहा॥ ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार के सुखों का भंडार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता॥ये कोई भी श्री रघुनाथजी के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते॥ (सुखनिधान-शांति का खजाना) (पदम-कमल)

सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥

बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥

रामजी ने नारदजी से कहा- हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूँ कि जो समस्त आशा-भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं,॥ (सहरोसा-हर्ष)

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

बालि ने तारा से कहा- हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्री रघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित् वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा) ॥ (भीरु- डरा हुआ,कायर, डरपोक) (समदरसी-वह जो सभी को समान दृष्टि से देखता हो,न्यायप्रिय)

कह बाली सुनु भीरु प्रिय, समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं, तौ पुनि होउँ सनाथ॥

तुलसीदास जी ने कहा जैसे चातक की नजर एक ही जगह पर होती है, ऐसे ही हे प्रभ ! हमारी दृष्टि तुम पर रख दो। भगवान पर भरोसा करोगे तो क्या शरीर बीमार नहीं होगा, बूढा नहीं होगा, मरेगा नहीं ? अरे भाई ! जब शरीर पर, परिस्थितियों पर भरोसा करोगे तो जल्दी बूढ़ा होगा, जल्दी अशांत होगा, अकाल भी मर सकता है। भगवान पर भरोसा करोगे तब भी बूढ़ा होगा, मरेगा लेकिन भरोसा जिसका है देर-सवेर उससे मिलकर मुक्त हो जाओगे और भरोसा नश्वर पर है तो बार-बार नाश होते जाओगे। ईश्वर की आशा है तो उसे पाओगे व और कोई आशा है तो वहाँ भटकोगे। पतंगे का आस-विश्वास-भरोसा दीपज्योति के मजे पर है तो उसे क्या मिलता है ? परिणाम क्या आता है ? जल मरता है ।

(चातक-पपीहा पक्षी)

एक भरोसा एक बल , एक आस विश्वास ,

एक राम घनश्याम हित , चातक तुलसी दास।

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा किंतु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंतर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनि दुर्लभ हरि भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं॥

मुनि दुर्लभ हरि भगति नर, पावहिं बिनहिं प्रयास।

जे यह कथा निरंतर, सुनहिं मानि बिस्वास॥

उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।s

 

तुलसीदास जी ने कहा जिनके पास श्रद्धारूपी राह-खर्च नहीं है और संतोंका साथ नहीं है,उनके लिये यह मानस अत्यन्त अगम है। अर्थात् श्रद्धा,सत्संग और भगवत्प्रेमके बिना कोई इसको पा नहीं सकता। (अगम-दुर्गम)

जे श्रद्धा संबल रहित ,नहि संतन्ह कर साथ।

तिन्ह कहुँ मानस अगम अति, जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।

अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होए।

तुलसीदास जी विपत्ति के समय आपको ये सात गुण बचायेंगे:आपका ज्ञान या शिक्षा, आपकी विनम्रता, आपकी बुद्धि, आपके भीतर का साहस, आपके अच्छे कर्म, सच बोलने की आदत और ईश्वर में विश्वास

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक|

साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक ||

 

 

 

 

 

4 दीनता लघु

कबीर=

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।

तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर ॥

कबीर कह रहे हैं कि अगर आपको अपना बड़प्पन रखना है तो सदैव छोटे बनकर रहो।छोटा बनने का अर्थ है विनम्र बनकर रहो।विनम्रता रखने में ही आपका बड़प्पन है।विनम्रता से आपका सभी लोगों में मान बढेगा।लघुता से ही प्रभुता मिलती है।प्रभुता से प्रभु दूर अर्थता अहंकार की भावना रखने से आपके और परमात्मा के मध्य की दूरी बढ़ जाएगी।अहँकार के कारण ही मनुष्य से परमात्मा दूर हो जाते हैं।कुछ करने और जानने का अहंकार आपको परमात्मा को पाने से वंचित कर देता है।चींटी छोटी है,विनम्र है इसलिए उसे शक्कर मिलती है ।हाथी को अपने विशालकाय और बलशाली होने का अहंकार होता है।इसी बल के अहंकार के कारण वह सूंड से धूल उठाकर अपने सिर पर डालता रहता है।कहने का अर्थ है कि जीवन में कभी भी किसी भी विशेषता का अभिमान नहीं करना चाहिए।विनम्रता आपको शिखर तक ले जा सकती है और अहंकार पतन के अंधकार तक।चयन आपको करना है।परमात्मा के द्वार तक दंडवत लेट कर ही पहुंचा जा सकता है,अहंकार से अकड़कर चलने पर तो उसका दर तक दिखलाई नहीं पड़ेगा।

लघुता ते प्रभुता मिले, प्रभुता ते प्रभु दूरी।

चींटी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी।।

तुलसीदास जी ने कहा हे श्री रघुबीर ! मेरे समान कोई दीन नही है और आपके समान कोई दीनो का हित करनेवाला नही है।।ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीजिये।

(बिसम=विकट ,भीषण, प्रचंड भयंकर विकट) (भव भीर=जन्म मरण)

मों सम दीन न दीन न हित, तुम समान रघुवीर।

अस विचारि रघुवंश मनि, हरहु बिसम भव भीर।

तुलसीदास जी ने कहा मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ॥

जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥

निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥

सब जगत को सियाराम मय मानकर वंदना की और अपने में किंकर, भाव रखा यह गोस्वामी जी का अनन्य भाव है यथा

सो अनन्य जाकें असि, मति न टरइ हनुमंत।

मैं सेवक सचराचर, रूप स्वामि भगवंत।।s

आगे अपने को संतो का बालक कहा,

छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।s

तुलसीदास जी ने कहा। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ,मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ॥ इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है यह मैं कोरे कागज पर लिखकर(शपथपूर्वक)सत्य-सत्य कहता हूँ॥

कवि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू।सकल कला सब बिद्या हीनू।।

कवित विवेक एक नहिं मोरे।सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।।

गोस्वामी जी सब गुणों से पूर्ण होते हुए भी ऐसा कह रहे है इन्होने तो विनम्रता की हद ही पार कर दी जैसे हनुमान जी शपथ की थी ऐसा कहकर अपने हृदय की निष्कपटता दर्शित करता है,यथा

ता पर मैं रघुबीर दोहाई।जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।।s

तुलसीदास जी ने कहा -मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं।जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं (मुदित-प्रसन्न)

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥

जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥

तुलसीदास जी ने कहा:-कीर्ति, कविता, और सम्पत्ति ,वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो बड़ी सुंदर (सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामंजस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता), इसी की मुझे चिन्ता है॥

(भनिति=कविता,कहावत,लोकोक्ति) (अँदेसा=

शक,संदेह,संशय,खटका,अविश्वास)(भदेसा=भद्दा,कुरूप,बुरा)

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥

राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥

तुलसीदास जी ने कहा:-पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं॥ (जे बिनु काम-निष्काम)

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥

बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥

तुलसीदास जी ने कहा:-जो श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो (धींगाधींगी= बदमाशी,उपद्रव) करने वाले, धर्मध्वजी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है॥ (भगत कहाइ-ऐसे लोगों को स्वयं को भक्त कहलाने की बड़ी इच्छा होती है) और  जो वास्तव में भक्त हैं जैसे भरत जी, हनुमानजी आदि , ये कभी अपने को भक्त कहते ही नहीं हैं और न उन्हें किसी से कहलाने की इच्छा रहती है। हनुमानजी जामवंत जी तो बंदर भालू के वेष में हैं लेकिन उनके अंदर साधुता का वास है।(बंचक=ठग)(कंचन=धन,संपत्ति) (कोह=क्रोध,गुस्सा)(किंकर=गुलाम, दास,सेवक, नौकर)

बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥

तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥

परशुराम जी -अत्यंत क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले – रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? जड़ कहने का भाव यह की शिव धनुष की पूजा और रक्छा करना चाहिए थी सो ना करके  उसे तुड़वाया यह तेरी जड़ता है मूर्खता है अति क्रोध मनुष्य को स्वयं ही निर्बल बना देता है यह संकेत भी परुशराम जी की हार के लिए कितना सुन्दर है हे नाथ! शिव के धनुष को तोड़नेवाला आपका कोई एक दास ही होगा।

सीधे सीधे क्यों ना कह दिया की हमने तोडा है परोक्ष  रूप से क्यों  कहा? सीधे कह देने से मुनि लड़ने लगते  और राम जी के युद्ध करने से ब्रह्म हत्या लगती वचन चतुराई से ही उनको जीतना उचित समझा इसी से अपने आप (रामजी) को प्रकट करके नहीं कहा दूसरा  प्रकट कहने में की हमने तोडा है अभिमान सूचित होता है अपने को दास कहा और दास कहकर भी प्रकट नहीं हुए कहते है की कोई तुम्हारा दास होगा इन वचनो में कितनी निरभिमानिता भरी हुई है राम जी अपनी प्रसंसा स्वयं कभी नहीं करते  नाथ कहने का भाव की आप जिसके स्वामी है और जो आपका दास है उसने तोडा है नाथ शम्भु एक भाव यह भी है की जिन शम्भू का यह धनुष है उनके हम नाथ है अतः आप व्यर्थ ही रोष करते है

जनक जी को जड़ मूड कहना उनके राज्य को उलट देने की धमकी देना अनुचित है आपका अपराधी में हूँ

अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥

तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥

रामचंद्र जी बोले – हे नाथ ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी ? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम॥ हमहि तुम्हहि= कहने का भाव की हम सेवक है और आप नाथ है सेवक और स्वामी की बराबरी नहीं होती तब हमारी और आपकी बराबरी कैसे हो सकती है सरबरी कसी का भाव है की आप ब्राम्हिन है में छत्री हूँ इसी आधार पर कहा कहाँ चरण कहाँ माथा।कहकर दोनों में बड़ा अंतर दिखाया।(सरिबरि- बराबरी,समता)

हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा।।कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा।।

राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा।।

रामजी ने परशुराम जी से कहा- हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता – ये) नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए। भगवान राम की मर्यादा है कि भगवान परशुराम के प्रति किस प्रकार के सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि ‘हे देव! हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं, क्योंकि आप विप्र हैं। हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए।(सूत्र) यह केवल  और केवल भगवान राम ही कह सकते हैं।

देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें।।

सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे।।

(परशुराम ने कहा-)हे राम! हे लक्ष्मीपति!मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ?हे महादेवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए॥

करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥

अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।

(चलते समय) बड़े प्रेम से श्री रामजी ने मुनि से कहा-हे नाथ! बताइए हम किस मार्ग से जाएँ। पर मुनि मन में हँसकर श्री रामजी से कहते हैं कि आपके लिए सभी मार्ग सुगम हैं॥

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं।।

मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं।।

कृपानिधाना कहने का भाव दण्डकारन वन में और भी ऋषियों के लिए सुख देना चाहते है इस वन में तो अत्रि मुनि की ही प्रधानता है इसलिए अन्य वन में जाने की मुनि अत्रि से आज्ञा ली भगवान अपने आचरण द्वारा यह उपदेश दिया कि कि जब हम छत्रिय वेश धारण कर मुनियो,विप्रो का सम्मान करते है तो  यही कर्तव्य अन्य जीवो को भी  करना चाहिए

तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना।।

संतत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू।।

मुझ पर निरंतर कृपा करते रहिएगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़िएगा। धर्म धुरंधर प्रभु श्री रामजी के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेमपूर्वक बोले-

चक्रवती महाराज के परम प्रतापी राजकुमार एक मुनि के सामने इस प्रकार कृपा की याचना करते है (अगस्त्यजी)जी ने कहा आप सेवकों को सदा ही बड़ाई दिया करते हैं,इसी से हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है॥यथाः

संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥s

धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी।।

जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी।।

धर्म धुरंधर प्रभु के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेम पूर्वक बोले ब्रह्मा,शिव,सनकादिक सभी परमार्थवादी जिसकी कृपा की चाह करते है हे राम वही आप(जिसको निष्काम भक्त प्रिय है और जो)निष्काम भक्तो के प्यारे एवं दीनबंधु है जिन्होंने ऐसे कोमल वचन कहे !

(परमारथ बादी=जो ब्रह्म से साक्षात करने में प्रबल है,ब्रह्म तत्व को जानने वाले,ज्ञानी) यथाः

राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥s

ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बंधु मृदु बचन उचारे।।

अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई।।

जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई।।

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी।।

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। भाव यह की कैसे कहू कि बन को जाओ,क्योकि आप तो सर्वत्र हो आप तो अन्तर्यामी हो पुनः नाथ के जाने से सेवक अनाथ हो जायेगा ,यह कैसे कहू कि मुझ को अनाथ करके जाइये पुनः आप स्वामी है,सेवक स्वामी को जाने को कैसे कह सकता है?आप नाथ है नाथ के बिना सेवक अनाथ होकर कैसे रहना चाहेगा?

अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा।।

श्री रामजी ने मुनि से कहा-अगस्त्यजी: हे प्रभो! अब आप मुझे वही मंत्र (सलाह) दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ। प्रभु की वाणी सुनकर अगस्त्यजी मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया?॥ जगत का दाता अगस्त जी से मांग रहा है

अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥

मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥

सुतीक्ष्ण जैसा संत बोल रहा मेरे हृदय में दृढ़ विश्वास नहीं होता, क्योंकि मेरे मन में भक्ति, वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है॥

मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥

नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा॥

हनुमान  जी अपनी अत्यंत दीनता और मन ,कर्म,वचन से सरनागति दिखा रहे है  एक का अर्थ “प्रधान “वा “शिरोमणि “है अर्थात में मंद ,मोहबस ,और कुटिलो का शिरोमणि हूँ।

एकु मैं मंद मोहबस, कुटिल हृदय अग्यान।

पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ, दीनबंधु भगवान।।

हनुमान जी की दीनता (पइसार=पैठ,प्रवेश) (निसि=अर्धरात्रि)

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।

अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥

हनुमान जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान् श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले (लंका के द्वार पर) लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥ (मसक=मच्छड़)( नरहरी=नृसिंह अवतार,रामचंद्रजी)

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥

मैंने जो समुद्र लाँघकर सोने का नगर जलाया और राक्षसगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला॥यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥(हाटक-सोना,स्वर्ण) (बिपिन-वन)

साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।।

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।

सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।

हनुमान विभीषण संवाद और दीन भाव-

विभीषण हनुमान जी से बोल रहा है”तामस तनु”का भाव है कि हम पापी है!

तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।

सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥s

तव पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर॥s

सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।s

इसी से में ज्ञान हीन भी हूँ”कछु साधन नाहीं।”साधनो से ही भगवान मिलते है यथाः

मुझ से तो वह भी नहीं बनता अतः में कर्म हीन हूँ क्योकि साधन करना कर्म है प्रीति न पद सरोज मन माहीं।। का भाव उपासना से रहित हूँ दूसरा भाव

राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू।s

पदराजीव बरनि नहिं जाहीं।मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥s

विभीषण बोल रहा है श्री राम जी के चरन रुपी कमल में मन को मधुकर की तरह लुब्ध होना चाहिए पर मुझ में तो यह भी नहीं है

(हनुमान्जी ने कहा-) हे विभीषणजी! सुनिए आपका तो केवल तामस तन है पर कुल तो उत्तम है यथाः

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती।।s प्रभु केवल और केवल भक्ति से रीझते है कुल आदि से कोई लेना देना नहीं,भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? (जाति का) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, सब प्रकार से गया बीता हूँ प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।

सदा प्रीती का निर्बाह करना कठिन है पर प्रभु सदा एक रस निबाहते है प्रभु को सेवक से कोई अपेच्छा नहीं है पर वे तो सेवक पर बिना कारण ममता और प्रीत करते है

कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती।।s

को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।s

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥

प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥

हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान् के गुणों का स्मरण करके हनुमान्जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।s

यहाँ अपने दोष और स्वामी के गुणों को कहा है यथाः

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥s

बिषय बस्य सुरनर मुनि स्वामी।मैं पावँर पसु कपि अति कामी।s

अब मोहि भा भरोस हनुमंता। विभीषण स्वयं हनुमान जी से बोल रहा है

अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।

जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।

यथाः

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही।।s

जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। का भाव रघुवीर शब्द में पांच प्रकार की वीरता के भाव रहते है

1 त्यागवीर –

पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।

बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर।s

2दयावीर –

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥s

3 विद्या वीर –

श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।

ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥s

जल में पत्थरो का तैरना भी एक विद्या है

4 -धर्मवीर –

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥s

5 पराक्रम वीर – ये पांचो वीरता राम जी में ही है

सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।

हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।s

विभीषणजी ने रामजी से कहा-:-हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है॥(सुरत्राता-विष्णु,कृष्ण)(उलूकहि-उल्लू)(तम=अँधेरा, अंधकार, तमाल वृक्ष,पाप,अपराध)

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥

सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। इति अपनी अधमता दिखाने के लिए अपने को रावण का भाई कहकर अपना परिचय दे रहे है पिता का नाम लेकर प्रणाम करने की रीती है पर विभीषण अपने पिता का नाम नहीं लेते क्योकि वे ऋषि है इससे कुलीनता पाई जाती है पिता की जगह बड़े भाई का नाम लिया क्योकि बड़ा भाई पिता तुल्य होता है दूसरा भाव चार बातो से पुरुष की परीक्षा होती है कुल,संग,स्वाभाव,और शरीर से विभीषण जी ने अपने मुख से अपनी अधमता चारो प्रकार से कह रहा है क्रम से सुनिए निसचर बंश  जनम,यह कुल से अधम “दशानन का भ्राता “यह संग अधम का “सहज पाप प्रिय “यह स्वाभाव से अधम और “तामस देह”यह शरीर से अधम बताया है

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। दशानन आपका विरोधी है में उसका भाई हूँ अतः शरण योग्य नहीं हूँ ,आप सुरत्राता है में निसिचर सुर विरोधी हूँ तात्पर्य यह की जो आपके सनेही है में उन्ही का विरोधी हूँ और जो आपके विरोधी है उनका में सनेही हूँ आप धर्म प्रिय है मुझको पाप प्रिय है सब प्रकार से आपकी शरण के अयोग्य हूँ किसी प्रकार भी योग्य नहीं हूँ रही एक बात वह यह है कि मैंने आपका यह सुजस सुना है की आप शरण सुखद है कैसा भी कोई पापी हो आपकी शरण जाने पर आप उसे अवश्य शरण देते है

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥

प्रभु भंजन भव भीर। आदि विशेषणों का भाव है कि आप समर्थ है में सब प्रकार से असमर्थ हूँ आप भवभीर भंजन है में सभीत हूँ आप आरति हरण है में आर्त हूँ आप शरण सुखद है में शरण में हूँ आप रघुवीर है में आपके शत्रु का भाई हूँ आपके दरबार में दीन का आदर है में सब प्रकार से दीन हूँ

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥s

विभीषणने रामजी से कहा मैं अत्यंत नीच स्वभावका राक्षस हूँ।मैंने कभी शुभआचरण नहींकिया।जिनका रूप मुनियोंके भी ध्यानमें नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया॥

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥

जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयं मोहि लावा॥

भरतजी जैसा संत जिसको राम जी भजते हैं बोल रहा है   क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आए? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया? (निस्तार=छुटकारा, उद्धार)(कलप=युग)

अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।

कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।

यह भक्ति की कार्पण्य वृति है यथाः

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ।।s

अथवा इसी वृति में अपनी उस करनी का भी स्मरण करते है हनुमानजी को संजीवनी ले जाते समय बाण मारा था अगर हनुमान जीवित नहीं होते तो कोई भी जीवित ना होता अतः भरत जैसा संत बोल रहा है कि मेरी इस करनी को समझे तो करोडो कल्पो तक मेरा निर्बाह नहीं हो सकता जन अवगुन। का भाव वे दीनबन्ध है और में दीन हूँ ,तो अवश्य कृपा करेंगे यथाः

नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।s

अति मृदुल सुभाऊ। का भाव प्रभु तो अति कोमल स्वाभाव के है अतः मुझ पर क्रोध ना कर के दया ही करेंगे ऐसा कहकर उपर्युक्त “कपटी कुटिल मोहि “का निराकरण किया  पहले भी इन्होने कहा था यथाः

देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने।।s

जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।

अवधि बीत जाने पर यदि मेरे प्राण रह गए तो जगत् में मेरे समान नीच कौन होगा?

मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥

बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना॥

काकभुशुण्डि ने गरुड़ कहा  ॥हे गरुड़जी!यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी आज मैं धन्य हूँ, अत्यंत धन्य हूँ, जो श्री रामजी ने मुझे अपना ‘निज जन’ जानकर संत समागम दिया (आपसे मेरी भेंट कराई) (समागम-सम्मेलन,सभा)

आजु धन्य मैं धन्य अति, जद्यपि सब बिधि हीन।

निज जन जानि राम मोहि, संत समागम दीन॥

मनु-शतरूपा ने  कहा :- हे अनाथों का कल्याण करने वाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिस (की प्राप्ति) के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं (प्रनतारति –शरणागत) (मोचन-छुड़ाना, मुक्त करना)

जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥

जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥

देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥

मनु-शतरूपा ने   कहा   :-प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही- हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गईं॥(जुग=तरह की दो वस्तुओं का जोड़ा)

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥

नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥

अंगद की दीनता।

अंगद ने कहा पिता के मरने पर में अशरण था तब आपने मुझे शरण में लिया अर्थात गोद लिया अब आप गोद लेकर त्यागे नहीं कोछे (गोद ) रखकर गिरावे नहीं मुझे त्यागने पर आपका  असरन सरन बाना ना रह जायेगा”मोहि जनि तजहु ” का भाव राम जी का रुख देखा की रखना नहीं चाहते ,तब ऐसा कहा”भगत हितकारी” भाव यह है की में भक्त हूँ वहां जाने से मुझे सुग्रीव से भय है अतः मेरा त्याग ना कीजिये,वहां ना भेजिए सुग्रीव से भय का कारण यह की अभी उसके पुत्र नहीं था इससे  और आपकी आज्ञा से सुग्रीव ने मुझे युवराज बनाया है जब उसके संतान होगी तब मुझे क्यों जीता छोड़ेगे ?

असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।

मोरें तुम्ह प्रभु का भाव औरो के सब नाते पृथक पृथक होते है एक जगह निर्बाह नहीं हुआ तो दूसरी जगह चले जाते है पर मेरे तो सब आप ही है तब में अन्यत्र कहाँ जाऊ ?

मोरें तुम्ह प्रभु  गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।

तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा । प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।

(नरनाहा) का भाव आप तो राजा है राजाओ के व्यवहार को जानते है जरा विचार कर देखे कि एक राजा का पुत्र अपने पिता के बैरी राजा के आश्रित होकर कब सुखी रह सकता है?राजाओ की तो यही रीती है यथाः

भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥s

यही विचार कर तो बाली ने मुझे आपकी गोद मे डाला है प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।भाव यह है कि घर में मेरा क्या काम राजा श्री सुग्रीव जी है उनकी सहायता के लिए मंत्री गण एवं सेना है “प्रभु तजि “का भाव यह है कि घर बार छोड़ कर प्रभु की सेवा करनी चाहिये ,जो प्रभु की सेवा छोड़ कर घर की सेवा करता है उस पर तो विधि कि वामता (प्रतिकूलता,विरुद्धता)  होती है यथाः परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥श्री लक्ष्मणजी, श्री रामजी और श्री जानकीजी को छोड़कर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत हैं॥

 

मैं घर की सब नीची से नीची सेवा करूँगा और आपके चरण कमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े (और बोले-) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए। हे नाथ! अब यह न कहिए कि तू घर जा॥

नीचि टहल(सेवा) -कहने का भाव यह की उच्च सेवा के अधिकारी भरत आदि है

बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।

नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।

अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।

(सुग्रीव ने कहा-) हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो (जो भगवान ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया)। जाकर कृपाधाम श्री राम जी की सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े।

पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा।।

अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता॥

अंगद ने कहा- हे हनुमान ! सुनो-॥मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दण्डवत कहना और श्री रघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना॥

कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।

बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥

 

 

 

 

 

5 सलाह

राम जी ने सभी की सलाह से कार्य किये

रामजी ने भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाते है जो प्रयागराज में गंगा जमुना सरस्वती के संगम पर स्थित है! चलते समय राम जी भरद्वाज जी से वन का मार्ग पूछते है!(पाहीं=पास,निकट)

 

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥

भरद्वाज मुनि मन में हँसकर श्री रामजी से कहते हैं कि आपके लिए सभी मार्ग सुगम हैं॥

मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं।सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥

राम जी बाल्मीक मुनि के आश्रम में आते है और उनसे विनम्रता पूर्वक हे मुनि वह स्थान बताइये जहाँ में लक्ष्मण सीता सहित रहूँ! मुनि राम की भांति भांति प्रसंसा करते है!और अंत में कहते है!

अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥

तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौं कछु काल कृपाला॥

आप चित्रकूट पर्बत पर निवास करे,वहां आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है!सुहावना पर्वत हैऔर सुन्दर वन है हाथी,सिंह,हिरन और पछियो का विहार स्थल है ! (सुपास=सुख,आराम ,सुभीता) (सुभीता=वह स्थिति जिसमें किसी काम को करने में कोई कठिनाई न हो; सुविधाजनक स्थिति)

चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥

सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥

राम ने शबरी से सीता का पता पुछा=हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥ (करिबर=श्रेष्ट हाथी) (गामिनी=जाने वाली स्त्री, प्राचीन काल की एक प्रकार की नाव-यह नाव 96 हाथ लंबी, 12 हाथ चौड़ी और 9 हाथ ऊँची होती थी और समुद्रों में चलती थी । ऐसी नाव पर यात्रा करना अशुभ और दुःखदायी समझा जाता था) यहाँ “करिबरगामिनी”पद जनकसुता का विशेषण है !एक तरह से भगवान सीता जी का हुलिया बताते है !यहाँ यह सबरी के लिए सम्बोधन नहीं हो सकता क्योकि सबरी में भगवान माता का भाव रखते है!

जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥

राम हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? (तव=सर्व० [संस्कृत] तुम्हारा)

(सायक=तीर,बाण) (कोटि=करोड़ों) (गंभीरा=गहरा) (गाई=सविस्तार व्याख्या करना,गाना) (कादर=संस्कृत [विशेषण] भीरु, डरपोक, व्याकुल,परेशान,आर्त,अधीर,विवश)

 

सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।।

कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।

जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई।।

सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।

मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥

नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥

कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥

रामजी ने लक्ष्मण से हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो।

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥

श्री राम विभीषण की सलाह मानकर समुद्र से तीन दिन तक विनिती करते है लेकिन उसके कान पर जू तक नहीं रेंगती,तव वे लक्ष्मण की सलाह मानकर उस पर कोप करते है!

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥

रामजी ने कहा

इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥

कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥

जाम्बवान् ने   रामजी से   कहा-॥ हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! (रघुराई=रघुवंसियो  के  राजा) (रासी=ढेर)

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥

मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥

श्री राम जामवंत की सलाह को महत्व देते है

नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना॥

बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा॥

रामजी ने कहा शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो॥

काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥

श्री रामचंद्रजी ने सब मंत्रियों को पास बुलाया (और कहा-) लंका के चार बड़े विकट दरवाजे हैं। उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए, इस पर विचार करो॥

लंका बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा॥

तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन।।

करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा।।

जानत परम दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले असंका।।

काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्री रामचंद्रजी ने विभीषण की ओर देखा॥

काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥

मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥

सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥

नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥

मुनि वशिष्ठजीबोले-श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले- हे सर्वज्ञ! हे सुजान! हे धर्म, नीति, गुण और ज्ञान के भण्डार राम! सुनिए-॥

बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी॥

सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥

मुनि वशिष्ठजीबोले-आप सबके हृदय के भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं, जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइए॥

सब के उर अंतर बसहु, जानहु भाउ कुभाउ।

पुरजन जननी भरत हित, होइ सो कहिअ उपाउ॥s

मुनि के वचन सुनकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है॥पहले तो मुझे जो आज्ञा हो,मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूँ॥

सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥

प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौं सिख सोई॥

फिर हे गोसाईं! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जाएगा (आज्ञा पालन करेगा)। मुनि वशिष्ठजी कहने लगे- हे राम! तुमने सच कहा। पर भरत के प्रेम ने विचार को नहीं रहने दिया॥

पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईं॥

कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥

इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गई है। मेरी समझ में तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जाएगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा॥

तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी॥

मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥

मुनि वशिष्ठजीबोले-पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) कीजिए॥

भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।

करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥

कपटी मुनि ने प्रतापभानु कहा- तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे। (बरिआरा=बलवान) (बिधि=ब्रह्मा,व्यवस्था आदि का ढंग, प्रणाली,क़ानून)

तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥

जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥

शिवजी ने नारदजी से कहा हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस तरह भगवान हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा चले तब भी इसको छिपा जाना

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।

भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान।।

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। यद्पि शिवजी बड़े है तो भी विनय करते है क्योकि यह बड़ो का स्वाभाव है कि छोटो के कल्याणार्थ अपनी मान मर्यादा छोड़ कर विनय करके उनको समझते है जिससे वह उनकी सलाह को मान ले यथाः हनुमान जी

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥S

यथाः विभीषण

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।

सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥

यथाः राम जी

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।

संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥

संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा।एक बार ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी॥

ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥

जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा।यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी,पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो,उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥

तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥

भावार्थ:-शिवजी ने बहुत प्रकार से समझाया, पर होनहारवश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिवजी ने कहा कि यदि बिना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी॥

भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥

कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥

यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं, तथापि, जाति अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजी को बड़ा क्रोध हो आया। माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया॥

जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥

समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥

त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं। मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है॥

जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥

पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥

इसलिए चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया॥

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥

सप्तऋषि पार्वती से कहा:-जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान बनाना चाहते

(सरिस=समान,तुल्य)

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥

मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥

उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है॥

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥

निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥

सप्तऋषि पार्वती से कहा:-अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं॥

अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥

अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥

सप्तऋषि पार्वती से कहा:-वह दोषों से रहित, सारे सद्गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठपुरी का रहने वाला है। हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं-॥

दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥

अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥

गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥

माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है॥

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।

जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥

तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥

तारा ने बाली से कहा कि हे नाथ! सुनिए, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा हैं॥

सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥

कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥

बालि कह रहा है कि हे प्रिय! तुम कितनी डरपोक हो। तुम कह रही हो कि श्रीराम जी काल को भी जीतने वाले हैं। तो इसका अर्थ वे भगवान हैं। और भगवान किसी को थोड़ी मारते हैं। वे वास्तव में समदर्शी ही होते हैं। और रघुनाथ जी भी तो फिर समदर्शी हुए। अगर वे मुझे मारेंगे तो अफसोस कैसा? मैं निश्चित ही सनाथ हो जाऊँगा और निश्चित ही परम पद को प्राप्त करुँगा।

कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ।

जाम्बवान् ने हनुमानजी से   कहा- जामवंत कह रहे हैं, ‘हनुमान चुप क्यों हो? अपने आप को पहचानो, अपने कुल के गौरव को याद करो, राम के कार्य के लिये ही तुम्हारा अवतार हुआ है।’ पथ-प्रदर्शक जामवंतजी के वाक्य जब हनुमानजी के कानों में पड़े तो उनकी बुद्धि जाग्रत हुई। पथ-प्रदर्शक के कारण ही उनकी लघुता प्रभुता में परिवर्तित हो गयी। वे पर्वताकार हो गये। उन्होंने पास ही स्थित पर्वत शिखर पर चढ़ कर तीव्र गर्जना की, लेकिन अपना संयम नहीं खोया, अपने मानसिक संतुलन को यथावत बनाये रखा। सच्चा बलवान निर्भीक होते है, क्योंकि उसका प्रमुख आभूषण है नम्रता। जाम्बवान्जी की प्रेरणादायिनी वाणी से हनुमान्जी अत्यन्त प्रसन्न हो गए। सिंहनाद करते हुए उन्होंने कहा- मैं समुद्र पारकर सम्पूर्ण लंका को ध्वंस कर माता जानकी जी को ले आऊँगा या आप आज्ञा दें तो मैं दशानन के गले में रस्सी बाँधकर और लंका को त्रिकूटपर्वत सहित बायें हाथ पर उठाकर प्रभु श्रीराम के सम्मुख डाल दूँ। अन्यथा केवल माता जानकीजी को ही देखकर चला आऊँ। पवनपुत्र हनुमान्जी के तेजोमय वचन सुनकर जाम्बवान् बहुत प्रसन्न हुए और उनसे कहा- पंडित विजयानंद का मत है कि हनुमान जी यह सोच कर चुप बैठे है कि “यह रामदूत “होने के यश प्राप्ति का अवसर है अतः कोई लेना चाहे तो मै बोल कर बाधक क्यों होउ?मै तो आज्ञा कारी हूँ!जब सब लोग आज्ञा देंगे तभी जाऊंगा!जामवंत जी इस बात को समझते है अतः सभी के अस्वीकार करने पर हनुमान जी से कहा

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।

पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।

राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।।

हनुमानजी ने जाम्बवान् से कहा-

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा।।

सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा।।

सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।

जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।।

एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।

सीताजी (मन ही मन) कहने लगीं- (क्या करूँ) विधाता ही विपरीत हो गया। न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता॥

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।मिलिहि नपावक मिटिहि न सूला॥

देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥

तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा) सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान्जी को कल्प के समान बीता॥हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर॥ (किसलय=अंकुर,कोंपल,कल्ला)

सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका।।

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना।।

रावण को 19 बार बैर छोड़ कर राम का भजन करने का उपदेश दिया गया तब भी उसने किसी की नहीं सुनी अपने मन की ही की (सूत्र)अतः दृण पद दिया

1मारीच ने रावण से कहा-

भावार्थ:- भाग्यहीन रावण ने सारी कथा अभिमान सहित उसके सामने कही (और फिर कहा-) तुम छल करने वाले कपटमृग बनो, जिस उपाय से मैं उस राजवधू को हर लाऊँ॥

दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥

होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥

भावार्थ:- तब उसने (मारीच ने) कहा- हे दशशीश! सुनिए। वे मनुष्य रूप में चराचर के ईश्वर हैं। हे तात! उनसे वैर न कीजिए। उन्हीं के मारने से मरना और उनके जिलाने से जीना होता है (सबका जीवन-मरण उन्हीं के अधीन है)॥(चराचर=जड़ और चेतन, स्थावर और जंगम,संसार) (ईसा=ईश्वर)

तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररूप चराचर ईसा॥

तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥

यही राजकुमार मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए गए थे। उस समय श्री रघुनाथजी ने बिना फल का बाण मुझे मारा था, जिससे मैं क्षणभर में सौ योजन पर आ गिरा। उनसे वैर करने में भलाई नहीं है॥

मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥

सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥

मेरी दशा तो भृंगी के कीड़े की सी हो गई है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को ही देखता हूँ। और हे तात! यदि वे मनुष्य हैं, तो भी बड़े शूरवीर हैं। उनसे विरोध करने में पूरा न पड़ेगा (सफलता नहीं मिलेगी)॥

भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥

जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥

जिसने ताड़का और सुबाहु को मारकर शिवजी का धनुष तोड़ दिया और खर, दूषण और त्रिशिरा का वध कर डाला, ऐसा प्रचंड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है?अर्थात कभी नहीं।(कोदंड=धनुष) (हति=वध,विनाश,हत्या) (बरिबंड=बलवान,प्रचंड,विकट,प्रतापशाली)

जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।

खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥

अतः अपने कुल की कुशल विचारकर आप घर लौट जाइए। यह सुनकर रावण जल उठा और उसने बहुत सी गालियाँ दीं (दुर्वचन कहे)। (कहा-) अरे मूर्ख! तू गुरु की तरह मुझे ज्ञान सिखाता है? बता तो संसार में मेरे समान योद्धा कौन है?॥

जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥

गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥

2जटायु-रावण से बोले- : यह सुनते ही गीध क्रोध में भरकर बड़े वेग से दौड़ा और बोला- रावण! मेरी सिखावन सुन। जानकीजी को छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर चला जा। नहीं तो हे बहुत भुजाओं वाले! ऐसा होगा कि-॥रामजी के क्रोध रूपी अत्यन्त भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिंगा(होकर भस्म) हो जाएगा।(बहुबाहू=रावण) (सलभ=पतंगा)

सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा॥

तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥

राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा॥

3 जानकी

हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं- तू (अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है॥ रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?॥

(नलिनी=कमलिनी) (खद्योत=जुगनू)

तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥

अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥

सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥

4 हनुमानजी ने रावण से कहा

हे रावण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भक्त भयहारी भगवान् को भजो॥ (भ्रम=भ्रम भजन का बाधक है) (भगत भय हारी=का भाव है कि जो उसका भजन करते है उसका भय वे भक्त वासल्य हरण करते है) तुम अपने ही कुल को विचार कर देखो की तुम्हारा कुल कैसा है? विश्रवा के पुत्र और कुबेर के भाई हो ईस्वर का भजन करना तुम्हारा कुल धर्म है। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥ सिखावन के लिए मान बाधक है अतः कहा कि सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥

देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥s

बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥s

बिनती करउँ जोरि कर रावन।

बड़े लोग नम्रता एवं प्रार्थना पूर्वक उपदेश देते है यथाः

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।

संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।s

संत लोगो ने भी यथाः यही कहा कहे

माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।।s

हनुमान जी रूद्र अवतार और महान संत है शत्रु रावण का भी ये भला ही चाहते है

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।।s

अब रावण को  शिक्षा  देना है इसलिए हाथ जोड़ते है ,विनती करते है ,और आदर के शब्द कह रहे है इसी तरह उपदेश देने से  श्रोता उसे धारण करते है “मान तजि”क्योकि अभिमानी किसी की सलाह नहीं मानते  यथाः

मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना॥s

यथाः

बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।s

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।।s

जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो(तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। बैर जानकी जी को लौटा देने में बाधक है)

जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥

(राखिहैं= अतः वध ना करेंगे रक्षा करेगे अर्थात त्याग ना करेंगे) रघुनायक विशेष्य है और प्रनतपाल,करुना सिंधु,औरखरारि उनके विशेषण है तीनो विशेषण देकर जनाया कि प्रणत को सब कुछ दे देते है अतः रघुनायक है करुना सिंधु से जनाया कि कितना भी अपराध किया हो कोप नहीं करते खरारि से जनाया कि वे भगवान ही है खर आदि किसी और से नहीं मर सकते रावण ने स्वयं कहा

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।

गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥

नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥s

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥s

खर दूषन मोहि सम बलवंता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||s

हनुमानजी ने रावण से कहा- रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है। (अर्थात जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं॥सम्पत्ति और प्रभुता नदी के समान है यथाः

रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।s

भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।।s

सुकृत के द्वारा सम्पति और प्रभुता दोनों प्राप्त होती है पर राम बिमुख होने से शीघ्र ही उनका नाश हो जाता है

राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥

हनुमानजी ने रावण से कहा (पन=प्रण,प्रतिज्ञा)(त्राता=रक्षा करनेवाला,शरण देनेवाला) (कोपी=क्रोध करनेवाला,क्रोधी)

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।

भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।

(मोह और अभिमान )दोनों ही  सभी मानसिक रोगो का मूल (मुख्य ) कारण है यथाः

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।s संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥s

“त्यागहु तम अभिमान”अभिमान ही भजन का बाधक है इसी से इसका त्यागना कहा गया

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥

बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥

5 aमन्दोदरी रावण से बोली -हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए॥हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥हे नाथ। सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता॥ (कंत=पति) (करष=मनमुटाव,रोष)(परिहरहू=त्याग दो)

कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥

तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥

सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥

Bमन्दोदरी रावण से बोली हे नाथ! वैर उसी के साथ करना चाहिए, जिससे बुद्धि और बल के द्वारा जीत सकें। आप में और श्री रघुनाथजी में निश्चय ही कैसा अंतरहै,जैसा जुगनू और सूर्य में!॥

(खलु=प्रश्न,प्रार्थना,नियम,निषेध,निश्चय,अवश्य) (अंतर=बीच,फर्क) (खद्योत=जुगनू) (खलु=निश्चय,अवश्य)

खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥भाव यह है की जैसे जुगनू असंख्य क्यों ना हो पर उनसे रात का अँधेरा दूर नहीं हो सकता और सूर्य अकेला ही है पर उसके उदय से अंधकार कही भी नहीं रहता तब जुगनू सूर्य के समान कैसे कहा जा सकता है वैसे ही तुम्हारे समान असंख्य रावण भी एकत्र होकर राम जी की बराबरी करने का प्रयास करे तो उपहास योग्य ही होंगे

चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥

नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥

तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥

यही आशय सीता जी का है- जानकीजी हे दशमुख! सुन,जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है?

