ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥ - manaschintan

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

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बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

संत-असंत वंदना

जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ में किसी ने नहीं की तुलसी बाबा ने गुरु, शंकर पार्वती, हनुमान, राम परिवार के सभी सदस्य ​​की वंदना है सरस्वतीजी और गणेशजी वाल्मीकि जी, नारदजी , ब्राम्हणों, की वंदना है बाबा ने सारे जगत की वंदना है बाबा तुलसी ने तो समाज के खलों को खल ना कह कर असज्जन कहा, और असज्जन कहकर उनकी भी वंदना की बाबा को मालूम था,की समाज में इनकी संख्या तो बहुत कम है पर इनमें एक गुण होता है की खल संगठित रहते है खलो को संगठित करना नहीं पड़ता पर महराज आज के समय की सबसे बड़ी विडंबना यह है की सज्जन तो निमंत्रण देने पर भी संगठित नहीं होते।

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
दुख तो दोनों ही देते है, (उभय=दोनों) (बीच=अन्तर)(दारुण=कठिन)

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥

महराज दुख तो दोनों ही देते है , परन्तु बाबा तुलसी उनमें कुछ अन्तर बताते है। वह अंतर क्या है ?
दुखप्रद तो दोनों है पर एक का वियोग दुखप्रद और दूसरे का संयोग दुखप्रद है,साधु जब मिलकर बिछुड़ने लगते है, तब मन काफी दुखी होता है क्योंकि महात्माओं का वियोग असहनीय होता है।(अर्थात्‌ संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है।साधु हमको अपने समागम से भगवत चरित्र का रस पान कराते है। और हरी इच्छा से जब तक हमारे संपर्क में रहते है तब तक भगवान की सुन्दर लीलाओं का दर्शन कराते है। इसलिये साधु के वियोग से भगवान और उनके भक्तों की कथा का रस पान ना मिलने के कारण प्राणियों के प्राण नहीं बचते जैसे श्री राम के वियोग से अवधवासियों को दुख हुआ। श्री कृष्ण के वियोग से गोपियों को दुख हुआ।श्री राम जी के वियोग से श्री दशरथ महाराज के, श्रीकृष्ण वियोग से कुन्ती जी के और सन्तों के वियोग से राजा के प्राण गये। अतः हमारे जीवन में सदा इनका सत्संग रहना चाहिए। क्योकि संत भवसागर को पार कराने में सहायक होते है पर महराज असंत तो हमें डुबाने में कोई कसर भी नहीं छोड़ते और असंत जब मिलते हैं, तब घोर दुख देते हैं।
खलो के मिलते ही उसके बचन-विषों से प्राणियों के प्राण संकट में आ जाते है, जैसे साधु रूप में रावण के मिलते ही श्री सीताजी के, प्राणों पर संकट आ गया ताड़का-सुबाहु के मिलने पर विश्वामित्र के प्राणों पर संकट आ गया ये बड़े ही दुष्ट होते है। अत: इनका दर्शन कभी न हो, यही अच्छा है । अतःप्रभु से निवेदन करते है हमारे जीवन में सदा इनका अभाव रहे। अर्थात्‌ संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है ।और असंतों का मिलना मरने के समान दुःखदायी होता है।
पर हम करें तो क्या करें जब विधाता ने

जड़ चेतन, गुण-दोषमय, विस्व कीन्ह करतार।
संत-हंस गुण गहहि पय, परिहरि वारि विकार॥

 

