जय जय राम कथा|जय श्री राम कथा।
तुलसीदास जी द्वारा महिमा- संजीवनी बूटी से मरे हुए लोग भी जीवित हो जाते है बुधि विश्राम का भाव- बुद्धिमान लोग जो वेद शास्त्र पुराण आदि का अध्यन करते करते थक जाते है, यह कोई जरूरी नहीं कि उनको यथार्थ तत्व का ज्ञान हो, कभी कभी यथार्थ तत्व का ज्ञान नहीं होता, उनको भी मानस में विश्राम मिलता है। क्योकि मानस में श्रुति सिद्धांतों का निचोड़ है। अध्यात्म रामायण के अनुसार समस्त शास्त्रों में परस्पर तभी तक विवाद रहेगा जब तक रामायण का अध्यन नहीं किया मानस को पड़ने के बाद सभी वाद विवाद स्वतः ही समाप्त हो जाते है सकल जन रंजन- संसार में तीन प्रकार के जीव है मुक्त, मुमुक्षु और विषयी, है इन सभी का मानस कथा से कल्याण होता है। (कामद=कामना पूरी करनेवाला) (कामद गाई= काम धेनु ) (कलि =कलयुग)
इसे श्रवन कर मिट जाती है।जिसे श्रवन कर मिट जाती है।।
कथा श्रवन कर मिट जाती है ।सौ जन्म जन्म की व्यथा।।
राम कथा कलिकामद गाई। सुजन संजीवन मूर सुहाई।।
बुधि विश्राम सकल जन रंजन । राम कथा कली क्लूस विभंजन।।
मेरा परमारथ बन जाये। गाकर
तेरा परमारथ बन जाये। सुनकर
श्री नारद कर व्यथा ।। जय जय राम कथा।
जय श्री राम कथा।।
यग्वालिक जी द्वारा महिमा-(महिसेष=महिषासुर)
महा मोह महिसेष विशाला । राम कथा कालिका कराला।।
रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
पीकर तभी अमर हो जाये ।
गाकर तू भी अमर हो जाये।।
श्री हुनमंत यथा-जय जय राम कथा।
जय श्री राम कथा ।।
शंकर जी द्वारा महिमा-(कुठारी=कुठार=कुल्हाड़ी) (बिहग=पक्षी,परिंदा)
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
मेरा सब संसय भागेगा। गाकर
तेरा सब संसय भागेगा। सुनकर
माँ पार्वती कर जथा-जय जय राम कथा।
जय श्री राम कथा
गरुण जी द्वारा महिमा-
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।
अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।
सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही।।
इसे श्रवन कर मिट जाती है । सौ जन्म जन्म के व्यथा ।।
जय जय राम कथा । जय श्री राम कथा।।
शंकर जी द्वारा महिमा-(निर्बान=मोक्ष)
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥
लंकनी हनुमान जी से बोली हृदय में भगवान का नाम धारण करके जो भी काम करेंगे उसमें निश्चित सफलता मिलेगी! (सूत्र) कर्म करने से मना नहीं किया पर सुमरिन करते हुए कर्म करें! (सितलाई=सीतल+आई =शीतलता) (गरल=विष) (सुधा=अमृत, पियूष) (रिपु=शत्रु) (मिताई=मित्रता)
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
शिव ने पार्वती जी को राम कथा सुनाई। बोले-मैं उन्हीं श्री रामजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ,जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले बालरूप रामजी मुझ पर कृपा करें। कुल मिलाकर प्रकार आठ सिद्धियां हैं अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व और वशित्व सहज ही प्राप्त हो जाती है। (सुलभ=सहज)
अणिमा- इससे बहुत ही छोटा रूप बनाया जा सकता है।
लघिमा- इस सिद्धि से छोटा, बड़ा और हल्का बना जा सकता है।
महिमा- कठिन और दुष्कर कार्यों को आसानी से पूरा करने की सिद्धि।
गरिमा- अहंकारमुक्त होने का बल।
प्राप्ति- इच्छाशक्ति से मनोवांछित फल प्राप्त करने की सिद्धि।
प्राकाम्य- कामनाओं की पूर्ति और लक्ष्य पाने की दक्षता।
वशित्व- वश में करने की सिद्धि।
