ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥ - manaschintan
रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥

रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥

रे त्रिय चोर कुमारग गामी।

रावण का माता जानकी को सुमुखि कहने का भाव यह है कि मैं तुम्हारे सुन्दर मुख  पर मोहित हूँ  इसी से मंदोदरी जो कि परम सुन्दरी है  उसको भी तुम्हारी दासी बना दूँगा (सूत्र)  पुरुष स्त्री के मुख ही पर मुदित और मोहित होता है। (अनुचरी= दासी) (ललाम= सुंदर, मनोहर) (तनुजा= पुत्री)

कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।।

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।।

मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥

रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥

श्री जानकी जी ने तृण का परदा करके रावण से बातें की सम्मुख नहीं, यह मर्यादा की रक्षा है। बैदेही अवधपति अपने मायके और पति कुल के महत्त्व को आगे करके बोलीं, रावण ने सीता जी को अपने ऐश्वर्य का लोभ दिखाया उसके प्रति सीता जी ने भी तृण ओट द्वारा बताया कि अपने उभय अर्थात दोनों कुल के ऐशवर्य के आगे में तुम्हारे इस लंका के ऐशवर्य को तृण समान मानती हूँ। (उभय = दोनों) (तृण= घास का तिनका)

तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥

जानकी जी ने (तृण=घास का तिन का) का परदा करके रावण से बातें की, सम्मुख नहीं, यह मर्यादा की रक्षा है। सीता जी उसी तरह (पर अर्थात पराया, दूसरे पुरुष की ओर दृष्टि नहीं करती,जैसे श्रीराम पर स्त्री कि ओर नहीं देखते है सीतारामजी  दोनों का एक ही नियम है! रामजी ने स्वयं लक्ष्मण  से कहा भी है। (पर= पराया, दूसरे का) 

मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥

तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥

जैसे तृण की ओट से किसी को तुच्छ दिखाया जाता है,वैसे ही सीताजी ने रावण से कहा तेरा समस्त ऐश्वर्य, वैभव, रानियाँ, और सोने की लंका यह सब मेरे लिए तिन के की तरह क्षणभंगुर,नश्वर और पूरी तरह तुच्छ है।

राजा जनक के लिए त्रैलोक्य की सम्पत्ति भी तिनके के सामान है,राजा जनक की पुत्री होने के नाते, मैं कैसे किसी भौतिक लालच या प्रलोभन आ सकती हूँ?
सीता जी तिनका सामने रखकर रावण को यह संकेत देती हैं कि रावण तेरी हैसियत – तिनके से भी नीचे है, मैं तुझे तृण के बराबर भी नहीं मानती। तेरे जैसे अधम, नीच, स्त्रीहरण को मैं कोई मूल्य नहीं देती।

सीताजी ने रावण से कहा मेरे लिए मेरा शरीर कोई महत्व नहीं रखता जब बात धर्म और पति-निष्ठा की हो तो मैं अपने शरीर को भी तिनके के समान त्याग सकती हूँ, लेकिन तुझसे समझौता नहीं करूंगी।

अनसूया जी ने सीता जी से पतिव्रत धर्म कहा-जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव वसा रहता है कि (सूत्र) जगत में (मेरे पति को छोड़कर) दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है।साहेब ये तो सनातन धर्म की मुख्य विशेषता है।

उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥

सुन रावण तू लंका मात्र  का ऎश्वर्य  दिखाता है पर मेरे स्वामी अवध के  पति है, जो चक्रवर्ती पद हैं। तू स्नेह  दिखाता है, मेरे स्वामी भी परम सनेही  हैं। अतः मेरे स्वामी में और तुम में बहुत बड़ा अंतर है इस अंतर को  जानकी जी बताती  है!

अवध राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई॥

हे दशमुख!  जुगनू के प्रकाश से क्या कभी कमलिनी खिल सकती है? जुगुनू का  प्रकाश सूर्योदय से पहले ही रहता है, वैसे ही  तेरी दुष्टता स्वामी रामजी  के आने तक ही है।जैसे  कमलनी सूर्य की  अनुवर्तनी अर्थात आज्ञाकारी है वैसे ही  मैं श्री रामजी  की  अनन्य  पत्नी हूँ। (खद्योत= जुगनू) (अनुवर्तनी= आज्ञाकारी)

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥

जानकीजी फिर कहती हैं- तू (अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! क्या तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है। रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती। (नलिनी= कमलिनी) (खद्योत= जुगनू)

अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥

क्या तुझे रामजी के बाण का का प्रभाव नहीं मालूम, तुझे तो मारीच ने भी बताया।

मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥

क्या तुझे जयंत की कहानी नहीं मालूम।

चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना॥
प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥

धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥
काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही।।
सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी।।

क्या तुझे ताड़का की कहानी नहीं मालूम।

एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥

और तूने तो स्वयं ही कहा है।

खर दूषन मोहि सम बलवंता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||

अरे अधम सठ, देवताओं के शत्रु, तेरा बल तो मैंने तभी जान लिया जब तू सूने में पराई स्त्री को हर अर्थात चुरा लाया।

(खल सुधि नहिं रघुबीर बान की) रघुवीर  का बाण दुष्ट को कभी नहीं छोड़ता, रघुवीर भक्त के अपराध को नहीं सह सकते, अपना अपराध भले ही क्षमा कर देते हैं, अम्बरीष का अपराध करने के कारण दुर्वासा ऋषि की क्या दशा हुई? रघुवीर रघुजी के वीर (पुत्र) अज के बाण की सुध नहीं है कि जिस बाण से भवभीत होकर तू लंका में स्त्रियों के बीच में छिप रहा था। रघुवीर लक्ष्मण ने जो बाण से खींच दी थी जिसे लांघने का साहस तू न कर सका,साधु बन गया।

जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥

रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥

मुझे श्रीराम लक्ष्मण जी की अनुपस्थिति में लाया और यहाँ सभी से कहा राम-लक्ष्मण को परास्त कर सीता को लाया हू। तूने राघव के भय से भिक्षुक का रूप धारण किया था। जैसे कुतिया यज्ञ शाला से हवि लेकर भागे, बैसे ही श्रीराम लक्ष्मण  न रहने पर तू मुझे हर लाया,यह कलई तेरी आज मैं प्रकट किये देती हूँ। पर दूसरे की पत्नी को चुराना अधर्म है।
बाल्मिक जी ने सूने में हर लाने पर रावण को अधम और कुत्ता कहा है।
(तव= तुम्हार) (सुरारी= देवताओं का शत्रु, राक्षस)
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