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥s

रावण का उत्तर

सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना।।S

मन्दोदरी रावण से बोली- जिन्होंने (वामन रूप से) बलि को बाँधा और (परशुराम रूप से) सहस्रबाहु को मारा, वे ही (भगवान्) पृथ्वी का भार हरण करने के लिए (रामरूप में) अवतीर्ण (प्रकट) हुए हैं!॥हे नाथ! उनका विरोध न कीजिए, जिनके हाथ में काल, कर्म और जीव सभी हैं॥ (सूत्र) रावण तुम तो जीव हो वे तुम्हारे भी नाथ है भाव यह है कि जब काल,कर्म ,जीव,सब उनके हाथ है तब तुम भी तो जीव ही हो इसलिए तुम भी उनके हाथ हो तब क्या कर सकते हो?

जेहिं बलि बाँधि सहस भुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥

तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा॥

मन्दोदरी रावण से बोली- (श्री रामजी) के चरण कमलों में सिर नवाकर (उनकी शरण में जाकर) उनको जानकीजी सौंप दीजिए और आप पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए॥

काल,करम,गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे ।s

सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥s

जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकी जी को दे दो॥

जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥s

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥s

रामहि सौंपि जानकी, नाइ कमल पद माथ।

सुत कहुँ राज समर्पि बन, जाइ भजिअ रघुनाथ॥

मन्दोदरी रावण से बोली-(भर्ता=स्वामी,पति) (कर्ता=उत्पन्न करने वाला) हे राजन सुरो में देवराज इंद्र सबसे बड़ा है उसको भी जीत लिया ,जितने दिगपाल है उनको जीता ,ब्रम्हा और महेश तुम्हरे यहाँ नित्य हाजरी (उपस्थति )देते है असुरो में विद्युतजिहा को मारा जड़ में कैलाश पर्वत को भी गेंद सरीखा उठा लिया कोई जीतने को नहीं रहा गया अतः वन जाओ

संत कहहिं असि नीति दसानन। संत पुरुष सज्जन जैसे मनु, यागवालिक,पुलस्त,वाल्मीक,व्यास जी इत्यादि? दूसरा भाव यह की कुछ में अपने से गड़कर नहीं कहती,संतो ने ऐसा कहा है उन्ही का कथन में आपसे कहती हूँ

नाथ दीनदयाल रघुराई। यदि रावण कहे की में तो उनसे विरोध कर ही चुका हूँ और वे मेरे नाश की प्रतिज्ञा एवं विभीषण जी का तिलक भी कर चुके तो मुझे कैसे छमा करेंगे ?तब मंदोदरी बोली कि वे रघुराई दीन दयाल है यथाःयद्यपि मैं बुरा हूँ और अपराधी हूँ और मेरे ही कारण यह सब उपद्रव हुआ है, तथापि श्री रामजी मुझे शरण में सम्मुख आया हुआ देखकर सब अपराध क्षमा करके मुझ पर विशेष कृपा करेंगे॥श्री रघुनाथजी शील, संकोच, अत्यन्त सरल स्वभाव, कृपा और स्नेह के घर हैं। श्री रामजी ने कभी शत्रु का भी अनिष्ट नहीं किया। मैं यद्यपि टेढ़ा हूँ, पर हूँ तो उनका बच्चा और गुलाम ही॥

जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी।।s

तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।s

सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।s

अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा।।s

इसे रानी स्वयं द्रश्टान्त देकर पुस्ट करती है

नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई।।

चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते।।

संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन॥

तासु भजनु कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता॥

जो कर्ता पालक संहर्ता॥ जो कर्ता पालक संहर्ता॥ का भाव जैसे खेत के अन्न को जो बोता है,जो सींचता है ,वही काट कर घर ले जाता है वही उसका स्वामी होता है उसी तरह संसार श्री राम जी का भोग्य है, शेष है ,और राम जी ही भोक्ता है

मन्दोदरी रावण से बोली सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी। प्रभु इतने बड़े होते हुए भी शरणागत पर अनुराग रखते है मुनिवर शरभंग, बाल्मीक,अगस्त्य,आदि इन्ही प्रभु के लिए प्रयास करते है (तब समान्य मुनियो की बात ही क्या ?) जिससे तुम भी डरते हो ,तब तुमको भी उन्ही का भजन करना चाहिए

सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी॥

मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी॥

प्रणत पाल रघुवंश मणि करुणा सिंध खरारि।

गये शरण प्रभु राखिहैं सब अपराध बिसार।।s

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥s

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।s

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।s

सुख संपति परिवार बड़ाई | सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई ||s

ए सब राम भगति के बाधक | कहहिं संत तव पद अवराधक ||s

अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥s

जब सभी ममत्व छूट जायेगा तब हृदय में केवल और केवल प्रभु का वास होगा बाल्मीक जी ने भगवान के निवास के चौदह स्थान बताये उनमे दो स्थान ये भी है

स्वामि सखा पितु मातु गुर, जिन्ह के सब तुम्ह तात।

मन मंदिर तिन्ह कें बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात॥s

जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥s

सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥s

 

वही कोसलाधीश श्री रघुनाथजी आप पर दया करने आए हैं। हे प्रियतम! यदि आप मेरी सीख मान लेंगे, तो आपका अत्यंत पवित्र और सुंदर यश तीनों लोकों में फैल जाएगा॥

सोइ कोसलाधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया॥

जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन॥

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥s

ममलोचन गोचर सोई आवा।बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥s

ऐसा कहकर, नेत्रों में (करुणा का) जल भरकर और पति के चरण पकड़कर, काँपते हुए शरीर से मंदोदरी ने कहा- हे नाथ! श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए॥

(अहिवात=सुहाग)

अस कहि नयन नीर भरि, गहि पद कंपित गात।

नाथ भजहु रघुनाथहि ,अचल होइ अहिवात॥

मंदोदरी हनुमान जी के वचन सुन चुकी है की रघुनाथ जी का भजन करने से राज्य अचल हो जायेगा।उसी को समझ कर यहाँ मंदोदरी अपने सुहाग की अचलता के लिए रघुनाथ जी को भजने का उपदेश करती है कहती है इनको छोड़ कर किसी के भी भजने से मेरा अहिवात अचल नहीं हो सकता है पुनः हनुमान जी सुन चुकी है।

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥S

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥S

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥S

 

“मयसुता” रावण ने मंदोदरी का निरादर नहीं किया उसका मुख कारण वह मयदानव की पुत्री है मयदानव का बड़ा उपकार रावण पर है क्योकि रावण को अमोघ शक्ति इसी से मिली बाल्मीक जी के अनुसार यही शक्ति लछ्मण जी को मारी।

तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई।।S

सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना।।S

बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥

देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें॥

अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।S

नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई॥

मंदोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥

C मन्दोदरी रावण से बोली – नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोड़कर वह (रावण से) कहने लगी- हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम! श्री राम से विरोध छोड़ दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़े रहिए॥

सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥

कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ लग धरहू॥

पाताल (जिन विश्व रूप भगवान् का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन (भौंहों का चलना) है। सूर्य नेत्र हैं, बादलों का समूह बाल है॥

पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥

भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥

मन्दोदरी रावण से बोली – अस्विनीकुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है॥

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥

श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥

लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत हैं। माया हँसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है॥ अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है॥(अंबुपति-वरुण देव) (समीहा-कामना,संकल्प) (आनन- मुख,मुँह)

अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥

आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥

मंदोदरी कहतीहे नाथ!शिव जिनका अहंकार हैं ब्रह्मा बुद्धि हैं चंद्रमा मन हैं और महान(विष्णु)ही चित्त हैं। उन्हीं चराचर रूप भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है

अहंकार सिव बुद्धि अज मन,ससि चित्त महान।

मनुज बास सचराचर, रुप राम भगवान।।

हे प्राणपति! सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग न जाए॥

अस बिचारि सुनु प्रानपति, प्रभु सन बयरु बिहाइ।

प्रीति करहु रघुबीर पद, मम अहिवात न जाइ।।

dउनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है॥संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था?

रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥

जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥

हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान्) आपकी लंका में निर्भय चला आया!॥

पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥

कौतुक सिंधु नाघि तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका॥

 

शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में (उनसे लड़ने की बात सोचते) विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती!॥

सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी॥

जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) करुणामय भगवान् ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा॥ (जलनाथ-समुद्र)(हेला-खिलवाड़ में सहज ही)(सुबेला-समुद्र तट)

जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥

कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥

आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए॥

दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।

कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥

रावण के मरने पर मंदोदरी बोली =

पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं॥

पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥

उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥

(वे कहती हैं-) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है!॥(तरनी=तरणी=नाव,यमुना,कालिंदी,सूर्य)

तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥

सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥

वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो॥

बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥

भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥

तुम्हारी प्रभुता जगत् भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्री रामचंद्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया॥

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥

राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥

हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात् उचित ही है)॥(जंबुक=जामुन,गीदड़,सियार)

तव बस बिधि प्रचंड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥

अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥

हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना॥

काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥

अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान् ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है॥ (आन=दूसरा)

अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।

जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥

मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थ वादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले) श्रेष्ठ मुनि थे॥ (परमार्थ वादी=परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले)

मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥

अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥

6 विभीषणजी रावण से बोले-(लिलार- माथा) विभीषण जी औरो पर ढर कर उसके बहाने से रावण को उपदेश दे रहा है जिससे वह क्रोध ना करे और ना अनुचित ही माने पुनः (वो बड़ा भाई है और राजा भी है अतः सीधे ना कहकर अन्य के प्रति उद्देश्य कर कहता है) जिससे वह समझे और अपने में सुधर कर ले

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥

सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥

अतःदोहे में पुनः अपरोक्ष रूप से कहता है हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी को भजिए, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं॥ सब परिहरि= सब परिहरि कहकर यह जनाया कि ये सारे दोष रावण में है कामादि नरक के पंथ है उनका त्याग करो और रघुवीर श्री राम जी का भजन अपबर्ग का मार्ग है उसे ग्रहण करो

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।

सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस

राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥

गीता और मानस में केवल इतना भेद है की गीता में नरक का द्वार कहा और मानस में नरक का पंथ कहा है।

संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं॥(अपबर्ग=सब तरह के दुखों से छुटकारा,त्याग,दान,मोक्ष)

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।

कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥s

चौदह भुवन एक पति होई। चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है) जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई भला नहीं कहता॥

तीन लोक निम्नलिखित हैं -1.पाताल लोक या अधोलोक2.भूलोक या मध्यलोक3.स्वर्गलोक या उच्चलोक

चौदह भवनों के नाम निम्नलिखित हैं –

1. सतलोक 2.तपोलोक 3. जनलोक 4. महलोक 5. ध्रुवलोक 6. सिद्धलोक 7. पृथ्वीलोक 8. अतललोक 9. वितललोक 10. सुतललोक 11. तलातललोक 12. महातललोक 13. रसातललोक 14. पाताललोक

इनके स्वामी भगवान शिव जी हैं

भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥ भाव है कि भूतद्रोही ईश्वर का विरोधी होता है क्योकि भगवान सर्व भूतमय है इस कथन से यह जनाया कि रावण विष्वद्रोही है और इसी से उसका नाश हुआ काम क्रोध तो समय टल जाने पर शांत हो जाते है पर लोभ कभी तृप्त नहीं होता कामनाओ की प्राप्ति हो जाने पर संतोष नहीं होता।

चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥

 

विभीषणजी रावण से बोले- हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार) भगवान हैं, वे निरामय, अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं॥ भुवनेस्वर कालहु कर काला॥कथन का भाव यह है कि काल ब्रम्हाण्डो को खा सकता है पर बिना प्रभु की आज्ञा से वह ऐसा नहीं कर सकता क्योकि प्रभु समस्त ब्रम्हाण्डो के मालिक है और “काल के भी काल “है अर्थात जो काल ब्रम्हाण्डो को खा जाता है उस काल को भी प्रभु खा जाते है (अज= जिसका जन्म समझ में नहीं आता) (निरामय=अनामय=विकाररहित, नीरोग और स्वस्थ) (भूपाला-राजा) (भुवनेस्वर-भगवान)

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥

ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥

विभीषणजी रावण से बोले- वे सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥ (जनरंजन= सेवकों को सुख पहुँचानेवाला) (खल ब्राता=दुष्टों के समूह)

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥

जनरंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥

विभीषणजी रावण से बोले- र त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। वे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए॥(बयरु=शत्रुता) (प्रनतारति=शरणागत)

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥

देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥

विभीषणजी रावण से बोले-

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥

जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥

विभीषणजी  बोले-हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए॥ (परिहरि=त्यागकर)

विभीषणजी रावण से बोले-

बार बार पद लागउँ ,बिनय करउँ दससीस।

परिहरि मान मोह मद, भजहु कोसलाधीस॥

विभीषणजी रावण से बोले- हे नाथ वेद पुरान ऐसा कहते है कि सुमति और कुमति सबके हृदय में रहती है जहाँ सुमति है वहां अनेक प्रकार की संपत्ति रहती है और जहाँ कुमति है वहां अंत में विपत्ति ही है तुम्हरे ह्रदय में विपरीत कुमति बसी है इससे तुम हित को अनहित और शत्रु को मित्र मानते हो जो राछस कुल की कालरात्रि है उस सीता पर तुमको घनी (बहुत)प्रीति है (बिपति निदाना=विपत्ति और नाश)

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥

तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥

कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।

सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥

अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। (पत्रिका में लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ ,जनि घालसि कुल खीस।

राम बिरोध न उबरसि, सरन बिष्नु अज ईस॥

लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है।या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥ (इव-अव्यय,समान, सदृश)

(भृंग-भौंरा)(यूथप=बंदरों का समूह)

की तजि मान अनुज इव ,प्रभु पद पंकज भृंग।

होहि कि राम सरानल, खल कुल सहित पतंग॥

8 प्रहस्त

कानों से सबके वचन सुनकर (रावण का पुत्र) प्रहस्त हाथ जोड़कर कहने लगा- हे प्रभु! नीति के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिए, मन्त्रियों में बहुत ही थोड़ी बुद्धि है॥

सब के बचन श्रवन सुनि, कह प्रहस्त कर जोरि।

नीति बिरोध न करिअ प्रभु, मंत्रिन्ह मति अति थोरि॥

ये सभी मूर्ख (खुशामदी) मन्त्र ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पड़ेगा। एक ही बंदर समुद्र लाँघकर आया था। उसका चरित्र सब लोग अब भी मन-ही-मन गाया करते हैं (स्मरण किया करते हैं) ॥(बारिधि-समुद्र) (ठकुर सोहाती-खुशामदी)

कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥

बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥

उस समय तुम लोगों में से किसी को भूख न थी? (बंदर तो तुम्हारा भोजन ही हैं, फिर) नगर जलाते समय उसे पकड़कर क्यों नहीं खा लिया? इन मन्त्रियों ने स्वामी (आप) को ऐसी सम्मति सुनायी है जो सुनने में अच्छी है पर जिससे आगे चलकर दुःख पाना होगा॥ (छुधा-भूख)

छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू॥

सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा॥॥

जिसने खेल-ही-खेल में समुद्र बँधा लिया और जो सेना सहित सुबेल पर्वत पर आ उतरा है। हे भाई! कहो वह मनुष्य है, जिसे कहते हो कि हम खा लेंगे? सब गाल फुला-फुलाकर(पागलों की तरह)वचन कह रहे हैं!॥

जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला॥

सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई॥

हे तात! मेरे वचनों को बहुत आदर से (बड़े गौर से) सुनिए। मुझे मन में कायर न समझ लीजिएगा। जगत् में ऐसे मनुष्य झुंड-के-झुंड (बहुत अधिक) हैं, जो प्यारी (मुँह पर मीठी लगने वाली) बात ही सुनते और कहते हैं॥(कादर-कायर,डरपोक) (निकाय-बहुत अधिक)

तात बचनममसुनु अति आदर।जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।

प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं॥

हे प्रभो! सुनने में कठोर परन्तु (परिणाम में) परम हितकारी वचन जो सुनते और कहतेहैं,वे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं। नीति सुनिये, (उसके अनुसार) पहले दूत भेजिये, और (फिर) सीता को देकर श्रीरामजी से प्रीति (मेल) कर लीजिये॥ हे प्रभो! यदि आप मेरी यह सम्मति मानेंगे, तो जगत् में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा (बसीठ-दूत) (उभय-जिसकी निष्ठा दोनों पक्षों में हो)

बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥

प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥

यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥

अभी से हृदय में सन्देह (भय) हो रहा है? हे पुत्र! तू तो बाँस की जड़ में घमोई हुआ (तू मेरे वंश के अनुकूल या अनुरूप नहीं हुआ)। (संसय-भय) (बेनु-बाँस) (घमोई-एक प्रकार का रोग जिससे बाँस की जड़ों में बहुत से पतले और घने अंकुर निकलकर उसकी बाढ़ और नये किल्लों का निकलना रोक देते हैं)

अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥

9 अंगद ने रावण से कहा-

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥

बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥

अंगद ने रावण से कहा- राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीता को हर लाए हो।(किंबा-अथवा,या)

नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा॥

अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥

सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥

अंगद ने रावण से कहा- मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड़ सकता है, (भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों। शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा (करना) चाहते हैं,

सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥

सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥

अंगद ने रावण से कहा- चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी का तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट! यदि तू श्री रामजी का वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे। (रुद्र= रुद्र का भाव है कि जो कराल रूप से प्रलय में संहार करते है वे भी नहीं बचा सकते)

सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई॥

जौं खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥

परिहरि चतुराई। भजसि= चतुराई रहते हुए प्रभु कृपा नहीं करते अतः इसका त्याग करने को कहकर तब भजन करना चाहिए यथा। मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥कपटी चतुराई  यथार्थ नहीं है राम भजन ही यथार्थ चतुराई है। कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।

परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर।।रावण कपट चतुराई करता है चतुराई अतः बुद्धि का चमत्कार बहुत अच्छी वस्तु है यदि उसका सदुपयोग किया जाय दुष्प्रयोग से जितनी ही अच्छी वस्तु होगी ,वह उतनी ही बुरी हो जायगी ,चतुराई का सदुपयोग सुतीक्ष्ण मुनि ने किया सरकार हंस पड़े

देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई।

भिशुण्ड जी चतुराई पर खुश हो गए कहने लगे

सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना॥

पर बाली की चतुराई पर बिगड़ गए और मूड़,अधम,अभिमानी आदि कहने लगे जब बाली ने चतुराई छोड़ी तभी खुश हुए सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि। प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥अतः राम जी की सनमुखता के लिए जितनी चतुराई की जाय वह सब ठीक है और जिस चतुराई से प्राणी राम विमुख होता है वह सर्वथा हेय है अतः राम विमुख करने वाली चतुराई रावण में  और सन्मुख करने वाली चतुराई अंगद में है

मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥S

कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।

परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर।।S

देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई।S

सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना॥S

सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।

प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥S

 

7 माल्यवान रावण से बोले-

बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥

जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥

बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥

राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥

राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥s

राम विमुख अस हाल तुम्हारा। रहा ना कोउ, कुल रोविनि हारा ।।s

अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥s

(जंबुक=गीदड़)

परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥

भजहु कृपानिधि परम सनेही॥

कृपानिधि का भाव कि

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।

गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥s

तुमने तो एक ही जन्म पाप किया है और उनकी प्रतिज्ञा है कि

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥s

“परम सनेही “है तुम्हारा हित ही करेंगे

देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥s

 

10 शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥

कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥

यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥

मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥

जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥

वह भी (विभीषण की भाँति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥

करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥

11 कालनेमि रावण से बोले-श्री रघुनाथजी का भजन करके तुम अपना कल्याण करो! हे नाथ! झूठी बकवाद छोड़ दो। नेत्रों को आनंद देने वाले नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो॥

(मृषा-झूठ) (जल्पना-व्यर्थ में तर्क वितर्क करना)(लोचनाभिरामा- नेत्रों को आनंद देने वाले)

भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥

नील कंज तनु सुंदर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥

अहंकार,ममत्व और मद को छोड़ो महामोह(ईश्वर में भ्रम होना ही महामोह है) रुपी रात्रि में सोते से जागो कालनेमि रावण से बोले-मैं-तू (भेद-भाव) और ममता रूपी मूढ़ता को त्याग दो। महामोह (अज्ञान) रूपी रात्रि में सो रहे हो, सो जाग उठो, जो काल रूपी सर्प का भी भक्षक है, कहीं स्वप्न में भी वह रण में जीता जा सकता है?॥ वे भक्ति से ही वश में होते है (महामोह=अज्ञान) (निसि=आधी रात)(काल ब्याल= कालसर्प)

अहंकार ममता मद त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू॥

काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई॥

12 कुम्भकर्ण रावण और विभीषण से बोले – (अजहूँ= अर्थात अब भी कुछ नहीं बिगड़ा,इतनी हानि हुई सो हुई आगे तो ना हो)

भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥

अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥

हे रावण! जिनके हनुमान् सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥ (पायक=सेवक,दास,पैदल सिपाही) हनुमान जी का ही क्यों नाम लिया ?क्योकि मेघनाथ और रावण भी उसका लोहा मान चुके है अंतिम दुर्लभ रामकाज द्रोण पर्वत उखाड़ लाना तो अभी अभी हुआ है जिससे रावण बहुत विषाद युक्त है

हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥

अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥

हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा॥ (निरबाहा=गुज़ारा,पालन)

कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥

नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥

हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ॥ (त्रय=त्रिविधताप,दैहिक,दैविक भौतिक ताप)(सरसीरुह =तालाब में उत्पन्न होनेवाला, कमल)

अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥

स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥

कुम्भकर्ण रावण और विभीषण से बोले -रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया॥ हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा॥

सुनु भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥

धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥

बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥

शूर्पणखा ने रावण से कहा- नीति के बिना राज्य, धर्म किये बिना धन , भगवान को समर्पित किये बिना सत्कर्म और बिना विवेक की विद्या ग्रहण करने से केवल परिश्रम ही हाथ लगता है । विषयो के संगति से सन्यासी, कुमंत्रणा से राजा , अभिमान सेज्ञान , मदिरा पीने से लजा और बिना नम्रता के प्रेम , इन सबका नाश शीघ्र ही हो जाता है ऐसी नीति कही गई है ।

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥

बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥

शूर्पणखा ने रावण से कहा- (संग=विषयो में आसक्ति) (मान=गर्व ,अभिमान ,प्रतिष्ठा) ( जती यति =जो मोक्ष के लिए यत्न करे,घर बार सब कुछ छोड़ दे)

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। प्रस्तुत प्रसंग निति का ही है अतः निति से ही उपदेश आरंभ हुआ है निति विरुद्ध करने से प्राप्त राज्य भी हाथ से निकल जाता है राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥ जिस राजा के गुप्तचर ,कोष और नीति उसके अधीन नहीं रहते वह सामान्य क्यों ना हो हो जाता है तुम्हारे निति रुपी नेत्र नहीं है धन प्राप्त है पर यदि उसे धर्म ना लगाया तो उस धन का होना ना होना बराबर है उस धन की प्राप्ति में जो श्रम हुआ वह व्यर्थ ही समझना चाहिए यदि धन धर्म में लग गया तो उसकी प्राप्ति का श्रम फल है वही धन धन्य है यथा सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।सद्कर्म करके उसको भगवान को अर्पित करना चाहिए नोट जो सद्कर्म चाहे कितना भी ऊँचा हो अगर भगवान को अर्पित नहीं है सर्वदा अमंगल और दुःख देने वाला ही होता है “संग “को सभी का मूल कहा गया है कुमत्र से राजा का नाश होता है सचिव, बैद, गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।राज, धर्म, तनु तीनि कर होइ बेगिहिं नास।।रावण को मंत्रियो ने भय के कारण ठीक सलाह नहीं दी इसी से उसका नाश हुआ, कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥

संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥

 

 

 

 

6 सहज सरल

तब श्री रघुनाथजी(मारीच के कपटमृग बनने का)सब कारण जानते हुए भी,देवताओं का कार्य बनाने के लिए हर्षित होकर उठे॥

तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥

निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥

प्रभु श्री रामजी ने कहा- (अघ=अपवित्र,पापी,पाप)

मम दर्शन फल परम अनूपा।पाय जीव जब सहज सरुपा।

सन्मुख होय जीव मोय जबहीं। कोटि जन्म अघ नासों तबहीं।

श्री रामजी महाराज दशरथ से बोले-(बिसमउ=विस्मय,आश्चर्य, ताज्जुब)

नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥

पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै॥

राम जी ने कौसिल्या से कहा

धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥

पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥

रामचन्द्जी वाल्मीकि से बोले- हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है।

(बदर=बेर का पेड़ या फल)

तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥

सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥

रामचंद्रजी परशुरामजी से बोले-॥ हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा-सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम।

हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा।।कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा।।

राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा।।

रामचंद्रजी परशुरामजी से बोले-॥ हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र(शम,दम,तप,शौच,क्षमा,सरलता, ज्ञान,विज्ञान और आस्तिकता-ये) नौ गुण हैं।

देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें।।

सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे।।

श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण से बोले-॥ रघुवंशियों का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मन का अत्यंत ही विश्वास है कि जिसने स्वप्न में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है।

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥

मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥

श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण से बोले-॥ जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं॥

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥

राम जी नारद से बोले हे मुनि!तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो। क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव करता हूँ?मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है,जिसे हे मुनि तुम नहीं माँग सकते?॥

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥

कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥

हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पंक्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल,॥(खंजन-काले रंग की एक प्रसिद्ध चंचल चिड़िया, सुक- तोता,कपोत-कबूतर,मृग-हिरन, मीना-मछली)(निकर- झुंड,समूह,ढेर)

हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥

खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥

सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों। (अर्थात् तुम्हारे अंगों के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में फूल रहे हैं) पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्री रामजी मनुष्यों के चरित्र कर रहे हैं। (पूरकनाम=पूर्ण काम) (अज=अजन्मा)

सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥

पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥

राम जी  हनुमान्जी से बोले: यहाँ (वन में) राक्षस ने (मेरी पत्नी) जानकी को हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिए ॥

(सूत्र) इस अवस्था में भी अपनी व्यथा को गा कर सुनने वाला राम ही हो सकता है

कोसलेस दसरथ के जाए, हम पितु बचन मानि बन आए॥

इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥

आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥s

रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा माँगी समस्त जगत के स्वामी राम सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की-सी चाल से स्वाभाविक ही चले।

राजा लोग जब दनुष तोड़ने चले तब अपने अपने इष्टदेव को सिर नवाकर चले इसी तरह रामजी गुरु को प्रणाम करके चले इससे जनाया की हमारे गुरु ही इष्टदेव है दूसरा भाव गुरु के वचन सुनकर गुरु चरणों में सिर नवाने का भाव कि आपकी आज्ञा का प्रतिपालन आपके चरणों की कृपा से होगा(मत्त=मस्त) (मंजु=सुंदर,मनोहर) ( कुंजर=हाथी,हस्त नक्षत्र,पीपल)

 

गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥

सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥

गुरु के वचन सुनकर   रामजी ने चरणों में सिर नवाया (मृगराजु-शेर, सिंह) राम जी को हर्ष विषाद कुछ भी नहीं हुआ क्योकि वे हर्ष विषाद रहित है हर्ष और विषाद कुछ ना हुआ क्योकि पुराने धनुष को तोड़ने में कोई वीरता नहीं हर्ष विषाद तो जीव के धर्म है और श्री राम जी ब्रह्म है अतः हर्ष विषाद कैसा? (परेस= उच्चतम भगवान ब्रह्मा, भगवान राम,सुप्रीम भावना,प्रभुओं के प्रभु का एक अन्य नाम होता है) (परात्पर=सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि) (अहमिति=अपने आपको औरों से बहुत अधिक योग्य, समर्थ या बढ़कर समझने का भाव)

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।

ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।

बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥S

राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥S

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥S

राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥S

हर्ष,शोक,ज्ञान,अज्ञान,अहंता और अभिमान -ये सब जीव के धर्म हैं। राम तो व्यापक ब्रह्म,परमानंदस्वरूप,परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है। अतः उनके मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ इसके प्रतिकूल सीता जी, सुनयना जी को पहले विषाद हुआ फिर धनुष टूटने पर हर्ष हुआ

सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।S

मूर्ख सुख के समय खुश और दुख की घड़ी में रोते बिलखते हैं, जबकि धैर्यवान व्यक्ति दोनों समय में मन में समान रहते हैं।

हे पक्षीराज गरुड़जी! श्री रामचंद्रजी का सहज स्वभाव सुनिए। वे भक्त में अभिमान कभी नहीं रहने देते, क्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों तथा समस्त शोकों का देने वाला है॥ (संसृत-संसार)

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥

संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥

भरतजी से बोले-॥

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥

मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहूँ खेल जितावहिं मोही॥

हनुमान्जी ने कहा- हे विभीषणजी! हनुमानजी ने विभीषणजी की हीन भावना से निकालने के लिए अपने को उनसे भी हीन रूप में प्रस्तुत किया। यह उनका वाक् चातुर्य था। वे बोले “मैं ही कौन सा कुलीन हूँ विभीषण? एक बन्दर के रूप में मैं भी तो सब तरह से हीन ही हूँ।

(सूत्र)जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है।

तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।s

प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।s

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥s

राम के वचन तो सहज व सरल हैं पर कैकेयी उसका गलत अर्थ लेती हैं

(सलिल=जल, वर्षा,वर्षा का जल)

सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।

चलइ जोंक जल बक्र गति जद्यपि सलिल समान।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

7 परहित

संत कबीर कि वृक्ष कभी अपने फल नही खाते और ना ही नदी कभी अपना जल संचित करती है लोक कल्याण के हेतु बहती रहती है | वैसे ही एक सच्चा साधू भी अपने सुख दुःख कष्टो की चिंता न करके औरो के लिए अपने शरीर मन आत्मा से कल्याण का भाव रखे |

वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।

परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।

वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं और सरोवर(तालाब)भी अपना पानी स्वयं नहीं पीती है।इसी तरह अच्छे और सज्जन व्यक्ति वो हैं जो दूसरों के कार्य के लिए संपत्ति को संचित करते हैं।

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।

कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

 

मैथिलीशरण गुप्त

यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

काकभुशुण्डिजी ने कहा-हे पक्षीराज! मन,वचन और शरीर से परोपकार करना,यह संतों का सहज स्वभाव है॥/ गरुड़जी ने कहा- संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है, परंतु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना, क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं॥ भूर्ज तरू भोज पत्र का पेड़ यह हिमालय क्षेत्र में उगने वाला एक वृक्ष है जो 4,500 m 14000  फ़ीट  की ऊँचाई तक उगता है।यह बहूपयोगी वृक्ष है-इसका छाल सफेद रंग की होती है जो प्राचीन काल से ग्रंथों की रचना के लिये उपयोग में आती थी।दरअसल,भोजपत्र भोज नाम के वृक्ष की छाल का नाम है, पत्ते का नहीं। इस वृक्ष की छाल ही सर्दियों में पतली-पतली परतों के रूप में निकलती हैं, जिन्हे मुख्य रूप से कागज की तरह इस्तेमाल किया जाता था। तांत्रिक लोग इसे पवित्र मानते है और इस पर प्रायः यंत्र मन्त्र लिखते है लोग इसको वस्त्र की जगह पहनते थे और इससे मकान भी छाते है

पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥

भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥

कृपालु संत भोज पत्र के पेड़ के समान सदा पराय की भलाई के लिए भारी विपत्ति सहते रहते है जबकि सन पौधा काट कर पानी में सड़ाया जाता है फिर पटक पटक कर धोया जाता है!फिर उसकी खाल निकली जाती है!फिर उसका रेशा अलग अलग कर बटा जाता है तब वह रस्सी बनकर दूसरो को बांधने में समर्थ होता है !ऐसे ही खल अपनी दुर्दशा सह कर भी दूसरो के काम बिगाड़ते है(परिहरहीं=परिहार=त्यागने या तजने की क्रिया या भाव;छोड़ना,दोष-विकार आदि को दूर करना)  (उपल=ओला,पत्थर) यथाः

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥

जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। हे सर्पो के शत्रु गरुण जी सुनिए,खल बिना स्वार्थ के ही सर्प और मूसे के सामान दूसरो का अपकार करते है!दूसरे की संपत्ति का नाश करके स्वयं भी ऐसे नष्ट हो जाते है जैसे ओला खेती को नष्ट करके स्वयं नष्ट हो जाता है!(गल जाते है) (अपकार=अहित उपकार का उल्टा)

सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥

खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥

संत का हृदय माखन के समान होता है ऐसा कवियों ने कहा है पर कहना उन्होंने नहीं जाना(अर्थात ठीक उपमा देते ना बनी )माखन तो अपने पर ताप लगने से ही पिघलता है और परम पुनीत संत जन पराये दुःख से (पर दुःख)देखकरद्रवीभूत होते है! “कहा कबिन्ह”भाव यह की कवियों को संत के ह्रदय की अगाधता का क्या पता?यथार्थ में  माखन और संत हृदय में समानता नहीं है माखन जब स्वयं तपाया जाता है तब पिघलता है इस तरह अपने दुःख में दुखी होना तो दुष्टो में तो होता ही है !पर संतो में यह विलक्षणता है कि वे अपना दुःख ईश्वर का न्याय समझ कर सह लेते है !पर दुसरो के दुःख को नहीं सह सकते द्रवीभूत हो जाते है !यथाःनारद देखा बिकल जयंता।

संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।

निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।

यथाः

नारद देखा बिकल जयंता। लगि दया कोमल चित संता॥

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! संत की यही बड़ाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। (विभीषणजी ने कहा-) आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है॥

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।s

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।विभीषण यही कहता है आपका हित रामजी के भजन से ही होगा !विभीषण जी पिछले जन्म में भी धरमरुचि नामक मंत्री के रूप में रावण के परम हितेषी थे !यथाः राजा का हित करने वाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था।

नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥s

काकभुशुण्डिजी ने कहा-संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)॥ (भूर्ज तरू-भोज के वृक्ष)

संत सहहिं दु:ख पर हित लागी। पर दु:ख हेतु असंत अभागी॥

भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥

गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले॥

पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।

संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।

तुलसीदास ने कहा:-कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है,अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है

(निरस-जिसमें रस न हो; रसहीन; बेस्वाद)(बिसद-स्वच्छ, निर्मल,उज्ज्वल)

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥

जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा ।

कामदेव ने देवताओं से कहा (संतत-सदा,निरंतर,बराबर,लगातार)

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥

पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥

रामजी ने सब भाई, और हनुमान्जी से कहा

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।

रामचंद्र जी जटायु संवाद

राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥

जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥

“मुख आवा।”अर्थात मरते समय मुख से नाम निकलना दुर्लभ है यथाः

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥s बालि “अधमउ मुकुत होइ”

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥s

(खाँगें=कमी,घटी,कसर,टोटा) राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥ अर्थात इस देह से ईस्वर की प्राप्ति हो गई अब और किस पदार्थ की प्राप्ति बाकि रही जिसके लिए देह बना कर रखू इससे जनाया कि जटायु के हृदय में देह का लोभ,देहासक्ति किंचित मात्र भी नहीं थी और न ही कोई अन्य कामना है यह”तुम पूरनकाम”इस मुख वचन से भी सिद्ध है!

सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥

जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥

परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥

परहित बस जिन्ह के मन माहीं। अर्थात परोपकार से चारो फल प्राप्त होते है “गति पाई “यह मोझ है और “जग कछु दुर्लभ “अर्थ,धर्म,काम,की प्राप्ति इस संसार में जनाई !जब तक एहिक, वा परलौकिक स्वहित की कामना हृदय में रहेगी तब तक परहित हो ही नहीं सकता!यथाः

गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥s

यथाः

हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥s

इस दृष्टि से “जग दुर्लभ कछु नाही “का भाव यही होगा,कि जो भी शुभ गति,वो चाहे वह उसको सुलभ है,इस जग में जन्म लेने पर जो गति चाहे उसे सहज ही प्राप्त कर लेते है!

देखिये मुक्ति तो भगवान ने अपनी ओर से दी यथाः “तन तजि तात जाहु मम धामा “पर भगति मांगने पर ही मिली यथाः “भगति माँगि वर “इससे मुक्ति से भगति का दर्जा अधिक बताया !यथाः

प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही।।s

भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।s

अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।

तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥

सब धर्मो से बड़ा धर्म परोपकार है यथाः

परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।s

चुगलखोरी के समान क्या कोई दूसरा पाप है? दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है? यथाः

अघ कि पिसुनता सम कछु आना।धर्म कि दया सरिस हरिजाना।

इत्यादि वचन इसी के पोषक है दयावन्त प्राणी ही परोपकार कर सकता है निर्दय से क्या परोपकार होगा निर्दय परोपकार कर ही नहीं सकता यह तो रामजी की मर्यादापालकता है कि अपने वचन के प्रमाण में वेद,पुरान,औरपंडितो का मत उद्घृत करते है

रामजी ने सब भाई, और हनुमान्जी से कहा:-मनुष्य का शरीर धारण करके जो लोग दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं, उनको जन्म-मृत्यु के महान् संकट सहने पड़ते हैं। मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण होकर अनेकों पाप करते हैं, इसी से उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है॥ मनुष्य का शरीर धारणकर जो दूसरो को  पीड़ा देवे वे संसार का महाकष्ट भोगते है पशु यदि परपीड़ा करे तो कह सकते की उनको ज्ञान नहीं है मनुष्य शरीर तो बड़े भाग्य से मिलता है कभी ईश्वर करुणा करके नर शरीर देता है यह शरीर ही साधन धाम मोक्छ का द्वार है यथाः

बड़े भाग मानुष तन पावा | सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थन्हि गावा ||s

साधन् धाम मोक्ष कर द्वारा | पाई न जेहिं परलोक सँवारा ||s

कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।s

जितनी भी मानसिक व्याधि है उनका तो मूल मोह ही है स्वारथ के लिए परमार्थ बिगाड़ लेते है

नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।।

करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।

अवध की प्रजा श्रीराम से यही कहती है – हे शरणागत के दुःख हरने वाले रामजी! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकार से हित करने वाले हैं।

तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी॥

हे असुरों के शत्रु ! जगत् में बिना हेतु के (निःस्वार्थ) उपकार करनेवाले तो दो ही हैं-एक आप, दूसरे आपके सेवक। जगत् में [शेष] सभी स्वार्थ मित्र हैं। हे प्रभो ! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ का भाव नहीं है।।

हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।

स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं।।

सुर नर मुनि सब कै यह रीती।स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।s

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।

भगवान राम ने अपना स्वभाव स्वयं कहा है भगवान राम ने विभीषण जी से स्वयं कहा है कि जो सगुण (साकार) भगवान् के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।

ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।S

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।S

जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।।S

तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।S

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।S

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।S

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।S

अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।S

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।S

श्री भरत जी ने भी प्रभु राम का स्वभाव बताया कि

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥S

राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥S

इसी तरह भुशुण्डि जी ने और शंकर जी ने रामजी का स्वाभाव कहा

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ।S।

संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना।।S

ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी।।S

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।

शिवजी ने विनती सुनी और ब्राह्मण का प्रेम देखा।हे कृपानिधान! अब वही कीजिए, जिससे इसका परम कल्याण हो। दूसरे के हित से सनी हुई ब्राह्मण की वाणी सुनकर फिर आकाशवाणी हुई- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)॥ (कागभुसण्डी जी की अपनी कथा) (नभबानी=आकाशवाणी)

एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना॥

बिप्र गिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी॥

शिवजी कहते हैं-हे द्विज! जो क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही प्रिय हैं जैसे खरारि श्री रामचंद्रजी। (कागभुसण्डी जी की अपनी कथा) (खरारि=श्री रामचंद्रजी) (जथा=जैसे)

तदपि तुम्हारि साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥

छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी।।

 

 

 

 

8 बड़भागी

जिन (चरित्रों) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागर से तर जाएँगे। आदिशक्ति यह मेरी (स्वरूपभूता) माया भी, जिसने जगत को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी॥ (इच्छामय= इच्छारूप,इच्छा अनुसार,संकल्प मात्र से)( सँवारें=रचाकर,बनाए हुए)( निकेत= घर,अर्थात सूतिकागृह, सौर ,जच्चा खाना)

इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे।।

अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता।।

जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥

आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥

वशिष्ट मुनि भरत जी से कहते है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र और दिक्पाल सभी दशरथजी के गुणों की कथाएँ कहा करते हैं॥ राजा सब प्रकार से बड़भागी थे। उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर तदनुसार करो॥ (सुरपति-इन्द्र,सुरेश,अमरपति)(दिसिनाथा-दिक्पाल- पुराणानुसार दसों दिशाओं का पालन करनेवाला देवता) (बादि=निष्फल,फिजूल,निष्प्रयोजन,व्यर्थ) (लागि=कारण,हेतु,निमित्त)( रजायसु=राजाज्ञा) (परिहरहू=परिहार=

त्यागना, छोड़ना,दोष आदि को दूर करना) (विषाद=दुःख,शोक,निराशा)(विशद=उज्ज्वल,निर्मल,स्वच्छ)

बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा॥

सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी॥

यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥

भगवान श्रीराम कहते हैं- जो गुरुदेव के श्रीचरणकमल में प्रेम करते हैं, वे लोक और वेद दोनों में बहुत बड़े भाग्यशाली होते हैं। (फिर) जिस पर आप (गुरु) का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है? ॥(अंबुज-कमल,जलज) (राउर= आपका,श्रीमान का)

जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥

राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥

सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविक ही आनंदनिधान श्री रामचन्द्रजी मन में मुस्कुराकर सब दूषणों से रहित ऐसे कोमल और सुंदर वचन बोले जो मानो वाणी के भूषण ही थे-॥

मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनंद निधानू॥

बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥

राम कहते हैं हे मां पुत्र वही है जो माता-पिता के वचनों का अनुरागी है।

(तोष-तृप्ति, तुष्टि, अघाना,प्रसन्नता) (निहारा- देखना, निहारना, पर ध्यान देना)

सुनु जननी सोई सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।

तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननी सकल संसारा।।

राम दसरथ जी से कहते हैं – इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो, जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसके करतलगत (मुट्ठी में) रहते हैं॥ (जगतीतल- धरती,संसार) (करतलगत-मुट्ठी में)

धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।।s

चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।s

राम जी ने लक्ष्मण से कहा-जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत् में जन्म व्यर्थ ही है॥

मातु पिता गुरु स्वामि सिख, सिर धरि करहिं सुभायँ।

लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर, नतरु जनमु जग जायँ॥s

रामजी का प्रजा को उपदेश मनुष्य शरीर प्राप्त करने वाला प्रत्येक प्राणी बड़भागी है परन्तु मनुष्य शरीर प्राप्त कर सच्चे अर्थ में बड़भागी तो वह है जो श्री राम कथा का श्रवण करे —रामजी मनु सतरूपा से कहा जिन (चरित्रों) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदर सहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागर से तर जाएँगे।

बड़े भाग मानुष तन पावा | सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा ||

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥

जे सुनि सादर नर बड़भागी | भव तरहहिं ममता मद त्यागी ||

उसी अयोध्यापुरी में भरतजी अनासक्त होकर इस प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चम्पा के बाग में भौंरा।श्री रामचन्द्रजी के प्रेमी बड़भागी पुरुष लक्ष्मी के विलास (भोगैश्वर्य) को वमन की भाँति त्याग देते हैं (फिर उसकी ओर ताकते भी नहीं)॥ (रमा=लक्ष्मी)(चंचरीक=भ्रमर, भौंरा)( चंपक=चंपा,चंपा की कली)(बमन=वमन= कै,उल्टी,बाहर निकालना,कै अथवा उल्टी किया हुआ पदार्थ)

तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा॥

रमा बिलासु राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी॥

(शिवजी कहते हैं-) नहीं तो

सुनहू उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।

हे पार्वती! सुनो, वे लोग अभागे हैं, जो भगवान को छोड़कर विषयों से अनुराग करते हैं।बंधन का मुख्य कारण अनुकूल विषयो में आसक्ति या राग ही है जहाँ अनुकूल में राग और प्रतिकूल में द्वेष होता ही है वस्तुओ पर मनुष्य अपनी ममता की मोहर लगा कर उनका स्वामी,भोक्ता बनना चाहता है !तब बंधन और गाढ़ा हो जाता है यदि वह अपने को तथा भगवान द्वारा दिए गए समस्त पदार्थो को भगवान का मान ले(गेहु=गेह,गृह)यथा

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।s

तो फिर भगवान की प्राप्ति में बिलम्ब नहीं होगा जाहि न

जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।

बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।।

भारत जी बोले मेरे लखन भैया! तुमने सर्वस्व त्यागकर श्रीराम चरण कमलों में स्नेह को प्रधानता दिया, अतः तुम बड़भागी हो। भक्ति में ईर्ष्या का कोई स्थान नहीं है”(अहह=शब्द का प्रयोग आश्चर्य,खेद,शोक, और प्रसंसा में भी होता है) (किधौं=अथवा,या तो,न जाने)(कलप सत=सौ करोड़ (असंख्य) कल्पों)(निस्तार=छुटकारा)

कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।

अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।

कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।

जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।

कौसिल्या जी ने राम जी से कहा- -हे रघुवंश के तिलक! वन बड़ा भाग्यवान है और यह अवध अभागा है, जिसे तुमने त्याग दिया। हे पुत्र! यदि मैं कहूँ कि मुझे भी साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदय में संदेह होगा (कि माता इसी बहाने मुझे रोकना चाहती हैं)॥

बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥

जौं सुत कहौं संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू॥

शंकरजी कहते हैं राम के सेवकों में हनुमान अद्वतीय हैं पवनपुत्र हनुमान्जी पवन(पंखा)करने लगे। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। (शिवजी कहने लगे-) हे गिरिजे! हनुमान्जी के समान न तो कोई बड़भागी है और न कोई श्री रामजी के चरणों का प्रेमी ही है, जिनके प्रेम और सेवा की (स्वयं) प्रभु ने अपने श्रीमुख से बार-बार बड़ाई की है॥

श्रीराम को विश्राम देने के लिए हनुमान जी शीतल अमराई में वायु का संचार करते है हनुमान जी कि सेवा -साधना को देखकर शंकर जी को भी कहना पड़ा !मानस कि कथा प्रसंगो  को हनुमान जी ने  अपने कार्यो से सहज और मत्वपूर्ण बनाया है !श्री राम के नागफांस में बांधने पर गरुण को लाना ,मेघनाथ का अनुष्ठान भंग करना ,अहिरावण का ससैन्य संहार करना ,बूटी लाना आदि हनुमान जी जैसे समर्थ और समर्पित योद्धा के द्वारा ही संभव है !

मारुतसुत तब मारूत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई।।

हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥

गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई॥

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।s

प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।s

इस समय प्रभु के साथ में चार ही के नाम आये है उनमे तीन तो प्रभु के भाई ही है सेवक में हनुमान जी का नाम है इससे शंकर जी इनका भाग्य और इनकी सेवा की सराहना करने लगे!प्रभु कहते है हे कपि तुम्हारे एक एक उपकार के लिए में अपने प्राण दे सकता हूँ और शेष उपकारों के लिए हम सब तुम्हारे ऋणी रहेंगे!तुमने जो उपकार किये है ,वे मेरे शरीर में ही पच जाये,क्योकि प्रत्युपकर का समय है कि उपकारी का विपत्ति ग्रस्त होना!

(सूत्र)हनूमान इस लिए बड़भागी क्योंकि निर्बल असहाय को भी प्रणाम किया हमको तो लीला में इस पार रहने को भूमिका मिली है और मुझे उस पार जाने का पाठ मिला है

यहकहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥s

शंकरजी कहते हैं

हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी।।

बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥s

पक्षी श्रेष्ठ गरुड़जी काकभुशुण्डि जी  से बोले आप पूर्णकाम हैं और श्री रामजी के प्रेमी हैं। हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है।

पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी॥

संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥

लोमशजी ने काकभुशुण्डिजी से कहा- पूरन काम यथाः जो इच्छा करिहहु मन माहीं। जब यह आशीर्वाद प्राप्त है,फिर आपको कोई आवश्यकता ही क्यों होगी

जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।s

राम जी ने काकभुशुण्डि जी से कहा-तूने सब सुखों की खान भक्ति माँग ली, जगत् में तेरे समान बड़भागी कोई नहीं है। वे मुनि जो जप और योग की अग्नि से शरीर जलाते रहते हैं, करोड़ों यत्न करके भी जिसको (जिस भक्ति को) नहीं पाते॥

सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी॥

जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं॥

रघुनाथजी जी काकभुशुण्डि जी  से बोले :-वही भक्ति तूने माँगी। तेरी चतुरता देखकर मैं रीझ गया। यह चतुरता मुझे बहुत ही अच्छी लगी। हे पक्षी! सुन, मेरी कृपा से अब समस्त शुभ गुण तेरे हृदय में बसेंगे॥

रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई॥

सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें॥

काकभुशुण्डि जी  गरुण जी से बोले अब मेरी प्रसन्नता से सब शुभ गुण तेरे हृदय में बसेंगे भगति ,ज्ञान ,विज्ञान ,वैराग्य ,योग ,चरित्र ,चरित्रों के रहस्य (अर्थात गुप्त रहस्य )आदि सबके भेद को तू मेरी प्रस्सनता से ही जानेगा ,तुझे साधन (करके जानने )का कष्ट नहीं होगा!

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥

जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥

सुग्रीव ने अंगद , नल ,हनुमान्आदि प्रधान योद्धाओं से कहा

हेभाई!देह धारण करने का यही फल है कि सब कामों(कामनाओं) को छोड़कर श्री रामजी का भजन ही किया जाए॥ सद्गुणों को पहचानने वाला (गुणवान) तथा बड़भागी वही है जो रघुनाथजी के चरणों का प्रेमी है।आज्ञा माँगकरऔर चरणों में फिर सिर नवाकर रघुनाथजी का स्मरण करते हुए सब हर्षित होकर चले॥

देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई।।

सोइ गुनग्य सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी॥

आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई॥

अंगद ने मन में विचार कर कहा-परहित के भाव से प्रभु की सेवा में देहोत्सर्ग करदेने वाले जटाऊ को भी मानस की भावभरी भाषामें परम बड़भागी कह॥

कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं॥

राम काज कारन तनु त्यागी। हरि पुर गयउ परम बड़भागी॥

जाम्बवान् ने अंगद का दुःख देखकर विशेष उपदेश की कथाएँ कहीं। (वे बोले-) हे तात! श्री रामजी को मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो॥जाम्बवान् ने अंगद से कहा हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी हैं, जो निरंतर सगुण ब्रह्म (रामजी) में प्रीति रखते हैं॥(अज=अजन्मा,जिसने जन्म न लिया हो)

(संतत= हमेशा रहने वाला सदा,निरंतर)

जामवंत अंगद दुख देखी। कहीं कथा उपदेस बिसेषी॥

तात राम कहुँ नर जनि मानहु।निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥

हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥

सुतीक्ष्ण राम जी को देख कर प्रेम में मग्न हुए वे बड़भागी श्रेष्ठ मुनि लाठी की तरह गिरकर श्री रामजी के चरणों में लग गए। श्री रामजी ने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उन्हें उठा लिया और बड़े प्रेम से हृदय से लगा रखा॥(लकुट-लाठी,छड़ी)

आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा॥

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी॥

भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई॥

बिभीषण ने हनुमान जी  से बोले। क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है। अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?॥

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥

बड़भागिनी अहल्या (जुगल-युगल,जोड़ी) अतिसय बड़भागी का भाव की ज्ञान वैराग्य जप तप आदि धर्म करने वाले भागी (भाग्यवान )है और चरणसेवक बड़भागी है ,पर अहिल्या अतिसय बड़भागी है क्योकि इसके शीश पर भगवान ने अपना चरण रखा।   जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥तात्पर्य कि भरत जी अति बड़भागी है अति के लिए वही जगह है (अर्थात चरण )खाली है यो भी कह सकते है कि श्री रामचरण अनुरागी बड़भागी है और जिन पर प्रभु स्वयं कृपा करे वे अतिसय बड़भागी है।

छन्द:अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥

 

 

 

 

 

 

9 सरनागत

आगे रहीम कहते हैं कि जो ईश्वर बिना जड़ की अमर बेल का भी पालन पोषण करता है, ऐसे ईश्वर को छोड़कर बाहर किसे खोजते फिर रहे हो । अरे, ऐसा ब्रह्मा (प्रभु ) तुम्हारे अंदर ही है ,उसे वहीं खोजो । यही भाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि –

अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।

रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ।।

रामायण में देवताओ की सरनागति

(सुरनायक =हे देवताओंके स्वामी)।(जन सुखदायक = सेवकोंको सुख देनेवाले )।(प्रनतपाल भगवंता =शरणागतकी रक्षा करनेवाले भगवान्!)

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।

(गो द्विज हितकारी =हे गोब्राह्मणोंका हित करनेवाले)। (जय असुरारी =असुरोंका विनाश करनेवाले)। (सिधुंसुता प्रिय कंता =समुद्रकी कन्या ( श्रीलक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी!आपकी जय हो)।(सिंधुसुता प्रिय कंता=का भाव है की आप लक्ष्मी के प्रिय कंत है वे आपको कभी नहीं छोड़ती अतः असुरो का वध करने के लिए आप लक्ष्मी सहित अवतार ले। (कंता= कांत, पति,प्रियतम, स्वामी, नाथ)

गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥

(पालन सुर धरनी =हे देवता और पृथ्वीका पालन करनेवाले)। (अद्भुत करनी =आपकी लीला अद्भुत है)। (मरम न जानइ कोई = उसका (आपकी लीला का) भेद कोई नहीं जानता)।

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।

(जो सहज कृपाला =ऐसे जो स्वभावसे ही कृपालु औरदीनदयाला =दीनदयालु हैं)। (करउ अनुग्रह सोई =वे ही हमपर कृपा करें।) (अनुग्रह=कृपा)

जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥

अबिनासी – हे अविनाशी, ।सब घट बासी – सबके हृदयमें निवास करनेवाले ( अन्तर्यामी), ।ब्यापक – सर्वव्यापक,। परमानंदा – परम आनन्दस्वरूप।(घट=पिंड,शरीर,ह्रदय)

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।

(अबिगत गोतीतं =अज्ञेय, इन्द्रियोंसे परे)। (चरित पुनीतं = पवित्र चरित्र) (मायारहित =मायासे रहित )। (मुकुंदा = मुकुन्द=मोक्षदाता,मुक्ति देने वाले ) ।(अबिगत- जो जाना न जाए,अज्ञात)

अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥

जेहि लागि बिरागी – इस लोक और परलोकके सब भोगोंसे विरक्त मुनि ।अति अनुरागी – अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनकर तथा । बिगतमोह मुनिबृंदा – मोहसे सर्वथा छूटे हुए ज्ञानी (मुनिवृन्द) (बिगत=बीता हुआ)

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।

निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं – जिनका रातदिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणोंके समूहका गान करते हैं (बासर=दिन, सबेरा,प्रातः काल,सुबह,वह राग जो सबेरे गाया जाता है) (जयति=विजयी,जय)

निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥

जेहिं सृष्टि उपाई – जिन्होंने सृष्टि उत्पत्र की,।त्रिबिध बनाई – स्वयं अपनेको त्रिगुणरूप (ब्रह्मा, विष्णु शिवरूप) बनाकर।संग सहाय न दूजा – बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायताके।

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।

(सो करउ अघारी =वे पापोंका नाश करनेवाले भगवान्)।(चिंत हमारी =हमारी सुधि लें)।जानिअ भगति न पूजा – हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा। (अघारी=पाप का शुत्रु,पापनाशक,पाप दूर करनेवाला)

सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥

(जो भव भय भंजन =जो संसारके (जन्ममृत्युके) भयका नाश करनेवाले)।(मुनि मन रंजन =मुनियोंके मनको आनन्द देनेवाले और)।गंजन बिपति बरूथा – विपत्तियोंके समूहको नष्ट करनेवाले हैं,।

(बरूथा-गिरोह, समूह दल,बादल,तोदाह,ढेर) (गंजन=तिरस्कार,अवज्ञा,दुर्दशा,दुर्गति,नष्ट या परास्त करने की क्रिया या भाव। [विशेषण],नष्ट करने वाला) (रंजन=मन प्रसन्न करनेवाला)

जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।

मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी – हम सब देवताओंके समूह मन, वचन और कर्मसे चतुराई करनेकी बान छोड्कर।सरन सकल सुर जूथा – उन भगवान् की शरण आये हैं (जूथा=झुंड,जत्था)

मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥

(सारद श्रुति सेषा = सरस्वती, वेद, शेषजी और)।(रिषय असेषा =सम्पूर्ण ऋषि)।(जा कहुँ कोउ नहि जाना =कोई भी जिनको नहीं जानते)।

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।

जेहि दीन पिआरे – जिन्हें दीन प्रिय हैं,।बेद पुकारे – ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं,।द्रवउ सो श्रीभगवाना – वे ही श्रीभगवान् हमपर दया करें।

जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥

भव बारिधि मंदर – हे संसाररूपी समुद्रके (मथनेके) लिये मन्दराचलरूप, ।सब बिधि सुंदर – सब प्रकारसे सुन्दर,।गुनमंदिर – गुणोंके धाम और।सुखपुंजा – सुखोंकी राशि।(बारिधि=समुद्र,जलपात्र)

(मंदर=एक पर्वत जिससे देवताओं और असुरों ने समुद्र का मंथन किया था=मन्दराचल)

भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।

मुनि सिद्ध सकल, सुर परम भयातुर – नाथ! आपके चरणकमलोंमें मुनि, सिद्ध और।नमत नाथ पद कंजा – सारे देवता भयसे अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं ।(भयातुर=भयभीत)

मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥

व्यास कहते हैं, मुझे तो तेरा भरोसा है। मैं तो तेरी शरणागत हूँ। औरों से मुझे क्या मतलब? अब मुझे किस बात की फिक्र है। शरणागति हो जाने के बाद तुम ही मेरे इष्ट हो। (आचार=आचरण,चाल चलन)

काहु को बल तप है, काहु को बल आचार।

व्यास भरोसे कुंअर के, सोये टाँग पसार॥

संसार-सागर के पार ले जानेवाली नाव राम की एक शरणागति ही है। संसार के उद्धार पाने का दूसरा कोई उपाय नहीं, कोई और साधन नहीं।

गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।

रहिमन जगत-उधार को, और न कछू उपाय॥

रक्षक रुप से प्रभु का वरण करना अर्थात आप ही एकमात्र मेरे रक्षक हैं इस भाव से मन क्रम वचन से उनको स्वीकार कर लेना | अपनी आत्मा को प्रभु चरणों में समर्पित कर देना और अपनी दीनता हीनता निवेदित करना ही *सच्ची शरणागति है |

(श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥

निज अनहित अनुमानि।कह कर जनाया की अपना अहित भी होता हो तो भी शरणागत का त्याग नहीं करना चाहिए (बिलोकत=बिलोकना=देखना)

सरनागत कहुँ जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि।

ते नर पावँर पापमय, तिन्हहि बिलोकत हानि॥

विभीषण की शरणागति के माध्यम से गोस्वामी जी ने मनुष्य मात्र को ईश्वर की शरण में जाने की प्रेरणा दी है। जिस तरह विभीषण राज्य सुख तथा अन्यायी, अहंकारी, परत्रिय अपहर्ता बड़े भाई रावण को छोड़ कर भगवान की शरण का वरण करते हैं, (त्राहि=संकट में लगाई जाने वाली गुहार,त्राहि-त्राहि करना = रक्षा के लिए पुकारना)

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ, प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन, सरन सुखद रघुबीर॥

आप कृपा को आसरो, आप कृपा को जोर ।

आप बिना दिखे नहीं, तीन लोक में ओर ॥

जिस लंका के अतुलनीय वैभव को शिव जी ने रावण को दसो सिर स्वयं काटकर अर्पण करने पर दिए ,उसी को श्रीराम जी विभीषण को संकोच के साथ देते हैं।लोग थोड़ा सा दान कर समाचार पत्रों में ढिंढोरा पिटते हैं कि मैंने इतना दिया लेकिन श्रीराम जी स्वयं जगत पिता होकर संकोच करते हैं कि मैंने कुछ नहीं दिया।अक्सर संसार में लेने वाले को संतोष नहीं होता लेकिन जगत पिता श्रीराम जी को भक्त को लंका जैसे राज्य को देने में संतोष नहीं होता बल्कि संकोच होता है कि मैंने इसे बहुत कम दिया। (सूत्र) विभिषण की भक्ति, नीति व ईश्वर प्रेम के आगे रावण को शिव द्वारा प्रदान की गई संपदा विभिषण को देने में राम को तुच्छ लगी।

जो संपत्ति शिव रावनहि, दीन्हि दिए दस माथ।

सोइ संपदा विभीषनहि, “सकुचि” दीन्हि रघुनाथ।।

तुलसीदासजी कहते हैं- हे श्री रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करने वाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीजिए॥

मों सम दीन न दीन न हित, तुम समान रघुवीर।

अस विचारि रघुवंश मनि, हरहु बिसम भव भीर।

श्री रामजी ने कहा- हे मित्र! परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!॥ हनुमान्जी हर्षित हुए (और मन ही मन कहने लगे कि) भगवान् कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले) हैं॥ सुग्रीव ने श्रीराम से राक्षस होने के कारण इच्छानुसार रूप बदलने वाला तथा मायावी होने, सेना का भेद लेने वाला बताकर बाँधकर रखने का परामर्श दिया इस परामर्श के उपरान्त राम ने कहा कि हे मित्र तुमने तो अच्छी नीति बतायी हैकिन्तु मेरा प्रण-संकल्प तो शरणागत के भय को हराना है।राम ने सुग्रीव से कहा-जो मनुष्य निर्मल मन(हृदय) का होता है,वही मुझे पाता है।मुझे कपट और छल छिद्र नहीं भाते!

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। सुग्रीव के वचनो का खंडन प्रभु बड़े माधुर्य के साथ कर रहे है उनकी खातिर करते हैजिससे वे उदास ना हो क्योकि वे सखा है सुग्रीव ने अपनी मति के अनकूल हित कहा है जैसे सखा का धर्म वैसा ही हित बात विचार कर कही उनके विचार को प्रभु नीक कहते है राय अच्छी है निति के अनुरूप है इसके बाद प्रभु सरनागति धर्म समझाते है और कहा मेरा प्रण तो सरनागत भयहारी है

(बच्छल= वत्सल)”सरनागत वत्सल” का भाव है कि जैसे नई व्यहि गाय अपने बछड़े के मल को स्वयं शुद्ध कर देती है और अपने बच्चे के पीछे अति स्नेह से दौड़ती है और उसकी देखभाल करती है वैसे ही भगवान अपने भक्तो को शुद्ध कर देते है।

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥

जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता।

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। भाव यह है कि शरणागत के त्याग करने वाले का तो में मुख ही नहीं देखता पर जिसे अनगिनत ब्रह्म हत्याये भी लगी हो उसे शरण में ले लेता हूँ क्योकि जिन्हो ने शरणागत की रच्छा ना की वे तो पाप मय हो जाता है ते नर पावँर पापमय, और कोटि विप्र वध करने वाला पाप मय नहीं हुआ।सनमुख होइ जीव= से जनाया कि शरणागति भगवान को अत्यंत प्रिय है।

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥

सुग्रीव रामचंद्रजी से बोले-॥

सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई।।

तब भगवान श्री राम ने कहा —

सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।

क्योकि

जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥

सुग्रीव से कहा हम को तो कुछ भी नहीं करना पड़ेगा ,हम तो लीला

करते है लक्ष्मण जी का अवतार तो निसाचरो के नाश के लिए ही हुआ है

सेष सहस्रसीस जगकारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।s

रामचंद्रजी सुग्रीव से बोले-॥ शेषनाग भगवान की सर्पवत् आकृति विशेष होती है। सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात् भी ये बचे रहते हैं, इसीलिए इनका नाम ‘शेष’ हैं। सर्पाकार होने से इनके नाम से ‘नाग’ विशेषण जुड़ा हुआ है। शेषनाग स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। शेष नाग के हज़ार मस्तक हैं। वे नील वस्त्र धारण करते हैं तथा समसत देवी-देवताओं से पूजित हैं। उस पर्वत पर तीन शाखाओं वाला सोने का एक ताल वृक्ष है जो महाप्रभु की ध्वजा का काम करता है।[1] रात्रि के समय आकाश में जो वक्राकृति आकाशगंगा दिखाई पड़ती है और जो क्रमश: दिशा परिवर्तन करती रहती है, यह निखिल ब्रह्मांडों को अपने में समेटे हुए हैं। उसकी अनेक शाखाएँ दिखाई पड़ती हैं। वह सर्पाकृति होती है। इसी को शेषनाग कहा गया है। पुराणों तथा काव्यों में शेष का वर्ण श्वेत कहा गया है। आकाशगंगा श्वेत होती ही है। यहाँ ‘ऊँ’ की आकृति में विश्व ब्रह्मांड को घेरती है। ‘ऊँ’ को ब्रह्म कहा गया है। वही शेषनाग है।

यहाँ भगवान ऐश्वर्या(ईश्वरता )दिखाते है कि भगवान का आँख बंद करना प्रलय है ,और पलक खोलना सृष्टि की स्थिति है भगवान ने

जब मेघनाथ अंतरिक्ष में छिपे हुए सारी सेना तथा राम लक्ष्मण को बाणो से बेध डाला था तब लक्ष्मण जी राम जी से बोले में संसार के समस्त देत्यो का वध करने के लिए बह्रमास्त्र का प्रयोग करना चाहता हूँ लक्ष्मण जी में यह समर्थ है इसी से रामजी ने उनको समझा कर कहा कि एक के कारण सब का नाश करना उचित नहीं प्रभु अपना पराक्रम कभी नहीं कहते यह उनकी सदा होती है युद्ध में देवता आदि से भी श्री जानकी को रण भूमि दिखाते हुए लक्ष्मण आदि का ही नाम लिया यथाः

कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता।।s

हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे।।s

जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।s

जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥

जौं सभीत । सभीत का भाव है कि यदि वह भय से आया तो भय हरेगे,भय चाहे संसार का हो ,चाहे शत्रु का,चाहे पाप का सरनागत मुझे प्राणो के सामान प्रिय है

देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥s

शरणागत पालन में राम अदुतीय हैइसी से शरणागत में लक्ष्मण का नाम नहीं लिया गया पर निशाचर वध में लक्ष्मण अदुतीय है इसी से इस सम्बन्ध में राम का नाम नहीं लिया गया(शंका) कवन्ध से तो आपने ही कहा यथाः

सुनु गंधर्ब कहउँ मैं तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥s

जब कोटि विप्र वध वाले को ग्रहण करते है तो यहाँ विरोध क्यों?कवन्ध तो शरणागत नहीं था पर यहाँ सर्व धर्म परित्याग पूर्वक शरणागत के लिए कहा है अनन्य भगति ही सरणागति है “कोटि विप्र वध “इसमें अघ शब्द नहीं है किन्तु यहाँ “जन्म कोटि अघ नासहि ” का भाव यदि कोई कोटि जन्म से कोटि विप्र का पाप करता आया हो वे सब पाप उसी समय नष्ट हो जाते है

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥

अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, राम ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली। हे मुनि! आप पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा।

आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥s

तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥s

देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥s

 

राम ने सुग्रीवसे विभीषणके शरणागती होने पे कहा- जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥ (सनमुख होना-शरणागत होना)

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

जे सुनि शरण सामुहे आये, सकृत प्रणाम किये अपनाये।s

राम ने सुग्रीवसे विभीषणके शरणागती होने पे कहा- पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?॥

पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥

जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद् न भावा।

(विभीषण जी ने कहा-) हे देव! हे चराचर जगत् के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी। वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई॥

अब तो हे कृपालु! शिव जी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए।

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥

उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥

भरतजी बोले-समर्थ, शरणागत का हित करने वाले, गुणों का आदर करने वाले और अवगुणों तथा पापों को हरने वाले हैं। (शरणागतों) के दोषों को देखकर भी आप कभी हृदय में नहीं लाए और उनके गुणों को सुनकर साधुओं के समाज में उनका बखान किया॥

समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी॥

देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥

(भगवान् ने कहा-) हनुमान्! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच में कभी भी कोई अंतर (भेद) है? प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने उनके चरण पकड़ लिए (और कहा-) हे नाथ! हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! सुनिए॥

तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ॥

सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥

भरत ने भगवान् से कहा-हे नाथ! न तो मुझे कुछ संदेह है और न स्वप्न में भी शोक और मोह है। हे कृपा और आनंद के समूह! यह केवल आपकी ही कृपा का फल है॥ (कृपानंद=कृपा और आनंद के समूह)

नाथ न मोहि संदेह कछु ,सपनेहुँ सोक न मोह।

केवल कृपा तुम्हारिहि, कृपानंद संदोह॥

तुलसीदासजी कहते हैं-लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही है, क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं।

ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥

सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥

विश्वामित्रजी की सरनागति

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥

शिवजी कहते हैं- हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं॥चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्री रामजी की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। (नागर =चतुर,सभ्य पुरुष)

गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥

बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥

भरद्वाज हे भरत सुनो !यह श्री रघुनाथजी की बहुत बड़ाई नहीं है, क्योंकि श्री रघुनाथजी तो शरणागत के कुटुम्ब भर को पालने वाले हैं। हे भरत! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो शरीरधारी श्री रामजी के प्रेम ही हो॥

यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई॥

तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥

हनुमान्जी ने कहा-हे रावण!खर के शत्रु रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं।शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे॥(करुना सिंधु=दया के समुद्र)

(खरारि=भगवान,खरोंअर्थात् राक्षसोंको नष्ट करनेवाला,विष्णु) (तव=तुम्हारा)

प्रनतपाल रघुनायक ,करुना सिंधु खरारि।

गएँ सरन प्रभु राखिहैं, तव अपराध बिसारि॥

राम जी लक्ष्मण जी से बोले – जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ ही है॥

मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।

लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥

लक्ष्मण ने कहा नेत्र आँसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यन्त अधीर होकर उन्होंने श्री रामजी के चरण पकड़ लिए॥

कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥

मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥

लक्ष्मण की सरनागति-लक्ष्मणने कहा धर्म और नीति का उपदेश तो उसको करना चाहिए, जिसे कीर्ति, विभूति(ऐश्वर्य) या सद्गति प्यारी हो, किन्तु जो मन, वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, हे कृपासिन्धु! क्या वह भी त्यागने के योग्य है?॥ (कीरति=कीर्ति, भूति=ऐश्वर्य,सुगति=सद्गति) (कृपासिन्धु= दयाविधि,अकारण कृपा करनेवाला परमात्मा) (परिहरिअ=त्यागने वाला,तजने वाला,निवारण करने वाला)

धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥

 

हे नाथ! स्वभाव से ही कहता हूँ, आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता, माता किसी को भी नहीं जानता॥जो मन, वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, हे कृपासिन्धु! क्या वह भी त्यागने के योग्य है? (पतिआहू=पतियाना=विश्वास करना, सच समझना)

मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई॥

गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥

लक्ष्मणने कहा=जगत में जहाँ तक स्नेह का संबंध, प्रेम और विश्वास है, जिनको स्वयं वेद ने गाया है- हे स्वामी! हे दीनबन्धु! हे सबके हृदय के अंदर की जानने वाले! मेरे तो वे सब कुछ केवल आप ही हैं॥

जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई॥

मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥

 

 

 

 

 

10 प्रेम/अनुराग

कबीर दास जी कहते हैं, प्रेम खेत में नहीं उपजता, प्रेम बाज़ार में भी नहीं बिकता | चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा, यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा | त्याग और समर्पण के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता | प्रेम गहन-सघन भावना है, कोई खरीदी / बेचे जाने वाली वस्तु नहीं |

प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई ।

राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई ॥

जिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा को त्यागना होगा। लालची इंसान अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।

प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय ।

लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।

प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं ॥

जो मै ऐसा जानती, प्रीत करे दुख होय,

नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत ना करिये कोई।

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।

टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥

 

रहिमन’ प्रीति न कीजिए,जस खीरा ने कीन ।

ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन ॥

पोथी पढि-पढि जग मुआ,पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।

किसी की प्रभुता जाने बिना उस पर विश्वास नहीं ठहरता और विश्वास की कमी से प्रेम नहीं होता । प्रेम बिना भक्ति दृढ़ नही हो सकती जैसे पानी की चिकनाई नही ठहरती है।(परतीती= दृढ़ निश्चय,विश्वास)

जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहि प्रीती ।

प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई ।

(शिवजी कहते हैं-)हे उमा!अनेकों प्रकार के योग,जप,दान, तप,यज्ञ,व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचंद्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं॥ परमात्मा की प्राप्ति एकमात्र मार्ग है परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम| इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग है ही नहीं | बिना प्रेम के राम (परमात्मा) की प्राप्ति नहीं है चाहे कितना भी योग जप तप कर लिया जाये|(तसि=वैसी,उस प्रकार की)

उमा जोग जप दान तप, नाना मख ब्रत नेम।

राम कृपा नहिं करहिं तसि, जसि निष्केवल प्रेम॥

प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु का करकमल हनुमान जी के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिव जी प्रेममग्न हो गए॥ इस चौपाई में गोस्वामी जी ने भक्त और स्वामी के सम्बन्ध का जो चित्रण प्रस्तुत करते है वह हृदय स्पर्शी है!हनुमान प्रभु के चरणों में गदगद पड़े है इस स्थिति को देख कर स्वयं भगवान शंकर भाव  मगन हो गए तो साधारण मानव के लिए क्या सन्देश है?

