जिमि जिमि तापसु कथइ
अवतार के हेतु, प्रतापभानु साधारण धर्म में भले ही रत रहा हो ज्ञानी भले ही रहा हो पर उसमें भक्ति का बीज लेश मात्र भी नहीं था उसको अमर, अकंटक, शतकल्प, सदा के लिए अजरत्व, अमरत्व, और संसार के राज्य की प्रबल एषणा (इच्छा) थी यह अहंकार ही उसके पतन का कारण हुआ इसी से वह भूला क्योंकि वह मूड़ था उसे अपने तन धन और राज्य का मोह था। धर्म कर्म में कर्तव्यभिमान था। यदि भक्त होता तो भगवान उसकी रक्षा अवश्य करते उन्होंने तो स्वयं कहा।
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
और यदि चतुर होता तो प्रलोभन में कभी नहीं आता और विप्र श्राप से उसका नाश नहीं होता। (एषणा= अभिलाषा, याचना)
जैसा संग वैसा रंग जिसकी संगती में जाओगे वैसा उसके रंग से बच नहीं सकते महराज संग का रंग चढ़े बिना रह ही नहीं सकता। प्रताप भानु के पिता सत्य केतु अर्थात सत्य की ध्वजा पुत्र प्रताप भानु अर्थात सूर्य जैसा तेज जिसने जीवन में कभी भी जूठ नहीं बोला कपटी मुनि के कुसंग के प्रभाव से झूठ बोला इसका परिणाम नाश हुआ।
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
इसलिये ही रामजी ने नवधा भक्ति में संतों का संग कहा-
प्रथम भगति संतन कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
प्रताप भानु को वश में करने के उद्देश से कपटी मुनि ने राजा से कहा कि बहुत दिनों से वह किसी से मिला नहीं है क्योंकि प्रतिष्ठा अग्नि के समान है। हे राजन ख्याति संसार में फैलकर तप का नाश कर देती है। जैसे विश्वामित्र को तपस्या का त्रिशंकु ने, अप्सराओं और विप्र-पुत्र ने नाश किया। इस कारण मेरा इस संसार में ईश्वर के अलावा किसी से कोई लेना देना नहीं है।
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥
सुंदर वेष देखकर मूढ़ ही नहीं (मूढ़ तो मूर्ख ही है) चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते है।और वही प्रताप भानु के साथ हुआ।प्रतपभानु तापस वेश को देखकर धोखा हुआ और पुनः यहाँ उसके स्नेहमय बचनों को सुनकर कर तो सब कुछ भूल गया।
(सूत्र) वचन वेश से किसी के हृदय को जानना अत्यंत कठिन है, मोर की वाणी तो सुंदरअमृत के समान है मयूर (मोर) की सुन्दरता देख कर किसको यह भरोसा होगा की इसका भोजन सर्प है। हरि के कारण कोई वेश बदलता है तो परमात्मा को पाना चाहता है और यदि हार के कारण यदि कोई कोई वेश बदलता है तो वह मान सम्मान पाना चाहता है। कपटी मुनि भी तो हारा हुआ राजा है। (सुवेश=सुन्दर वेश) (सुधा=अमृत) (केकिहि=केकिक, मयूर, मोर) (असन=आहार) (पेखु=पेख= देखो, देखेनेवाला, दर्शक)
बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
वाणी और वेश से किसी के मन के मैल को जानना असंभव है सूपनखा, मारीचि, रावण और पूतना ने सुंदर वेश धरे थे पर उनकी नीयत मलीन ही थी।
बचन वेष तें जो बनइ, सो बिगरइ परिनाम।
तुलसी मन तें जो बनइ, बनी बनाई राम॥
तुलसी कहते हैं कि दंभ से भरे हुए बाहरी वेष और वचनों से जो काम बनता है, वह दंभ खुलने पर अंत में बिगड़ ही जाता है।उसका अन्तिम परिणाम बुरा होता है।अर्थात वेश बना कर तभी तक जय जय कार है जब तक भण्डा नहीं फूटता, भण्डा फूटते ही मारा जाता है परंतु जो काम सरल मन से बनता है, वह तो श्री राम की कृपा से बना-बनाया ही है।
जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥
आप जो हों सो हों (अर्थात् जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए। अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर।
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥
कपटी मुनि जब प्रताप भानु को महिपाला कहा तब भी प्रताप भानु को समझ जाना था कि मैंने तो इसे मंत्री बताया यह तो कोई भेदी है। पर भावी के वश एका एक प्रीती और परतीत करके कपटी मुनि केअधीन हो गया प्रताप भानु चतुर होते हुए भी परीक्षा ना कर सका। (प्रीती और परतीत=प्रेम और विश्वास)
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥
कपटी मुनि-तुम्हारी बुद्धि में पाप नहीं है अतःतुम्हारी बुद्धि पवित्र है, तुम्हारा भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ, तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा।(सुचि=शुचि =निश्छल, निष्कपट, छलरहित) (सुमति =बुद्धिमान) (दुरावउँ=दुराव=छिपाव,कपट, छल) (दारुण= भयंकर,भीषण)
