ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); सलाह,बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥ - manaschintan

सलाह,बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

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सलाह,बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
सलाह,बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

बार बार बिनवउँ मुनि तोही।

शिवजी ने नारदजी से कहा हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस तरह भगवान हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा चले तब भी इसको छिपा जाना (सूत्र) शंकर जी कहा बेटा काम तो बहुत अच्छा किया मगर भगवान से न कहना मगर जीव का स्वाभाव है कि  जिस काम को मना करो वो जरूर करता है। सफलता प्रभु की कृपा से ही मिलती है!(सूत्र) प्रत्येक व्यक्ति को सफलता का यस प्रभु या गुरु को देना चाहिए तब तो अहंकार से बचेगा नहीं तो अहंकार अकेला ही नर्क की यात्रा करा देता है! (सूत्र) अहंकार एक अकेला ऐसा पाप है की नर्क की यात्रा के लिए  किसी  और पाप  की जरूरत  नहीं है।

हनुमान जी लंका में सब कुछ करके आये पर बोले क्या रहे है? मैंने तो कुछ नहीं किया।

प्रभु की कृपा भयउ सब काजू। जनम हमार सुफल भा आजू॥

हनुमान जी बोले रहे है मेरा समर्थ पुरुषार्थ केवल इतना है कि में वानर जाति का होने से पेड़ की एक शाखा से दूसरी  शाखा पर जा सकता हूँ। (मनुसाई=पुरुषार्थ) 

साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥

नारद जी काम से कैसे बचे? जब सुमिरन से श्राप खत्म हो जाता है तो काम क्या करेगा? नारद जी सफलता पाए थे केवल और केवल हरी के भजन से, पर गलती से या अभिमान वश काम पर विजय को अपना पुरुषार्थ समझ बैठे।

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी।

पर नारद जी को तो अहंकार ने डस लिया तभी तो शंकर जी बोले,बार बार बिनवउँ मुनि तोही। 

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

यद्पि शिवजी बड़े है तो भी विनय करते है क्योकि यह बड़ो का स्वाभाव है कि छोटो के कल्याणार्थ अपनी मान मर्यादा छोड़ कर विनय करके उनको समझते है जिससे वह उनकी सलाह को मान ले।
यथाः हनुमान जी रावण से विनती करते है।

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥

 

माल्यवंत ने रावण से कहा

बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥
बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥

 

यथाः विभीषण जी रावण से विनती करते है।

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥

यथाः राम जी प्रजा से विनती करते  है।

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥

हे नारद कथा सुनाने में कोई रोक नहीं है पर आपके सुनाने का तरीका ठीक नहीं है इससे अभिमान झलकता है अतः इस तरीके से इस कथा को श्री हरि को मत सुनना

होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥

अहंकार का जन्म ही मूर्खता से होता है! शंकर जी ने मना किया प्रभु को न बताना शंकर जी ने इस प्रसंग के शुरू में बहुत अच्छा दोहा बोला! महादेवजी ने हँसकर कहा- हे पार्वती न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। श्री रघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है।

बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥

पार्वती बोली ऐसा क्यों ? तब शंकर जी बोले 

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥

शिवजी ने तो भले  के लिए उपदेश दिया। पर नारद को अच्छा न लगा। हे  भरद्वाज कौतुक सुनो, हरि की इच्छा वलवती है (बलवान= शक्तिशाली, पुष्ट, मजबूत) (कौतुक=लीला )

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान।।

 जिसके ऊपर आपत्ति आना  होती है उसे हितोपदेश अच्छा नही लगता, शिवजी ने भले के लिए कहा पर नारद जी उल्टा समझ बैठे  कि इन्हे (शिवजी) को मेरी ख्याति अच्छी नहीं लगती। अकेले खुद  ही ‘कामारि’ बने रहना चाहते हैँ। याज्ञवल्वयजी भरद्वाज जी को सावधान करते है कि यह कौतुक  सुनने  योग्य है। शिवजी का वचन भ्रम,(तम=अंधकार) के मिटाने के लिए सूर्य  की किरण के समान  है सो उसी से नारदजी को भ्रम हो गया  इसी को हरि इच्छा कहते है। इसके सामने किसी का बल नहीं लगता ठीक इसी  तरह से शिव जी ने  सती  को  समझाया था पर उनके भी समझ में बात न आयी तब शिवजी ने विचार किया वि यहाँ हरि इच्छा रूपी बलवती भावी काम कर रही है । सामान्य भावी होती तो मैं  मिटा देता। (कामारि=कामदेव के शत्रु) 

हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदय विचारत सभु सुजाना ।।
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥

काम क्रोध लोभ और अहंकार से सभी भाई है यदि एक हार जाता है तो दूसरा स्वतः ही आ जाता है नारद ने काम को पराजित किया तो अहंकार ने नारद को दबा लिया नारद ने सबसे पहले इंद्र की सभा में अपनी विजय का वर्णन किया वहां सभी ने नारद जी की तारीफ की और यही से अहंकार का जन्म हुआ जिससे नारद जी ने शंकर जी की सलाह तक नहीं मानी  उसका परिणाम जगत में  नारद जी ने स्वयं अपना उपहास कराया

संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥

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