इसका अभिप्राय यह है कि हनुमानजी तो भगवान शंकर ही हैं ।जब उन्होंने देखा कि हनुमान जी के सिर पर प्रभु का हाथ है,और प्रभु उन्हें उठा रहे हैं, तब शंकर जी तो स्वयं अपने सिर पर प्रभु के स्पर्श की अलौकिक अनुभूति में डूब जाते हैं ।कथा कुछ क्षण के लिए रुक जाती है।पर कथा तो चलनी ही चाहिए।इसलिए फिर जब कथा प्रारंभ हुयी तो,

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥

सावधान मन करि पुनि संकर।लागे कहन कथा अति सुन्दर॥

शिवजी कहते है – हे पार्वती

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥

वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है)

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥

रामही केवल प्रेम पिआरा, जान लेहु जो जाननिहारा ||s

1. बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते| अन्य सभी साधन भी तभी सफल होते हैं जब ह्रदय में भक्ति होती है| जीवन की हर कमी, विफलता, अभाव, दुःख और पीड़ा एक रिक्त स्थान है जिसकी भरपाई सिर्फ प्रभु प्रेम से ही हो सकती है| अपने समस्त अभाव, दुःख और पीड़ाएँ प्रभु को समर्पित कर दो| अपने प्रारब्ध और संचित कर्म भी उन्हें ही सौंप दो| हमारा स्वभाव प्रेम है जिसकी परिणिति आनंद है| कर्ता वे हैं, हम नहीं| सारे कर्म भी उन्हीं के हैं और कर्मफल भी उन्हीं के| संसार में सुख की खोज ही सब दुःखों का कारण है| मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| यह निराशा सदा दुःखदायी है|

2. (बिरागा- अरुचि,रागहीन,उदासीन)

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।s

और अनुराग कब होगा यथाः

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।

मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥

शिवजी कहते है – हे पार्वती अर्थात केवल हरि का निरंतर स्मरण ही एक मात्र सत्य है बाकी इस जगत में सभी कुछ केवल स्वप्न के समान है| शिवजी कहते-हे पार्वती ऐसे लोग निश्चित रूप से अभागे हैं जो भगवद्भजन छोड़ कर सांसारिक चिंतन में अपने आप को लपेटते हैं|संसार में धनहीन-रोगी,पुत्रहीन,आवासहीन,माता-पिताविहीन,पति-पत्नी विहीन होना उतना भाग्यहीन होना नहीं है जितना कि भजन-साधनहीन होकर विषयानुरागि होना…

हे भवानी! प्रभु की माया (बड़ी ही) बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले?॥

प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।s

ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान् की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है॥

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥s

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥s

सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी॥s

तुलसीदास:-रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, कहने में चाहे बुरी जान पड़े (कहते ना बने)मगर हृदय की अच्छी हो!श्री राम जी दास के हृदय की जानकर रीझते है! दूसरा भाव गौड़ जी के अनुसार राम जी अपने जन (दास)के मन की बात जान कर रीझते है यह बात कहने की नहीं है!कहने से उसका रस जाता है! (मन ही मन समझ रखने की है,उसके आनंद में डूबे रहने की है )हृदय में ही उसका रहना सर्वोत्तम है! बाबा जानकी दास के अनुसार “हियँ नीकी”का भाव यह है कि हम रामजी के है यह हृदय में दृंढ हो चाहिए!

(निसोतें=शुद्ध,निरा) (जन =प्रजा,दास)

(नसाइ=नष्ट हो,बिगड़ जय ,नष्ट हो जाती है ,बिगड़ जाती है)

कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥

हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥ और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध न रही॥ (तत्त्व= रहस्य)

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो॥

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥

तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥

मनु-शतरूपा-आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिए पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली (नहीं रह सकती), वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके)।

सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥

मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना।मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥

श्री रामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार-बार प्रभु श्री रामचन्द्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं-॥ (बहोरि बहोरी=बार-बार)

राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥

प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी॥

हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरने वाले पक्षी और पशु धन्य हैं, जो आपको देखकर सफल जन्म हो गए॥(काननचारी=वनभ्रमी,जंगल में फिरनेवाला)

धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥

धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥

हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र भरकर आपका दर्शन किया। आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है। यहाँ सभी ऋतुओं में आप सुखी रहिएगा॥

हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा॥

कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥

हम लोग सब प्रकार से हाथी, सिंह, सर्प और बाघों से बचाकर आपकी सेवा करेंगे। हे प्रभो! यहाँ के बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएँ और खोह (दर्रे) सब पग-पग हमारे देखे हुए हैं॥

हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई॥

बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥

हम वहाँ-वहाँ (उन-उन स्थानों में) आपको शिकार खिलाएँगे और तालाब, झरने आदि जलाशयों को दिखाएँगे। हम कुटुम्ब समेत आपके सेवक हैं। हे नाथ! इसलिए हमें आज्ञा देने में संकोच न कीजिए॥ (सर=बाण,तालाब) (निरझर= पानी का झरना,जलप्रपात)

तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥

हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥

श्री रामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा है, जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट किया॥ फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते-सुनते घर आए। इस प्रकार देवता और मुनियों को सुख देनेवाले दोनों भाई सीता समेत वन में निवास करने लगे।(तोषे=यात्रा आहार,पाथेय,खाने-पीने का सामान)

(बनचर= वन में रहने वाला या पाया जाने वाला पशु

,वन्य पशु,वन या जंगल में रहनेवाला आदमी।,जंगली मनुष्य)

रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥

राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥

फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते-सुनते घर आए। इस प्रकार देवता और मुनियों को सुख देने वाले दोनों भाई सीताजी समेत वन में निवास करने लगे॥

तुलसीदास जी कहत हैंदृढ़ प्रेम के बिना भगवान की प्राप्ति नहीं होती।

 

बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥

एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! ज्ञानी सुतीक्ष्ण मुनि  ने प्रगाढ़ प्रेमाभक्ति प्राप्त कर ली। प्रभु श्री रामजी वृक्ष की आड़ में छिपकर (भक्त की प्रेमोन्मत्त दशा) देख रहे हैं। मुनि का अत्यन्त प्रेम देखकर भवभय (आवागमन के भय) को हरने वाले श्री रघुनाथजी मुनि के हृदय में प्रकट हो गए॥

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! ज्ञानी सुतीक्ष्ण मुनि प्रेम में पूर्ण रूप से निमग्न हैं। उनकी वह दशा कही नहीं जाती॥उन्हें दिशा-विदिशा (दिशाएँ और उनके कोण आदि) और रास्ता, कुछ भी नहीं सूझ रहा है। मैं कौन हूँ और कहाँ जा रहा, हूँ

(बिदिसि- विदिशा,चारो कोण ईशान,वायव्य,नेत्रत्य दिशा,आग्नेय)

निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥

दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥

मारीच का श्रीरामजी के चरणों में उसका अखंड प्रेम है।

अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा॥

मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥

मारीच का श्रीरामजी के चरणों में उसका अखंड प्रेम है।

प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥

अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना॥

 

 

 

 

 

11 मित्रता

 

कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित् सब भाषा॥

कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥

 

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥

सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥

सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव।

कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव॥

रामजी ने सुग्रीव से कहा- जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।।

निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।।

जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥

जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।।

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा।।

देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।

बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।

मित्र की परीक्षा का काल ही कुसमय है

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥s

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।।

जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।।

 

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। (सूत्र) ऊपर से हितेषी बने रहते है और भीतर से पीड़ा देते है ! हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥ आज्ञा ना मानना वा हट करने वा स्वामी को उत्तर देने को “शठ “कहा है !(सूत्र )शूल=प्राचीन काल का एक अस्त्र जो प्रायः बरछे के आकर का होता है !=वायु के प्रकोप से होने वाला एक प्रकार का बहुत तेज दर्द जो प्रायःपेट,पसली,कलेजे में होता है!इस पीड़ा में ऐसा अनुभव होता है कि कोई अंदर से बहुत नुकीला कांटा या शूल गड रहा है! (सब बिधि का भाव =नीति आदि रीति से) (कृपन=कंजूस)  (कुनारी=कुलटा स्त्री) (घटब=करूँगा)

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।।

सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

12 अहंकार

 

हर्ष,शोक,ज्ञान,अज्ञान,अहंता और अभिमान-ये सब जीव के धर्म हैं। राम तो व्यापक ब्रह्म,परमानंदस्वरूप,परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है।

(परमानन्द= परम आनंद स्वरुप)( (परेस= परेश=परा ईश=सबसे परे जो ब्रम्ह आदि है उनके भी स्वामी ,सर्वश्रेस्ट स्वामी)

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना।।

राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना।।

हरष बिषाद= इति जीव कर्म वश दुःख सुख का भागी होता है उसमे ज्ञान अज्ञान दोनों रहते है परन्तु ईस्वर में ज्ञान एक रस रहता है!

ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥s

जौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस।।s यदि जीवों को एकरस (अखंड)ज्ञान रहे,तो कहिए,फिर ईश्वर और जीव में भेद ही कैसा?

राम ने कहा – हे मुनि! विचारकर बोलिए। आपका क्रोध बहुत बड़ा है और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ? यह धनुष सतयुग में बनाया गया था अब त्रेता युग का अंत है अतः पुराना कहा इसी से वह छूते ही टूट गया तब में किस हेतु अभिमान कर सकता हूँ भाव यह है की आपके क्रोध का कोई हेतु नहीं है वह अकारण है व्यर्थ ही है हमारी चूक बहुत लघु है धनुष को छु लिया यही भर हमारी चूक है

राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥

छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥

सारा जगत् भय में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई- हे तात! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है?॥ (बिपुल=विशाल,बड़ा,विस्तृत,बहुत गहरा,अगाध)

जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥

तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥

रामचंद्रजी ने लक्ष्मणजी से कहा-परंतु कोई भी काम हो, उसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान नहीं हैं।देववाणी सुनकर लक्ष्मण सकुचा गए। राम और सीता ने उनका आदर के साथ सम्मान किया

अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ॥

सहसा करि पाछें पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥

रामजी ने लक्ष्मणजी कहा- हे तात! तुमने बड़ी सुंदर नीति कही। हे भाई! राज्य का मद सबसे कठिन मद है॥ जिन्होंने साधुओं की सभा का सेवन (सत्संग) नहीं किया, वे ही राजा राजमद रूपी मदिरा का आचमन करते ही(पीते ही)मतवाले हो जाते हैं। हे लक्ष्मण! सुनो,भरत सरीखा उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में न तो कहीं सुना गया है,न देखा ही गया है॥ (प्रपंच=झंझट,संसार,सृष्टि) (आना=आन=प्रतिज्ञा,संकल्प) (सुबंधु=अच्छा भाई)

कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥

जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥

सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥

लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥

रामचंद्रजी ने लक्ष्मणजी से कहा-(अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है) ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने का! क्या कभी काँजी की बूँदों से क्षीरसमुद्र नष्ट हो सकता (फट सकता) है?॥

भरतहि होइ न राजमदु,बिधि हरि हर पद पाइ।

कबहुँ कि काँजी सीकरनि, छीरसिंधु बिनसाइ॥

(अहमिति अहं इति=अहं ऐसा =अहंकार) “अहमिति”अर्थात” में!इसी को “अहंकार”कहते है अहंकार और अभिमान में भेद यह है की अहंकार अपने का होता है और अभिमान वस्तु का होता है की यह मेरी है बैद्यनाथ जी का मत है कि देहव्यवहार को अपना मानना”अहमिति”है में ब्राह्मण,में विद्वान,में धनी,में राजा इत्यादि अभिमान है!(अहमिति=अपने आपको औरों से बहुत अधिक योग्य,समर्थ या बढ़कर समझने का भाव,अहंकार)

तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥s

तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥s

जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई।।s

जीव धर्म इति!ये सभी विकार जीवो में होते है।,ईश्वर में नहीं जैसे लोमेश,सनकादि,गरुण जी,ये सभी विज्ञानी है पर इनको भी क्रोध या मोह हुआ क्योकि ये जीव ही तो ठहरे पर राम जी इन द्वन्दों से परे है क्योकि वे जीव नहीं है वे तो ब्रह्म व्यापक है!

माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी॥s

 

नारद ने अभिमान के साथ कहा-भगवन! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है।(परितोषा=परितोष=मन के अनुसार काम होने या करने पर होने वाला संतोष,तुष्टि,तृप्ति,इच्छापूर्ति होने की प्रसन्नता या ख़ुशी)

भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥

तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥

मार चरति संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥

 

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥

 

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।

भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥

 

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥

संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥

 

काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥

अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥

भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले – हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं (फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है?)॥

रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।

तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥

हे मुनि! सुनिए, मोह तो उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रत में तत्पर और बड़े धीर बुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है?॥ (मनोभव=कामदेव, मनोज,प्रेम)

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥

ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥

 

नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥

करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥

 

नारदजी ने अभिमान के साथ कहा- भगवन! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है॥

मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा, जिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो॥ हे गोसाईं! जैसे बच्चे के शरीर में फोड़ा हो जाता है, तो माता उसे कठोर हृदय की भाँति चिरा डालती है॥ (ब्रन=फोड़ा)

(पन=प्रण, प्रतिज्ञा)

बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥

जिमि सिसु तन ब्रन होई गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं॥s

मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥

तब नारदजी भगवान के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया।

 

तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥

 

तुलसीदासजी कहते हैं-

बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। इति ऐसा अभिमान रहित पुरुष जगत में दुर्लभ है इसका तात्पर्य मद ही से नहीं है अन्य सब विकारो का जीतने वाला संसार में कोई नहीं है

हे पक्षियों के स्वामी!आपने अपना मोह कहा,सो हे गोसाईं!यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारद जी,शिवजी,ब्रह्मा जी और सनकादि जो आत्मतत्त्व के मर्मज्ञ और उसका उपदेश करने वाले श्रेष्ठ मुनि हैं॥यथाः

तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥

नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥

(केहि=किसे,किसको) (बौराहा=पागल जैसा,भटकता हुआ)

मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥

तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥

(आगार=अस्त्रागार,भंडार,कमरा, कोठरी, खज़ाना) (बिडंबना=उपहास, हँसीं,निंदा,बदनामी)

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।

केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥

जिसको प्रभुता पाने पर मद नहीं हुआ ऐसे पुरुष ने संसार में जन्म नहीं लिया अर्थात मद का जीतने वाला पुनर्जन्म नहीं लेता वह भव पार हो जाता है क्योकि जगत की उत्पत्ति अहंकार ही से है !बिना अहंकार संसार में जन्म कैसे संभव है ?अन्य भाव केवल और केवल प्रभु ही ऐसे है इनमे प्रभुता पाने पर अभिमान नहीं है सो उनका जन्म नहीं होता वे तो प्रकट हुआ करते है!

राम बाली से कहते हैं

मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना।।

मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी।।

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले श्री रामचंद्र जी का सहज स्वभाव सुनिए। वे भक्त में अभिमान कभी नहीं रहने देते, क्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों तथा समस्त शोकों का देने वाला है॥ (संसृत=जन्म-मरण रूप संसार)

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥

संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥

मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए (बहुरि=फिर, पुनः,उपरांत)

अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥

सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥

मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे सेव्य (स्वामी) हैं” , इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धांत विचारकर श्री रामचंद्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए॥यह अभिमान भक्ति का प्रण है (अस=तुल्य,समान,इस जैसा)

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।

भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥

हे हनुमान्!अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँऔर यह चराचर(जड़-चेतन)जगत् मेरे स्वामी भगवान् का रूप है (असि=ऐसी) (सचराचर=संसार की सब चर और अचर वस्तुएँ ,जगत,विश्व,संसार)

सो अनन्य जाकें असि ,मति न टरइ हनुमंत।

मैं सेवक सचराचर ,रूप स्वामि भगवंत॥

शंकर कहते हैं की भले ही कोई बड़भागी, अति बड़भागी, अतिशय बड़भागी और परम बड़भागी बना रहे किन्तु हनुमान सम नहिं बड़भागी हनुमान राम के प्रति सेवाभाव से समर्पित हैं किन्तु उन्हें सेवक होने का अभिमान नहीं है क्योंकि उनका मन प्रभु प्रीति से भरा है | वे अपने को प्रभु के हांथों का बाण समझते अपनी प्रत्येक सफलता में भगवान की कृपा का हांथ देखते हैं |

गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई | बार बार प्रभु निज मुख गाई ||

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना | एही भाँति चलेउ हनुमाना ||

हनुमान्जी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले- ॥बंदर का बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है(साखामग-वानर,शाखा पर घूमने वाले पशु)(मनुसाई- पुरुषार्थ,मर्दानगी)

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥

साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥

भरत हनुमान जी से बोले

जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥

जौं मोरें मन बच अरु काया॥ प्रीति राम पद कमल अमाया॥

तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥

हा दैव! मैं जगत् में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्जी से बोले-॥

अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥

जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥

 

चढ़ु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥

सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥

वाल्मीकिजी रामजी से बोले

काम कोह मद मान न मोहा।लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया।तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले- अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ,कपट,मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥ (ईषना=प्रबल अभिलाषा या गहरी चाह) (तिजारी=हर तीसरे दिन आनेवाला ज्वर)

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥

तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥

सम्पाती जी अंगद से बोले सम्पति जी अपनी कथा बंदरो के उत्साह वर्धन के लिए सुनते है कि हम दोनों भाई (उठती वा चढ़ती)जवानी में हम दोनों सूर्य के निकट जाने के लिए आकाश में उड़े,वह अर्थात जटायु सूर्य के तेज को सह ना सका,इससे लौट आया!में अभिमानी था सूर्य के निकट जाने का उत्साह मुझे कौतुक के लिए था “में अभिमानी “का भाव यदि में भी लौट पड़ता तो दोनों भाइयो का बल बराबर समझा जाता मुझे अपने अधिक बल का अभिमान था अपने को उससे अधिक बलवान समझता था अतएव सोचा कि में यहाँ से क्यों  लौटू !इसी अभिमान से सूर्य के निकट गया अभिमान का फल दुख है जो मुझे मिला!

सुनि संपाति बंधु कै करनी। रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी॥

अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा।।

सम्पाती जी अंगद से बोले (सो-वह अर्थात जटायु) निअरावा

हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई । गगन गए रबि निकट उडाई।।

तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मै अभिमानी रबि निअरावा ।।

जरे पंख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ।।

सम्पाती जी अंगद से  वहाँ चंद्रमा नाम के एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया लगी। उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित (देह संबंधी) अभिमान को छुड़ा दिया॥

मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखि करि मोही॥

बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा। देहजनित अभिमान छुड़ावा॥

संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥s

नारद देखा बिकल जयंता। लागि दया कोमल चित संता।।s

कुम्भकर्ण का रावण को उपदेश-(नाह=नाथ,स्वामी,मालिक,

स्त्री का पति)

भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥

अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥

हनुमान्जी ने कहा-हे रावण!मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान् श्री रामचंद्रजी का भजन करो॥

मोहमूल बहु सूल प्रद, त्यागहु तम अभिमान।

भजहु राम रघुनायक, कृपा सिंधु भगवान॥

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा

होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना।।

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥

प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।

जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं॥

ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।

ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान॥

गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।

तुलसी दास जी कहते हैं कि जब तक व्यक्ति के मन में काम, क्रोध, व्यसन, लोभ और मोह का वास होता है तब तक ज्ञानी और मूर्ख दोनों एक समान ही होते हैं ।

काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।

तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान।।

रावण अंगद से कहा-मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हँसा॥ उस बात को समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है। (क्योंकि मैं समझता हूँ कि) बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। उस बात को समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है।

जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला॥

नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥

सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें॥

 

रावण न मंदोदरी से कहा: तब रावण ने मंदोदरी को उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा- हे प्रिये! सुन, तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है। बता तो जगत् में मेरे समान योद्धा है कौन?॥

तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥

सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥

रावण न मंदोदरी से कहा: वरुण, कुबेर, पवन, यमराज आदि सभी दिक्पालों को तथा काल को भी मैंने अपनी भुजाओं के बल से जीत रखा है। देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वश में हैं। फिर तुझको यह भय किस कारण उत्पन्न हो गया?॥ मंदोदरी ने हृदय में ऐसा जान लिया कि काल के वश होने से पति को अभिमान हो गया है॥

बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥

देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें॥

मंदोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥

देवराज इंद्र मन में हर्षित होकर स्तुति करने लगे:-मुझे अत्यंत अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है, पर अब प्रभु (आप) के चरण कमलों के दर्शन करने से दु:ख समूह का देने वाला मेरा वह अभिमान जाता रहा।।(कंज=कमल) (गत= रहित, विहीन,बीता हुआ,मृत, गया हुआ)

मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान।।

अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज।।

 

 

 

 

 

 

13 माया

माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।

मनुवा तो चहुँदिसि फिरै, यह ते सुमिरन नाहिं।।

माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर।

आषा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।।

जग में तेरा कुछ नहीं, मिथ्या ममता-मोह।

एक कृष्ण तेरे सदा चिदानन्द-संदोह॥

कबीर- यह संसार एक माया है जो शंकर भगवान से भी अधिक बलवान है।यह स्वंय आप के प्रयास से कभी नहीं छुट सकता है। केवल प्रभु ही इससे आपको उवार सकते है।

शंकर हु ते सबल है, माया येह संसार

अपने बल छुटै नहि, छुटबै सिरजनहार।

लक्ष्मण जी ने कहा हे देव! हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ॥

ईस्वर जीव भेद प्रभु, सकल कहौ समुझाइ।

जातें होइ चरन रति, सोक मोह भ्रम जाइ॥

लक्ष्मण जी ने कहा हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥

कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥

ज्ञान,वैराग्य,माया,भक्ति,ईश्वर,जीव, इन 6 में भेद समझये। (ताग-तागा,कच्चा धागा)(बटोरी-इकट्ठा करना,बटोरना)

मोहि समुझाइ कहहु

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।

सुग्रीव जी (परिहरि=त्यागने वाला,तजने वाला)

(अवराधक =आराधना करने वाला,आराधक)

सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥

ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं संत तब पद अवराधक।।

भारतद्वाज जी (कृपानिधि=जो बहुत ही दयालु हो,दया से भरा दिल)

रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥

जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥

पार्वती (केतू=पताका,ध्वजा) (बृषकेतू=शिव,जिनकी ध्वजा पर बैल का चिह्न माना जाता है)

नाथ धरेउ नर तनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥

उमा बचन सुनि परम बिनीता।रामकथा पर प्रीति पुनीता॥

भरत जी(बिलगाई=अलग होने की अवस्था या भाव)(प्रनतपाल शरणागत का रक्षक)

संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।।

संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।

गरुण जी

एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥

कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥

इन सभी प्रश्नों में विस्तारपूर्वक समझाने की प्रार्थना की गई है

मोहि समुझाइ कहहु

गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले-श्री रघुवीर के भक्ति रस में सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया। श्री रामजी के चरणों में मेरी नवीन प्रीति हो गई और माया से उत्पन्न सारी विपत्ति चली गई॥ और रामभक्तिसे अभिभूत होकर यह भी कहा -आपकी कृपा से सब संदेह चला गया। मुझे सदा अपना दास ही जानिएगा। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! पक्षी श्रेष्ठ गरुड़जी बार-बार ऐसा कह रहे हैं॥ (कृतकृत्य= जिसका काम पूरा हो चुका हो,कृतार्थ,सफलमनोरथ,जैसे-इस आपके दर्शन से कृतकृत्य हो गए)  (प्रसाद=अनुग्रह, कृपा,देवता को चढ़ाई गई वस्तु)

मैं कृतकृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी॥

राम चरन नूतन रत भई। माया जनित बिपति सब गई॥

जीवन जन्म सुफल मम भयऊ ।तव प्रसाद संसय सब गयऊ ।।

श्री रामजी ने कहा- हे तात! लक्ष्मण मैं थोड़े ही में सब समझाकर कहे देता हूँ।मैं और मेरा,तू और तेरा-यही माया है, जिसने सब जीवों को वश में कर रखा है।(निकाया=समूह,झुंड,समुदाय)

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥

मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥

राम जी लक्ष्मण जी से बोले इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, ॥ एक अविद्या दुष्ट दोषयुक्त है और अत्यंत दुःखरूप है (गो=गाय,इंद्रिय) (गोचर= वस्तु जिनका ज्ञान इंद्रियों द्वारा संभव हो)  (अगोचर=न दिखाई देने वाला, अदृश्य,इंद्रियों से जिसका ज्ञान संभव न हो,इंद्रियातीत)

गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥

राम जी लक्ष्मण जी से बोले एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यंत दुःखरूप है,जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है और एक (विद्या) जिसके वश में गुण है और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है॥(भव=संसार,जगत्) (अतिसय=अधिकता,श्रेष्ठता)

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा ।।

एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ।।

राम जी लक्ष्मण जी से बोले जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। जो (कर्मानुसार) बंधन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है॥

करम अनुसार जो बंधा सकता और कृपा कर दे तो मोक्ष प्रदान कर सकता (सीव=ईश्वर)

माया ईस न आपु कहुँ ,जान कहिअ सो जीव।

बंध मोच्छ प्रद सर्बपर, माया प्रेरक सीव॥

शिवजी कहते है – हे पार्वती ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान् की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है॥(कोबिद-पंडित, विद्वान,ज्ञानवान,प्रबुद्ध)(ग्याता=ज्ञानी)(बिपुल=अधिक,पर्याप्त,विशाल)

मन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता।

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा।।

ब्रह्माजी कहते है – यह सारा चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य (की बात) नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी सुंदर वाणी बोले- श्री रामजी की महिमा को महादेवजी जानते हैं॥ (अग=अचल,वक्र गतिवाला)

(जगमय=सारा चराचर जगत्)

अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा॥

तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई॥

शिवजी कहते है हेभवानी

 

तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा॥

सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥

शिवजी कहते है हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ? सब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया जाए॥

मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥

तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥

शिवजी कहते है हे गरुड़!

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।

मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥

उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला॥

राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥

राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥

मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई॥

ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥

होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥

प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥

शिवजी कहते है हेभवानी-जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं॥

ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।

ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान॥

(काकभुसुंड जी गरुण जी से बोले-s)

काकभुशुण्डिजी ने फिर कहा- पक्षीराज पर उनका प्रेम कम न था (अर्थात् बहुत था)- हे नाथ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्री रघुनाथजी के कृपापात्र हैं॥(नभग=आकाश में चलनेवाला ,आकाशचारी,अभागा,बद-किस्मत,पक्षी, वायु,हवा)

बोलेउ काकभुसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥

सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे॥

आपको न संदेह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझ पर दया की है। हे पक्षीराज! मोह के बहाने श्री रघुनाथजी ने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है॥ मिस=बहाना, ढोंग,बहाने से)

तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥

पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥

हे पक्षियों के स्वामी! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाईं! यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारदजी, शिवजी, ब्रह्माजी और सनकादि जो आत्मतत्त्व के मर्मज्ञ और उसका उपदेश करने वाले श्रेष्ठ मुनि हैं॥3॥

तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥

नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥

हे पक्षीराज!उनमें से भी किस-किस को मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया? जगत् में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया? क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया?॥

(अंधा-विवेकशून्य) केहि-किसे,किसको,किस,किसी प्रकार,किसी भाँति)

मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥

तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥

इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडंबना (मिट्टी पलीद) न की हो॥

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।

केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥

लक्ष्मी के मद ने किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है जिसे मृगनयनी(युवती स्त्री)के नेत्र बाण न लगे हों॥ (बधिर=बहरा,जो सुनता न हो) (मृगलोचनि=हिरण के समान सुन्दर आँखोंवाली महिला) (अस=तुल्य,समान,इस जैसा) (सर=बाण,तालाब)

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।

मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥

हे पक्षीराज!(रज, तम आदि) गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं किया? ममता ने किस के यश का नाश नहीं किया?॥  (निबेही=छल-कपट आदि से रहित)

(सन्यपात-जुड़ना मिलना,भिड़ना टकराना, तीनों दोष (वात, पित्त और कफ़) ज्वर जिसमें कफ़, पित्त और वात तीनों बिगड़ जाते हैं)        (बलकावा=उत्तेजित करना)

गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥

जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥

हे पक्षीराज!मत्सर (डाह) ने किसको कलंक नहीं लगाया? शोक रूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया? चिंता रूपी साँपिन ने किसे नहीं खा लिया? जगत में ऐसा कौन है, जिसे माया न व्यापी हो?॥ (मच्छर- एक छोटा उड़ने वाला कीड़ा जिसकी मादा काटती और खून चूसती है,डाह या द्वेष,मत्सर,क्रोध,गुस्सा)

मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा॥

चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥

हे पक्षीराज!मनोरथ क्रीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान् कौन है, जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की, इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?॥ (मनोरथ-इच्छा)(बित-धन,द्रव्य)

(ईषना-प्रबल अभिलाषा,गहरी चाह) (लोक-संसार,जगह)

कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥

सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥

हे पक्षीराज!मनोरथ क्रीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान् कौन है, जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की, इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?॥ (अमिति=बेहद,अत्यधिक)

यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा॥

माया की प्रचंड सेना संसार भर में छाई हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दम्भ, कपट और पाखंड योद्धा हैं॥ (कटक= समूह)

ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।

सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥

वह माया श्री रघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही है, किंतु वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥ (पद रोपि=प्रतिज्ञा करके)

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।

छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥

जो माया सारे जगत् को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसी ने नहीं लख पाया, हे खगराज गरुड़जी! वही माया प्रभु रामजी की भृकुटी के इशारे पर अपने समाज (परिवार) सहित नटी की तरह नाचती है॥

जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥

सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा॥

(काकभुसुंड जी गरुण जी से बोले-s)

आगे श्री रामजी हैं, पीछे लक्ष्मणजी सुशोभित हैं। तपस्वियों के वेष बनाए दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया!॥

(उभय-दोनों) (काछें=काछ वेश धारण करना) (बिराजत=शोभित होते है) (बिच=मध्य,दरमियान,केंद्र)

आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें।।

उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे।।

मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा।।

आगे राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें।।

उमय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी।।

उमय बीच श्री सोहइ कैसी। यही चौपाई अयोध्याकाँड में है भेद केवल इतना ही है कि वहां “सिया सोहित “कहा और यहाँ “श्री सोहइ ” का भाव एक ही है अरण्य कांड में सीता जी दिव्य भूषण पहने है जो अनसुईया जी ने पहनाए है ये ऐश्वर्य प्रधान है जबकि अयोध्याकाँड में माधुर्य प्रधान है! ब्रह्म का अनुसरण माया करती है और जीव माया का अनुसरण करता है यथाः माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी।।s

ब्रह्म माया को नहीं देखता,माया ब्रह्म को देखती रहती है यथाः

सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा।नाच नटी इव सहित समाजा॥s अथवा ब्रह्म जीव में भेद नहीं है माया बीच में आकर भेद बनाय हुए है इसलिए राम जी की उपमा ब्रह्म से,सीता जी की माया से,और लखनलाल की महिमा जीव से की है!

प्रभु श्री रामचन्द्रजी के (जमीन पर अंकित होने वाले दोनों) चरण चिह्नों के बीच-बीच में पैर रखती हुई सीताजी (कहीं भगवान के चरण चिह्नों पर पैर न टिक जाए इस बात से) डरती हुईं मार्ग में चल रही हैं और लक्ष्मणजी (मर्यादा की रक्षा के लिए) सीताजी और श्री रामचन्द्रजी दोनों के चरण चिह्नों को बचाते हुए दाहिने रखकर रास्ता चल रहे हैं॥

(मग=रास्ता,मार्ग)

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता॥

सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ॥

सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा॥

सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला॥

हम यही सोचते हैं कि हम बढ़ रहे हैं – बिल्कुल गलत बात है। सच्ची बात तो यह है कि हम मर रहे हैं। जैसे मरने के बाद शरीर से वियोग हो जाता है – ऐसा हम मानते हैं। ऐसे ही हमारा शरीर से प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। अत: जिस चीज़ से मेरा वियोग हो रहा है, वह चीज़ “मेरे लिए” कैसे हो सकती है ?शरीर की मात्र संसार से एकता है। जिन पाँच तत्वों से यह संसार बना है, उन्हीं पाँच तत्वों से ही यह शरीर बना है,शरीर हमें संसार की सेवा के लिए मिला है, अपने लिए नहीं। शरीर हमें क्या निहाल करेगा ? शरीर हमारे क्या काम आएगा ? (विकल=व्याकुल, परेशान,क्षोभ, भय आदि से युक्त) (अधम=नीच,पापी)(छिति= भूमि,पृथ्वी )(तव=तुम्हारा)

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥

वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान् के चरणों लगी और उसने परम भक्ति का वर माँग लिया॥

प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥

उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥

श्री रघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बंधन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है॥ (भाखा=बात, कथन,भाषा, बोली,बोलचाल) (विमुख=जिसको प्रेम ना हो,जो मन ना लगाय,प्रतिकूल) (कोरी=कोरियो=,बीसो,करोडो,खाली खाली,व्यर्थ)(भाखे=बोलती है,संभाषण करती है)(भय भाखे=बोलते डरती है,भय खाती है)

रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥

जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥

जतन कर कोरी।का भाव कि यज्ञ,ज्ञान तप ,जप आदि करोडो साधन प्रयास से भी भव बंधन नहीं छूट सकता यथाः

बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।

बिनु हरि भजन न तव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥

(बारि=जल) को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है॥(अपेल=अटल)

भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही।।

मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई।।

भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अर्थात जो माया चराचर मात्र को नाचती है वही माया रामजी के सामने मूर्तिवान खड़ी रहती है पहले माया के परिवार को अमित प्रबल कहा ,फिर माया कटक को प्रचंड कहा ,तब उसके सेनापतियो को सुभट कहकर सराहा ,फिर यहाँ स्वयं माया की प्रबलता कही जो माया सब जग ही नचावा ,ऐसी प्रबल माया भी रघुवीर की दासी है और समाज सहित उनको नृत्य दिखती है !ऐसी प्रबल माया को भी उनकी भोहे ताकना पड़ता है तब भगवान के समर्थ का अनुमान कैसे किया जा सकता है इसी से उनको “प्रभु ” कहा है

(विलास=प्रणय क्रीड़ा,हावभाव) (भृकुटि=भौंह,भौं चढ़ाना)

(गाढ़ी=मजबूत,दृढ़) यथाः

जो माया सब जगहि नचावा।जासु चरित लखि काहुँ न पावा।

सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा।नाच नटी इव सहित समाजा।।s

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥s

पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥s

देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥s

छाड़ि चतुराई। का भाव चालकी,छल,कपट ही चतुराई है !स्वार्थ छल है यथाः

सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥s स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी की और कोई सेवा नहीं है।

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥s

कारन कवन नाथ नहिं आयउ।जानिकुटिल किधौं मोहिबिसरायउ॥ कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा॥s

(बड़ी=देर,समय) देखि रूप मुनि बिरति बिसारी अतः बिरति (वैराग्य) की इच्छा ना रह गई वैराग्य को भूल कर बड़ी देर तक देखते रह गए अथार्त मोह को प्राप्त हो गए।रूप ऐसा है की जो देखे मोहित हो जाय श्री जी तक मोहित हो जाय तब नारद कैसे ना मोह को प्राप्त होते ? नारद जी का वैराग्य देखिये माया ने सौ योजन सुन्दर नगर बनाया वह उनको मोहित ना कर सका, रति सामान सुन्दर स्त्री बनाई उनको भी देख कर वो मोहित ना हुए, सेकड़ो इंद्र के सामान वैभव विलास रचा उसको भी देख कर नारद का मन ना डिगा, ऐसा परम वैराग्य था पर विश्वमोहनी का सौन्दर्य ऐसा था कि वे मुग्ध हो गए वैराग्य ना रहा टकटकी लगाय देखते रहने से वैराग्य चला गया। विश्वमोहिनी नाम की एक (ऐसी रूपवती) कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाएँ॥वह सब गुणों की खान भगवान की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। (बिमोह=मतिभ्रम,भ्रम)

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥

बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥s

(भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गए कि वे भगवान की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारद तुरंत वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी। (रिषिराई=ऋषिराज नारद)

माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥

गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥

(शिव जी कहते हैं-) हे उमा! स्वामी श्री राम जी सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं। याज्ञवल्क्य बोले सरस्वतीजी कठपुतली के समान हैं- सरस्वती कठपुतली के समान हैं और अंतर्यामी स्वामी राम (सूत पकड़कर कठपुतली को नचानेवाले) सूत्रधार हैं। (सारद-सरस्वती)(दारुनारि- लकड़ी की नारी,कठपुतली) (दारु-काष्ठ,काठ) (जोषित- खुश,खुशी)

उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥

सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥

राम जी के कार्य के लिए सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं॥

राम भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥

रामजी ने कहा-मेरा वचन मिथ्या नहीं होता(अर्थात् बालि मारा जाएगा और तुम्हें राज्य मिलेगा)काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि-हे गरुड़!नट (मदारी) के बंदर की तरह श्री रामजी सबको नचाते हैं, वेद ऐसा कहते हैं॥

(मृषा-असत्य, झूठा) (खगेस-पक्षियों का राजा गरुड़) (नट-मदारी)

जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई॥

नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥

सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है।जीव को देखा,जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को (माया से) छुड़ा देती है॥ माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्री रामजी फिर बाल रूप हो गए॥(गाढ़ी=मजबूत,दृढ़) (बिसमयवंत=आश्चर्यचकित)

(बहुरि=फिर,पुन,उपरांत)(खरारी=विष्णु,रामचन्द्र,श्रीकृष्ण,बलराम)

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥

देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥

बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥

इस संसार मे जो भी वस्तु दिखती है सब माया के आधीन है और यह मायापति की लीला है किंतु जो संत है ( सर्वोच्च गुण, कर्म, स्वभाव) से परिपूर्ण उनके वाणी, कर्म ,स्वभाव मे ईश्वर का बास होता है यह सब हरि की माया है यह प्राप्ति पूर्व जान के कर्मानुसार प्राप्त होती है और सत्संग से इस पर कुंदन सी चमक आती है!