क्योंकि संत लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते है, वहाँ गूढ़ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते।
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥
खलों की तो यह निति ही है सुन्दर वेश बनाकर वैराग्य की चर्चा करते है और समाज को छलते है बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले कपटी मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना। बगला सफेद रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी है, बगला नदी के किनारे बहुत सीधा सादा बनकर और नेत्र बंद करके खड़ा रहता है। इधर उधर कहीं नहीं देखता। उसका ध्यान केवल मछली पर रहता है। इसी लिये बनावटी भक्तों को बगुला भगत कहते है। (जिमि =जैसे,ज्यों ) (तिमि तिमि=त्यों ही त्यों )
तब कपटी मुनि वह बोला-
नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥
एक संत ने कहा कपटी मुनि ने कहा-हम तुम भाई अर्थात एक वर्ग के है अर्थात तुम भी राजा और में भी राजा पर भावी वश प्रताप भानु समझ नहीं सका। हे भाई हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा-महाराज बड़े बड़े संत महात्मा का दर्शन हुआ ऐसा नाम तो पूर्व मै किसी से नहीं सुना अतः महराज इसका अर्थ तो बताइये।
आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥
कपटी मुनि ने अपना नाम भी एकतनु बताया सृष्टि की उत्पति जब से हुई उसने आज तक दूसरी देह को धारण नहीं किया, तब से अब तक जीवित हूँ ना ही मैं मरा और ना ही मैंने दूसरी देह पाई, इसी कारण मेरा नाम एकतनु है।किसी संत ने कहा कपटी मुनि ने विचार किया की बाद में पिता का नाम फिर गुरु का नाम भी बताना पड़ेगा और राजा मुझे कही पहचान ना ले अतः ऐसा नाम बताने से और परिचय की जरूरत ही नहीं होगी। जब आदि सृष्टि हुई उसी समय मेरी उत्पत्ति हुई। मेरा नाम एक तनु इसलिए पड़ा आदिसृष्टि कब से है इस प्रपंच में पड़ने की जरूरत ही नहीं है अपने को समझो और परमात्मा का भजन करो सुखी होने का मूल मन्त्र है। (बहोरि= पुनः,फिर,दूसरी बार)
जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥
हे पुत्र मन में अचरज मत करो, क्योंकि तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है। तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से विष्णु संसार का पालन करने वाले बने है। तपबल से ब्रह्मदेव संसार की सृष्टि करते है। तप बल से ही विष्णु जगत का पालन करते है। मैं तुम्हारे मन की बात को समझ रहा हूँ। तुम आश्चर्य न करो। तप बल से क्या नही हो सकता? मैंने अपने शरीर को स्थायी तप से ही बना रखा है। यह पूरी सृष्टि तप के आधार से है। (सृजन=रचता है) (परित्राता=पालन करना,पूर्ण रक्षा करनेवाला) (संहार=नाश, ध्वंस) (अगम=दुर्गम)
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥
तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह तपस्वी पुरानी कथाएँ कहने लगा।
सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥
राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा- राजन मैं तुमको और तुम्हारे पिता दोनों का नाम जानता हूँ। तुमने मुझ से कपट किया मुझे अच्छा लगा, पुनः कपटी मुनि ने कहा कि नीति भी तो यही कहती है की राजा को हर जगहअपना नाम नहीं बताना चाहिए।
इतना ज्ञानी राजा भावी वश कपटी मुनि को नहीं पहचान सका,और ना ही संकेत को समझ पाया।
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥
जब प्रताप भानु अपना नाम बतलाने लगा। तभी कपट मुनि ने अपनी सिद्धि दिखाते हुये कहा कि तुम्हारा नाम भानुप्रताप है। तुम्हारे पिता का नाम राजा सत्यकेतु है। मुझे यह ज्ञान गुरु प्रसाद से है। जब तुम्हे गुरु मिलेगा तब तुम भी इसी भाति जान जाया करोगे। परन्तु ये बातें कही नहीं जाती। कहने से प्रसिद्धि होती है और प्रसिद्धि से तप का नाश (क्षय) होता है। (अकाजा=नुकसान)
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥
कपटी मुनि ने कहा-संसार में किसी को भी सब विषयों की प्राप्ति नहीं होती। तुम चक्रवर्ती राजा हो। फिर भी तुमको कोई ना कोई अभाव अवश्य होगा। अतः दिल खोलकर मांगो इस तरह से कपटी मुनि भीतरी इच्छा जानना चाहता है। भीतरी इच्छा ही सबसे बड़ी कमजोरी है। उसी की पूर्ती के लिए आदमी अन्धा हो जाता है। कपटी सदा उसके जानने की चेष्ठा करता है। क्योंकि उसे जान लेने से ठगने में आसानी होती है।
कपटी मुनि के सुंदर प्रिय वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और मुनि के पैर पकड़कर बहुत प्रकार से विनती की।
प्रतापभानु मन, वचन, कर्म से कपटी मुनि की शरणागत हुआ।
मन से हरषाना, गहि पद से कर्म, बिनय कीन्हि से वचन,
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥
हे दयासागर मुनि आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठी में आ गए। आप प्रभु है , सर्व समर्थ है और मेरे ऊपर प्रसन्न भी है। इसलिए ऐसा वर माँगूगा जहां तक किसी की गति आज तक न हुई हो। और हमेशा हमेशा के लिए शोक रहित हो जाऊगा।
जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥
जब कपटी मुनि ने कहा जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही तब प्रताप भानु ने दुर्लभ वर माँगा- जब मुनि ने तप के प्रभाव से अपने को मृत्यु से मुक्त रखा है तो प्रसन्न होकर मुझे भी मृत्यु से मुक्त कर दे,मेरे राज्य एक छत्र हो और मेरा कोई शत्रु भी ना हो शत्रु काँटे के समान होता है शत्रु हमेशा अशांत करता है प्रताप भानु भी जनता है कि एक कल्प के बाद प्रलय हो जाता है फिर भी मांगता है मेरा राज्य सौ कल्पों तक हो जैसे महराज आप आदिकल्प से बने हुए है ऐसा ही मेरा राज्य रहे क्योंकि
अरि बस दैउ जियावत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।
शत्रु के अधीन जिन्दा रहने से मरना बेहतर होता है।
किसी संत ने कहा प्रताप भानु में ना तो ज्ञान ना ही भक्ति है जब प्रकृति का नियम है, एक कल्प के बाद प्रलय होना तो वह प्रलय कैसे रुकेगा और अगर भक्ति होती तो भक्ति मांगता भगवान के दर्शन लाभ माँगता तब दुसरे संत ने ये कहा राजा ज्ञानी भी है और भक्त भी है। क्योंकि
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
पर इसमें वास्तविकता यही है।
बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥
तीसरे संत ने कहा ज्ञान तो था पर वह इतना ही जनता था की सदकर्म को भगवान को अर्पित नहीं करोगे तो बंधन का कारण होगा तभी तो अर्पित करता भी था। पर
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
राम जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उनके विरुद्ध कर सके।
(सूत्र) संसार में वासना किसी की जाती नहीं है जिन पर भगवान की कृपा हो जाती है वही वासना से मुक्त हो सकते है। प्रतापभानु को विश्वास हो गया जब मुनि आदि कल्प से एक ही शरीर धारण किये हुए है, तो मुझे भी अपने जैसा कर सकते है शेष बातें तो इनके लिए सुगम ही है। मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्प तक एक छत्र अकण्टक राज्य हो।
(सूत्र) ये प्रताप भानु की कथा हमको यह सन्देश देती है की यदि हमको भी अवसर मिल जाये तो महराज अनंत इच्छाये निकल पड़ेगी जिनका हमको पता भी नहीं है अब कपटी मुनि ने कहा हे राजन ये सब कुछ तो ऐसा ही हो होगा, परन्तु इसमें एक कठिनाई है।
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
एक ब्राह्मण कुल को छोड़कर काल भी तुम्हारे नतमस्तक हो जायेगा पर उसमें एक शर्त है ।
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥
क्योंकि
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते है। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है।हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।जब उत्पन्न पालन और संहार करने वाले ही तुम्हारे अधीन हो जायेगे तब तो पूरी सृष्टि स्वतः ही तुम्हारे अधीन हो जाएगी। (बरियारा=शक्तिशाली, बलवान) (तुअ = तव=तुम्हारा)
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥
