पर हित लागि तजइ जो देही।
काम देव ने विचार किया कि मैंने अभी तक अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझा था, पर आज तो सभी देवताओं ने मिल कर शंकर-जैसे परम वीर की साधना अर्थात समाधी भंग करने का प्रस्ताव लेकर आये है पर इसमें क्या हानि है ? वीर का काम ही समर में सम्मुख लड़कर मरना है, यही वीर की शोभा भी है ‘शिव से वैर करने का अर्थ कल्याण से वैर करना है! अतः अकल्याण छोड़ और क्या हो सकता है? ‘तदपि! का भाव कि मेरी मृत्यु को अटल है इसकी मे परवा (चिंता) न करके आप लोगों का काम करूँगा क्योकि वेदों में परोपकार को ही परम धर्म बतलाया है। (ध्रुव= अटल, अचल) (श्रुति= वेद) (शिव= कल्याण)
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा।।
काम देव ने विचार किया कि अभी तक तो वीरों में मेरी गिनती रही, वीरों में ही प्रशंसा होती रही पर संत समाज में मेरी प्रशंसा कभी नहीं करते है पर अब वे भी मेरी परोपकारियों में प्रशंसा होगी। आज तक मेरी गिनती (षडरिपु= मानव के छह विकार अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह एवं मत्सर) में रही,अब तक संत मेरी निंदा करते रहे, पर अब परोपकार के लिये शरीर छोड़ने से संत समाज में मेरी प्रशंसा सदा होगी।
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥
और रामजी ने भी तो अपने सब भाई,और हनुमानजी से कहा धर्म अधर्म क्या है? पर हित सरिस-यह सत धर्म और पर पीड़ा यह असत का धर्म (लक्षण) है सब पुराणों और वेदों का यह निर्णय (फैसला) मैने तुमसे कहा है।
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।
यह सरकार को मर्यादा पालकता है कि अपने वचन के प्रमाण में वेद पुराण और पण्डितो का मत उद्धृत करते है। व्यासजी के अठारहों पुराणों का सार ये दो वचन ही हैं-पहला परोपकार ही पुण्य है और दूसरा परपीड़ा ही पाप है।
संत और असंत के बीच अंतर इसी से किया जा सकता है-जो परहित करे-वह सज्जन, और जो पर पीड़ा दे- वह खल (दुष्ट)। यह नीति हमें जीवन जीने की प्रेरणा देती है। संत (सज्जन) व्यक्ति की पहचान यह है कि वह दूसरों का भला करता है, उनके लिए उपकारी होता है। उसके जीवन का उद्देश्य सेवा, दया और करुणा होता है।
असंत (दुष्ट) व्यक्ति की पहचान यह है कि वह दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में आनंद अनुभव करता है, और उसका स्वभाव दूसरों को हानि पहुँचाना होता है।
क्या पर पीडा का फल अन्य योनि वालों को भी मिलता है? अन्य योनि वाले अज्ञानी होने के कारण भव भीर ही पाते है। पर नर शरीर ज्ञान का निधान है, वह यदि पर पीड़ा करता है तो उसे महा भव भीर सहनी पड़ती है। उसे बार-बार जन्ममरण के कष्ट एव चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण करते हुए महादुख भोगने पडते है।
यथाःरामजी जटायु से भी कहा
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जटायुजी ने कहा भला! में ऐसा अवसर चूक सकता हूँ ।
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
जब नाम की इतनी महिमा है तब आप तो स्वयं साक्षात मेरे सामने है। “मुख आवा।”अर्थात मरते समय मुख से नाम निकलना अत्यंत दुर्लभ होता है। (अपतु= नीच,अकुशल) यथाः जैसे बालि
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥
मम लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा।।
सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥ अर्थात इस देह से ईस्वर की प्राप्ति हो गई अब में किस कमी की पूर्ति के लिए देह को रखू? इससे जनाया कि जटायु के हृदय में देह का लोभ, देहासक्ति किंचित मात्र भी नहीं थी। और न ही कोई अन्य कामना है यह “तुम पूरनकाम” इस मुख वचन से भी सिद्ध है। (खाँगें= कमी, घटी,कसर, टोटा)
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥
भक्त के दुख पर करुणा से आँसू आ गये।
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।।
