सलाह,भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा।
कुम्भकर्ण की रावण को सलाह- तुम राक्षसो के नाथ हो । तुम्हे ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए जिससे सब राक्षसों का नाश हो जाय। देखो तुम्हारे अपराध से राक्षसो का संहार हो रहा है। मुझे जगाया तो तुमने पर काम बिगड़ने पर। अब मेरे जागने से क्या होगा? जगदम्वा का हरण हो गया है। हे नाथ इस समय जो भी तुम्हारे पच्छ में खड़ा होगा वह मारा जायगा।तुमने सीताहरण की जो कथा सुनाई तथा अब तक की कथा कही उसमे अभिमान भरा है। तुमको अभिमान के कारण न तो यथार्थ बात समझ में आती है और अभिमान के कारण भजन नही हो सकता है। तुम्हारे अभिमान ने तुम्हे इस दर्जे तक पहुँचाया। अपने कल्याण के लिए तुमने हमे जगाया। सो कल्याण तो हमारे जाग कर युद्ध करने से नहीं होगा।पर हे नाथ अभिमान के परित्याग करने और राम के भजने से अब भी कल्याण सम्भव है। (अजहूँ= अर्थात अब भी कुछ नहीं बिगड़ा,इतनी हानि हुई सो हुई आगे तो ना हो) (निसिचर= निशाचर= राक्षस) (नाहा= राजा)
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥
यही बात तो तुमसे विभीषण ने भी कही थी पर उसकी सलाह भी नहीं मानी (सरिस= समान, तुल्य)
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥
हे रावण! जिनके हनुमान् सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हनुमान जी का ही क्यों नाम लिया? क्योकि मेघनाथ और रावण
भी उसका लोहा मान चुके है समुद्र को लॉघकर आये हुए, हनुमान का दर्शन तुम कर ही चुके हो, तथा जिस प्रकार उन्होंने राक्षसो का वध किया है वह भी तुमने देखा है ।क्या मनुष्य ऐसा कर्म कर सकेगा? हनुमान का अंतिम दुर्लभ रामकाज द्रोण पर्वत उखाड़ लाना तो अभी अभी हुआ है जिससे रावण बहुत विषाद युक्त है। (पायक= सेवक,दास, पैदल सिपाही)
हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
और भाई सुन तेरे सिर तो कहने को दस हैँ पर तुमको मोटी सी बात समझ में नहीं आयी। क्या हनुमान के कार्यो को तुमने नहीं देखा?
ऐसा हनुमान जिसका दासत्व करता है वह क्या मनुष्य है। अभिमानके कारण ही तुमको अब भी हनुमान बन्दर और राम नर मालूम हो रहे हैं।
तुमने हे बन्घु! योग्य कार्य न किया,इस बात का शोक है।
कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥
बन्धु हो,ऐसे कार्य के करने के पहिले तुम्हे मुझसे सम्मति लेनी चाहिए यह न करना तुम्हारा खोटापन है। (खोटाई= खोटा=बुरा, नीच,काम, कपट,छल)
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥
हे स्वामी! तुम शुरू से ही देवताओ का विरोध तो करते ही थे पर विरोध करते करते तुमने उस सर्व समर्थ देव से विरोध कर लिया। जिसके शिव और ब्रह्मा सेवक हैं। शिव और ब्रह्मा का ही तुम्हे बल है। में नही समझता था कि तुम से ऐसी मूर्खता होगी कि उनके स्वामी से तुम बैर मोल लोगे। यदि तुम मुझसे पहिले कहे होते तो में वह ज्ञान तुम्हे सुनाता जो नारद मुनि ने मुझसे कहा था पर वह समय तो हाथ से निकल गया। अब तो युद्ध छिड़ गया और इतने आत्मीय मारे गये । अब उस ज्ञान का प्रकाश करना व्यर्थ है। एक दिन रात के समय कुम्भकरण विशालपुरी के पर्वत पर बेठे थे कि नारदजी को आते हुए देखा कुम्भकरण ने पुछा कि