माया बस सब जगत है, हरि बस मायहिं जानु!

संतन बस श्रीराम हैं, यह महिमा उर आनु!!

हनुमान् ने कहा हे स्वामी! मैंनेपूछा वह मेरा पूछना तो न्यायथा

मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥

तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥

जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥s

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़!

तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥

राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥

हे भगवान् के वाहन गरुड़जी! उसे सावधान होकर सुनिए। एक सीतापति श्री रामजी ही अखंड मानवस्वरूप हैं और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश हैं॥अभिमानी जीव माया के वश है और वह (सत्त्व, रज, तम इन) तीनों गुणों की खान माया ईश्वर के वश में है॥

(अखंड=व्यवधानरहित, निर्विघ्न)(सचराचर=जगत,विश्व,संसार)

ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥

माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी॥

ब्रह्मा,विष्णु महेश की माया बड़ी प्रबल हैकिन्तु वह भी भरतजी कीबुद्धि की ओर ताक नहीं सकती।भरतजी के हृदयमेंसीता-रामजी का निवासहै।जहाँ सूर्यका प्रकाश हैवहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है? (तरनितनया=सूर्य की पुत्री,यमुना)(तिमिर=अंधकार, अँधेरा)

बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥

भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥

सुग्रीव राम जी से बोले

सत्रु मित्र सुख, दुख जग माहीं। मायाकृत परमारथ नाहीं॥

ए सब राम भगति के बाधक। कहहिं संत तव पद अवराधक॥

काकभुशुण्डि  गरुण  से बोले जिसका रघुनाथ जी के चरणों में अत्यंत प्रेम है,उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे गरुण! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥

(नट=बाजीगर) (इंद्रजाल=कपट चरित्र)

काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥

नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले जो माया सारे जगत् को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसी ने नहीं लख पाया, भृकुटी के इशारे पर अपने समाज(परिवार)सहित नटी की तरह नाचती है

(भ्रू बिलास- भौंहों का मोहक संचालन)

जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥

सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा॥

हे पक्षीराज!श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥

हरि माया कृत दोष गुन, बिनु हरि भजन न जाहिं।

भजिअ राम तजि काम सब, अस बिचारि मन माहिं॥

(निअराई= नियराना= पास या समीप आना या पहुँचना,पास जाना)

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी।।

अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई।।

 

 

 

 

 

14 कपट / छल

इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान् और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडंबना (मिट्टी पलीद) न की हो॥

(आगार=धाम,कोठरी,खज़ाना) (बिडंबना=मिट्टी पलीद,अपमान और उपहास का विषय) (सूर=शूरवीर,बहादुर,नेत्र-विहीन व्यक्ति)

ग्यानी तापस सूर कबि, कोबिद गुन आगार।

केहि कै लोभ बिडंबना, कीन्हि न एहिं संसार॥

सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥

(अग्य=अज्ञानी,जिसे ज्ञान या समझ न हो) (सहज=प्राकृतिक, सहज गुण, सहज स्वभाव)

सतीं हृदयँ अनुमान किय ,सबु जानेउ सर्बग्य।

कीन्ह कपटु मैं संभु सन, नारि सहज जड़ अग्य॥

रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥(नेह=स्नेह,प्रीति, प्यार) (सकल चरित=लीलाएँ)

सकल चरित तिन्ह देखे, धरें कपट कपि देह।

प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं, सरनागत पर नेह॥

तुलसीदास कहते हैं,प्रभु राम ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करनेवाले हैं।हे शठ(मन)!तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर॥

(कारन रहित दयाल=बिना ही कारण दया करनेवाले) (जंजाल=प्रपंच, झंझट,बखेड़ा,उलझन)

अस प्रभु दीनबंधु हरि ,कारन रहित दयाल।

तुलसिदास सठ तेहि भजु, छाड़ि कपट जंजाल॥

तुलसीदास जी ने कहा:जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं,जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है,जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं,जो इस समय वर्तमान हैंऔर जो आगे होंगे,उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँआप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, (भनिति=कहावत,लोकोक्ति,कथन,वार्ता,कविता)(सनमानू=सम्मान)

भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें।।

होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू।।

नारद जी ने कहा – असुरों को मदिरा और शिव को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो॥(चारु=सुंदर) (मनि=कौस्तुभ)

असुर सुरा बिष संकरहि, आपु रमा मनि चारु।

स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह, सदा कपट ब्यवहारु॥

नारद जी ने कहा – तुम दूसरों की संपदा नहीं देख सकते, तुममें ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिव को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया।(सुरन्ह=देवताओं)

पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥

मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥

बिभीषन-जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर (उसे पकड़ने को) दौड़े थे और जो चरण कमल साक्षात शिव जी के हृदय रूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूँगा॥(हर= शिव जी)

(सर=बाण,तालाब,सरोवर) (हर=शिव जी)

जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए॥

हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥

राजा उसकी कपट-चतुराई को नहीं लख रहे हैं, क्योंकि वह करोड़ों कुटिलों की शिरोमणि गुरु मंथरा की पढ़ाई हुई है॥यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं, परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र है। फिर वह कपटयुक्त प्रेम बढ़ाकर (ऊपर से प्रेम दिखाकर) नेत्र और मुँह मोड़कर हँसती हुई बोली-॥

(जलनिधि=समुद्र) (बहोरी=दोबारा,पुनः) (लख=लिप्त होना,बुराई में डालना,दोष लगाना) (कोटि=धनुष का सिरा,करोड़ की संख्या)

(अवगाहू=बुरा या अनुचित गुण,दोष,ऐब,खोट,बुराई) (नरनाहू=राजा) (जलनिधि=समुद्र)(बहोरी=दोबारा,पुनः) (लख=(देख व जान) सकते हैं)  (लख=जान ना सकना,समझ ना आना किसी को पड़ ना पाना)

लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥

जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥

कपट सनेहु बढ़ाई बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥

दसरथ जी कैकइ से बोले-तुझे भरत की सौगंध है, छल-कपट छोड़कर सच-सच कह। तू हर्ष के समय विषाद कर रही है, मुझे इसका कारण सुना॥ (परिहरि=परिहार करने वाला,त्यागने वाला,तजने वाला) (बिसमउ=विषाद,दुःख, अवसाद, उदासी,ग़म)

भरत सपथ तोहि सत्य कहु, परिहरि कपट दुराउ।

हरष समय बिसमउ करसि, कारन मोहि सुनाउ॥

हे पक्षीराज गरुड़जी! अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरुजी से द्रोह करता। गुरुजी अत्यंत दयालु थे, उनको थोड़ा सा भी क्रोध नहीं आता। (मेरे द्रोह करने पर भी) वे बार-बार मुझे उत्तम ज्ञान की ही शिक्षा देते थे॥ (स्वल्प- बहुत थोड़ा, बहुत कम, अत्यल्प,बहुत छोटा)(सुबोधा=उत्तम ज्ञान,अच्छी बुद्धि,अच्छी समझ) (मानी= अभिमानी,घमंडी,अर्थ,मतलब)

मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥

अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥

हे पक्षीराज गरुड़जी! हे गोसाईं! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिए। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिए। मैं दुष्ट था, हृदय में कपट और कुटिलता भरी थी, (इसलिए यद्यपि) गुरुजी हित की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी॥ (परिहरिअ=त्यागने वाला; तजने वाला) (उदासीन=विरक्त,तटस्थ)

उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥

मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥

हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥(मारादि= काम आदि =अर्थात् काम, क्रोध और लोभ)

सुनु खगेस कलि कपट हठ, दंभ द्वेष पाषंड।

मान मोह मारादि मद, ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥

(उसी समय) वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल-प्रपंच जानता था।

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥

परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥

वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था। (नृपति=राजा)

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥

जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥

प्रतापभानु :-राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था॥ (सुहृद=शुद्ध हृदय) (पुनि=फिर) (सो=वह)

(सो=सर्वनाम‘जो’ के साथ लगनेवाला संबंध सूचक शब्द,इसलिए ,अतः,विशेषण,समान,भाँति)

तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥

बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥

प्रतापभानु राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला – हे राजन! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत् में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है।(प्रबीना=कुशल)

जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥

सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥

राक्षस वहाँ कपट (से मुनि) का वेष बनाए विराजमान था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था। मारुति ने उसके पास जाकर मस्तक नवाया। वह श्री रामजी के गुणों की कथा कहने लगा॥ (मायापति=ईश्वर,परमेश्वर)

राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा॥

जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा॥

जिसने कपट का झूठा स्वर्ण मृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर रूठा हुआ है, जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण को कड़वे वचन कहलाए, (दुसह=जिसे सहन करना या झेलना कष्टकर हो; जो सहन-शक्ति से बाहर हो; असह्य)

जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥

जेहिं बिधि मोहि दुःख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥

राम जी बोले हे सुग्रीव!जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।

क्योंकि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूँगा॥

जग महुँ सखा निसाचर जेते।से ऐश्वर्यता (ईश्वरता) को दिखाया ईश्वर का पलक बंद करना प्रलय है ,पलक खोलना सृष्टि की स्थिति है लछिमनु हनइ -का भाव कि हमको कुछ भी नहीं करना पड़ेगा ,हम तो लीला करते है निशाचर नाश के लिए ही लछमन का अवतार है।

जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।

तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥s

जौं सभीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।।

जो हजार सिर वाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, (सहस्र=हजार गुना)

सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥s

श्री रामजी बोले-और मद,मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। माता,पिता,भाई,पुत्र,स्त्री,शरीर,धन,घर,मित्र और परिवार॥ (सद्य=तत्काल,झट,शीघ्र) (दारा=स्त्री) (सुह्रद=शिव का एक नाम,मित्र,सखा)

तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।

सभी गुणों का आदर करने वाले और पण्डित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ (दूसरे के किए हुए उपकार को मानने वाले) हैं, कपट चतुराई (धूर्तता) किसी में नहीं है॥ विश्वनाथ शिव के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है। (कृतग्य=अनुगृहीत,शुक्रगुज़ार,आभारी)

सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।

बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥

राम जी बोले- वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेदों के निंदक और जबर्दस्ती पराए धन के स्वामी (लूटने वाले) होते हैं। वे दूसरों से द्रोह तो करते ही हैं, परंतु ब्राह्मण द्रोह विशेषता से करते हैं। उनके हृदय में दम्भ और कपट भरा रहता है, परंतु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण किए रहते हैं॥ (बेदबिदूषक=वेदों के निंदक)

अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी॥

बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा॥

श्री रामजी ने कहा-) हे गंधर्व!मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश हो जाते हैं॥ (भूसुर-पृथ्वी के देवता,ब्राह्मण)

मन क्रम बचन कपट तजि, जो कर भूसुर सेव।

मोहि समेत बिरंचि सिव, बस ताकें सब देव॥

लक्ष्मणजी राम जी से बोले- यदि इनके हृदय में कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हाथियों की कतार (ऐसे समय) किसे सुहाती? परन्तु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे? राजपद पा जाने पर सारा जगत् ही पागल (मतवाला) हो जाता है॥(गजाली=हाथियों की कतार) (जियँ=हृदय में) (बाजि=घोड़ा)

जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥ भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥

राजा जनक ने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,॥वे कपट से ब्राह्मणों का सुंदर वेश बनाए बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनक ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहिचाने भी उन्हें सुंदर आसन दिए।(दिनराऊ=सूर्य)

सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥

बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥

कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥

पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥

जिसका श्री रघुनाथजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥

काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥

नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥

कुंभकर्ण ने कहा-मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर श्री रामजी का भजन करना। हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ॥

बचन कर्म मन कपट तजि, भजेहु राम रनधीर।

जाहु न निज पर सूझ मोहि, भयउँ कालबस बीर॥

सीता हरण के योजना बना कर चले हुए रावण और उसके इस नीच कर्म में सहयोगी मारीच दोनों के लिए यहां गोस्वामी जी “नीच” शब्द का प्रयोग करते हैं। जरा विचार करें अनुपम वंश था पुलस्त्य ऋषि के वंश और रावण उसी वंश में जन्म लिया है।त्रैलोक्य विजयी के उपाधि लगा लिया है,लोकपाल जिसके बंदीगृह में हैं,वह किसी पराई स्त्री के चोरी करने की योजना बनाई है तो इससे बड़ी नीचता क्या होगी?

लीन्ह”नीच” मारीचहि संगा ।भयउ तुरत सो कपट कुरंगा।।

करि छल मूढ़ हरी बैदेही।प्रभु प्रभाव तस बिदित न तेही।।

रण में चढ़ आकर कपट-चतुराई करना और शत्रु पर कृपा करना (दया दिखाना) तो बड़ी भारी कायरता है। दूतों ने लौटकर तुरंत सब बातें कहीं, जिन्हें सुनकर खर-दूषण का हृदय अत्यंत जल उठा॥(कदराई=कायरता, डरपोकपन) (रिपु=शत्रु,दुश्मन)(दहेऊ=दह = ज्वाला, लपट,दाह,अग्नि शिखा)

रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई॥

दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ॥

राम जी सीता जी से बोले-मनुष्यों को खाने वाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। पहाड़ का पानी बहुत ही लगता है। वन की विपत्ति बखानी नहीं जा सकती॥  (निशाचर=राक्षस) (बिपिन=वन) (कोटिक=करोड़ों,असंख्य)

नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥

लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥

देवराज इन्द्र कपट और कुचाल की सीमा है। उसे पराई हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इन्द्र की रीति कौए के समान है। वह छली और मलिन मन है, उसका कहीं किसी पर विश्वास नहीं है॥ (सुरराजू=देवताओं का राजा इंद्र,देवराज) (पाकरिपु=इंद्र) (प्रतीती=किसी बात या विषय के संबंध में होने वाला दृढ़ निश्चय या विश्वास)

कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥

काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥

रानी कैकेयी श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गई और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली-तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, मुझे राजा के दुःख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है॥(आना=सौगंध)

रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥

सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥

पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पापिनी कैकेयी भरत के कानों में और मन में शूल के समान चुभने वाले वचन बोली-॥(बैन=वचन, बोल,रो-रोकर गुणगान करना)

सुनि सुत बचन सनेहमय, कपट नीर भरि नैन।

भरत श्रवन मन सूल सम, पापिनि बोली बैन॥

राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया? (जान पड़ता है,) विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी। स्त्रियों के हृदय की गति (चाल) विधाता भी नहीं जान सके। वह सम्पूर्ण कपट, पाप और अवगुणों की खान है॥

(अघ=पाप) (प्रतीति=ज्ञान,दृढ़ निश्चय, यकीन,हर्ष, प्रसन्नता) (किमि =किस प्रकार?,किस तरह?)

भूपँ प्रतीति तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥ बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥

तुलसीदास जी ने कहा:माया की प्रचंड सेना संसार भर में छाई हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दम्भ, कपट और पाखंड योद्धा हैं॥ (कटक=समूह,सेना)

ब्यापि रहेउ संसार महुँ ,माया कटक प्रचंड।

सेनापति कामादि भट, दंभ कपट पाषंड॥

तुलसीदास-श्री रामजी के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दम्भ और पाखण्ड को जलाने के लिए वैसे ही हैं, जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि॥इन सातो को रामकथा जलाती है यही भर्ग (बुराइयों का ,अंधकार का नाश करने वाली परमात्मा की शक्ति भर्ग कहलाती  है ) तुलसीदास जी से पूछा गया कि  आपने रामायणजी में सात कांड क्यों लिखे ? बालकांड =यह कांड कुपथको जलाता है, अयोध्याकाण्ड =यह कांड कुतर्क को जलाता है,अरण्यकांड =यह कुचली  को जलाता है,किष्किंधा कांड =यह कांड कलि  अथवा झगडे को जलाता है,सुन्दर कांड =यह  कपटको जलाता है,इसलिए भगवान कहते निर्जल मन जन युद्धकाण्ड =यह कांड दम्भ को जलाता है ।उत्तरकाण्ड =यह कांड  पाखंडको जलाता है ।

कुपथ कुतरक कुचालि कलि, कपट दंभ पाषंड।

दहन राम गुन ग्राम जिमि, इंधन अनल प्रचंड।

जिस प्रकार कपट मृग के साथ श्री रामजी दौड़ चले थे, उसी छवि को हृदय में रखकर वे हरिनाम (रामनाम) रटती रहती हैं॥

जेहि बिधि कपट कुरंग सँग, धाइ चले श्रीराम।

सो छबि सीता राखि उर, रटति रहति हरिनाम।।

अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥(तिजारी-तीसरे दिन आने वाला ज्वर, पुत्र, धन और मान इच्छाएँ)(ईषना-प्रबल अभिलाषा,गहरी चाह)

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।

तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

15 नर तन  की  महिम

(भवभीति=जन्म-मरण का भय,संसृति (संसार) का भय,सांसारिक भय)

हाड़ मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।

तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।

वे दुसरों के द्रोही परायी स्त्री और पराये धन तथा पर निंदा में लीन रहते हैं । वे पामर और पापयुक्त मनुष्य शरीर में राक्षस होते हैं। (मनुजाद =नरभक्षक,मनुष्यों को खानेवाला,राक्षस)(दार=स्त्री,पत्नी,भार्या)

(अपवाद=बदनामी,निंदा,लांछन) (पामर=अत्यधिक दुष्ट एवं नीच, अधम,पापी)

पर द्रोही पर दार,पर धन पर अपवाद।

तें नर पाँवर पापमय, देह धरें मनुजाद ॥

तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान|

भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण||

तुलसीदास जी कहते है, इस संसार में सिर्फ पांच ही रतन है – हरि (विष्णु) का भजन (पूजा) करना, संतो से मिलना, दया, दान और उपकार। सदैव अच्छे कर्म करने चाहिए। हम इसीलिए इस दुनिया में आये है। हमने यह नहीं किया तो हमारा जीवन निरर्थक है।

तुलसी यही संसार में, पंचरतन है सार।

हरि भजन,संतमिलन,दया,दान,उपकार ।।

तुलसीदास जी ने कहा – घर के कामकाज और गृहस्थी के भाँति-भाँति के जंजाल ही अत्यंत दुर्गम बड़े-बड़े पहाड़ हैं मोह,मद और मान ही बहुत से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकार के कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं॥जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥मोह रुपी रात्रि में सब सो रहे है जो दौड़ धूप कर रहे है मानो स्वपन देख रहे है! अगर उन्होंने कुछ एकत्र किया भी तो संसार ही को समेट लिया जो स्वपन वत है शंकर जी ने सुन्दर कहा उमा कहहु (सैल=पहाड़) (सुकृत= सत्कार्य,भाग्यशाली व्यक्ति) (ब्रात=समूह,सावज= जंगली जानवर)

गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥

बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।

संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।s

कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥s

हरि हर पदरति मति न कुतरकी।तिन्ह कहुँ मधुर कथारघुवर की।

बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥s

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत् सब सपना॥

तुलसीदासजी कहते हैं राम जी केवल और केवल भक्तो,गाय के लिये ही अवतार लेते है!

राम भगत हित नर तनु धारी । सहि संकट किए साधु सुखारी ।।

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।

राम एक तापस तिय तारी । नाम कोटि खल कुमति सुधारी ।।s

भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।

किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप॥

और बिभीषन ने रावण से स्वयं कहा-(जन=सेवक,सर्वसाधारण लोग,मनुष्य समूह)(रंजन=प्रसन्न करना,मन प्रसन्न करनेवाला) (भंजन=मिटाने वाला, नष्ट करने वाला)(ब्राता=समूह)

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥

जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥

रामचंद्रजी तारा से बोले-॥ ‘भगवान’ शब्द का संधि विच्छेद करने पर हमें सृष्टि के सभी पाँच तत्व प्रप्त होते हैं।‘भ’से भूमि,‘ग’से गगन,‘वा’ से वायु,‘अ’से आकाश और‘न’से नीर। प्रकृति में संतुलन बनाये रखने के लिए इन पाँच तत्वों मेंसंतुलन परम आवश्यक है। जब तक इन पंचतत्वों में संतुलन बना रहता है तब तक यह ब्रह्माण्ड दीर्घ पर्यन्त बना रहता है। जहां इनमें असंतुलन हुआ कि प्रलय हुआ। जल की अधिकता से जल प्रलय और अग्नि की अधिकता से अग्नि प्रलय।संत शिरोमणि गोस्वामी कुवलीगाल दी ने भी शरीर रचना और जगत की सृष्टि में पंचतत्वों के मिश्रण का विशेष उल्लेख किया है। उन्हीं के शब्दों में–पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश और पवन–इन पंचतत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है। शरीर की रचना इसी क्रम में होती है,जैसा क्रम यहाँ लिखा गया है। प्रथम जननी का डिम्बाण्ड पृथ्वी तत्व है,जनक का शुक्राण्ड जल तत्व है।इन दोनों के संयोग से पिण्ड बनना अग्नि तत्व है।पोल होना आकाश तत्व है और प्राण आना वायु तत्व है।यह देह अत्धिक अशुद्ध है।शुक्राणु और डिम्बाण्ड के संयोग होने पर ही किसी भी जजनेन्द्रियों के मध्य देह की उत्पत्ति होती है और तदुपरान्त इस संयुक्त पिण्ड का प्रवेश गर्भाशय में होता है। यह शरीर ऊपर से शुद्ध किये जाने पर भी भीतर की गंदगी के कारण अपवित्र ही माना गया है। (बिकल= व्याकुल,परेशान) (छिति=पृथ्वी गगन=आकाश

समीरा=पवन) (अधम=नीच,पापी,निर्लज्ज) मनुष्य शरीर अपने कर्मो से अधम भी है और उत्तम भी है।जब जीव मानव योनि पाकर इस धरा धाम पर आता है तो उसका जीवन दिव्य एवं शरीर सुरदुर्लभ होता है,परन्तु जब वह धीरे-धीरे काम,क्रोध, लोभ, मोहादि षड्विकारों के वशीभूत होकरके कृत्य करने लगता है तो अधम की श्रेणी में हैं

तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।।

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।

प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।।

उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥

याज्ञवल्क्य ऋषि कहते हैं,हे मुनीश्वर भरद्वाज! राजा-रानी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किए जा रहे हों॥(चलते-चलते) वे गोमती के किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जल में स्नान किया।(मतिधीरा=बुद्धिमान व्यक्ति को धैर्य वान होना चाहिए कभी कभी बुद्धि की अधिकता जीव को अधीर बना देती है!इस समय जब शिक्षा का युग में बुद्धिमान होना सरल है पर धैर्य वान होना उतना ही कठिन होता जा रहा है !अगर बुद्धि के साथ धैर्य जुड़ जाये तो लक्ष्य बिलकुल ही सरल होगा ही या हो जायेगा! सुंदरकांड में हनुमान जी के लिए मति धीरा कहा गया है) भगवान ने स्वयं बिभीषन से शुरू में ही कहा है !सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥(धेनुमति=गोमती)

पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥

कबीर जी कि हमें हर काम एक नियमित गति से ही करना चाहिए। यह ज़रूरी नहीं है कि जल्दबाज़ी करने से कोई काम जल्दी हो ही जाए। हम चाहे कितनी भी जल्दबाज़ी कर लें। सही काम उचित समय आने पर ही सफल या पूरे होते हैं।अतः हमें धैर्यपूर्वक अपने काम करते रहने चाहिए और फलों की चिंता नहीं करनी चाहिए। जब सही समय आएगा, तो आपको आपके अच्छे कामों का फल ज़रूर मिल जाएगा।

धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतू आए फल होय

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले-(अपबर्ग=मोक्ष) सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥के आधार पर भुशुण्डि जी को अपनी देह अतः कौवे को श्रेष्ठ बताना चाहिए!भुशुण्डि जी जैसा महा ज्ञानी जो 27 कल्पो से बैठ कर राम कथा कर रहे है राम जी 27 बार पैदा हुए यथाः कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥भुशुण्डि बता रहे है सब से दुर्लभ कौन सरीरा॥ बड़े भाग मानुष तन पावा क्योकि केवल और केवल इसी शरीर से माला,जप,दान,कथा,परहित,सेवा,4धाम संभव है !मनुष्य शरीर ही बैकुंठ के दरवाज़े की चाबी है मनुष्य शरीर ही एक मात्र साधन है! नर तन सम नहिं कवनिउ देही। के आधार पर भुशुण्डि जी कह रहे है की बाकी सभी योनि भोग योनि है!जो आगे कर कर आये है वही भोग रहे है केवल और केवल नर तन ही कुछ कर सकता है!भगवान भी मनुष्य अवतार ले कर आये पर यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है की भगवान मनुष्य रूप में आये और इंसान भगवान बनने का प्रयास कर रहा है!मनुष्य शरीर क्यों कीमती है?क्योकि शरीर यह एक सीडी है नर्क,स्वर्ग,अपवर्ग की!मनुष्य का शरीर एक जंक्शन है यहाँ से तीन रास्ते जाते है यह मनुष्य को तय करना है कौन सी ट्रैन पकडे (चराचर=जड़ और चेतन,स्थावर और जंगम,संसार,संसार के सभी प्राणी)

तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।

नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले= जो नर तन से भजन नहीं करते वे मद है और जो विषय रत होते है!वे तो मंदतर (महा मद)है !जैसे कांच का फूटा टुकड़ा किसी काम का नहीं होता दूसरा हाथ में गढ़ने की चीज़ है,पर उसकी झूठी चमक देख कर उसे लोग उठा लेते है! और स्पर्श मात्र से लोहे को सोना कर देने वाली मणि को फेक देते है!

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।

काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं।।

रामचंद्रजी बोले-॥! मनुष्य को जो देह से प्यार है उसमे कोई सा भी ऐसा आइटम नहीं है जो रखा जा सके आत्मा निकलने के बाद दो दिन में शरीर सड़ जाता है इस देह की तीन ही परिणाम है या तो जलना,दफ़न,या पानी में बहाना चाहे कोई भी हो इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता हमसे तो अच्छे पशु है जो खाते है भूसा और देते है गोबर जो घर लीपने के काम और पूजा के पहले गोबर की जरूरत पड़ती है! फिर भी भगवान ने स्वयं कहा है बड़े भाग मनुष्य तन पावा! क्योकि-साधन धाम मोच्छ कर द्वारा

बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।

शेष सभी शरीर भोग साधन के ही है दिव्य तन वाले देवता भी भोगी ही होते है !तो हीन शरीर वालो की कौन बात ?हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पड़े हैं। जो सब में रमा हुआ है वो राम है जो सबके चित्त को  आकर्षित करता वह है कृष्ण और जो सबकी उपासना आराधना का केंद्र है वो है राधा!हितेषियों में सबसे पहला कोई हितेषी है तो  वह है गुरु! गुरु देव वह है जो सब में रमा है सभी के चित्त को आकर्षित करता है और सभी की आराधना का केंद्र है वही उपास्य देव बनकर अपने में रमाने के लिए वही है गुरुदेव! यथाः

उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं।।

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।

हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी।।

पर राम जी

कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥

गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥

रामचंद्रजी बोले-॥हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है (इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या) स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं॥

एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥

नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥

रामचंद्रजी बोले-॥ बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में हुआ) यह सदा भटकता रहता है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं,॥ (ईस=ईश्वर,प्रभु,शिव)

आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥

फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥

कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥

करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥

काकभुशुण्डि ने गरुड़ कहा =पहले मोह ने मुझे बहुत नष्ट किया,में राम से विमुख रहते हुए कभी भी सुख से नहीं सोया!अनेक जन्म ले लेकर फिर उसमे अनेक प्रकार के योग,जप,तप,यज्ञ,दान ,आदि अनेक कर्म किये हे पछीराज ऐसी कौन सी योनि है जिसमे मेने फिर फिर कर बार बार मेने जगत में जन्म ना लिया हो !अर्थात बार बार चौरासी को भोगा है !मोह बिगोवा =मोह ने बुद्धि को भ्रमित करके नष्ट कर दिया राम विमुख होना बिगोना अर्थात नष्ट होना है!(बिगोवा=बिगाड़ना,नष्ट करना)

प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा।।

मोहसकल ब्याधिन्ह कर मूला।तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥s

कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥

नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना।।

देखेउँ करि सब करम गोसाई। सुखी न भयउँ अबहिं की नाई।।

सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी।।

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले= जब से जड़ चेतन गांठ पड़ गई है तब से जीव संसारी हो गया,ना गांठ छूटे और ना ही वह सुखी हो !”तब ते “का भाव संसार चक्र अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है ,जीव का भी माया से अनादि काल से ही सबंध है !यथाः बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी॥कौसल्याजी ने कहा-ईश्वर की आज्ञा सभी के सिर पर है। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और लय (संहार) तथा अमृत और विष के भी सिर पर है (ये सब भी उसी के अधीन हैं)।

तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।

देवि! मोहवश सोच करना व्यर्थ है। विधाता का प्रपंच ऐसा ही अचल और अनादि है॥(बादी=व्यर्थ)

देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी॥s

श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले-जीव के हृदय में मोह रुपी अंधकार विशेष रूप से छा रहा है, इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है) उपस्थित कर देते हैं तब भी कदाचित् ही वह (ग्रंथि) छूट पाती है।   (किमि=कैसे,किस प्रकार,किस तरह,महान, रहस्य) (कदाचित=कभी, शायद,अगर, यदि) (तम=अँधेरा,अंधकार,कालिख,कालिमा)(निरुअरई=छूटना,सुलझना)

जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥

अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई॥

कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।s

“तम मोह”यथाः

मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥

मोह अविवेक को कहते है!यही देह अभिमान है जब ईश्वर ऐसा संयोग कर दे(जैसा आगे कहते है)तब भी कदाचित ही वह छूट जाये तो छूट जाये अतः छूटने में भी संदेह है !

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले जो श्री रामजी के विमुख है वह यदि ब्रह्माजी के समान शरीर पा जाए तो भी कवि और पंडित उसकी प्रशंसा नहीं करते। जीव के लिए सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से श्री राम जी के चरणों में प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुंदर है जिस शरीर को पाकर श्री रघुवीर का भजन किया जाए॥(बिधि=ब्रह्माजी) (प्रसंसहिं=प्रशंसा) (कोबिद=पंडित,विद्वान,ज्ञानवान,प्रबुद्ध)

स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा।।

सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा।।

सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।

राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही।।

राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी।।

मेरा मरण अपनी इच्छा पर है,परंतु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता,क्योंकि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं होता। पहले मोह ने मेरी बड़ी दुर्दशा की। श्री रामजी के विमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं सोया॥

तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना।।

क्योकि वेद कहते है सरीर के ना रहने से भजन नहीं हो सकता सगुण स्वरूप की उपासना करने वाले जो भक्त प्रभु से मोक्ष भी नहीं लेते तो प्रभु उनको अंत में अपनी भक्ति दे देते हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि भक्ति का स्थान मोक्ष से भी बहुत ऊँचा है ।यथाः

सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं।।s

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले

एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई।।

जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई।।

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।s

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले जीव परतंत्र है, भगवान स्वतंत्र हैं, जीव अनेक हैं, श्री पति भगवान एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान के भजन बिना करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं जा सकता॥ अभिमानी जीव माया के वश है और वह (सत्त्व,रज,तम इन) तीनों गुणों की खान माया ईश्वर के वश में है॥ (परबस=परतंत्र) (मुधा=व्यर्थ,असत्य, मिथ्या) (श्रीकंता=लक्ष्मी के पति,विष्णु, कमलापति) (मुधा=असत्य, मिथ्या,व्यर्थ)

माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी।।

परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।

मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।

सुग्रीव ने अंगद, नल, हनुमान् से कहा

देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई।।

सोइ गुनग्य सोई बड़भागी । जो रघुबीर चरन अनुरागी।।

विभीषण रावण से बोले-मेरे भाई राम कोई पृथ्वी के राजा भर नहीं हैं वो समस्त कालों के भी काल हैं और वो ही ब्रम्ह स्वरुप अजेय और अनंत हैं

(भूपाला=पृथ्वी के राजा) (भुवनेस्वर=भगवान का वास) (अज=अजन्मा,ईश्वर,जीवात्मा) (अजित=जिसे कोई जीत न सका हो) (अनामय=रोग रहित,स्वस्थ)

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥

ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥

विभीषणजी रावण से बोले- उन कृपा के समुद्र भगवान् ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥

(रंजन=प्रसन्न करना) (भंजन=भंग करना,भंजक) (पल=मांस) (अहेरि=शिकारी) (असि=ऐसी)(ब्रात=समूह)(सावज=जंगली जानवर)

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥

जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥

जाम्बवान् ने श्री हनुमानजी से कहा- तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो॥ (पाहि=रक्षा करो,बचाओ) (पाहीं=पास,निकट)

पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।

(परम सुजाना= का भाव है कि राजा कर्म की गति को जानते है कि कर्म के फल की इच्छा करने से कर्म बंधन होता है इसी को निष्काम कर्म करते  है विवेकी है अर्थात असत कर्म नहीं करते समीचीन कर्म करते है राजा को ज्ञानी कहने का भाव है की ज्ञान में ही विघन होता  है राजा को आगे विघ्न होगा उसे राक्षस होना पड़ेगा (समीचीन=यथार्थ, ठीक,उचित, वाजिब) (अनुसंधान=पीछे लगना,चाह,खोज का प्रयास)( अर्पित= आदर पूर्वक अर्पण,या भेट किया हुआ)

हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥

करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा।।S

बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ।।S

सकल पदारथ एही जग माही, कर्महीन नर पावत नाही

करम प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ।

देवगुरु बृहस्पतिजी ने इंद्र से कहा- यद्यपि राम सम हैं- उनमें न राग है, न रोष है और न वे किसी का पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं।

कहा जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥

करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥

राम झरोखे बैठ के,सब का मुजरा लेत ।

जैसी जाकी चाकरी,वैसा वाको देत ॥

रामचंद्रजी बोले-॥ तुम अंगद सहित राज्य करो। मेरे काम सीता भक्ति का हृदय में सदा ध्यान रखना। (संतत=निरंतर,बराबर, लगातार) (नृपनीति=राजनीति,राजधर्म)

पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई। बहु प्रकार नृपनीति सिखाई॥

अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदयँ धरेहु मम काजू॥

तुलसीदासजी कहते हैं-देने वाले स्रोत-नदी,समुद्र,कुएँ आदि समर्थ भी हैं देने वाला चाहे जितना समर्थ और उदार हो तथा लेने वाला चाहे जितना लालायित हो, लेन-देन तो पात्रता के अनुरूप ही हो पाता है।

करम कमंडल कर गहे, तुलसी जस जग माही

सरिता सुरसरि कूप जल, बूँद न अधिक समाही

 

तुलसी यह तनु खेत है, मन वच कर्म किसान,

पाप -पुण्य द्वै बीज हैं, बवै सो लवै निदान

रामायण का यह दृश्य है कि गीधराज जटायु भगवान की गोद रूपी शय्या पर लेटे हैं, भगवान रो रहे हैं और जटायु हँस रहे हैं । वहाँ महाभारत में भीष्म पितामह रो रहे हैं और भगवान कृष्ण हँस रहे हैं और रामायण में जटायु जी हँस रहे हैं और भगवान राम रो रहे हैं बोलो, भिन्नता प्रतीत हो रही है कि नहीं?अंत समय में जटायु को भगवान श्री राम की गोद की शय्या मिली; लेकिन भीषण पितामह को मरते समय बाण की शय्या मिली।जटायु अपने कर्म के बल पर अंत समय में भगवान की गोद रूपी शय्या में प्राण त्याग रहा है, राम जी की शरण में, राम जी की गोद में और बाणों पर लेटे लेटे भीष्म पितामह रो रहे हैं ।ऐसा अंतर क्यों?

रामचंद्रजी बोले-॥ जटायू जी ने कहा

राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥

जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥

जटायू जी ने कहा /रामचंद्रजी बोले-॥

सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें।।

जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई।।

श्री रामचंद्रजी ने जटायू जी से कहा-

परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।।

तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा।।

दसरथ जी राम जी से बोले शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है, जो कर्म करता है, वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥(अनुहारी=अनुकरण करने वाला,नकल करने वाला,अनुसार)

सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥

करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥

(किन्तु इस अवसर पर तो इसके विपरीत हो रहा है,) अपराध तो कोई और ही करे और उसके फल का भोग कोई और ही पावे। भगवान की लीला बड़ी ही विचित्र है, उसे जानने योग्य जगत में कौन है?॥

औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।

अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥

सुमन्त्र जी दसरथ जी से बोले

जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥

काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥

सुमन्त्र जी दसरथ जी से बोले-मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए॥ (बिलखाहीं=रोते)

सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥

धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥

कौसल्याजी ने –सुमित्राजी से कहा

कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू।।

कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता।।

कौसिल्या जी ने राम जी से कहा- आज सबके पुण्यों का फल पूरा हो गया। कठिन काल हमारे विपरीत हो गया। (इस प्रकार) बहुत विलाप करके और अपने को परम अभागिनी जानकर माता श्री रामचन्द्रजी के चरणों में लिपट गईं॥ (सुकृत=सत्कार्य,भाग्यशाली व्यक्ति) (कराल-=डरावना,भयानक)

सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता॥

बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥

लक्ष्मण जी निषाद राज से बोले(निषाद राज  अचरज से बोले क्या राम जी के कर्म खराब इस लिए जमीन पर सो रहे है लक्ष्मण जी बोले नहीं ये संसार के लिए सन्देश है

बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥

लक्ष्मण जी निषाद राज से बोले संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन- ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल हैं,॥(अनहित=अशुभ,अहितकारी,शत्रु)(हित=मित्र)(मध्यम=उदासीन) (जहँ=जगत)

जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥

जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥

जयंत ने राम जी से कहा दंड भी मिला- अपने कर्म से उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया। अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण तक कर आया हूँ। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! कृपालु श्री रघुनाथजी ने उसकी अत्यंत आर्त्त (दुःख भरी) वाणी सुनकर उसे एक आँख का काना करके छोड़ दिया॥भगवान  कर्म बंधन से मुक्त है पर मात्र जीव को उत्तम शिक्षा देने के लिए भगवान भी कर्म बंधन को स्वीकार करता है !जब बंसी वाला महाभारत को नहीं रोक सका तो हम और आप कौन है जब बिना कर्म के फल मिल जाता तो बंशी वाला क्यों महाभारत का युद्ध होने देता!बैंक वाला लॉकर की एक चाभी रखता है!जब दोनों चाबी लगती है तभी लॉकर खुलता है भाग्य वाली चाबी हरि के हाथ तथा कर्म वाली चाबी आपके हाथ है जब दोनों लगेगी तभी कुछ संभव होगा! साधारणतय यदि क्रोधी समर्थ है तो दया या छमा प्रायः नहीं होती यहाँ श्रीराम जी समर्थ है!रघुकुल में श्रेस्ट वीर भी है तो भी जयंत पर इतना कोप होने पर दयालु हुए !दूसरा भाव जयंत प्रसंग द्वारा प्रभु ने अपना बल और प्रताप सब को जना दिया कि सीता जी का अपराध करने वाला किसी भी सूरत में बचेगा नहीं अतः रावण इसी कांड में यह अपराध करेगा और मारा जायेगा इस में कोई संसय नहीं सुर नर मुनि को इसी चरित से ढारस होता है!और मंदोदरी आदि को भय ! एकनयन करि तजा भवानी॥अतः भगवान ने न्याय और दया दोनों की मर्यादा राखी इसमें बाण की अमोघता भी रही और शिक्षा भी हुई!बाल्मीक और अध्यात्म रामायण के अनुसार प्रभु ने उससे कहा कि मेरा बाण तो अमोघ है अतः तू एक आँख देकर यहाँ से चला जा! अन्य भाव जब काग के एक नेत्र होता है तो तेरे दो क्यों?दूसरा भाव हम दोनों को एक ही जाने और देखे तीसरा भाव जो राजा अपनी स्त्री के अपराधी को बिना दंड के छोड़ देवे तो वह अपनी प्रजा की सुरक्छा कैसे करेगा ! अन्य भाव जब राम जी बाण चढ़ाते है तो कुछ ना कुछ देना पड़ता है!परशराम राम ने अपने तप से प्राप्त पुण्य दिए,समुद्र निग्रह के समय जब बाण चढ़ाया तब समुद्र पर कृपा करके उसके बताये हुए उतरतट वासी  खलो पर उसको चलाया!

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥

लक्ष्मण जी निषादराज से-

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

तुलसीदास जी-

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहि सो तस फल चाखा॥

सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥

उमा की इतनी आस्था ज्ञान और ज्ञानी पर देख कर शिव जी हसे और कहते हैं ज्ञान और मोह के दोनों के प्रेरक रघुनाथ जी है इसमें जीव का कोई चारा नहीं है

बोले बिहसि महेस तब, ग्यानी मूढ़ न कोइ।

जेहि जस रघुपति करहिं जब, सो तस तेहि छन होइ।।

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥

(कौतुक=(लीला की इच्छा) ही हरि  इच्छा है)

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।

भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। इति हनुमंत

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥S

देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥S

इति विभीषण-

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।

सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥S

इति राम जी-

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।

संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥S

राजा के लिए भूमि मुख्य है सदा राज्य बढ़ाने की इच्छा रहती है इसी से प्रथम भूमि को कहा है सर्बस देउँ आजु इति- आजु का भाव है की सर्बस दान देने की सब दिन श्रद्धा नहीं रहती सदा उत्साह एक रस नहीं बना रहता आज उत्साह है कि आप ऐसे महामुनि याचक बन कर आए है हमारा भाग्य क्या इस से बढ़कर हो सकता है ?इस परमानन्द में सब कुछ दे सकता हूँ

(सहरोसा=सहर्ष,हर्ष पूर्वक)

मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥

देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।S

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी।।S

सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥S

 

लक्ष्मण जी ने निषाद से कहा वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं॥

भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुर हित लागि कृपाल।

करत चरित धरि मनुज तनु, सुनत मिटहिं जग जाल॥

कबीर देह धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है. अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है!

देह धरे का दंड है, सब काहू को होय ।

ज्ञानी भुगते ज्ञान से, अज्ञानी भुगते रोय॥

 

देह को में मनना सबसे बड़ा यह पाप।

सब पाप इसके पुत्र है,ये पाप का भी बाप है॥

 

 

 

 

 

 

 

 

16 गुरु संत  की महिमा

(भक्तमाल अंक से)नाभा जी।भगवद्भक्त,भगवद्भक्ति,भगवान् और गुरु-कहने को तो ये चार है,किन्तु वास्तव में इनका स्वरूप एक ही है।इनके चरणों में नमस्कार करने से समस्त विध्नों का नाश हो जाता है। 2- जैसे गाय के थन देखने में चार है, लेकिन चारो के अन्दर एक ही समान दूध भरा रहता है, वैसे ही भक्त, भक्ति, भगवान् और गुरु ये चारों अलग अलग दिखायी देने पर भी सर्वदा सर्वथा अभिन्न है।चारो में से एक से प्रेम हो जाने पर तीनों स्वत: प्राप्त हो जाते है।3-जैसे माला में चार वस्तुएँ मुख्य होती है-मणियाँ, सूत्र, सुमेरू और गुच्छा वैसे ही भक्त जन मणि है, भक्ति है सूत्र (धागा) और जो सुमेरू होता है वे गुरुदेव और सुमेरू जो गाँठरूपी गुच्छा है वे है भगवान

जैसे माला में चार वस्तुएँ मुख्य होती है-

ये चारों नाम और स्वरूपसे चार-चार दिखते हैं अर्थात् इनके पृथक्-पृथक् चार नाम हैं और पृथक्-पृथक् चार शरीर भी हैं। परन्तु वस्तुतः ये एक ही हैं, अर्थात् एक-दूसरेसे अभिन्न हैं, और एक परमेश्वर ही चार रूपोंमें हमें दिख रहे हैं। इनके श्रीचरणोंका वन्दन करनेसे अनेक विघ्न नष्ट हो जाते हैं। इसलिये मैं नारायणदास नाभा इन चारोंके श्रीचरणकमलोंका वन्दन कर रहा हूँ।(बपु=रूप,अवतार,देह,शरीर)

भक्त भक्ति भगवंत गुरु, चतुर नाम बपु एक।

इनके पद बंदन किएँ, नासत विध्न अनेक ।।

विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥ (सूत्र)विषय-विकाररुपी वारि का त्याग कर ईश्वरीय गुन रुपी दूध ही जिसका जीवन हो गया हो,वे संत हंस कहलाते है!जैसे मछली को जल से बाहर निकाल कर रखे तो क्या वो जीवित रहेगी? इसी प्रकार हंस वे संत है जो ईस्वरीय गुन के विपरीत जीवत नहीं रह सकते! इस ऊंचाई पर साधना के पहुंचने पर आनंद ही आनंद है मस्ती ही मस्ती है!

(पय=दूध)(परिहरि=त्यागकर) (विकार=दोष) (करतार=सृजन करनेवाला,सृष्टिकर्ता,परमेश्वर) (बारि=जल)

जड़ चेतन गुन दोषमय, बिस्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार॥

(बनराय=वनराज,जंगल) (मसि=स्याही)

सब धरती कागज करूँ, लिखनी (लेखनी ) सब बनराय।

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥

चकोर चंद्रकिरणों पीकर जीवित रहता है। इसीलिये इसे “चंद्रिकाजीवन’ और “चंद्रिकापायी’ भी कहते हैं। प्रवाद है कि वह चंद्रमा का एकांत प्रेमी है और रात भर उसी को एकटक देखा करता है। अँधेरी रातों में चद्रमा और उसकी किरणों के अभाव में वह अंगारों को चंद्रकिरण समझकर चुगता है। चंद्रमा के प्रति उसकी इस प्रसिद्ध मान्यता के आधार पर कवियों द्वारा प्राचीन काल से, अनन्य प्रेम और निष्ठा के उदाहरण स्वरूप चकोर संबंधी उक्तियाँ बराबर की गई हैं। गुरु मूरति गति चंद्रमा – गुरु की मूर्ति जैसे चन्द्रमा, और सेवक नैन चकोर – शिष्य के नेत्र जैसे चकोर पक्षी।चकोर पक्षी चन्द्रमा को निरंतर निहारता रहता है, वैसे ही हमें,गुरु मूरति की ओर – गुरु ध्यान में और गुरु भक्ति में,आठ पहर निरखत रहे – आठो पहर रत रहना चाहिए।निरखत, निरखना – अर्थात ध्यान से देखना

गुरु मूर्ति मुख चंद्रमा, सेवक नैन चकोर

अष्ट पहर निरख़त रहूँ, मैं गुरु चरनन की ओर।

जो मनुष्य, गुरु की आज्ञा नहीं मानता है, और गलत मार्ग पर चलता है,

वह, लोक और वेद दोनों से ही, पतित हो जाता है , वेद अर्थात धर्म दुःख और कष्टों से, घिरा रहता है।

गुरु आज्ञा मानै नहीं,चलै अटपटी चाल।

लोक वेद दोनों गए,आए सिर पर काल॥

जो व्यक्ति सतगुरु की शरण छोड़कर और उनके बताये मार्ग पर न चलकर,अन्य बातो में विश्वास करता है,उसे जीवन में दुखो का सामना करना पड़ता है और उसे नरक में भी जगह नहीं मिलती।

गुरु शरणगति छाडि के,करै भरोसा और।

सुख संपती को कह चली,नहीं नरक में ठौर॥

कबीर ते नर अन्ध हैं,गुरु को कहते और।

हरि के रुठे ठौर है,गुरु रुठे नहिं ठौर॥

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।

कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।

रामभक्ति का वर्णन करते हुए रहीम कहते हैं कि- गजराज मार्ग की धूल को सूंड से अपने माथे पर मलता हुआ क्यों चलता है? शायद वह भगवान श्री राम की उस पवित्र- पावन चरण -रज को ढूंढता चलता है, जिसके स्पर्श मात्र से गौतम मुनि की पत्नी अहल्या का उद्धार हो गया था । वह धूल कहीं मिल जाये तो उसका भी कल्याण हो जाये –

धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज ।

जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सों ढूंढत गजराज ।।

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥

गुरु जी के चरण कमल के राज से अपने मन रूपी दर्पण को स्वच्छ करने में रघुवर का विमल यस का वर्णन करता हूं जो चारो पदर्थ(अर्थ,धर्म,कम,मोछ)फलो को देने वाला है रघुबर शब्द चारो भाइयो का वाचक भी है

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार |

बरनौ रघुवर बिमल जसु, जो दायक फल चारि |

मैं उन गुरु महाराज के चरण कमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥(कंज=कमल)

(महामोह =भारी मोह) (मोह=अज्ञान)(तम=अंधकार) (पुंज=समूह) (रवि=सूर्य)(कर=किरण)(निकर=समूह) नर रूप में हरि ही है

बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥

स्वयं परम ब्रह्म श्रीराम जी को देख लीजिए कि जिनके चरण कमलों की प्राप्ति हेतु बड़े बड़े योगी वैरागी विविध प्रकार के जप, योग आदि करते हैं वही प्रभु गुरु पद कमलों पर लोट पोट हो रहे हैं

वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं। (सरोरूह=कमल) (लागी=कारण,हेतु,निमित्त,लिए)

जिन्ह के चरन सरोरूह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।गुरु पद कमल पलोटत प्रीते।।

वही भगवान ने स्वयं कहा-

करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥

वही कार्य हनुमान जैसे दास या संत की कृपा से संभव है!

दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

तुलसीदास जी ने कहा-(पराग से सुरमा) में श्री गुरु चरन कमल के पराग की वंदना करता हूँ जिस (पराग)में सुन्दर रूचि,उत्तम (सुगंध)और श्रेष्ठ अनुराग है(अमिय मूरि=अमर मूर,अमृतवटी, संजीवनी बूटी) (भव रुज= भवरोग=बार बार जन्म मरण ,आवागमन होना) (परिवारू=कुटुम्ब) (भव रुज परिवार= काम ,क्रोध,मोह,मद,मान,ममता,मत्सर,दम्भ,कपट,तृष्णा,राग,द्वेष ,अत्यादि जो मानस रोग है जिनका वर्णन उत्तरकाण्ड दोहा 121 में है वे ही भव रोग के कुटुम्बी है। (श्री गुरुपदरज) अमियामूरमय सुन्दर चूर्ण है जो भव रोगो के समस्त परिवार का नाश करने वाला है। अमृत मृतक को जीवित करता है पर रज असाध्य भव रोगो का नाश कर जीव को सुखी करता है अमृत देवताओ के आधीन है और गुरुपदरज सबको सुलभ है (अमिय मूरि=अमृत मय बूटी) (अमिय =अमृत)(सुबास=सुगन्धित) (रुज=रोग) (सरस=स+रस= रस सहित) (पदुम=कमल)

 

बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।

अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।

तुलसीदास जी ने कहा( रज से मन रुपी दर्पण)

महाराज दशरथ की गुरुपद-प्रीति प्रश्न यह है अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति सांसारिक उपायों का आश्रय ले, जैसा कि अधिकांश व्यक्ति लेते हैं या अपूर्णता की अनुभूति होने पर गुरु का आश्रय लें। महाराज श्री दशरथ इस स्थिति में आ गए हैं कि जिसमें उन्होंने अभाव की पूर्ति के लिए गुरुजी का आश्रय लिया साधक अगर गुरु के पास सांसारिक कामनाओं को लेकर जाय और गुरु केवल उसकी उन कामनाओं को ही पूर्ण कर दे तो यह गुरु का गुरुत्व नहीं है। अपितु गुरु का गुरुत्व यही है कि वह सांसारिक कामनाओं की पूर्ति करके साधक के अन्तःकरण में ईश्वर के प्रति अनुराग उत्पन्न कर दे।

जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।

मोहि सम यह अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।

जिनका मन रूपी दर्पण मैला है, उस पर धूल जम गई है,काई है और उपर से देखने वाला नेत्रहीन है तो वो बेचारा दीन  श्रीराम जी के रूप कैसे देख सकता है?

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना।राम रूप देखहिं किमि दीना।।s

तुलसीदास जी ने कहा गुरुपदरज सुकृति रुपी शम्भू के शरीर की निर्मल बिभूति है जो सुन्दर मंगल आनंद की जननी माने आंनद उत्पन्न करती है (गुरु शम्भु है,गुरु का तन=शम्भु का तन है) (जन=दास) (मंजु=सुन्दर) (मल=मैल,विकार) (मोद=हर्ष,आनंद, प्रसन्नता) (सुकृति=पुन्नय) (बिभूती=राख)(मंजुल=सुन्दर) (मंजु=विशेषण=सुंदर, मनोहर) (प्रसूती=उत्पन्न करने वाली) (मुकुर=दर्पण)

गुरुदेव की चरण धूलि पुण्यात्मा भगवान् शिवजी की देह पर लगी हुई पवित्र चिता भस्म के समान है ,जो सुन्दर(सुगंधित) और कल्याण तथा आनंद प्रदान करनेवाली है ।

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।

तुलसीदास जी ने कहा- श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ,जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं,जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं,जो सीतापति रामचन्द्जी के सेवक,स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥

१.शिव जी भगवान श्री राम के नित्य सेवक हैं अतः प्रथम सम्बन्ध सेवक के रूप में गिना गया है |

२.प्रभु राम इतने दयालु हैं कि वो अपने सेवक को भी बहुत मान देते हैं इस कारण उन्होंने रामेश्वरम में शिव जी की पूजा भी की | तब शिव जी प्रभु के स्वामी हो गए|भक्त और भगवान का अनोखा सम्बन्ध है|भगवान अपने भक्त को अपना स्वामी बना लेते हैं |

३.श्री राम और शिव जी के बीच में सखा सम्बन्ध भी है | (निरुपधि=कपटरहित,जिसमें किसी प्रकार की उपाधि न हो, धीर, शांत,जिसमें बंधन,बाधा या विघ्न न हो,मोह,माया आदि से रहित।) (दिन=नित्य-प्रति,हर रोज़,सदा,निरंतर)

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी।।

सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके।।

दीनबंधु ,सदा देने वाले ,महेश और भवानी गुरु ,माता और पिता है वे शंकर सीतापति अर्थात राम जी के सेवक ,रामजी के स्वामी तथा सखा है और तुलसी के सच्चे निष्छल हितकारी है वेदो की आज्ञा है मातृ देव भावो ,आचार्य देवो भावो ,ग्रंथकार कहता है मेरे माता पिता शंकर और भवानी है शंकर तो त्रिभुबन के गुरु है यथाः

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी।।s

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना।।s

जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥s

(सिंगारु=श्रृंगार)

सीता पति के सेवक, स्वामी ,और सखा है महात्माओ से सुना है जब लिंगस्थापना किया तो रामेश्वर नाम रखा मुनियों ने राम जी से पूछाकि “रामेश्वर “नाम का क्या अर्थ होगा ? राम जी ने कहा राम के ईस्वर रामेश्वर है ये हनुमान रूप से सेवक,रामेश्वर रूप से स्वामी ,और समर सागर में जहाज होने से सखा है (समर=युद्ध,लड़ाई)(बेरे=जहाज) यथाः

ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे।।s

संत तुलसीदास ने कहा हैश्रीराम ने लीला इसलिए कि हम किसी भी कार्य को शुरू करने से पूर्व बड़ों का आर्शीर्वाद प्राप्त करें।

प्रात काल उठि कै रघुनाथा । मात पिता गुरु नावइँ माथा

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई। जौ बिरंचि संकर सम होई।।

ईस्वर में अज्ञान तीनो काल में नहीं है उनका अखंड एक रस ज्ञान सर्व काल में है उनका स्वास भी सचिदानंद स्वरुप है जो चारो वेदो के रूप में है!ईस्वर अज्ञानी बन कर पड़ता है!यह कैसा ?उसी पर कहते है यह”भारी कौतुक”है बड़ा भारी नरनाटय है “भारी”से जनाया की उनकी सभी लीलाये”कौतुक”की है पर अखंड ज्ञान होते हुए अज्ञानी बनना यह सबसे”भारी कौतुक”है! अगर विद्या पाकर विनम्रता नहीं आई तो विद्या व्यर्थ है!

गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥

बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला।

राजा ने विचार किया हमारी आयु बीती जा रही है,वन में जाकर भजन करने का समय हो गया है !राज्य किसको देवे?अगर ऐसे ही चल देते है तो प्रजा दुखी होगी जिससे हमें नरक में पड़ना होगा !

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥

गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।s

(त्रिभुवन= तीन लोक- पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल , प्रकृति, सृष्टि) (बिदित =विशेषण.प्रसिद्ध और लोकप्रिय)

निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥

धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥

महाराज दशरथ:- गुरुजी को प्रणाम और पूजन करके, फिर हाथ जोड़कर मानो अमृत में डुबोई हुई वाणी बोले- हे मुनिराज! सुनिए, आपकी कृपा से आज मैं पूर्णकाम हो गया॥

करि प्रनामु पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥

तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥

दशरथ ने गाधि पुत्र विश्वामित्रजी की बहुत तरह से पूजा की और कहा- हे नाथ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है। (बहोरी=दोबारा,पुनः)

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥

पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥

वशिष्ठजी गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों से छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती॥ (महि=संसार,पृथ्वी,सीता,जानकी) (कहुँ=क्रिया विशेषण =किसी जगह,कहीं,के लिए)

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥

जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥

वशिष्ठजी गुरु बोले-तुम्हारे समान पुण्यात्मा जगत में न कोई हुआ, न है और न होने का ही है। हे राजन्! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके राम सरीखे पुत्र हैं॥(पहिं=पास,निकट) (सरिस=समान, तुल्य) (सुकृती=धर्मात्मा,या पुण्यवान व्यक्ति)

तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥

सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥

क्योकि हे राजन

तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥s

जनकजी विश्वामित्रजी – राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया।फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए। (मुदित=प्रसन्न,प्रफुल्लित,हर्षित,ख़ुश) (मुनिनाथा=मुनियों के स्वामी) (बिप्रबृंद=ब्राह्मणमंडली) (राउ=राजा,नरेश)

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥

बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥

गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।।s

राम जी स्वयं बोले- निर्मल(पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम-ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥(त्रोन=तरकस) (अचल=स्थिर) (सिलीमुख=भँवरा, भ्रमर,बाण,तीर,लड़ाई,युद्ध,संग्राम)

(अमल=निर्मल,मलरहित,निष्पाप,पुल्लिंग ,स्वच्छता)

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥

शिवजी ने कहा-(सूत्र)नाथ अपने अधीन कर चाहे जैसा करे

(सूत्र) संकर जी ने मेरा ही धर्म नहीं कहा बल्कि हमारा हम सब का धर्म कहा इसमें सभी भक्त आते है/ समुद्र ने कहा तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात् आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता)  ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ॥

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥

प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥s

शिवजी ने कहा-

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥

उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥s

गिरिजाजी सीताजी से बोलीं-सादर इति देवताओ के प्रसाद का आदर करना चाहिए इसी से सादर पद दिया गया (प्रसाद को हाथो से लेकर शिरोधार्य करना ही सादर धारण करना है प्रशाद शिरोधार्य करके ही लिया जाता है) (पूजिहि=पूर्ण होगी) (सुचि=शुचि=शुद्धता,पवित्रता, संशय,भ्रम आदि दोषों से रहित) (पातक=नरक में गिरानेवाला पाप) (सुचि=शुचि=विशेषण=शुद्ध,पवित्र,साफ़,स्वच्छ)

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।

नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।

फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥S

पार्वती जी सप्त ऋषियो से बोली (प्रतीति=जानकारी,ज्ञान

किसी बात या विषय के संबंध में होने वाला दृढ़ निश्चय या विश्वास, यकीन)

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥

गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥

अगर हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा।।

मगर अब तो हे मुनीश्वर

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥

तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥

सुमित्राजी लक्ष्मण जी से कहा-गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी, इन सबकी सेवा प्राण के समान करनी चाहिए। फिर श्री रामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थरहित सखा हैं॥

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥

क्योकि-राम तो प्राणों के भी प्रिय हैं,हृदय के भी जीवन हैं

गुर पितु मातु बंधु सुर साईं। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं॥

रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥

सेवक और स्वामी का धर्म -सेवा की भाबना भरती संस्कृति की आधार शिला है!सेवक केवल शूद्र ही नहीं होता कोई भी हो सकता है !यथाः सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।

भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥s

सेवक का कर्तव्य है कि वह अपने सेव्य व्यक्ति कि मन ,वाणी ,और कर्म से सेवा करे और सेव्य का यह कर्तव्य है की सेवक के प्रति स्नेह रखते हुए उसका यथोचित ध्यान रखे !यही सेवक सेव्य भाव है !यथाः राम जी ने कहा

सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।

तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ।।s

सेवक हाथ, पैर और नेत्रों के समान और स्वामी मुख के समान होना चाहिए। तुलसीदासजी कहते हैं कि सेवक-स्वामी की ऐसी प्रीति की रीति सुनकर सुकवि उसकी सराहना करते हैं॥

श्री राम-वाल्मीकि संवाद श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए। सम्मानपूर्वक मुनि उन्हें आश्रम में ले आए॥ (जुड़ाने=शीतलता,ठंडक)

मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥

(मुनि श्री रामजी के पास बैठे हैं और उनकी) मंगल मूर्ति को नेत्रों से देखकर वाल्मीकिजी के मन में बड़ा भारी आनंद हो रहा है। तब श्री रघुनाथजी कमलसदृश हाथों को जोड़कर, कानों को सुख देने वाले मधुर वचन बोले-॥(बदर=बेर का पेड़ या फल)

बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥

तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥

तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥

हे मुनिराज! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गए (हमें सारे पुण्यों का फल मिल गया)।

देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥॥

सुतीक्ष्ण मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों के सेवक थे।

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥

भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥

सुतीक्ष्ण जी बोले (खद्योत=जुगनूँ)(अँजोरी=प्रकाश,रोशनी,चमक, उजाला)

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥

महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥

अब मैं भी प्रभु (आप) के साथ गुरुजी के पास चलता हूँ। इसमें हे नाथ! आप पर मेरा कोई एहसान नहीं है। मुनि की चतुरता देखकर कृपा के भंडार श्री रामजी ने उनको साथ ले लिया और दोनो भाई हँसने लगे॥

इसके पीछे एक प्रसंग है । जब सुतिक्ष्ण जी का शिक्षा पूरी हो गई तो उन्होंने अगत्स्य मुनि से गुरू दक्षिणा माँगने का अनुरोध किया , पर अगस्त्य मुनि को पता था की इसके पास कुछ भी नहीं देने को इसलिए वह बात टालना चाह रहे थे ।पर सुतिक्ष्ण ज़िद पर अड़ गया की अगस्त्य  जी उससे कुछ न कुछ अवशय लें ।अब देखिए, अगस्त्य जी को क्रोध तो आया फिर भी शिष्य के कल्याण की भावना बनी रही और बोला की ठीक है जाओ और ईश्वर को लेकर आओ ।और सुतिक्ष्ण वही कहते है राम से की एक बार आप और लक्ष्मण जी और सीता जी उनके साथ उनके गुरू के आश्रम चले चलें । पर सुतिक्ष्ण जी की चतुराई देखिये सुतिक्ष्ण जी बोले मुझे गुरु का दर्शन हुए और इस आश्रम में आये बहुत दिन हो गए अर्थात जब से यहाँ आया दर्शन नहीं हुए अतःहे प्रभु आप के साथ गुरु जी के पास जाता हूँ हे नाथ इसमें आपका कुछ निहोरा (आप पर मेरा अहसान )नहीं है मुनि की चतुरता दोनों भाई हंस पड़े।स्वामी प्रज्ञानंद जी के मत अनुसार भारतद्वाज,बाल्मीक,अत्रि,शरभंग,ये चारो ऋषि की याचना प्रार्थना पर “एवमस्तु” ना कहने का भाव ये चारो बड़े प्रसिद्ध मुनि ज्ञानप्रधान -भक्तियुक्त मुनि है उनकी भावना के पच्छात ऐसा ना कहने से उन ज्ञानी भक्तो को दुःख होने की सम्भावना ना थी पर सुतिक्ष्ण जी दीन घट के भक्त है उनका तो प्रभु में भाव है कि एक “बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥” (रमानिवासा=लक्ष्मी निवास श्री रामचंद्रजी)

एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभंज रिषि पासा।।

बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ।।

अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥

देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसे द्वौ भाई॥

करि दंडवत कहत अस भयऊ।। दंडवत करके गुरु दक्षिणा दी जाती है वैसे ही श्री रामचंद्र जी का आगमन सुनाया मानो गुरु दक्षिणा में रामजी को दिया। सुतिक्ष्ण जी “कुमार “शब्द का प्रयोग कर रहे कारण की वे सदा “कुमार “अवस्था में रहते है

तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ।।

नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा।।

राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही।।

सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए।।

मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई।।

सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी।।

पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा।।

वहाँ जहाँ तक (जितने भी) अन्य मुनिगण थे, सभी आनंदकन्द श्री रामजी के दर्शन करके हर्षित हो गए॥

जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा।।

श्री प्रज्ञानंद महराज के अनुसार भारतद्वाज,बाल्मीक,अत्रि,शरभंग,ये चारो ऋषि के आश्रम पर जाते समय “हरषि या हर्ष सहित शब्दों का प्रयोग ना होने का मुख्य कारण क्या है ?जबकि रघुनाथ जी तो हर्ष विषाद से रहित है तब यहाँ हर्ष शब्द क्यों लिखा ?जहाँ जहाँ भक्त का प्रेम देखते है वहां वहां हर्ष होता है जैसे “जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना।।”और जहाँ जहाँ अवतार कार्य करने के लिए अवसर आता है वहाँ वहाँ भी हर्ष का विवरण मिलता है  इस प्रतिज्ञा की पूर्ति और रावण आदि के विनाश का श्रीगणेश किस स्थान पर निवास करने से सुगमता से होगा यह अगस्त जी के मुख से जानने के उद्देश्य से वहाँ जानने के लिए निकले थे इस लिए हर्ष कहा।

जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना।।s

पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।

कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥s

धनुष जग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।

हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया।।s

हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥s

अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।s

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।

सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥s

तब श्री रामजी ने अगस्त्य मुनि से कहा- हे प्रभो! आप से तो कुछ छिपाव है नहीं। मैं जिस कारण से आया हूँ, वह आप जानते ही हैं।इसी से हे तात! मैंने आपसे समझाकर कुछ नहीं कहा॥हे प्रभो! अब आप मुझे वही मंत्र (सलाह) दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ। प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया?॥

तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही।। इससे यह भी ज्ञात होता है कि प्रायः भगवान औरो से ऐश्वर्य छुपाते है प्रभु ने सम्बोधन दे कर स्वामी-सेवक का नाता जोड़ा,और स्वामी से दुराव नहीं होना चाहिए पुनः भाव यह है कि बाल्मीक जी से रामजी ने कुछ दुराव किया था ,सो उन्होंने सारा भेद ही खोल दिया पुनः “दुराव कछु नाही “से सूचित करते कि अगस्त जी भक्तबर है ऐसे ही भक्त से दुराव नहीं होता।

मंत्र पूछने का कारण आप निशाचर नाश की प्रतिज्ञा कर चुके है अतः पूछा जिसमे ब्राह्मण बध (रावण पुलिस्त का नाती है)की हत्या ना लगे और मुनियो का कार्य भी हो जाय राम जी जानते है इनके समान दूसरा रिषि नहीं है रावण भी इनसे डरता है क्योकि ये इल्वल और वातापी ऐसे मायावी रक्छस को मारने में समर्थ हुए,समुद्र सोख लिया,इत्यादि इत्यादि पुनःये वसिष्ठ गुरु के बड़े भाई है घट से दोनों की उत्पत्ति हुई है प्रभु ने लक्ष्मण से इनका महत्व कहा है कि”इनके प्रभाव से दैत्य दक्षिण दिशा को भय से देखते है ये सज्जनो के कल्याण में रत रहते है अतः हमारा भी अवश्य कल्याण करेंगे।

दीन जी मंत्र पूछने का कारण बताते है महाराज रघु ने कुबेर को पुष्पक विमान दान में दिया रावण के छीन लेने पर कुबेर ने उनसे पुकार की तब रघु जी ने रावण को सन्देश भेजा की विमान कुबेर को लौटा दे नहीं तो हम तेरा नाश करेंगे रावण ने यह अनसुना कर दिया तब रघु ने धनुष पर बाण चढ़ाया की यही से लंका का नाश कर दे ब्रम्हा जी ने रघु जी का हाथ पकड़ लिया और बोले की हम इसकी मृत्यु राम जी के हाथ लिख चुके है हमारा लेख असत्य हो जायेगा आप ऐसा न करे रघु ने कहा बाण अमोघ है व्यर्थ नहीं जा सकता उस पर ब्रह्मा ने  उस बाण को माँग लिया और कहा की इसी बाण से राम जी रावण का वध करेंगे और उसे लेकर ब्रह्मा जी ने अगस्त जी के पास रख दिया जब राम रावण का सात दिन तक लगातार  द्वन्द युद्ध हुआ और देवता घबड़ाये तब राम जी ने अगस्त्य जी का स्मरण किया और उस बाण का प्रयोग किया।

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ।जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥s

तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही।।

तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ।।

अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही।।

मुनि प्रभु की बाणी पर हसे कि समर्थ होकर असमर्थ की सी बाणी बोल रहे है पुनः भाव कि अपना अस्तित्व सरूप छिपाने का प्रयास और नर लीला का कैसा अभिनय कर रहे है इतने महान होने पर भी कितनी नम्रता है विप्रो के लिए कितना आदर है हे नाथ क्या जानकर पूछते हो? अर्थात हमें भ्रम में ना डाले, हम जानते है की आप ब्रम्हाण्ड नायक है आप नाथ है में तो सेवक हूँ।

मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥

तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥

संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥S

ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥s

अगस्त्य मुनि ने कहा-चर और अचर जीव (गूलर के फल के भीतर रहने वाले छोटे-छोटे) जंतुओं के समान उन (ब्रह्माण्ड रूपी फलों) के भीतर बसते हैं और वे (अपने उस छोटे से जगत् के सिवा) दूसरा कुछ नहीं जानते। उन फलों का भक्षण करने वाला कठिन और कराल काल है। वह काल भी सदा आपसे भयभीत रहता है॥उन्हीं आपने समस्त लोकपालों के स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्य की तरह प्रश्न किया। हे कृपा के धाम! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि आप श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में (सदा) निवास कीजिए॥

जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहिं न जानहिं आना॥

ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥

ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥

यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥

अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा॥

जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता।

अगस्त्य मुनि ने कहा-यद्यपि मैं आपके ऐसे रूप को जानता हूँ और उसका वर्णन भी करता हूँ, तो भी लौट-लौटकर में सगुण ब्रह्म में (आपके इस सुंदर स्वरूप में) ही प्रेम मानता हूँ। आप सेवकों को सदा ही बड़ाई दिया करते हैं, इसी से हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है॥

अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥

संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥

विभीषणजी हनुमान जी से बोले-कर्म ज्ञान और उपासना के बल से भगवत कृपा का निश्चय करते है अतएव बिभीषण ने यहाँ अपने को कर्म उपासना और ज्ञान से अपने को रहित बताया तामसी को उल्लू की उपमा दी गई है जैसे उल्लू सूर्य दर्शन से विमुख रहते है वैसे ही तामसी जीव ज्ञान से विमुख रहते है ।अतः”तामस” तन कहकर अपने को ज्ञान रहित जनाया साधन कर्म है अतः “कछु साधन नहीं “कहकर अपने को कर्म रहित जनाया भगवान में प्रेम होना भक्ति है अतः प्रीत न पद सरोज  कहकर अपने को उपासना रहित जनाया बाबा हरि दास जी का मत है कि तामस तन से कर्महीनता कही। (प्रीत न पद सरोज= श्री राम जी के चरणों में प्रेम होना शुभ साधन का फल है।

तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥

सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥s

होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥s

तव पद पंकज प्रीति निरंतर । सब साधन कर यह फल सुंदर ।s

अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥

विभीषण  ने स्वयं कहा हनुमान जी ही उनके राम प्राप्ति के द्वार है बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥अथार्त चाहे ब्रम्हाण्ड भर खोज डाले तब भी नहीं मिलते और जब कृपा होती है तब घर बैठे संत मिल जाते है

संत विशुद्ध मिलहि परि तेही। चितवहि राम कृपा करि जेही।।s

हनुमान जी का उत्तर=में कुल से हीन हूँ कपि अतः पशु हूँ तुम्हारा तो कुल उत्तम है राम जी ने स्वयं कहा मानउँ एक भगति कर नाता ॥जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।इस तरह में कर्म,ज्ञान,और उपासना तीनो से रहित हूँ “सबहीं बिधि हीना”कुल, जाति,स्वाभाव,अतः शुभ कर्म करने की जितनी भी विधियाँ है उन सबसे रहित हूँ॥ मैं पावँर पसु कपि अति कामी॥

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता । मानउँ एक भगति कर नाता ॥s

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई ॥s

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥s

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥s

बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी॥ मैं पावँर पसु कपि अति कामी॥s

प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥s

विभीषण ने पहले अपनी अधमता कह कर राम कृपा होने में पहले संदेह किया फिर हनुमान के दर्शन से वह संदेह दूर हुआ तब उसको भरोसा हुआ की कपि तो मुझसे भी अधम है उस पर भी रामजी ने कृपा की सखा कह कर जनाया की हम दोनों का स्वाभाव तमोगुणी है

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।

कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥s

कागभुसुंडि जी गरुड़ जी से बोले

एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥

सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥

पर-अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरुजी से द्रोह करता। गुरुजी अत्यंत दयालु थे, उनको थोड़ा सा भी क्रोध नहीं आता। (मेरे द्रोह करने पर भी) वे बार-बार मुझे उत्तम ज्ञान की ही शिक्षा देते थे॥

मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥

अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥

विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ॥

(परितापा=दुख,संताप, डर, पछतावा, क्लेश, भय)

बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।

उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।

गुरु के वचन सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और वे अपनी ऐंड़ (खड़े होने की शान) से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए (मृगराजु=शेर, सिंह)

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।

ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।

मन-ही-मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया।(लाघवँ=लघु होने का भाव, लघुता,अल्पता, कमी,जल्दी से)

तेहि छन जिस छड़(तीन निमेष)में उठाया,चढ़ाया और खींचा उसी छड़ में(अतः उस छड़ की समाप्ति के भीतर ही तोड़ डाला) मध्य धनु तोरा का भाव यह की धनुष का मध्य भाग अत्यंत दृंढ होता है जिसमे किसी को कुछ कहने की गुंजायश (जगह)  न रहे

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥

तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥

प्रतापभानु बोले

मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥

कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥

“श्रुतिमाथा” बाबा हरिदास जी का भाव वेद जिसका माथा है अर्थात जो कोई श्रुति में विरोध करता है तो भगवान का सिर दुखता है नारद जी जगत गुरु शंकर की सलाह त्यागकर यहाँ आये है दूसरा भाव शास्त्र शीर्षा  पुरुष का सिर वेद है

एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना।।

छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा।।

राम जी स्वयं बोले

भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवन सुत बिदा कराई॥s

राम जी स्वयं बोले

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।s

जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥

जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥

शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है।

हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥

जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥

होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥

कबीर दास जी

पूरा साहिब सेहिये सब विधि पूरा होय।

ओछे से नेह लगाइये तो मूलहू  आवै खोय॥

कबीर दास जी

गुरु मूरति मुख चन्द्रमा सेवक नयन चकोर ।

अष्ट प्रहर निरखत रहैं श्री गुरु चरण की ओर ॥

हिमांचल ने नारद जी से कहा

त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह, गति सर्बत्र तुम्हारि।

कहहु सुता के दोष, मुनिबर हृद

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥

कह मुनीस हिमवंत सुनु, जो बिधि लिखा लिलार।

देव दनुज नर नाग मुनि, कोउ न मेटनिहार।।

 

सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।

हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥

कबीर दास जी

तीरथ का है एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरू मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।

लोक वेद दोनों गये , आये सिर पर काल ।

 

 

 

 

 

 

 

17 संत का स्वभाव / लक्षण

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

तुलसीदास जी ने कहा संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है,जिसका फल नीरस,विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है,संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है,इससे वह भी नीरस है,कपास उज्ज्वल होता है,संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है,इसलिए वह गुणमय है।)(जैसे कपास लोढ़े जाने,काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है,उसी प्रकार संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥ साधु नाना प्रकार की यातना को सहकर दुसरे के दोषो पर पर्दा डालते है (छिद्र=छिद्रों,दोषों) (निरस=रूखासूखा,विरक्त) (बिसद=स्वच्छ, निर्मल,उज्ज्वल)

(मलय=चंदन)(संतत= सदा) (परसु=परशु=फरसा,कुल्हाड़ी)

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।।

जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।।

काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई।।s

पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही।।s

संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।s

भारतद्वाज जी ने भरत जी से कहा (उदासीन=विरक्त,तटस्थ)

सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥

सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥

भारतद्वाज जी ने भरत जी से कहा (सुभाग=सुंदर,मनोहर,भाग्यवान ,प्रिय,प्यारा,सुखद)

तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा॥

भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ॥

सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥

धन्य धन्य धुनि गगन प्रयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥

राम   भरत  से कहा -हे तात! तुम अपने हृदय में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीव की गति को ईश्वर के अधीन जानो। मेरे मत में (भूत, भविष्य, वर्तमान) तीनों कालों और (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुम से नीचे हैं॥ (तर=नम,पराजित करना,परास्त करना)

तात जायँ जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी॥

तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरें॥

हृदय में भी तुम पर कुटिलता का आरोप करने से यह लोक (यहाँ के सुख, यश आदि) बिगड़ जाता है और परलोक भी नष्ट हो जाता है (मरने के बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती)। माता कैकेयी को तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं, जिन्होंने गुरु और साधुओं की सभा का सेवन नहीं किया है॥

(आनत=अनत=पाप, गुनाह,दोष, खराबी)

उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई॥

दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई॥

दोनों ओर की स्थिति समझकर सब लोग कहते हैं कि भरतजी सब प्रकार से सराहने योग्य हैं।

दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू॥

सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दसा मुनिराज लजाहीं॥

भरतजी का परम पवित्र आचरण (चरित्र)मधुर, सुंदर और आनंद-मंगलों का करने वाला है। कलियुग के कठिन पापों और क्लेशों को हरने वाला है। महामोह रूपी रात्रि को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है॥ (दलन=पीसना, कुचलना,नाश, संहार)

परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू॥

हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥

विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे) बिना न मरेंगे।

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥

 

असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥

एकहिं बान जब भगवान कौतुक क्रीड़ा करते है तब अनेक बान चलते है नहीं तो एक ही बान काम में लेते है  अन्य भाव तड़का एक बान से मरने वाली नहीं थी राम जी ने उसे एक बान से मार डाला इस कथन से राम बान की प्रबलता दिखाई है (निज पद= हरि पद,हरि धाम) शास्त्र की आज्ञा है की ना तो स्त्री को मारे ना ही अंग भंग करे तब यहाँ ताड़का का वध क्यों किया?गुरु आदि का वचन आज्ञा श्रेष्ठ है परम धर्म है अतः गुरु वचन मानकर तड़का का वध किया

चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥

एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥S

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥S

गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥S

उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥S

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥S

अतः गुरु वचन मानकर तड़का का वध किया

मैं किस प्रकार कहूँ कि हे स्वामी! आप अब जाइए? हे नाथ! आप अन्तर्यामी हैं, आप ही कहिए। ऐसा कहकर धीर मुनि प्रभु को देखने लगे।आत्रि मुनि के नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बह रहा है और शरीर पुलकित है॥

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी॥

अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥

 

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥

मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥

 

सहित अनुज मोहि राम गोसाईं। मिलिहहिं निज सेवक की नाईं॥

मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥

 

हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥

दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।

(एक=मुख्य) (बानि=आदत)

नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा॥

एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥

 

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥

 

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥

महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥

नारद जी बोले हे रघुवीर! हे भव-भय (जन्म-मरण के भय) का नाश करने वाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संतों के लक्षण कहिए! (श्री रामजी ने कहा-) हे मुनि! सुनो, मैं संतों के गुणों को कहता हूँ, जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूँ॥

संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा॥

सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥

रामजी बोले हे नारद जी! वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान्, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,॥सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण,॥(अनीह=कामना रहित,उदासीन) (अकिंचन-=सर्वत्यागी,बहुत गरीब,दरिद्र) (अमित बोध=असीम ज्ञानवान्) (षट=छह) (अनीह=कामना रहित,उदासीन) मितभोगी=मितभोजी=मिताहारी,कम खाने वाला,अल्पाहारी) (सत्यसार=सत्यनिष्ठ,विश्व,दुनिया,जगत,इहलोक,मृत्युलोक)

(मानद=वह व्यक्ति जो संमान वा आदर दे,प्रतिष्ठा देनेवाला,मान या प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला) (मदहीना=अभिमानरहित)

षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥

अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥

सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥

रामजी बोले हे नारद जी! गुणों के घर, संसार के दुःखों से रहित और संदेहों से सर्वथा छूटे हुए होते हैं। मेरे चरण कमलों को छोड़कर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही॥

गुनागार संसार दुख, रहित बिगत संदेह।

तजि मम चरन सरोज प्रिय, तिन्ह कहुँ देह न गेह॥

रामजी बोले हे नारद जी!कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं॥

निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥

सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥

रामजी बोले हे नारद जी!वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविंद तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है॥(अमाया=निष्कपट)

जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥

श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥

रामजी बोले हे नारद जी!तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्मा के तत्व का ज्ञान) और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते॥(जथारथ=यथार्थ एवं न्याययुक्त बात)(बिग्याना= परमात्मा के तत्व का ज्ञान)

बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥

दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥

रामजी बोले हे नारद जी!यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढ़कर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो॥

गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥

मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥

भुशुण्डिजी

सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।।

कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती।।

भुशुण्डिजी संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है, परंतु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना, क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं॥

संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥

निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥

विश्वामित्रजी कहते है राम नाम वसिष्ठ जी ने दिया पर रघुवीर नाम का नामंकरण भी दूसरे गुरु विश्वामित्र मुनि द्वारा हुआ।

हे रघुवीर धीर महर्षि गौतम की स्त्री शाप के कारण पत्थर की देह तथा धीरज धरे हुए आपके चरण कमलो की रज चाहती है इस पर कृपा कीजिये।श्राप बस कहने का भाव कर्म के बस देह धारण करनी पड़ी उपल देह धरि धीर का यह अर्थ लिखते है कि धीरज धरे हुए है रघुवीर का भाव कि आप कृपा करने में भी वीर है राम नाम वसिष्ठ जी ने दिया आज रघुवीर नाम का नामकरण भी दूसरे गुरु विश्वामित्र ने किया

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥

जो ब्रम्हज्ञानी हैं जिनके हर पल मे वाणी, कर्म और गुण मैं राम (ब्रम्ह) बसते हैं उनके लिए सारा संसार (जीव) एक जैसा दिखता है! उनमें न ईर्ष्या, क्रोध, दुःख ,रोग का भाव आता है और ऐसे मनुष्य इस भवसागर से सहज ही पार हो जाते हैं!– वेद

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार!

राग न रोष न रोग दुःख, दास भए भाव पार!!

 

18 शरभंगजी देह त्याग प्रकरण

(शर=चिता)!चिता लगाकर  इन्होने अपना शरीर भंग किया,जो नाम था वही चरितार्थ हुआ!मुनि सीताराम लक्ष्मण तीनो के उपासक थे यह बात आरंभ में ही “सुंदर अनुज जानकी संगा”कह कर जना दी

पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा।।

श्री रामचन्द्रजी का मुखकमल देखकर मुनिश्रेष्ठ के नेत्र रूपी भौंरे अत्यन्त आदरपूर्वक उसका (मकरन्द रस) पान कर रहे हैं। शरभंगजी का जन्म धन्य है॥(लोचन भृंग=नेत्र रूपी भौंरे)

देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग।

सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग।।

मुनि ने कहा- हे रघुवीर! हे शंकरजी मन रूपी मानसरोवर के राजहंस! सुनिए, मैं ब्रह्मलोक को जा रहा था। (इतने में) कानों से सुना कि रामजी वन में आवेंगे॥ (मानस= मन= मानसरोवर) (राजमराला=राजहंस)

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला।।

जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा।।

तब से मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गई। हे नाथ! मैं सब साधनों से हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है॥

चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती।।

नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥

इतनी दीनता का कारण यह है कि प्रभु दीनदयाल है ,वे दीनो पर बिना साधन के भी कृपा करते हैसाधन होते हुए साधन हीन कहने का भाव यह है कि जिन साधनो से ब्रम्हा आदि लोको की प्राप्ति होती है पर वह सब साधन  प्रभु के दर्शन के लिए कुछ भी नहीं है प्रभु की प्राप्ति केवल और केवल कृपा साध्य है क्रिया साध्य नहीं है दूसरा भाव महात्मा लोग करते बहुत है ,पर छिपाते है ,इससे जनाते है कि कर्म का अभिमान उनको नहीं है सम्पूर्ण साधनो से में रहित हूँ अर्थात जिन साधनो से आपकी प्राप्ति होती है वह कोई साधन मुझ में नहीं है अतः आगे कहते है “कीन्ही कृपा जानि जन दीना” मुनि योग यज्ञादि बड़ी तपस्या करके ब्रह्म लोक के अधिकारी हुए और उसकी प्राप्ति की ! बैकुंठ ब्रह्म लोक से बढ़कर है ,सो राम कृपा से मिलता है बैकुंठ साधन से प्राप्त नहीं होता मुनि का जितना भी साधन था वह तो भक्ति के बराबर भी नहीं हुआ !मुनि को दर्शन हुआ वह भी रामकृपा से हुआ यथाः कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।और बैकुंठ मिला वह भी राम कृपा से अतएव दोनो ही जगह “कृपा” पद दिया यथाः जात रहेउँ बिरंचि के धामा। पर भक्ति से बैकुंठ मिलता है अतएव जब भक्ति वर माँगा तब बैकुंठ को जाना कहा

नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।

हे देव! यह कुछ मुझ पर आपका एहसान नहीं है। हे भक्त-मनचोर! ऐसा करके आपने अपने प्रण की ही रक्षा की है। अब इस दीन के कल्याण के लिए तब तक यहाँ ठहरिए, जब तक मैं शरीर छोड़कर आपसे (आपके धाम में न) मिलूँ॥

सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा।।

तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी।।

योग, यज्ञ, जप, तप जो कुछ व्रत आदि भी मुनि ने किया था, सब प्रभु को समर्पण करके बदले में भक्ति का वरदान ले लिया। इस प्रकार (दुर्लभ भक्ति प्राप्त करके फिर) चिता रचकर मुनि शरभंगजी हृदय से सब आसक्ति छोड़कर उस पर जा बैठे॥

जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा।।

एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा।।

बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा।। आसक्ति,फल की वासना,आदि छोड़ कर चिता पर बैठ गए,क्योकि विकारो के रहते हुए भगवान हृदय में वास नहीं करते!

सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।

मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम।।

सगुनरुप श्रीराम।। अर्थात निर्गुण रूप से तो आप सदा सभी के हृदय में बसते ही है यथाः

सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।

पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥

हमारे हृदय में बसे हुए है पर आप सीताराम लक्ष्मण सहित आप इस सगुन रूप से वास कीजिये

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा।।

राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा।।

ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ।।

ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। इति पहले मुनि ने लीन होने की इच्छा प्रकट की यथाः  तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी।।”मिलौं” से लीन होने की इच्छा जान पड़ी परन्तु मुनि ने भेद भगति बर मांग लिया यथाः

जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा।।s

अतः हरि में लीन नहीं हुए (योग अग्नि में जलने से केवल मुक्ति प्राप्त होती है तब मुनि बैकुंठ कैसे गए ?) भेद भक्ति में सायुज्य मुक्ति नहीं होती उसमे तो हमेशा भगवान में स्वामी वा सेव्य भाव रहता है सेवक और स्वामी भाव तभी हो सकता है जब प्रभु से अलग रहे!

जैसे जल में जल मिलकर अभेदतत्व को प्राप्त होता है वैसे ही आत्मा परमात्मा में मिलकर एक तत्व को प्राप्त हो जाता है इसी को लीन होना कहते है पर मुनि ने लीन ना होना चाहा ,क्योकि अभेदतत्व में सुख नहीं है जैसे जल को जल की प्राप्ति से कंद को कंद की प्राप्ति से कुछ सुख प्राप्त नहीं होता ,सुख तो पानी पीने वाले को होता है !हरि में लीन होने पर भक्ति का अपूर्व सुख प्राप्त नहीं होता !अतएव इस महान सुख से वंचित रहकर ब्रह्म में लीन होना मुनि ने उत्तम नहीं समझा !

सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा।।s

तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई।।s

ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो।।s

सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं।।s

रिषि निकाय मुनिबर गति देखि। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी।।

अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा।।

सुतीक्ष्णजी का प्रेम=

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना।।

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। गुरु से सम्बन्ध दे कर निवृत्ति मार्ग सेवी जनाया “रति भगवान”का भाव भगवान शब्द निर्गुण और सगुण दोनों का वाचक हैअतएव आगे उनकी उपासना स्पस्ट करने के लिए”रामपद सेवक”दिया “पद “शब्द से सगुन स्वरुप का उपासक बताया,निर्गुण के”पद”नहीं होते!

मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक।।

सपनेहुँ आन भरोस न देवक।। से रघुनाथ जी में अनन्यता दिखाई यथाः

मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा॥s

उन्होंने ज्यों ही प्रभु का आगमन कानों से सुन पाया, त्यों ही अनेक प्रकार के मनोरथ करते हुए वे आतुरता (शीघ्रता) से दौड़ चले। हे विधाता! क्या दीनबन्धु श्री रघुनाथजी मुझ जैसे दुष्ट पर भी दया करेंगे?॥

प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा।।

हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया।।

सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई।।

निज =अपना खास,सच्चा “निज सेवक “अतः अति प्रिय सेवक ,अर्थात अत्यंत अन्तरंग सेवक,निज दास कौन है ? यथाः

तिन्हते पुनिमोहि प्रिय निजदासा।जेहिगति मोरिन दूसरि आसा।s

कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास।

तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास।।

अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।

जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥

जो मन क्रम वचन से सेवक है

क्या स्वामी श्री रामजी छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मुझसे अपने सेवक की तरह मिलेंगे? मेरे हृदय में दृढ़ विश्वास नहीं होता, क्योंकि मेरे मन में भक्ति, वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है॥

मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं।।

नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।

मैंने न तो सत्संग, योग, जप अथवा यज्ञ ही किए हैं और न प्रभु के चरणकमलों में मेरा दृढ़ अनुराग ही है। हाँ, दया के भंडार प्रभु की एक बान है कि जिसे किसी दूसरे का सहारा नहीं है, वह उन्हें प्रिय होता है॥

नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा।।

एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की।।

समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥s

(बानि =स्वभाव) (गति=अबलंब,सरन,सहारा,पहुंच,दौड़) सुतीक्ष्णजी ने कहा कि में सर्वसाधनरहित हूँ मेरे जैसे सठ पर ऐसी कृपा करेंगे कि मुझे स्वयं आकर ,मुझको अपना खास सेवक मानकर ,दर्शन देंगे !अतः आश्चर्य चकित होकर कह रहे है कि हे विधि क्या सचमुच ऐसा संभव होगा?केवल और केवल अनन्यता के गुण के कारण भगवान प्रकट हुए !यही अनन्यता को देखकर ही तो प्रभु मनु सतरूपा के लिए प्रकट हुए थे बाबा हरिदास जी के अनुसार इन सभी साधनो से शून्य होने का भाव विभीषण जी ने कहा यथाः तामस तन कछु साधन नहीं प्रीत ना पद सरोज मन माहि !”चरन कमल अनुरागा” का भाव कि जैसे भौरा कमल में लुब्ध रहता है वैसे ही मन की आसक्ति प्रभु के चरणबिन्दु में होना चाहिए!

एक बानि करुनानिधान की। से जनाया की राम जी के मिलने में साधन कारण नहीं है करुणा ही करुणा है जो सब साधनो से हीन होकर अनन्य हो जाय वही भगवान को प्रिय है सुतीक्ष्णजी  को अनन्यता और दीनता का बल है भगवान ने श्री मुख से स्वयं कहा यथाः

समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥s

यथाः

तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥s

होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन।।

होइहैं सुफल आजु मम लोचन। भगवान के मुखारबिंदु के दर्शन से नेत्र सफल होते है भाव यह की आखे तो अनगिनत जन्मो में मिलती चली आई है पर सफल कभी नहीं हुई अगर सफल हुई होती तो जन्म ही क्यों होता? यथाः भुशुंडि जी

निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥s

भगवान के मुखारबिंदु के दर्शन से नेत्र सफल होते है भाव यह की आखे तो (निर्भर=पूर्ण भरा हुआ,अपार  )

सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।

कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर॥

निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी।।

निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। इति यहाँ भी दिखाया की ज्ञान की शोभा प्रेम से ही है(निर्भर प्रेम=प्रेम में पूर्ण रूप से निमग्न=लीन=मग्न)

यथाः

सोह न राम प्रेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू॥s

श्री रामजी के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज।मुनि का प्रेम निराला है जिसकी दशा शिवजी अकथनीय बताते है कहि न जाइ सो दसा भवानी क्योकि प्रेम का जानकर शिव से बड़ कर कोई नहीं है यथाः

हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।s

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥s

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥s

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥s

कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥s

उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।

राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥s

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥s

हनुमान जी को भी निर्भर प्रेम कहा

दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा।।

(दिशा =पूर्व पच्छिम उत्तर दक्षिण उर्ध्व =सिर के ऊपर ,अघः पैर के नीचे विदिश प्रत्येक दो दिशाओ के बीच के कौण को विदिश कहते है )(अविरल =घनी,सघन ) (दिशा =पूर्व पच्छिम उत्तर दक्षिण उर्ध्व =सिर के ऊपर,अघः पैर के नीचे विदिश प्रत्येक दो दिशाओ के बीच के कौण को विदिश कहते है )(अविरल =घनी,सघन)

कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई।।

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई।।

प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई।।का भाव भगवान पेड़ की ओट में छिपकर देखते है जिससे रंग में भंग ना हो!यदि मुनि देख लेंगे तो फिर नृत्य नहीं करेंगे जैसे माता पिता छुपकर बालक का कौतुक देखते है वैसे ही प्रभु इनके प्रेम को देखते है क्योकि  राम  जी विश्व जननी है!

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा।।

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। इति जिसके हृदय में जैसी भक्ति होती है प्रभु वैसे ही उसे मिलते है यथाः

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥s

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥s

रूप के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाए तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ जाता है।

सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥s

अतः इनके हृदय में अतिसय प्रेम देखा अतः प्रकट हो गए ऐसा कह कर प्रभु ने वचनामृत चरितार्थ किया

बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।

तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥s

इस दोहे के सभी अंग सुतीक्छण में है बचन कर्म मन मोरि गति,

मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक।।s

भजनु करहिं निःकाम,

हे प्रभो! हे श्री रामजी! छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित धनुष-बाणधारी आप निष्काम (स्थिर) होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा की भाँति सदा निवास कीजिए॥

अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।

मन हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥s

हृदय में प्रभु के दर्शन पाकर) मुनि बीच रास्ते में अचल (स्थिर) होकर बैठ गए। उनका शरीर रोमांच से कटहल के फल के समान (कण्टकित) हो गया।(भीरा=डर) (पनस=कटहल)

मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा।।

तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए।।

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा।।

भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा।।

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसें।।

आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा।।

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी।।

परेउ लकुट इव। अर्थात साष्टांग दंडवत प्रणाम जैसे छड़ी बिना सहारे के खड़ी नहीं रह सकती तुरंत ही पृथ्वी पर गिर जाती है वैसे ही मुनि चरणों पर गिरे!इसी तरह भरत के संबंध में कहा पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई।।s

लकुट पतला होता है इस पद से जनाया की मुनि तप आदि से दुर्बल हो गए है जैसे भरतजी वियोग से कृश(दुबला पतला ,कमज़ोर) हो गए है छड़ी अपने से नहीं उठती उठाने से उठती है,इसी से प्रभु इनको अपने हाथो से उठायगे।

भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई।।

मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेंट तमाला।।

राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा।।

दोहा/सोरठा

तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार।

निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार।।

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी।।

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। “सुन बिनती “”तोरी “ऐसे एक वचन के प्रयोग शरभंग जी और सुतीक्ष्णजी ने ही किया है बाल्मीक ,अगस्त्य,अत्रि आदि के सम्भासण में बहुवचन का प्रयोग हुआ है एकवचन का प्रयोग प्रेम की पराकाष्ठा प्रभु में मातृत्व भाव और अपने में “बालक सुत”भाव का सूचक है  परम प्रवीण लोग ही आपकी इस्तुति कर सकते है और “मोरि मति थोरी” अर्थात में छुद्र बुद्धि का हूँ तब कैसे कर सकू ?यथाः

महिमा अमिति बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥s महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा॥s

शिव ,सनकादिक ,शेष ,सारदा जब ये उस अपर महिमा को कह नहीं सकते दंग रहते है तो में कैसे कुछ कहू ?यहाँ दीनता के कारण मुनि ने अपने में प्रवीण मति की हीनता कही जैसे तुलसीदास ने अत्यंत अपनी दीनता हीनता कही और काव्य उनका सर्वोपरि है वैसे ही सुतीक्ष्णजी की इस्तुति जानिए!

महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी।।

 

 

19 असंत का स्वभाव / लक्षण

तुलसीदास जी कहते है (सूत्र) भेद इतना है दुःख तो दोनों ही देते है पर एक मिलने पर दूसरा बिछुड़ने पर।

(उभय=दोनों) (दारुन=कठिन) (बीच=अंतर,भेद)

भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। इस संसार का निर्माण गुण और दोष से मिलकर बना हुआ है लेकिन गुण हमेशा पूज्य है उसी प्रकार संत(सज्जन) लोग पके आम के फल जैसे होते हैं जो सरस, मधुर,परोपकार रत, सरल होते हैं! जबकि दुष्ट (असज्जन)लोग धतूरे के फल जैसे होते हैं जो बाहर से कांटों की तरह और भीतर से भी विष से भरे होते हैं लेकिन शिव पूजन मे इसे भी पूजन के लिए रखते हैं! इसलिए समाज में सभी को सम्मान दिया जाता है, क्योंकि सम्मान सबको प्रिय है!(अपलोक=लोक में होनेवाली निंदा या बदनामी)(लह=लहत=लहहि=पाने और लेने के अर्थ में ,अनुसार) (बिभूती=वैभव,ऐश्वर्य,महत्ता,बड़प्पन)

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।।

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं।।

भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥s

सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥

गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥

तुलसीदास जी कहते है कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है परंतु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही खून चूसती है जैसे समुद्र मंथन से अमृत और मदिरा दोनों मिले! उसी तरह इस स्थूल शरीर से सुविचार, कुविचार उत्पन्न होते है सवाल है हम क्या अपनाते हैऔर यह प्रभु राम की कृपादृष्टि पर है (जलधि=समुद्र) (अगाधू=गहरा,अथाह) (बिलगाहीं=अलग होते है,भिन्न स्वभाव के होते है) साधु अमृत के समान (मृत्यु रुपी संसार से उबरने वाला )और असाधु मदिरा के सामान(मोह,प्रमाद,औरजड़ता उत्पन करने वाला)है दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रुपी अगाध समुद्र एक ही है(शास्त्रों में समुद्र मंथन से अमृत और मदिरा की उत्पत्ति बताई है)

उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।।

सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू।।

 

 

 

 

 

 

 

 

20 सत्संग की महिमा

तुलसीदास जी ने कहा- (समागम=पहुँचना,एकत्र होना)

सन्त समागम हरि कथा,तुलसी दुर्लभ होए।

दारा सुत अरु लक्ष्मी,पापी के भी होए।।

राम जी सनकादिक मुनियो से बोले-हे मुनीश्वरो! सुनिए:-संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं॥   (अपबर्ग=मोक्ष,भव बंधन से छूटने का) (भव= संसार,जगत,उत्पत्ति,जन्म)

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।

कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥

राम जी सनकादिक मुनियो से बोले-हे मुनीश्वरो! सुनिए, आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनों ही से (सारे) पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिन ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता हैं।(खीसा=नष्ट) (अघ=पाप)

आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥

बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥

तुलसीदास जी ने कहा  व्याख्या 1 गंगा=सुरसरी भक्ति की चर्चा

2जमुना=बिधि निषेधमय क्या करे क्या ना करे 3 सरस्वती =ब्रह्मज्ञान चर्चा (यही चलता फिरता प्रयाग है।) (जग का दूसरा अर्थ जंगम है)संतो का समाज आनंद मंगलमय है जो संसार में चलते फिरता तीर्थ राज प्रयाग है जहा रामभगति गंगा की धारा है और ब्रह्म विचार का प्रचार ही सरस्वती है युधिष्ठिर जी विधुर जी से कहा की आप जैसे महात्मा स्वयं तीर्थ सरूप है यदि कहो की तीर्थ सरूप है तो फिर वे तीर्थो में क्यों जाते है? उत्तर यह है कि पापियों के संयोग से जो मलिनता आ जाती है वह संतो के पद स्पर्श से दूर हो जाती है अतः संत लोग प्रायः तीर्थ यात्रा के बहाने उन तीर्थ स्थलों को स्वयं पवित्र करते है जैसे प्रयाग में गंगा जी प्रधान है वैसे ही संत समाज में श्री राम भक्ति ही प्रबल है(सुरसरि=गंगा=देवनदी) (सरस्वती=सरसइ) (मुद=मानसी आनंद) (जंगम=चलता फिरता,चलनेवाला) (मय=प्रचुर) (तीरथराजू=तीर्थ राज,प्रयाग)

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू।।

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।।

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा।।

(निज धरमा=अपना (साधु)धर्म=वेद सम्मत धर्म) अपने गुरु का अपने को उपदेश किया हुआ धर्म अर्थात गुरु के उपदेश से किसी एक निष्ठा को ग्रहण कर जो कर्म करना चाहिए वह”निज धर्म “है(इंद्रियनिग्रह=भोगेच्छाओं को रोकने या वश में रखने की क्रिया ,आत्मजय,आत्मसंयम,आत्मनियंत्रण)

जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।।s

ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।s

तुलसीदास जी ने कहा- सतसंगति आनंद और कल्याण की जड़ है सतसंग की सिद्धि (प्राप्ति)ही फल है और सब साधन तो फूल है (सिधि=प्राप्ति,सफलता)

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।

यदि कोई कहे कि “जब सत्संग से “मति कीर्ति आदि सब मिलते है !तो सब सत्संग क्यों नहीं करते?तो उसका उत्तर देते है कि “राम कृपा “अर्थात राम कृपा ही सत्संग का साधन है नहीं तो सभी कर ले यथाः

अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।s

शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैं, जिसे श्री राम जी कृपा करके देखते हैं। श्री रामजी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया॥ (दंड=घड़ी,घटी ,पल,क्षण) (निमिष=पलक झपकने की क्रिया,पलक झपकने में लगने वाला समय,क्षण,पल)

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥s

सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।।s

आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।

निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन।।s

भाव यह है कि राम कृपा से सत्संग,सत्संग से विवेक,और विवेक से गति है!तुलसीदास  ने कहा धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष ये चारों और ज्ञान, विज्ञान का विचार-पूर्वक ॐ कहना काव्य के नवरस;जप,तप, योग और वैराग्य के प्रसंग ये सब इस सुन्दर सरोवर के जलचर जीव हैं।सन्तों की सभा ही सरोवर के चारों अमराई( आम की बाटिकायें)हैं और श्रद्धा वसन्त-ऋतु के समान कही गई है।

(अवँराई=आम के बाग़)(सूत्र) संतसभा,अवँराई दोनों ही परोपकारी है

चहुँ दिसि क्या है? चारों संवाद के चार घाट है

अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥

संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई।।

इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥ कौए के सामान कठोर भाषा बोले वाले कोयल के समान मीठी भाषा बोलते, बगुले के सामान पाखण्डी हंस के समान विवेकी हो जाते है (पेखिअ=देखिए) (पिक=कोयल) (बकउ=बगुले)(मराला=हंस)

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥

सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥

तुलसीदास जी ने कहा

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।।

सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।

तुलसीदास जी ने कहा पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥(प्रसंग=संबंध, लगाव ,अनुराग,आसक्ति)

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥

साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥

हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, ऐसी बात समझकर बुद्धिमान, लोग अधम (नीच) का संग नहीं करते। कवि और पंडित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्ट से न कलह ही अच्छा है, न प्रेम ही॥

सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा॥

कबि कोबिद गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल नहिं प्रीति॥

तुलसीदास जी ने कहा/ श्री रामजी ने कहा (कुधात=लोहा) (सठ=मुर्ख, जड़बुद्धि)( पारस=एक पत्थर) (परस=स्पर्श, छूना) (सुहाई=सुहावनी)( विधिबस=देवयोग से)

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई।।

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।

तुलसीदास जी ने कहा प्रभु की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। (अर्थात भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता,परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना चाहिए,क्योंकि भगवान के गुणगान रूपी भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है,उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है)॥

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई।।

तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा।।

राम जी ने / विभीषण ने   कहा पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥ (संसृति=जन्म-मरण के चक्र)

पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।

अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़!

सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।

अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।

काकभुशुण्डि ने कहा-  संसार में घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी सत्संग दुर्लभ है॥ हे गरुड़जी! अपने हृदय में विचार कर देखिए, क्या मैं भी श्री रामजी के भजन का अधिकारी हूँ? पक्षियों में सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र हूँ, परंतु ऐसा होने पर भी प्रभु ने मुझको सारे जगत् को पवित्र करने वाला प्रसिद्ध कर दिया (अथवा प्रभु ने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया)॥(सकुनाधम=सकुन + अधम वह पक्षी जो पक्षियों में अत्यंत निम्नकोटि का माना जाय । काग । कौआ)

सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा॥

देखु गरु़ड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥

सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥

हे गरुड़जी!:-यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी आज मैं धन्य हूँ, अत्यंत धन्य हूँ, जो श्री रामजी ने मुझे अपना ‘निज जन’ जानकर संत समागम दिया (आपसे मेरी भेंट कराई)॥

 

आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।

निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन॥

श्री रामचंद्रजी ने सनकादि मुनियों से कहा – हे मुनीश्वरो! सुनिए, आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनों ही से (सारे) पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिन ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है॥

आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥

बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥

श्री रामचंद्रजी ने सनकादि मुनियों से कहा – हे मुनीश्वरो! संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं॥

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।

कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा संसार में घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी सत्संग दुर्लभ है॥

धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥

सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।

उमाकहउँ मैंअनुभव अपना।सत हरि भजनु जगत् सब सपना॥S

वेदांती महाराज-शिवजी ने पार्वतीजी से कहा/रामजी ने स्वयं कहा कहा

राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी।।

शंकर विमुख भगत चह मोरी।सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।

शिव जी ने गरुण जी से कहा -हे गरुड़ तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ? सब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया जाए॥

मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥

तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥

श्री रामजी का प्रजा को उपदेश

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।

पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥

सुतीक्ष्णजी ने कहा का प्रेम प्रभु की एक बान है कि जिसे किसी दूसरे का सहारा नहीं है, वह उन्हें प्रिय होता है (एक-मुख्य) (बानि-आदत) (गति-आश्रय,भरोसा)

नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा॥

एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥

हे पार्वती!जो व्यभिचारी,छली,बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए॥जिनका हृदय रूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं वे बेचारे रामजी का रूप कैसे देखें!॥ (अग्य=जिनका धर्म भूत ज्ञान संकुचित हो) (अकोबिद=शास्त्र जन्य ज्ञान से रहित =जो पंडित नहीं है)     (काई=जंग,मैल,मल)( लंपट=विषयो में लिपटे हुए,विषयी,कामी,कामुक) (कपटी=जिनके मन में कुछ हो और बाहर कुछ हो) (बेद असंमत= वेद विरुद्ध,वेदो के प्रतिकूल) (संतसभा नहिं देखी=का भाव है कि संत दर्शन से बुद्धि निर्मल होती इन्होने दर्शन नहीं किया इसीलिए मलिन बुद्धि बने रहे है)

अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी।।

लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी।।

(बेद असंमत=वेद विरूद्ध)

कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥

मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना।

मुकुर का भाव निर्मल मन से है यथाः

निर्मल मन जन सो मोहिपावा।मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।s

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा

गिरिजा संत समागम,सम न लाभ कछु आन॥

बिनु हरि कृपा न होइ, सो गावहिं बेद पुरान॥

लंकिनी ने हनुमान जी से कहा- हे तात स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखो को तराजू के एक पल्ले में रखा जाय तो भी वे सब मिल कर( दूसरे पल्ले पर रखे हुए )उस सुख के बराबर नहीं हो सकते जो लव(छन)मात्र के सत्संग से होता है(अपबर्ग =मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति)

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।॥

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥

 

एक घडी।आधी घडी।। आधी से पुनि आध॥

तुलसी सगंत साधु की हरे कोटि अपराध॥

 

तुलसी पिछले पाप से हरि चर्चा न सुहाय॥

ज्वर के जैसे वेग से भूख विदा हो जाय॥

 

शंकरजी पक्षीराज गरुड़ से कहा

बिनु सतसंग न हरिकथा तेहि बिनु मोह न भाग॥

मोह गएँ बिनु रामपद होइ न दृढ़ अनुराग॥

सत्संग की महिमा शिवजी जी करते है

शिवजी ने राम से कहा-मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो। हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥

(श्रीरंग=विष्णु,लक्ष्मीपति)

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥

तुलसीदास जी ने कहा -तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर हैं और संतों की सभा ही सब सुंदर मंगलों की जड़ अनुपम अयोध्या है॥ (कूल=तट, किनारा)

श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।

संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥

रहीम कहते हैं कि स्वाति-नक्षत्र की वर्षा की बूँद तो एक ही हैं, पर उसका गुण संगति के अनुसार बदलता है। कदली में पड़ने से उस बूँद की कपूर बन जाती है, अगर वह सीप में पड़ी तो मोती बन जाती है तथा साँप के मुँह में गिरने से उसी बूँद का विष बन जाता है। इंसान भी जैसी संगति में रहेगा, उसका परिणाम भी उस वस्तु के अनुसार ही होगा। (कदली=केला) (सीप=शंख, घोंघे) (स्वाति=नक्षत्र,देवी,सरस्वती)

कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।

जैसी संगति बैठिए तैसोई फल दीन।

 

 

 

 

 

 

 

21 कलयुग   की    महिमा

 

काकभुशुण्डि ने कहा-हे पक्षीराज गरुड़!:-कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥

कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।

दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥

कलयुग के सामान कोई युग नहीं कब? जब नर  विस्वास करे तब!