(करतार=ब्रह्मा, परमेश्वर) (पय=दूध) (बारि=जल) (बिकार=दोष) (गहहिं= ग्रहण करना,लेना) क्योंकि विधाता ने इस संसार को जड़-चेतन और गुण-दोष मिलाकर बनाया है। अर्थात इस संसार में सार-निस्सार के रूप में अनेक गुणऔर दोष भरे हुए हैं, फिर भी इस संसार में हंस रूपी साधु लोग विकारों को छोड़कर अच्छे गुणों को अपनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि हंस दूध में मिले पानी को अलग करके दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है। जैसे जल मिला हुआ दूध का अनुपात यन्त्र के द्वारा जाना जा सकता है कि इसमें इतना जल है और इतना दूध, पर जल मिले हुए दूध से जल त्यागकर दूध को पी लेना हंस ही का कार्य है। ठीक वैसे ही यंत्र रुपी वेद शास्त्र से गुण अवगुण को तो जाना जा सकता है, पर उनमें से दोषों को छोड़ कर गुणों को ग्रहण केवल संत ही कर सकते है किसी अन्य जीव में ऐसा समर्थ नहीं होता। (सूत्र) हम अपने जीवन में सकारात्मकता को अपनाएं और नकारात्मकता को त्यागें।
ऐसा गुण तो संसार में केवल हंस के पास है इस कारण संतों को हंस और परम हंस की उपाधि दी जाती है। (निस्सार=साररहित, जिसमें कुछ भी सार या गूदा न हो)
भगवान राम जी ने लक्मण के माध्यम से कहा भी है।

सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥
गहि गुन पय तजि अवगुण बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥

हे तात! गुरु रूपी दूध और अवगुण रूपी जल को मिलाकर विधाता इस दृश्य प्रपंच (जगत्‌) को रचता है,परन्तु भरत ने सूर्यवंश रूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण और दोष का विभाग कर दिया (दोनों को अलग-अलग कर दिया)।
गुणरूपी दूध को ग्रहण कर और अवगुण रूपी जल को त्यागकर भरत ने अपने यश से जगत्‌ में उजियाला कर दिया है। भरतजी के गुण, शील और स्वभाव को कहते-कहते श्री रघुनाथजी प्रेमसमुद्र में मग्न हो गए। विधाता ने इस संसार को जड़-चेतन और गुण-दोष मिलाकर बनाया है। और महराज इस संसार में दोनों के रहने और पैदा होने का स्थान भी एक ही है। और महाराज सभी युग में हुए है बस अंतर इतना है की कलयुग में इनकी संख्या अधिक है।
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
(माहीं=में ) (जलज=कमल ) (बिलगाहीं=अलग होते है, भिन्न स्वभाव के होते है)
जगत में दोनों (संत और असंत) एक साथ पैदा होते है। पर उनके गुण अलग-अलग होते हैं। जैसे (कीचड़ में कमल और जोंक एक साथ पैदा होते है)
पर कमल और जोंक के गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल का दर्शन और स्पर्श करने से कमल हमें सुख देता है,पर जोंक हमारे शरीर का स्पर्श करते ही रक्त चूसने लगती है) जलज की उपमा क्यों दी है? इस संसार में सबसे पहले कमल ही ( भगवान की नाभि से उत्पन्न हुआ है, फिर इसी से सृष्टि आगे बड़ी है। दूसरे इस सृष्टि के पूर्व जल ही था और कुछ नहीं, इसलिये जलज कहा गया है।
यह निर्णय तो हमको करना है, कि हमें कमल जैसा स्पर्श चाहिए, अथवा जोंक जैसा?

सहज सकल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥

 

(बक्र=वक्र=टेढ़ा) (सलिल=जल) महराज जोंक में एक अवगुण और है कि यह भरपूर पानी में टेढ़ी ही चलती है यह जल का दोष नहीं है यह दोष तो जोंक का है
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥
(जनक=पैदा करने वाला पिता, उत्पत्ति स्थान) (जलधि=समुद्र) (अगाधू=गहरा, अथाह) साधु का साथ अमृत के समान धर्म के मार्ग पर ले जाने वाला होता है अर्थात (संसार सागर से उबारने वाला)होता है। और असाधु का साथ मदिरा के समान मोह, (प्रमाद=नशा, मद) और जड़ता उत्पन्न करने वाला है,अर्थात अधर्म के मार्ग पर ले जाने वाला होता है संसार सागर में ढकेलने वाला )होता है दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है।पिता दोनों के एक ही है। यह कोई जरूरी नहीं है कि एक पिता से पैदा होने वाली संतानों में एक-से ही गुण हो।(शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।) जब समुद्र को देवासुर ने मिलकर उसे मथा था।तभी अमृत और (वारुणी= शराब) दोनों क्षीर सागर से निकले थे।

भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥

(भल-भला= अच्छा) (अनभल=बुरा) (करतूती=करनी, कर्म, गुण) (लहत-लभन्ते=पाते है) (सुजस=सुन्दर यश, कोर्ति) (अपलोक=अपयश, बदनामी) (विभूति=सम्पत्ति,ऐश्वर्य ) (सुधाकर=अमृत किरण वाला=चन्द्रमा) (गरल=विष, जहर) (अनलन=आग) (कलिमल सरि= कर्मनाशा नदी) कर्मनाशा नदी के बारे में एक कथा राजा हरिश्चन्द्र के पिता राजा सत्यव्रत पराक्रमी होने के साथ ही यह दुष्ट आचरण के थे. राजा सत्यव्रत गुरु वशिष्ठ जी के पास गए और उनसे सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा प्रकट की पर वशिष्ठ जी ने ऐसा करने मना कर दिया प्रबल इच्छा के कारण सत्यव्रत ने विश्वामित्र जी से सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा प्रकट की तप के अहंकार के कारण,साथ ही वशिष्ठ जी से द्वेष के कारण विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत को सशरीर स्वर्ग भेजा विश्वामित्र के तप से राजा सत्यव्रत सशरीर स्वर्ग पहुंच गए जिन्हें देखकर इंद्र क्रोधित हो गए और उलटा सिर करके वापस धरती पर भेज दिया. लेकिन विश्वामित्र ने अपने तप से राजा को स्वर्ग और धरती के बीच रोक लिया. बीच में अटके राजा सत्यव्रत त्रिशंकु कहलाए। देवताओं और विश्‍वामित्र के युद्ध में त्रिशंकु धरती और आसमान के बीच में लटके रहे थे। राजा का मुंह धरती की ओर था और उससे लगातार तेजी से लार टपक रही थी उनकी लार से ही यह नदी प्रकट हुई ऋषि वशिष्ठ ने राजा को चांडाल होने का शाप दे दिया था। और उनकी लार से नदी बनी थी इसलिए इसे अपवित्र माना गया अतः इस नदी के जल को छूने से समस्त पुण्य नष्ट हो जाएंगे। संसार में भले और बुरे जीव अपने कर्म के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं।
साधु अमृत, चन्द्रमा गंगा जी के समान है। खल (दुष्ट) विष, और आग कर्मनाशा नदी के समान होते है। हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सभी जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि खल जानते नहीं कि पाप का फल नरक होता है, क्योंकि वे तो पाप में आसक्त हैं। बात ऐसी नहीं है, गुण-अवगुण तो सज्जन और असज्जन दोनों ही जानते है। यह तो चित्त की वृत्ति पर निर्भर करता है और चित्त की वृत्ति हमेशा प्रारब्ध पर निर्भर करती है उसको तो वही भाता है, जो मन को अच्छा लगता है किसी से उसका निवारण होना कठिन है। माता पार्वती ने सप्त ऋषियों से यही कहा

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥

क्योकि माता पार्वती का चित्त तो भोले बाबा में लगा है।

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥

(मीच=मृत्यु, मौत) भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण करता रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में और विष की सराहना मारने में होती है। इस तरह भले को यश और बुरे को अपयश प्राप्त होता है।

खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥

 

(गाहा=गाथा, कथा) (उदधि=समुद्र ) (अवगाह=अगाध,अथाह,बहुत गहरा)
दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है।
क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता। बाबा ने किसी का रूप या नाम लेकर अवगुण नहीं कहे कि अमुक व्यक्ति में ये अवगुण हैं।
उन्होंने तो खल के क्‍या लक्षण होते है, केवल इतना ही कहा है। और लक्षण बताने का मुख्य कारण हम और आप किस गुण का त्याग करें और किस गुण को अपनाये।