तुम्हारी सदगति मेरे नाम-रूप आदि से नहीं, किंतु तुम्हारे कर्म से हुईं। उस कर्म को आगे कहते है।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। अर्थात परोपकार से चारो फल प्राप्त होते है “गति पाई” यह मोक्ष है और “जग कछु दुर्लभ “अर्थ, धर्म, काम, की प्राप्ति इस संसार में जनाई !जब तक एहिक, वा परलौकिक स्वहित की कामना हृदय में रहेगी तब तक परहित हो ही नहीं सकता।(सूत्र) महाराज आज के समय में स्वार्थ तो सबके मन में वसता है। पर जिस महापुरुष के मन में परहित बसे उसके अन्त समय में मेरा आना दुर्लभ नही है। सबका हित करना भी भगवतोपासना ही है। हे सखा गण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना।
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
यथाःजैसे
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
इस दृष्टि से “जग दुर्लभ कछु नाही “का भाव यही होगा,कि जो भी शुभ गति, वो चाहे वह उसको सुलभ है, इस जग में जन्म लेने पर जो गति चाहे उसे सहज ही प्राप्त कर लेते है।
देखिये मुक्ति तो भगवान ने अपनी ओर से दी यथाः “तन तजि तात जाहु मम धामा पर जटायुजी को भगति मांगने पर ही मिली यथाः “भगति माँगि वर “इस करण से मुक्ति से भगति का दर्जा अधिक बताया।
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥
प्रभु ने सब सुखों के देने की बात कही, यह तो सत्य है, पर अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही।
प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही।।
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।
जव सुख स्वरूप रघुवंश मणि का भजन ही न हुआ तो अन्य सुख किस काम का?
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥
संत का उदय संतत कहा गया,क्योंकि इनसे विश्व को सुख है,जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय सदा हुआ करता है और उनसे संसार का हित होता है; सूर्य और चन्द्र इन दोनों उपमाओं से रात-दिन निरंतर सुख देना कहा गया है। सूर्य दिन में सुख देता है और चन्द्रमा रात में,सुख देता है परन्तु संत दिन-रात दोनों में सुख देते हैं। सूर्य के प्रकाश से तम का नाश होता है, संत के ज्ञान प्रकाश से संसय मोह दूर होते हैं। सूर्य और चंद्रमा से सभी को सुख नहीं होता पर संतों को सर्व सुखद जनाया है! सन्तो से दिन रात जगत का हित हुआ करता है। संतो का उदय भी नित्य है। दुष्ट के उदय के समय भी इनका उदय तो रहता ही है। क्योकि इनके बिना संसार चल नही सकता। (इंदु= चंद्रमा) (तमारी= सूर्य, भास्कर) (संतत= सदा, निरंतर,बराबर,लगातार)
शिवजी कहते! जो क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही प्रिय है।
जैसे खरारि श्री रामजी। (खरारि= श्री रामचंद्रजी) (जथा =जैसे)
तदपि तुम्हारि साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥
छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी।।
पशु यदि परपीड़ा करे तो कह सकते की उनको ज्ञान नहीं है पर मनुष्य शरीर तो बड़े भाग्य से मिलता है कभी ईश्वर करुणा करके नर शरीर देता है यह शरीर ही साधन धाम मोक्ष का द्वार है। यथाः
बड़े भाग मानुष तन पावा ।सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थन्हि गावा ।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा ।पाई न जेहिं परलोक सँवारा ।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
जितनी भी मानसिक व्याधि है उनका तो मूल मोह ही है स्वारथ के लिए परमार्थ बिगाड़ लेते है।
सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं।।
भर्तृहरि जी जीने भी कहा है वे ही लोग सत्पुरुष हैं जो अपना स्वार्थ त्यागकर निःस्वार्थ भाव से दूसरों के कार्य का सम्पादन करते हैं। जो अपना स्वार्थ देखते हुए, भी दुसरों के कार्य में उद्यम करते हैं वे सामान्य मनुष्य हैं। और जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को हानि पहुँचाते हैं, कष्ट देते हैं, दूसरों का काम बिगाड़ते हैं, वे मनुष्य रूप में राक्षस ही हैं। परन्तु हमारी समझ में नहीं आता कि वे कौन हैं, उनको किस नाम से पुकारा जाय कि जो बिना प्रयोजन ही दूसरों के हित की हानि करते है।