ईशित्व- ईष्टसिद्धि और ऐश्वर्य सिद्धि।
जब रामजी निर्गुण से सगुन हुए तब प्रथम बालरूप धारण किया इसी से शिव जी की उपासना बालरूप की है। शिव जी चाहते है की हमारे हृदय रुपी आँगन में प्रभु बसे क्योकि बालक ही आँगन में विचरता है। (द्रवउ=कृपा कीजिये,द्रवित) (अजिर=आँगन) (अजिर बिहारी=भक्तो के मन में बिना थके रमते रहना) (जिसु=जिसका)
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू।।
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।
भगवान राम के प्रिय भक्तों में हनुमानजी का नाम सबसे पहले आता है। हनुमानजी भगवान शिव के ग्यारवें रुद्र अवतार है।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन्ह जानकी माता।।
शिव जी शांत रस में रामजी को भजते है इसी से बालरूप को इष्ट मानते है। बाल रूप अवस्था में विधि अविधि को नहीं देखते अपितु थोड़ी सेवा में बहुत प्रसन्न हो जाते है। जैसे बच्चा मिटटी के खिलोने के बदले अमूल्य पदार्थ दे देता है इस कथन से भगवान में अज्ञानता का आरोपण होता है की क्या रामजी ऐसे अज्ञानी है? रामजी किसी के फुसलाने में आ जाते है। पर भाव यह है कि भगवान को जो जिस तरह से भजता है भगवान उसके साथ उसी प्रकार का नाटक करते है। दूसरा भाव यह है की बालक रूप में जितनी सेवा भक्त कर सकता है उतनी सेवा अन्य रूप में नहीं हो सकती! इस ग्रन्थ मे कई जगह पर शिवजी का ध्यान करना, हृदय मे अन्य अवस्थाओं के रूपों और छवि कि मूर्ती को धारण करना और बाललीला , विवाह, उदासीन, राज्यभिषेक आदि सभी समय के रूपो मे मगन होना वर्णित है। क्योकि शिव राम के अनन्य भक्त है! (भाखी=भाषी =बोलनेवाला) (छबिसिंधु=शोभा के समुद्र )
शंकर जी रामजी बाल लीला को देख कर-
परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
शंकर जी रामजी को विलाप करते देख कर-(जथा=अव्य=यथा,जैसे,धन) (जथारथ=यथार्थ, विश्वसनीय व्यक्ति)
संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी।।
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन।।
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।।
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।
शिव जी को पार्वती से विवाह करने के लिए मनना –
अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई।।
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥
राम राज्याभिषेक पर-
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।
इन प्रसंगो से स्पष्ट है कि शिव जी सभी रसों के आनंद के भोक्ता है! स्वामी जी के मत अनुसार शिव जी बाल रूप के उपासक नहीं है!
भुसण्डी जी और लोमेश जी की सेवा भी बाल रूप की है यथा (बपुष=शरीर,देह) (कोटि सत=अरबों= सौ करोड़ की संख्या)
इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥
हे गरुण जी बालक रूप राम का भाव= अन्य अवस्था के चरित्र में धर्मा चरण है, धर्म के अनुसरण कि शिक्षा है पर बालक रूप में ही तो माता को अपना अखंड रूप दिखाया था! बालक रूप में ही चिरंजीव मुनि उनके मुख में प्रविष्ट हुए थे और माया का दर्शन उसी में कराया गया था! इसी रुप में बहुत रंग के चरित होते है इस लिए यह योगियों, महायोगेश्वर शंकर जी का इष्ट है! यह ध्यान पूर्ण रूप से माधुर्यमय है इसमें ऐश्वर्य नाम मात्र भी नहीं है!
बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥
सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