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥

(पोच=खराब, निकृष्ट) (संसार=सृष्टि,भव जाल) (इतिहास= श्रीमद भगवत , महाभारत, पुराण) (बिधि प्रपंचु=गुण और अवगुण होते है) भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है। यह धर्म शास्त्र की आज्ञा है किसी के गुण दोष नहीं कहना चाहिये, तब बाबा ने क्यों कहे ? तो उसका उत्तर है कि बाबा ने जो गुण दोष कहे, वे वेद द्वारा बताये गये है। तुलसी बाबा ने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा, विधाता का प्रपंच क्याहै? प्रपंच का वर्णन इन पांच चौपाइयों में है इन चौपाइयों में एक संबंध वाली परस्पर विरोधी बातें कही गई।

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥

(सुजाति=अच्छी जाति, कुलीन)( कुजाती=नीच जाति, खोटी जाति) (सुजीवनु= सुन्दर जीवन) (माहुरु=विष) (मीचू=मृत्यु)(लच्छि=सम्पत्ति,लक्ष्मी) (रंक=दरिद्र) (अबनीस अवनी+ईश-पृथ्वीका स्वामी, राजा) (महिदेव=ब्राह्मण)
(गवासा= गऊ को खाने वाला,क़साई)
दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता,
ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक,अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है। विधाता की सृस्टि ये सभी साथ साथ है पर वेद शास्त्र गुण दोष का विभाग कर दिया है। (मगध= त्रिशंकु के रथ की छाया 96 कोस पूर्व पच्छिम और 64 कोस उत्तर दक्षिण स्थान पर पड़ी वह स्थान मगध देश कहलाया है। यह देश अपवित्र माना जाता है)।

अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥

विधाता जब इस प्रकार का (हंस जैसा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते है। जो भले होते हैं उनके अन्तःकरण में भलाई बसी रहती है यदि वे काल- कर्म आदि की प्रबलता से कभी कुमार्ग में पड़ गये तो भी जैसे ही संतो का सत्संग उन्हें मिला, वे सुधर जाते हैं।पर खल स्वाभाविक ही मलिन होते हैं। यदि दैव योग से उनको सत्संग प्राप्त हुआ तो सुमार्ग पर चलने लगते है, परन्तु ज्यों हो उन्हें कुसंग मिला वे भलाई छोड़ अपने पूर्व स्वभाव को ग्रहण कर लेते हैं।

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥

(हरिजन=भक्त) भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता।

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥

संसार को ठगने वाले भी सुन्दर साधु वेश के प्रभाव से संसार में पूजे जाते है।
पर हृदय शुद्ध न रहने से कलई खुल जाती है परन्तु एक न एक दिन वे चौड़े आ ही जाते है।सदा कपट से निर्वाह नहीं होता, राज खुलने पर मारे जाते है। जैसे- सुवेष देख कर ही हनुमान जी ने पहले कालनेमि को माथ नवाया, फिर कपट खुलने पर मारा रावण पंचवटी में साधु का वेष बनाकर श्री सीता जी के पास गया। रावण का वेष देखकर रावण को गोसाई, कहा और दुष्ट वचन सुनकर भी टुष्ट को नाई! कहा, टुष्ट नहीं कहा| राहु भी सुवेष ( देव-रूप ) रखकर अमृत पीने आया , राहु का भी वेष के कारण सम्मान हुआ जब राहु का कपट खुला तब उसका सिर काटा गया।

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥

साधु अपने कल्याण के लिये कुवेष बनाये रहते है क्योंकि सुवेष से लोक में प्रतिष्ठा होगी, जो साधना में वाधा करती है और संत पुजने के डर से कुवेष बनाते है। खल तो पुजवाने के लिये ही सुबेष बनाते है बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है। यह बात लोक और वेद में प्रकट है और सभी लोग इसको जानते है।

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥

पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते है। और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥

धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥

(कालिख=स्याही) (अनिल=वायु) (संघाता- मेल से) (जीवन= प्राण)
भावार्थ:-कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ विद्यार्थियों के (सुसंग से) सुंदर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के सुसंग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बादल बन जाता है।

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