श्रवन सुजसु सुनि आयउँ
विभीषण की शरणागति के माध्यम से गोस्वामी जी- ने मनुष्य को ईश्वर की शरण में जाने की प्रेरणा दी है।रक्षक रुप से प्रभु का वरण इस भाव से करना कि आप
ही एक मात्र मेरे रक्षक हैं मन क्रम वचन से उनको स्वीकार कर लेना अपनी आत्मा को प्रभु चरणों में समर्पित कर देना और अपनी दीनता हीनता निवेदित करना ही सच्ची शरणागति है। जिस तरह विभीषण राज्य सुख तथा अन्यायी, अहंकारी, बड़े भाई रावण को छोड़ कर भगवान की शरण में जाता है। (त्राहि=संकट में लगाई जाने वाली गुहार) (त्राहि-त्राहि करना=रक्षा के लिए पुकारना) (सुजसु=यश, कीर्ति) (भवभीर= आवागमन का दुख, संसार का संकट)
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ,प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन, सरन सुखद रघुबीर॥
विभीषण जी ने किससे सुना?
हे नाथ मुझे हनुमान जी ने अपना स्वयं का निजी अनुभव बताया कि आप सब प्रकार से समर्थ है, प्रभु को सेवक से कोई अपेक्षा नहीं है सेवक पर बिना कारण
के ममता और प्रीति करना तो आपका सहज स्वभाव है। (अपेक्षा= चाह ,आशा)
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती।।
और प्रीति को एक रस निभाना अत्यंत कठिन है पर मेरे प्रभु आदि से अंत तक निभाते है। (सरिस= समान, तुल्य) (बिलोचन=नयन, लोचन, नेत्र)
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेहु निबाहनिहारा॥
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥
आप कृपा को आसरो, आप कृपा को जोर ।
आप बिना दिखे नहीं, तीन लोक में ओर ॥
हे श्री रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करने वाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुख का हरण कर लीजिए। (विषम=विकट)
मों सम दीन न दीन न हित, तुम समान रघुवीर।
अस विचारि रघुवंश मनि,हरहु बिसम भव भीर।।
सुग्रीव ने विभीषण के राक्षस होने के कारण इच्छानुसार रूप बदलने वाला तथा मायावी होने, और सेना का भेद लेने वाला बताकर विभीषण को बाँधकर रखने का परामर्श दिया,पर राम ने कहा कि हे मित्र तुमने नीति तो अच्छी बतायी है परन्तु मेरा (प्रण-संकल्प) तो शरणागत के भय को हराना है। सुग्रीव के वचनों का खंडन प्रभु बड़े माधुर्य के साथ कर रहे है जिस से वे उदास ना हो क्योकि वे सखा है सुग्रीव ने अपनी मति के अनकूल हित कहा है जैसे सखा का धर्म वैसा ही हित बात विचार कर कही सुग्रीव के विचार को प्रभु नीक कहते है राय अच्छी है निति
के अनुरूप है इसके बाद प्रभु सुग्रीव को सरनागति धर्म समझाते है राम ने कहा मेरा प्रण तो सरनागत के भय को दूर करना है।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥
रामजी ने कहा- हे मित्र! मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना। हनुमान
हर्षित हुए (और मन ही मन कहने लगे कि) भगवान कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले) है। “सरनागत वत्सल” का भाव है कि जैसे नई व्याही गाय अपने बछड़े की गंदगी को स्वयं जीभ से चाटकर शुद्ध कर देती है और अपने बच्चे के पीछे अति स्नेह से दौड़ती है और उसकी
देखभाल करती है वैसे ही भगवान अपने भक्तोंके दोषों को दूर कर देते है। (बच्छल=वत्सल) (पन=प्रण, प्रतिज्ञा)
कोटि बिप्र बध लागहिंजाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
रामजी ने कहा- जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। शरणागत के त्याग करने वाले का तो में मुख ही नहीं देखता,पर जिसे अनगिनत ब्रह्म हत्याये भी लगी हो उसे भी शरण में ले लेता हूँ जो शरणागत की रक्षा नहीं करता वे तो पाप मय हो जाते है। सनमुख होइ जीव= से जनाया कि शरणागति भगवान को अत्यंत प्रिय है।राम ने सुग्रीव सेकहा-जो मनुष्य निर्मल मन (हृदय) का होता है,वहीमुझे पाता है। मुझे कपट और छल छिद्र नहीं भाते।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
और पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। क्योंकि पाप प्रेम का वाधक है और प्रेम बिना भजन नहीं होता।
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
सरनागत कहुँ जे तजहिं,निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय, तिन्हहि बिलोकत हानि॥
रामजी बोले- जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं,वे पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)। भगवान ने सर्व तीर्थपति समुद्र के तट पर सभी के सामने कहा की यदि कोई एक बार दीन होकर कहता है कि में आपका हूँ तो में उसको समस्त प्राणियों से में अभय कर देता हूँ यह मेरा व्रत (प्रण) है। (सूत्र) चाहे संसार का भय हो, चाहे शत्रु का भय हो, चाहे पाप का भय, हो सबसे अभय तो सबका स्वामी अर्थात रामजी ही करेंगे। निज अनहित अनुमानि।कह कर जनाया की अपना अहित भी होता हो तो भी शरणागत का त्याग नहीं करना चाहिए।
(बिलोकत=बिलोकना=देखना)
क्योकि
जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥
हे सुग्रीव यदि कोई लोक या परलोक के भय से शरण में आये तो उसकी प्राणों के सामान सुरक्षा करूँगा सरनागत पालन में राम अदुतीय है पर निशाचर वध में श्री लक्ष्मण जी अदुतीय है।सुग्रीव यदि तुम शत्रु या युद्ध कि सोचते हो तो हे सखा मुझको कुछ भी नहीं करना पड़ेगा, हम तो लीला करते है लक्ष्मण जी का अवतार तो निसाचरो के नाश के लिए ही हुआ है शेषनाग भगवान की सर्पवत आ कृति विशेष होती है। सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात भी ये बचे रहते हैं, इसीलिए इनका नाम ‘शेष’ हैं। सर्पाकार होने से इनके नाम से ‘नाग’ विशेषण जुड़ा हुआ है। शेषनाग स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। शेष नाग के हज़ार मस्तक हैं। वे नील वस्त्र धारण करते हैं तथा समस्त देवी-देवताओं से पूजित हैं। उस पर्वत पर तीन शाखाओं वाला सोने का एक ताल वृक्ष है जो महाप्रभु की ध्वजा का काम करता है। रात्रि के समय आकाश में जो वक्राकृति आकाशगंगा दिखाई पड़ती है और जो क्रमश: दिशा परिवर्तन करती रहती है, यह निखिल ब्रह्मांडों को अपने में समेटे हुए हैं। उसकी अनेक शाखाएँ दिखाई पड़ती हैं। वह सर्पाकृति होती है। इसी को शेषनाग कहा गया है। पुराणों तथा काव्यों में शेष का वर्ण श्वेत कहा गया है। आकाशगंगा श्वेत होती ही है। यहाँ ‘ऊँ’ की आकृति में विश्व ब्रह्मांड को घेरती है। ‘ऊँ’ को ब्रह्म कहा गया है। वही शेषनाग है।यहाँ भगवान ऐश्वर्या (ईश्वरता )दिखाते है कि भगवान का आँख बंद करना प्रलय है और पलक खोलना सृष्टि की स्थिति है। (निमिष महुँ=अर्थात इच्छा मात्र से) (निखिल=अखिल, संपूर्ण,सारा,समस्त)
जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
सेष सहस्रसीस जगकारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।
शरणागति का फल-
जिस लंका के अतुलनीय वैभव को शिव जी ने रावण को दसो सिर स्वयं काटकर अर्पण करने पर दिए, उसी को राम जी विभीषण को संकोच के साथ देते हैं।लोग थोड़ा सा दान कर समाचार पत्रों में ढिंढोरा पिटते हैं कि मैंने इतना दिया लेकिन राम जी स्वयं जगत पिता होकर संकोच करते हैं कि मैंने कुछ नहीं दिया। अक्सर संसार में लेने वाले को संतोष नहीं होता लेकिन जगत पिता राम जी को भक्त को लंका जैसे राज्य को देने में संतोष नहीं होता बल्कि संकोच होता है कि मैंने
इसे बहुत कम दिया। (सूत्र) विभिषण की भक्ति, नीति व ईश्वर प्रेम के आगे रावण को शिवद्वारा प्रदान की गई संपदा विभिषण को देने में राम को तुच्छ लगी।
जो संपत्ति शिव रावनहि,दीन्हि दिए दस माथ।
सोइ संपदा विभीषनहि,सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।
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श्रवन सुजसु सुनि आयउँ,प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन, सरन सुखद रघुबीर॥