राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥
राम जी ने हमेशा सभी की सलाह से कार्य किये (सूत्र) प्रभु श्री राम के चरित्र से हम कई गुण सीख सकते हैं जो हमारे जीवन को सफल होने में सहायक है। राम स्वयं विष्णु के अवतार थे। उनके पास असीम शक्तियां थी, परंतु उन्होंने कभी भी इसका दुरूपयोग नहीं किया। श्रेष्ट धुर्नधर होने पर भी उन्होंने धनुष बाण का उपयोग सिर्फ समय पड़ने पर ही किया। राम का जीवन बहुत ही मर्यादित था। इसलिए ही उन्हें मार्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। प्रभु राम सदैव सही राह पर चले और विनम्रता का परिचय दिया। इसी तरह हमें भी मर्यादित होकर हर कार्य करना चाहिए। ताकि कोई हमें गलत न कह पाए। आप किसी भी क्षेत्र में हो लोग आपके काम से जज करते ही हैं। रामजी ने भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाते है जो प्रयागराज में गंगा जमुना सरस्वती के संगम पर स्थित है! राम भरद्वाज जी से वन का मार्ग प्रेम से पूछते है! राम जी भरद्वाज मुनि से स्वामी सेवक भाव रखते हुए नाथ सम्बोधन देते है! ऐश्वर्या छुपाते देखकर मुनि जी मन ही मन हंसे कि हम से रास्ता पूछते है।अतः उत्तर देते हैं कि सभी रास्ते तुम्हारे लिए सुगम है। जीवों के लिये कोई मार्ग सुगम होता है तो कोई मार्ग दुर्गम होता है पर राम आप तो ब्रह्म है अतः सभी रास्ते तुम्हारे लिए सुगम है। जिसने दो पग में ही समूचे ब्रह्मांड को नाप दिया। तब विचार करें ऐसे सामर्थ प्रभु के लिए दुर्गम क्या हैं। (जग=ब्रह्माण्ड) (पाहीं=पास,निकट)
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥
भरद्वाज मुनि मन में हँसकर रामजी से कहते हैं कि आपके लिए तो सभी मार्ग सुगम हैं।
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं।सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥
भगवान विष्णु ने राजा बलि के अत्याचारों से दुनिया को मुक्ति दिलाने के लिए वामन अवतार लिया। वे राजा बलि के पास गए और दान में तीन पग जमीन मांगी। राजा बलि महादानी थे। उन्होंने सहर्ष तीन पग जमीन दान दे दी। पर भगवान विष्णु ने दो पग में ही समूचे ब्रह्मांड को नाप दिया। तब भगवान ने कहा कि अब मैं अपना तीसरा पैर कहां रखू। राजा बलि ने उनके तीसरे पैर को अपने सिर पर जगह दी और वे पाताल चले गए। वही राम केवट से गंगा पार करने के लिए विनय करते है।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।
राम जी बाल्मीक मुनि के आश्रम में आते है और उनसे विनम्रता पूर्वक हे मुनि वह स्थान बताइये जहाँ में लक्ष्मण सीता सहित रहूँ! मुनि राम की भांति भांति प्रसंसा करते है! और अंत में कहते है!
अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौं कछु काल कृपाला॥
बाल्मीक मुनि-
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
आप चित्रकूट पर्बत पर निवास करे, वहां आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है! सुहावना पर्वत है और सुन्दर वन है हाथी, सिंह, हिरन और पछियो का विहार स्थल है। (सुपास=सुख,आराम ,सुभीता) (सुभीता=वह स्थिति जिसमें किसी काम को करने में कोई कठिनाई न हो, सुविधाजनक स्थिति) (विहग=पक्षी, चिड़िया)
चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥
सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥
राम ने शबरी से सीता का पता पूछा=हे भामिनि! यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता। (करिबर=श्रेष्ट हाथी) यहाँ श्री जानकी जी का हुलिया भी सूचित करते हैं। सीता जी जनक की कन्या हैं,और श्रेष्ट हाथी की जैसी उनकी चाल है। यहाँ “करिबरगामिनी” पद जनकसुता का विशेषण है। एक तरह से भगवान सीता जी का हुलिया बताते है। यहाँ यह सबरी के लिए सम्बोधन नहीं हो सकता क्योकि सबरी में भगवान माता का भाव रखते है। (गामिनी= प्राचीन काल की एक प्रकार की नाव-यह नाव 96 हाथ लंबी, 12 हाथ चौड़ी और 9 हाथ ऊँची होती थी और समुद्रों में चलती थी। ऐसी नाव पर यात्रा करना अशुभ और दुःखदायी समझा जाता था)
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥
राम हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? (तव=तुम्हारा)(सायक= तीर,बाण) (कोटि= करोड़ों) (गंभीरा=गहरा) (गाई=सविस्तार व्याख्या करना, गाना) (कादर=भीरु, डरपोक,व्याकुल, परेशान,आर्त,अधीर,विवश)
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई।।
सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।।
जिस कार्य मे श्री रामजी की न्यूनता होती दिखती है, उसे श्री लक्ष्मण जी सह नहीं सकते, सागर के समीप रामजी द्वारा धरना देने मे उनकी न्यूनता है।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥
रामजी ने लक्ष्मण से हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो।
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
श्री राम विभीषण की सलाह मानकर समुद्र से तीन दिन तक विनिती करते है लेकिन उसके कान पर जू तक नहीं रेंगती, तव वे लक्ष्मण की सलाह मानकर समुद्र पर (कोप=क्रोध) करते है। समुद्र तीन दिनों तक यह न समझ सका कि उसके तट पर जो बैठा है, वह कौन है जबकि उसके बाण करोड़ों समुद्रों को सुखा सकते है- तब वह समुद्र जड़ नहीं तो और क्या था?
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
भय बिनु होइ न प्रीति- वाली शिक्षा सुग्रीव के प्रसंग में भी मिलती है, ऋष्यमूक पर्वत पर श्रीराम से मिलने पर उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह सीता जी का पता लगाने में राम की पूरी सहायता करेगा। पर सुग्रीव का राज्याभिषेक होने के बाद सुग्रीव को अपने वचनों की भी याद नहीं रही। तब रामजी ने लक्ष्मण से कहा सुग्रीव को मेरा भय दिखाकर मेरे पास ले आओ।
रामजी ने कहा
इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥
जामवंत ने रामजी से कहा- हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! (रघुराई=रघुवंसियो के राजा) (रासी=ढेर)
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥
श्री राम जामवंत की सलाह को महत्व देते है।
नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा॥
रामजी ने कहा शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो।
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥
श्री रामचंद्रजी ने सब मंत्रियों को पास बुलाया (और कहा-) लंका के चार बड़े विकट दरवाजे हैं। उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए, इस पर विचार करो।
लंका बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा॥
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन।।
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा।।
जानत परम दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले असंका।।
काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्री रामचंद्रजी ने विभीषण की ओर देखा।
काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥
नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
मुनि वशिष्ठजीबोले-श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले- हे सर्वज्ञ! हे सुजान! हे धर्म, नीति, गुण और ज्ञान के भण्डार राम! सुनिए-
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥
मुनि वशिष्ठजी बोले-आप सबके हृदय के भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं, जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइए।
सब के उर अंतर बसहु, जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित, होइ सो कहिअ उपाउ॥
मुनि के वचन सुनकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो,मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूँ।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौं सिख सोई॥
फिर हे गोसाईं! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जाएगा (आज्ञा पालन करेगा)। मुनि वशिष्ठजी कहने लगे- हे राम! तुमने सच कहा। पर भरत के प्रेम ने विचार को नहीं रहने दिया।
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईं॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥
इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गई है। मेरी समझ में तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जाएगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा।
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी॥
मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥
मुनि वशिष्ठ जी बोले-पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) कीजिये ।
भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥
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