शस्त्र बल से संसार तो वश में हो सकता है। परन्तु ब्राह्मण शस्त्रबल से वश में नहीं हो सकते। विश्वामित्र और वशिष्ठ के विरोध से यह सभी जानते है कि छत्री बल से ब्रह्मबल अधिक होता है। ब्राह्मण कुल से जोर जबर्दस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता हूँ।हे राजन सुनो, ब्राह्मणों के शाप बिना तुम्हारा नाश किसी काल में नहीं होगा। (बरिआई= बल प्रयोग,जबरदस्ती)
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्र द्रोह पावक सो जरई॥
इंद्र के वज्र, मेरे विशाल त्रिशूल, काल के दंड और श्री हरि के विकराल चक्र के मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रद्रोह रूपी अग्नि से भस्म हो जाता है। (कुलिश=वज्र) (कालदंड=यमराज का दंड )
ब्राह्मणों को वश में करने का तो कहा मगर विधि को नहीं कहा क्योकि
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥
हे राजन मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा, कपटी मुनि जनता है कि प्रताप भानु का मंत्री तो परम चतुर है वह तुरंत समझ जायेगा शत्रु ने तापस वेश रखकर राजा के विनाश का उपाय रचा है अतः वह खोज कर मुझे मरवा डालेगा।एक संत ने कहा अभी यह चर्चा मेरे दो और तुम्हारे दो कान के बीच में है जैसे ही में काल केतु के कान में पड़ेगी मेरी वाणी सत्य हो जाएगी तुम्हारा नाश हो जाएगा।
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥
राजा ने कपटी मुनि को गुरु मान लिया कहा- हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है। (राखा=रक्षा की) (त्राता=रक्षक,बचाने वाला)
जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥
राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला- हे राजन सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा, (क्योंकि) तुम, मन, वाणी और शरीर (तीनों) से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते हैं।
जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥
इसी युक्ति में ही कपट भरा है पर अंधभक्त राजा का उस तरफ ध्यान नहीं है। साधारण तय राजा के भोजन में यदि कोई चूक हो जाय तो हलवाई और परोसने वालों की चूक मानी जाती है। राजा को कोई दोषी नहीं बताता। कपटी मुनि कहता है कि तुम परोसो और हलवाई को कोई न जान सके। ऐसी अवस्था में जो चूक होगी उसका जिम्मेदार तो राजा ही होगा। उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा। (अनुसरई =अनुकूल रहेगा, अनुसरण करेगा) (संवत= एक वर्ष)
परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
ज्यों ही राजा परोसने लगा, उसी काल आकाशवाणी हुई-कालकेतु ने यह आकाशवाणी श्राप दिलाने के लिए की जिसके कारण राजा मारा गया।हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस के खाने में बड़ी हानि है।
भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥
रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है। आकाशवाणी का विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया परन्तु, उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहार वश उसके मुँह से एक बात भी न निकली।
बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥
तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो।
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
रे नीच क्षत्रिय! तूने परिवार सहित ऐसा काम किया और परिवार सहित हमारा नाश करना चाहा अतः इसलिए तू भी परिवार सहित राक्षस बनेगा ,ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की।
संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देने वाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई।
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
हे ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था।
भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा दोइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥
हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह टल नहीं सकता। (सूत्र) दशरथ जी मुनि वसिष्ठ ब्राम्हण के अनुसार चले तो रामजी का अवतार हुआ और प्रतापभानु ने ब्राम्हणों को अपने अनुसार चला उसका परिणाम रावण का अवतार हुआ।
राम अवतार के कारण NEXT
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