कलिजुग सम जुग आन नहिं, जौं नर कर बिस्वास।

गाइ राम गुन गन बिमलँ, भव तर बिनहिं प्रयास।

तुलसीदास जी ने कहा

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।

जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥

तुलसीदास जी ने कहा- पहले (सत्य) युग में ध्यान से, दूसरे (त्रेता) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान प्रसन्न होते हैं, परंतु कलियुग केवल पापकी जड़ और मलिन है, इसमें मनुष्यों का मन पापरूपी समुद्रमें मछली बना हुआ है अर्थात् पापसे कभी अलग होना ही नहीं चाहता; इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते (पयोनिधि=समुद्र,सागर) (परितोषत=मन के अनुसार काम होने या करने पर होने वाला संतोष,तुष्टि,तृप्ति)

ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें।।

कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना

काकभुशुण्डि ने कहा-हे पक्षीराज गरुड़! सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥ पर जो फल सतयुग में ध्यान,त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है,वही कलियुग में सिर्फ इश्वर का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है। कलियुग में थोड़े से परिश्रम से ही लोगों को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है,इन कारणों से मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा। काकभुशुण्डि ने कहा-हे पक्षीराज गरुड़!द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥(गाहा=गाथा,कथा)(कृतजुग=चारों युगों में पहला युग=सतयुगसत्ययुग)

कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥

त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥

द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥

पर

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥

कलियुग केवल राम अधारा-सुमिर-सुमिर नर उतरहि पारा॥s

 

तुलसीदास जी ने कहा-यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है किन्तु कलियुग में विशेष रूप से है । इसमें तो नाम को छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है । जो फल सतयुग में दस वर्ष ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने से मिलता है,उसे मनुष्य त्रेता में एक वर्ष,द्वापर में एक मास और कलियुग में सिर्फ एक दिन में प्राप्त कर लेता है…।

चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥

कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥

क्योकि

कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥

तुलसीदास जी ने कहा- ऐसे कराल (कलियुगके)तो नाम ही कल्पवृक्ष है,जो स्मरण करते ही संसारके सब जंजालोंको नाश कर देनेवाला है। कलियुगमें यह रामनाम मनोवाञ्छित फल देनेवाला है, परलोकका परम हितैषी और इस लोकका माता-पिता है (अर्थात् परलोकमें भगवान्का परमधाम देता है और इस लोकमें माता-पिताके समान सब प्रकारसे पालन और रक्षण करता है) ।।(अभिमत=अनुकूल,मनोरथ,सम्मत,मनचाहा) (कामतरु=कल्पवृक्ष)

नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला।।

राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता।।

तुलसीदास जी ने कहा (केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद, पुराण और संतों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल श्री रामजी में (या राम नाम में) प्रेम होना है॥(बिसोका=शोकरहित हुए अर्थात जन्म जरा मरण त्रियताप से शोक रहित होना) (एहू=यह,यही)

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका।।

बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू।।

सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥s

सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा॥s

श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥s

तुलसीदास जी ने कहा भगवान को अगर किसी युग में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है तो वह युग है कलियुग।

कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्जी हैं॥ (अवलंबन=सहारा लेना अपनाना,अनुसरण,छड़ी)

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।।

कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू।।

 

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़!

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़! कलयुग में अगर मानसिक पाप होता तो कलयुग में शायद ही किसी का निस्तार होता(कछु संसय नाहीं। जब प्रभु में ही अनन्य “भरोसा “होकर प्रेम से गुणगान करते हुए जो भजन करेगा ,तब कुछ भी संदेह नहीं है ,वह अवश्य भय तरेगा!)

सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।

कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।।

चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ।।

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़! श्री हरि के वाहन! सुनिए, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ॥ (निराचार=आचारहीन)

कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥(“द्विज श्रुति बेचक”धन के लोभ से अनधिकारी को वेद पढ़ाते है !)(“भूप प्रजासन”जैसे बकरी पालने वाला उसके दूध से तृप्त नहीं होता तो उसी को खा लेता है!) जब ब्राह्मण और छत्रिय धर्म भृष्ट हुए तो तब शेष प्रजा भी वैसी ही धर्म भृष्ट हो जाती है!

बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।

द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥

जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत है, उसी को सब कोई संत कहते हैं॥ (“मिथ्यारंभ दंभ “हृदय में श्रद्धा नहीं पर दुनिया को ठगने के लिए कोई धार्मिक कार्य धर्मशाला ,मंदिर ,पाठशाला का कार्य छेड़ देता है !उसी के नाम पर मांग मांग कर अपना पोषण करता है और अपने को परोपकारी और निष्काम महात्मा  होने का दम्भ रचाते रहते है! वे संत कहलाते है सब कोई उनकी माया को नहीं समझ पाते है)

मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥

मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥

जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥ (आचारी=अचार विचार और पवित्रता से रहने वाला)

सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥

जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥

जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥

जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥4॥

हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥

नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥

सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥

सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं।अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥

सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥

गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥

सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥

सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥

गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥

जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥ मात पिता तो आदि गुरु है उन्ही की शिक्षा का संस्कार बच्चो पर अमिट होता है उनकी यह गति है कि बच्चो को वही शिक्षा देते है  जिससे पेट भरे वही धर्म है अर्थात जो कुछ धर्म की भावना उनमे पहले से है वह भी नष्ट हो जाय यह धर्म की कलयुगी परिभाषा सर्वनाश का कारण है ऐसे मात पिता की संतान धर्म के लिए कैसे कष्ट सह सकती है ?वही औलाद वैश्विक  सुख के लिए क्या नहीं कर सकती?

 

हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥

मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥

जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥

पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥

तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥

वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥

कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥

तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥

काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा- (मनोमल=मन का विकार,मन का दूषित भाव या विचार,दुर्भाव,वासना,रंजिश,द्वेष,अज्ञान)

राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी॥

संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥

 

 

 

 

 

 

 

22 राम नाम महिमा

गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं कि

नाम राम को अंक है, सब साधन है सून |

अंक गए कछु हाथ नहीं, अंक रहे दस गून ||

तुलसीदासजी कहते हैं कि हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी मणिदीप को रखो |

राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर॥

राम के नाम को मणि दीप कहने का भाव -साधारण दीपक में तेल बत्ती हवा पतंगा आदि का डर रहता है,फिर प्रकाश भी एक सा नहीं रहता राम नाम जप में कोई खर्चा नहीं होता पर मणि दीप के लाभ

(तम=अँधेरा,अंधकार,तिमिर,अँधियारा) (सलभ=शलभ=भौंरा, पतंगा,पतंगा,परवाना,भक्त,आसक्त)

राम के नाम मणि दीप से लाभ और इसका खर्चा- यथाः

परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती॥

मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥

प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई॥

खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं॥

सूर्य किसी को अपने प्रकाश से वंचित नहीं करता।परन्तु मनुष्य को प्रकाश की प्राप्ति के लिए कर्म करना पड़ता है।अर्थात सूर्य के सामने जाना पड़ता है।वैसे ही परम प्रकाश जो कि परम सत्य है उसको प्राप्त करने के लिए परम सत्य तक पहुँचना पड़ता है।लगभग सभी भारतीय दर्शन में कर्म को प्रमुख माना गया है।किंतु माया के प्रभाव से सही एवं उचित कर्म न कर पाने की वजह से हम उस परम प्रकाश से वंचित हो जाते हैं।

राम का नाम कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला)और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर ) है,जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास भी तुलसी के समान पवित्र हो गया

“र” अग्निबीज है जो शोक, मोह, और कर्मबंधनों का दाहक है|”आ” सूर्यबीज है जो ज्ञान का प्रकाशक है|”म” चंद्रबीज है जो मन को शांति व शीतलता दायक है|”राम” नाम और “ॐ” का महत्व एक ही है| “राम” नाम तारक मन्त्र है, और “ॐ” अक्षर ब्रह्म है| दोनों का फल एक ही है| (सूत्र) कलपतरु=कल्पवृक्ष अर्थ,धर्म,काम,देता है और सूर्य की तपन हरता है पर राम नाम=अर्थ,धर्म,काम,मोक्ष,भी देता है और त्रिय ताप भी हारता है

नामु राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवासु ।

जो सिमरत भयो भाँग ते, तुलसी तुलसीदास ||

(एहि महँ= इसमें)

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।।

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू।।

श्री शिवजी से सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वती जी सदा अपने पति (शिवजी)के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं॥ (सहस=सहस्र=संख्या’1000’का सूचक,बहुत,अनेक,अनंत,अगणित)

सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥

तब शंकर जी शिवजी हर्षित हो गए और उन्होंने स्त्रियों में भूषण रूप (पतिव्रताओं में शिरोमणि) पार्वतीजी को अपना भूषण बना लिया। (अर्थात् उन्हें अपने अंग में धारण करके अर्धांगिनी बना लिया)। (कालकूट फलु दीन्ह अमी को। विषपान का फल मृत्यु है पर श्री राम नाम के प्रताप से अमृत हो गया!) (नीको=भलीभांति) (हेतु=[संस्कृत हित]= प्रेम,प्रीति, अनुराग ,कारण ,लक्ष्य,मकसद) (ही=हिय=हृदय)(तूला=कपास,दिए की बत्ती) (तिमिर=अंधकार, अँधेरा) (ती=पत्नी,स्त्री,औरत)(तिय=स्त्री,औरत)

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को।।

नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।

शंकर जी ने पार्वती से – (पतंग=सूर्य,सूरज,भास्कर,फतिंगा) जिसका नाम भ्रमरूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है,उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है? जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है,वे ही प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। जिनका नाम पाप रूपी रूई के (तुरंत जला डालने के) लिए अग्नि है और जिनका स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगलों का मूल है॥(हे पार्वती!) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ)(किमि=क्रिया विशेषण [संस्कृत किम्]कैसे,किस प्रकार,किस तरह) (अवलोकन=ध्यानपूर्वक देखना)

(बिसोकी=शोकरहित,गतशोक)

जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।s

कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी।।s

जासु नाम भ्रम तिमिरपतंगा।तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा।।s

विभीषण रावण से-

जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥s

बाली ने राम से-

जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी।।s

तुलसीदास जी –

जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।s

जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला।।s

नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेष वाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगी गण नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं॥

नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥

सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥

तुलसीदास जी ने कहा-नारद ने नाम के प्रताप को जाना की हरि सारे संसार को प्यारे हैं, (हरि को हर प्यारे हैं) और आप (नारद) हरि और हर दोनों को प्रिय हैं। (प्रसादू=प्रसन्नता,रीझ,कृपा) (सूत्र) भगत  सिरोमनि  प्रहलादू जी है पर (सूत्र) गुरु की मर्यादा के कारण नारदजी को मान दिया इसलिए को प्रथम स्थान नारद को दिया

नारद पुराण के अनुसार राम नाम का अर्थ =र -कार बीज मन्त्र अग्नि नारायण का है !जिसका काम शुभाशुभ कर्म को भस्म कर देना है !आ-कार बीज सूर्य नारायण का है !जिसका काम मोहान्धकार को विनाश करना है !मा -कार बीज चंद्र नारायण का है ! जिसका काम त्रिविध ताप को संघार करने का है !इस तरह से नारद ने राम का अर्थ बताया है !

नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥

नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी।।s

हरि का स्मरण करते ही शाप की गति समाप्त हो गई!इसलिए कैसा भी कुसंग हो,सुमिरन करने से सौभाग्य में बदल जाता है !प्रभु के सुमिरन की शुरुआत नाम से ही होती है क्योकि जब दर्शन,स्पर्श,प्रवेश,विलय, नहीं हो तब नाम ही साथ चलता है ! इसका लाभ यथाःये सभी हरि के सुमिरन से ही संभव है! (रेनु= ब्रह्माण्ड,धूल,पराग) (सुधा=अमृत,पियूष) (मिताई=मित्रता,दोस्ती)

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥

मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥

बालि=अत्यंत कोमल वाणी मे राम जी से बोला (अविनाशी=नाशरहित,अक्षयनित्य,शाश्वत,ईश्वर)

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं।।

जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी।।

वे ही श्री राम जी स्वयं मेरे नेत्रों के सामने आ गए हैं। हे प्रभो! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा॥ (बहुरि=फिर,पुनः,उपरांत) (अस =ऐसा,इस प्रकार,तुल्य,समान,इस जैसा)( सोई=वही,अव्यय,इसलिए,समान)

मम लोचन गोचर सोई आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥

काकभुशुण्डि ने कहा हे पक्षीराज गरुड़! रघुनाथजी की महिमा, नाम, रूप और गुणों की कथा सभी अपार एवं अनंत हैं तथा श्री रघुनाथजी स्वयं भी अनंत हैं। मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार श्री हरि के गुण गाते हैं। वेद, शेष और शिवजी भी उनका पार नहीं पाते॥ अनंत कोटि तीर्थों के समान वे पवित्र करने वाले हैं। उनका नाम संपूर्ण पापसमूह का नाश करने वाला है॥(पूग=समूह,वृंद,ढेर,सुपारी का पेड़ या फल)

महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा॥

निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं॥

अरबों पातालों के समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजों के समान भयानक हैं। अनंतकोटि तीर्थों के समान वे पवित्र करने वाले हैं। उनका नाम संपूर्ण पापसमूह का नाश करने वाला है॥ अतः नाम की महिमा अपार है!(कराला=भीषण या भयंकर)

प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला॥

तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन॥S

तुलसीदास जी ने कहा-अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥

भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥

सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥

नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा।।s

तुलसी अपने रामको रीझ भजो के खीज ।

उल्टे सीधे सब उगें खेते पड़े ते बीज ।।

तुलसीदास ने कहा-आदिकवि वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम (‘मरा’,’मरा’) जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहतीहैं॥(आदिकबि=बाल्मीक जी)

जान आदिकबि नाम प्रतापू। उल्टा नाम जपने का ये फल देखा कि व्याधा से मुनि हो गए (व्याधा=व्याध=बहेलिया,शिकारी) ,ब्रह्म सामान हो गए ,फिर ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हुए यह सब मरा मरा जाप का प्रताप है तब राम राम के जाप का क्या फल होगा कौन कह सकता है ? ब्रह्मा जी बोले जो कोई तीन लोको की परिक्रमा करके सबसे पहले हमारे पास आएगा वही प्रथम पूज्य होगा गणेश जी को नारद जी ने उपदेश दिया कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड “श्री राम नाम”के अंतर्गत है!तुम राम नाम ही को पृथ्वी पर लिख कर परिक्रमा करके ब्रह्मा जी के पास चले जाओ गणेश जी ने ऐसा ही किया इस प्रकार गणेश जी देवताओ में प्रथम पूज्य हुए ! श्री गणेश जी ने गणेश पुराण में श्री राम नाम के कीर्तन से अपना पूज्य होना कहा!

महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू।।

उल्टा नाम जपत जग जाना।वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।

रहीम कहते हैं कि-राम का नाम भवसागर से पार पाने का अचूक अस्त्र है । कोई भूल से भी राम नाम का सुमिरन कर लेता है तो उसका कल्याण हो जाता है , फिर चाहे वह काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों से ही ग्रस्त क्यों न हो।

रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम

पावत पूरन परम गति, कामादिक कौ धाम ।

सम्पति जी बोले (कस=ज़ोर,बल,सार)

मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा । राम कृपाँ कस भयउ सरीरा।।

पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं।।

तुलसीदास जी ने कहा

तुलसीदास ने कहा श्री रघुनाथजी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अगनितदुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों मेंप्रसिद्ध है॥, परन्तु नाम लेते ही संसारसमुद्र सूख जाता है। सज्जनगण! मन में विचार कीजिए(कि दोनों में कौन बड़ा है॥ (कटुक=सेना) (बटोरा=इकट्ठा करना)

राम भालु कपि कटुक बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह नथोरा॥

नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥

तुलसीदास जी ने कहा-(अपतु=पतित,पापी)

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।।

सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू।।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।

राम नाम कर अमित प्रभावा | संत पुराण उपनिषद गावा ||s

महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा॥s

तुलसीदास जी ने कहा-

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥

अब उस विश्व विदित गुण को स्पष्ट करते हैकि उसमे रघुपति का नाम है उसकी विशेषता

1 उदार यथाः

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।

जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।।

2 अति पावन 3 पुरान श्रुति सार यथाः

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो।।s

4 मंगल भवन यथाः

भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥s

5 अमंगल हारी यथाः

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।।s

6 उस नाम की महिमा ऐसी है की उमा के सहित पुरारी जी भी जपते है यथाः

सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी।।s

तुलसीदास जी ने कहा- (संकट से घबराए हुए) आर्त भक्त नाम जप करते हैं, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत् में चार प्रकार के (1-अर्थार्थी=धनादि की चाह से भजनेवाले, 2-आर्त-संकट की निवृत्ति के लिए भजनेवाले, 3-जिज्ञासु-भगवान को जानने की इच्छा से भजनेवाले, 4-ज्ञानी- भगवान को तत्त्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजनेवाले) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा,पापरहित और उदार हैं। (सुकृती=पुण्यात्मा,भाग्यवान,धन्य )

जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।

राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा।।

तुलसीदास जी ने कहा-चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परंतु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो (नाम को छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।(अधारा=आधार,सहारा,अबलम्ब)

चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।

चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ।।

तुलसीदास जी ने कहा मैं श्री रघुनाथजीके नाम राम की वंदना करता हूं जो (कृशानु=अग्नि) (भानु=सूर्य) और (हिमकरका=चन्द्रमा) हेतु अर्थात र आ और म रूप से बीज है। वह राम नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिव रूप है। वह वेदों का प्राण है निर्गुण उपमा रहित और गुणों का भंडार है। (कृशानु =अग्नि) (भानु=सूर्य)(हिमकर=चन्द्रमा,कपूर,शीतप्रदायक)  मैं रघुबर के राम नाम की बंदना करता हूंजो अग्नि सूर्य और चन्द्रमा के कारण है। “बंदउँ नाम राम इति “करुणासिन्धु जी ,बाबा हरी प्रसाद ,राम बालकदास जी के अनुसार प्राचीनतम पाठ”राम नाम”है!पर किस प्राचीनतम पोथी से यह पाठ लिया गया इसका पता नहीं है !यदपि “राम”शब्द अनेक व्यक्तियों का बोधक कहा गया है तदपि “राम”शब्द तीन ही व्यक्तियों के साथ विशेष प्रसिद्ध  होने से लोग उनकी संख्या तीन ही मानते है मानस और भागवत में भी तीन का प्रमाण मिलता है परशराम और बलराम को भी राम कहा है !कबीर पंथी,सत्यनामी आदि कहते है उनका “राम” सबसे न्यारा है वह दशरथ का बेटा नहीं है!वशिस्ट जी के अनुसार राम कोई नया नाम नहीं है वशिस्ट जी कहते है  की इनके नाम अनेक है फिर भी विचार कर राम ही नाम रखा  नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादु।भगत सिरोमनि भे प्रहलादू।।नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को। (मायककरक  का मत रघुवर=रघु=जीव+वर=पति=जीवो के पति)

बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो।।

तुलसीदास जी ने कहा- विषयरूपी साँप का जहर उतारने के लिए मंत्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से मिटनेवाले बुरे लेखों (मंद प्रारब्ध) को मिटा देनेवाले हैं। अज्ञानरूपी अंधकार को हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवकरूपी धान के पालन करने में मेघ के समान हैं।

(जलधर=मेघ,बादल,सागर,समुद्र, तालाब,जलाशय)

मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥

हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥

तुलसीदास जी ने कहा-(संतत=निरंतर,बराबर,लगातार,फैला या फैलाया हुआ,विस्तृत)

राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।

तुलसीदास जी ने कहा- पतितों को पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है, ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं- रेमन! कुटिलता त्याग कर उन्हीं को भज। श्री राम को भजने से किसने परम गति नहीं पाई?॥

जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।

ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।

तुलसीदास जी ने कहा- -निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों ही जानने में सुगम नहीं हैं, लेकिन नाम जप से दोनों को आसानी से जाना जा सकता हैं, इसी कारण मैंने, राम नाम को निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म राम से बड़ा कहा है, जबकि ब्रह्म एक ही है जो कि व्यापक,अविनाशी,सत्य,चेतन और आनंद की खान है।

ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी ॥

उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें ॥

तुलसीदास ने कहा-नाम दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं,  जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और सुख देने वाले हैं और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं (अर्थात् भगवान के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं। (मनोहर=मन हरनेवाला,सुंदर) (बिलोचन=नेत्र,दोनों नेत्र,विशेष नेत्र) (जन=भक्त,दास,जापक) (जिय=चित्त,मन,जीव,ह्रदय)

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥

ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोकनिबाहू॥

तुलसीदास ने कहा प्रभु श्री रामजी ने (भयानक) दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है॥ (सूत्र) दण्डक वन तो एक है परन्तु जन मन रुपी वन तो अनेक है (निकर=झुंड,समूह,ढेर,राशि,कोश,निधि) (कलुष=मलिनता,मैल, गन्दगी,पाप,कलंक,दोष,क्रोध,अपवित्रता) (निकंदन=नाश,विनाश, संहार,वध)

दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥

निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुषनिकंदन॥

तुलसीदास ने कहा-श्री रघुनाथजी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल, बेद बिदित गुन गाथ॥

तुलसीदास ने कहा नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं औरअमंगल वेष वाले होने पर भी मंगल की राशि हैं।शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगी गण नाम केही प्रसाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं॥

राम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥

सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुखभोगी॥

तुलसीदास ने कहा राम नाम श्री नृसिंह भगवान है, कलियुगहिरण्यकशिपु है और जप करने वाले जन प्रह्लाद के समानहैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु (कलियुग रूपी दैत्य)को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा॥ (नरकेसरी=नृसिंह) (सुरसाल=देवताओं को पीड़ित करने वाला दैत्य) (सूत्र)(कनककसिपु=हिरण्यकशिपु) (राम नाम रूपी=नृसिंह) देवताओ को दुःख देने वाले  कलिरूपी-हिरण्यकशिपु को मारकर जपाक रुपी-प्रह्लादका) पालन करेंगे (जिमि=जिस प्रकार से,जैसे,यथा,ज्यों)

राम नाम नरकेसरी ,कनककसिपु कलिकाल।

जापक जन प्रहलाद जिमि, पालिहि दलि सुरसाल॥

जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ(अर्थ,धर्म,काम,मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते हैं,ये वही (जगत के माता-पिता) सीतारामजी हैं,काम के शत्रु शिवजी ने देवताओं से ऐसा कहा।(कामारि=शिवजी का एक नाम,कामदेव के शत्रु महादेव)

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।।

करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी।।

शिवजी कहते हैं हे भवानी सुनो जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है?किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया।यही परम सत्य भी है और परम ज्ञान भी जो प्रभु प्रेम के बंधन से बंधा है उसे कोई बंधन नही बांध सकता यही कारण है कि ज्ञानी लोग संसार की मोह-माया का त्याग कर परमात्मा के भजन मे मग्न रहते है जिस कारण से वो पल भर मे संसार बंधन से मुक्त हो जाते है परन्तु जो मोह-माया के बंधन से बंधे है उनके लिए मुक्त होना कठिन ही नही असंभव है

जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।

तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।

याज्ञवल्क्य ने  भरद्वाज से कहा-राम नाम के प्रभाव को गाने वालो में संत,पुराण,और उपनिषद तीन प्रमाण गिनाए है संत शास्त्र के वक्ता है वे वेद पुराण और शास्त्र तीनो को कहते है राम नाम के प्रभाव का कथन करने में संत ही प्रथम है इस लिए इनको प्रथम कहा गया  दूसरा भाव यह है की संत गाते तो है पर पार नहीं पाते क्योकि अमित है दूसरा अर्थ यह भी है कि संत पुराण उपनिषद ने यह कहा की राम नाम का प्रभाव अमित है शिव भगवान भी श्री राम का जाप निरन्तर करते है तब अन्य जीवो का कहना भी क्या?(संतत जपत=अर्थात दिन रात,भूत भविष्य वर्तमान सभी कालो में जपते रहते है शिव  जी  के जप में कभी अंतर नहीं पड़ता तभी पार्वती कहती है) (अनंग=देहरहित,आकृतिविहीन,कामदेव,मन,आकाश) (आराती=अराति=दुश्मन,शत्रु)

राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा।।

संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी।।

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥S

नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥S

रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं!

जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।

नारद जी ने राम से कहा यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढ़कर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो॥

नारदजी कमल के समान हाथों को जोड़कर वचन बोले-॥

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥

राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥

(मुनि ने कहा-) हे राजन! इनके अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूँगा। वशिष्ठजी ने कहा   एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं (सीकर=जल की बूँद का एक कण मात्र) (सुपासी=सुखी करने वाले) (आनंद सिंधु=आनंद के समुद्र) आनंद सिंधु,सुखरासी,सुख धाम, इन तीनो का एक ही अर्थ है तब ये तीनो क्यों लिखे गए?ज्ञान,कर्म,उपासना,के विचार से तीनो विशेषण दिए गए  ज्ञानी को आनंद की पिपासा रहती है उसके लिए आनंद सिंधु कहा गया कर्म कांडी यज्ञ आदि करके  स्वर्ग आदि का सुख चाहते है उनके लिए सुख राशि कहा गया है उपासक सुख मय अविचल धाम चाहते है उनके लिए सुखधाम कहा गया है

इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।।

सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा।।

वशिष्ठजी ने कहा जो संसार का (भरण=पालना,पोषण= पालन करके वृद्धि और पुष्टि करना)

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।।

जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।।

वशिष्ठजी ने कहा -जो सुलक्षण के धाम राम जी के प्रिय सारे जगत के आधार भूत है (उदार=जो सर्वस्व का त्याग करता है अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं रखता जो जाग्रति,सुसुप्तिका ,स्वपन तीनो का त्याग करेगा वही उदार है) लक्ष्मण जी जीवो के आचार्य है जीवो को कल्याण मार्ग पर चलाते है भक्ति प्रदान करते है कलयुग में रामानुजाचार्य आप ही के अवतार है

लच्छन धाम राम प्रिय, सकल जगत आधार।

गुरु बसिष्ट तेहि राखा, लछिमन नाम उदार।।

सकल जगत आधार जब ब्रह्म अवतार राम होते है तब शेष सायी लक्ष्मण होते है।आनंद सिंधु,सुख राशि,सुखधाम,अर्थात ब्रह्म है उनका नाम राम है। विश्व भरण पोषण कर्ता विष्णु का नाम भरत है। जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता अर्थात  शिव उनका शत्रुघन नाम है। और सकल जगत के आधार जो  ब्रम्हा जी है  उनका नाम लक्ष्मण  है।अतःचारो भाई त्रिदेव के अवतार है जिनके अंश से उत्पन्न है वे ही कहते है

संभु विरंचि विष्णु भगवाना।। उपजहिं जासु अंश गुण खानी।S

अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता।।S

अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥S

हे सखी! भरत तो श्री रामचन्द्रजी की ही शकल-सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते॥लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं,पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है॥(अनुहारि=समान,सदृश,तुल्य,बराबर) (लखि=पहिचानना,समझना)

भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥

मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं।।

लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥

मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥

संसार में कुछ इंसान ऐसे भी हैं जो प्रभु नाम सिमरन में रमे रहते हैं। इसी कारण उन्हें हर वक्त सुख ही सुख प्राप्त करते हैं।

नानक दुखिया सब संसार सो सुखिया जिस नाम आधार।

इस तरह वह जो भी छल प्रपंच कर माया इकट्ठी कर रहा है उसके साथ जाने वाली नहीं है। साथ में जाएगा सिर्फ वही जो उसने प्रभु नाम सिमरन भक्ति कर साचा धन इकट्ठा किया होगा। उस वक्त इस सब का हिसाब धर्मराज की कचहरी में होगा। रिश्ते नाते कोई साथ नहीं देगा।

(निबेरा= छुटकारा,मुक्ति,उद्धार,बचाव)

बहु प्रपंच कर पर धन लिआवै, सुतदारा पर आन लुटावै।

मन मेरे भूलेकपट न कीजै, अंत निबेरा तेरे जी पै लीजै।

रावण ने जीवन में कभी भी राम नाम से नहीं लिया अन्य नाम से पुकारा

राम नाम को सुमिरवो,तुलसी वृथा न जाय।

लरकाई को तेरवो,आगे होत सहाय॥

लक्ष्मण की पत्रिका सुनकर कर रावण लक्ष्मण को (लघु तापस)बोला-जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥

भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥s

अंगद से कहा अरे अंगद! सुन, तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है। और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है।

तब प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥s

रावण ने अपने दूतो से कहा उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है॥

कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।।s

मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!॥ (रव=शोर,हल्ला)

गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥

हमहू उमा रहे तेहिं संगा। देखत राम चरित रन रंगा॥

 

 

 

 

 

 

 

 

 

23 राम चरित मानस का उद्देश:

स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा,

श्री रामायण जी सम्पूर्ण करने के उपरांत, बाबा तुलसीदास जी से किसी ने पूछा,बाबा इसमें यह कमी रह गई, आपको यह चरित्र भी चित्रण करना था,बाबा यह यह प्रसंग अपूर्ण सा लगता है, इसे थोड़ा औऱ रुचिकर लिखतेबाबा जी ने सभी की बातों को सुनकर जो उत्तर दिया वहः ह्रदयंगम करने योग्य है,देखो भाइयो यह रामचरित मानस ग्रन्थ हमने आपकी किंतु परन्तु, अनेक समालोचनाओं के लिए नहीं लिखा है,यह तो हमने ,स्वान्तः सुखाय, अपने अंतर के सुख , अपने ह्र्दय के आनन्द के लिए लिखा है,तुम को कुछ अच्छा लगे तो इसमें से ग्रहण करो,अन्यथा मत करो

रामायण का मतलब ”राम की लीला और चरित जो राम ने किये”. राम चरित मानस का मतलब ”राम के वो चरित जो मन में उदित हो” रामायण जो मह्रिषी वाल्मीकि जी ने लिखी थी वो उसमे श्री राम जी का वो चरित्र और लीला का बखान किया गया हैं उसमे कुछ भी उस विषय से अलग नहीं हैं. पर गोस्वामी जी ने जो रामचरित मानस लिखी हैं उसमे बहुत कुछ ऐसा हैं जो चिंतनीय, मनन करने योग्य हैं.

तुलसीदास जी ने कहा (प्रबोध=पूर्ण बोध,तत्वज्ञान,संतोष) (सूत्र) तुलसीदास ने यह मार्के की बात कही है मात्रभाषा से ही तो हृदय को प्रबोध हो सकता है?संस्कृत आदि से अंत करना मंगलाचरण मात्र समझना चाहिए! (सूत्र) शिष्य चाहे कितना भी मूड हो पर गुरु बार बार उपदेश देकर बोध करा ही देते है! क्योकि गुरु हमेशा दयालु ही होते है तुलसीदास जी कहते समझी परी कछु मति का अर्थ मेरी मति अति नीच है तब जगत भर  का उपकार हुआ अगर ऊँची होती तो सब समझ में आ जाता तब तो ना जाने क्या हो जाता?

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा।।

भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई।।

निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी।।

(सूत्र)धुआँ में कोई गुण  नहीं होता है परन्तु अगर के प्रसंग से  वह देवताओ के ग्रहण करने योग्य हो जाता है !मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली रामकथा रूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।)॥ (प्रसंग=संबंध,लगाव,अनुराग,आसक्ति) (भदेस=भद्दा,कुरूप,बुरा,दुष्ट) (भनिति=कहावत,लोकोक्ति,कथन,वार्ता,उक्ति)

धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।।

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥

तुलसीदास जी ने कहा श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। मैं उसी सुख देने वाली सुहावनी रामकथा को कहता हूँ,हे सज्जनों! आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिए॥(सुसमउ=सुअवसर) (सिवा=शिवा=पार्वती)

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥

कथा जो सकल लोक हितकारी।सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥

हे पार्वती

धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥

हे पार्वती तुमको कोई संसय नहीं है

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥

तुलसीदास जी ने कहा:-यह रामचरित मानस मुनियों का प्रिय है, इस सुहावने और पवित्र मानस की शिवजी ने रचना की। यह तीनों प्रकार के दोषों, दुःखों और दरिद्रता को तथा कलियुग की कुचालों और सब पापों का नाश करने वाला है॥ शिव ने पहले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वती को सुनाया।उन काकभुशुण्डिजी से फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजी को गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता(याज्ञवल्क्य और भरद्वाज)समान शील वाले और समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को जानते हैं॥ (बिरचेउ=रचना, अच्छी तरह से रचा,निर्माण किया) (बहुरि=फिर,पुनः,उपरांत) (तेहि=उसको,उसे) (त्रिबिध=तीन प्रकार का) (कुलि=सब) (दावन=दमन या नाश करने वाला )

(सोइ=वही,इसलिए,समान)

रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥

त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥

संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥

सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥

तुलसीदास जी ने कहा

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥

ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥

तुलसीदास जी ने कहा-(बिसद=विशद=स्वच्छ,निर्मल,उज्ज्वल)

सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा।।

राम चरित मानस एहि नामा सुनत श्रवण पाइय विश्रामा।।

तुलसीदास जी ने कहा- सुंदर बुद्धि भूमि है, हृदय ही उसमें गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र हैं और साधु-संत मेघ हैं। वे (साधुरूपी मेघ) राम के सुयशरूपी सुंदर,मधुर,मनोहर और मंगलकारी जल की वर्षा करते हैं।और जिस प्रेमाभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और सुंदर शीतलता है। जैसा मीठा खाने से मुँह बंध जाता है वैसे ही प्रेम भक्ति में देह की सुध बुध नहीं रहती ,कंठ गदगद हो जाता है ,मुख से वचन नहीं निकलता यही मधुरता है,रोमांच होता है ,प्रेम भक्त कभी खड़ा हो जाता है कभी बैठ जाता है ,कभी रोता है ,कभी हँसता है ,कभी गाता है ऐसी 41 दशाये प्रेम भक्ति में होती है !जैसे वर्षा का जल मीठा और उपचार  में वात ,पित्त ,कफ के लिए बहुत गुणदायक होता है सुतीक्छान जी ,सबरी जी ,हनुमान जी ,भरत जी ,सनकादिक ऋषि ,यथा क्रम सेसुतीक्छान जी की दशा – निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥ सबरी की दशा-सबरी परी चरन लपटाई॥प्रेम मगन मुख बचन न आवा। हनुमान जी की दशा-प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥भरत जी की दशा -परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए।।सनकादिक मुनि की दशा -मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी॥एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं॥ सीता जी -अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥ प्रेम भक्ति (जिसे प्रेमलक्षण भक्ति भी कहते है ) कही नहीं जा सकती  जैसे गूंगे को गुड़ ,स्वाद तो पाता है पर कह नहीं सकता प्रेम भक्ति में जो ऊपर की दशा हो