महात्मा ! कहाँ से आ रहे हो? उन्होने कहा कि मैं देवताओ की सभा से आ रहा हूँ । वहाँ की व्यवस्था सुनो, तुम दोनो भाइयो से बहुत दु खी होकर देवता लोग विष्णु के शरण गये और प्रार्थना किया कि आप त्रिलोक्य के कंटक रावण को मारिये। ब्रह्मदेव ने उसका निधन मनुष्य के हाथो निश्चित किया है। अतः उसके मारने के लिए आप नरावतार धारण करे । विष्णु ने कहा ऐसा हो होगा। सो महाविष्णु सत्यसंकल्प ईश्वर रघुकुल में राम होकर अवतार लेगे । वह तुम लोगो का बध करगे। यह कहकर मुनिजी चल गये। मेरे भाई क्या तुम भूल गए कि भगवान राम के एक पूर्वज ने तुमको शाप दिया था। जब तुमने बल के अहंकार में अनेकों राजा महाराजाओं को पराजित किया इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य और तुम्हारे के बीच भीषण युद्ध हुआ। ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अनरण्य तुम्हारे हाथों पराजित हुऐ। और तुम अनरण्य का अपमान करने लगे। अपने अपमान से क्रोधित होकर राजा अनरण्य ने तुमको शाप दिया कि तूने इक्ष्वाकु के वंशजों का अपमान किया है इसलिए मेरा शाप है कि इच्वाकु वंश के राजा दशरथ के पुत्र राम के हाथों तुम्हारा वध होगा। (निरबाहा= गुज़ारा,पालन)
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥
हे भाई ज्ञानोउपदेश करनेका अब समय नहीं है क्योंकि तुम व्याकुलचित्त हो ओर अमिमानसे भरे हुए हो । ऐसी दशा में ज्ञान कहने से कुछ लाभ नहीं होगा रामजी
ने स्वयं लछमण से कहा कि(सूत्र) ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है अर्थात (ऊसर=बंजर)में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है। यथा–‘
अर्थात हे भाई! किन्नर,देव, मनुज, खग, नाग सबके पीछे तुम पड़े रहते हो, सबसे तुमने विरोध किया। विरोध करते-करते तुम्हारा मन इतना बढ़ गया कि शिव (विरंचि= ब्रह्मा) जिसके सेवक .हैं तुमने उनसे भी विरोध कर लिया। ‘शिव विरंचि कहने का भाव यह कि इन्हीं का तुमको भरोसा है। इन्हीं के प्रसाद से तुम्हारी
सर्वत्र विजय हुई है और इतनी विभूति है। “अब तुमने इसके स्वामी से विरोध किया है यह जानकर क्या शिव-विरंचि तुमसे प्रसन्न होंगे! वे दोनों सेवाधर्म का आश्रय करके किसी-न-किसी रूपसे स्वामी की सेवा करेंगे ही,और तुम्हारे संहार के कारण होंगे। अब तुम ऐसा काम कर बेठे कि निशिचर कुल की रक्षा हो ही नहीं सकती। जो कालस्वरूप हैं, दुष्टों के समूह रूपी वन के भस्म करने वाले (अग्नि) हैं, गुणों के धाम और ज्ञानघन हैं एवं शिवजी और ब्रह्माजी भी जिनकी सेवा करते हैं, उनसे वैर कैसा?
तुम भाई हो।मेरी तुम्हारी अंतिम भेंट है। इसलिए जी भरकर मिल लो फिर मिलना नही होगा। अब तो में अपने नेत्रो को सफल करने जा रहा हूँ। सरकार का ध्यान कह रहा है कि श्याम शरीर है और कमल ऐसी आँखें हैं! तीनों तापो को छुड़ाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ। (त्रय= त्रिविधताप, दैहिक, दैविक भौतिक ताप) (सरसीरुह= तालाब में उत्पन्न होनेवाला, कमल)
कुम्भकर्ण विभीषण से बोले –रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया। हे भाई! तूने अपने कुल को (दैदीप्यमान= प्रकाशमान, चमक-दमक वाला, वैभवशाली) कर दिया,जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा।