देखहु मुनि अबिबेकु हमारा।
पार्वती विवाह- शंकर जी ने सप्तऋषियों से कहा की जाकर पार्वती जी की परीक्षा लो सप्तऋषियों ने कहा देव आदि देव महादेव क्या आपको राम जी के वचनों में विश्वास नहीं है महादेव जी ने कहा मुझे तो पूरा भरोसा है तो फिर ये परीक्षा क्यों ? शंकर जी ने कहा- पार्वती पूर्व जन्म सती थी उन्होंने भी तो रामजी की परीक्षा लेकर ही तो स्वीकार किया तो हम भी ऐसी सती जी को बिना परीक्षा कैसे स्वीकार करें। क्या जी शंकर, रामजी अज्ञानी है शिव सप्तऋषियों के माध्यम से पार्वती को परीक्षा लेते हैं और रामजी सीता जी की अग्नि परीक्षा लेते है प्रभु अज्ञानी नहीं है प्रभु तो सबकुछ जानते है केवल निति रक्षा हेतु ऐसा चरित करते है। (सुरत्राता=विष्णु श्रीकृष्ण)
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी।।
केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू।।
सप्त ऋषियों ने कहा हे सैलकुमारी आप भारी तपस्या क्यों कर रही हो तुम किसकी आराधना कर रही हो और क्या चाहती हो हमसे यह सत्य भेद कहो हे पार्वती जिस के लिए तप करते है वह तो तुमको बिना तप के स्वतः ही प्राप्त है आपका जन्म सर्वप्रथम ब्रह्मा के कुल में हुआ है। आपका शरीर त्रिलोकी के सौन्दर्य से निर्मित प्रतीत होता है । मनचाहे ऐश्वर्य का आनन्द आपको प्राप्त है । अब यह तो बताइए कि आप इससे अधिक और किस फल की कामना से तप कर रही हैं? (अवराधहु= अवराधना=उपासना करना, पूजना, सेवा करना)
कहत बचन मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना।।
सप्तऋषियों ने कहा गुरु जी तो सोच विचार कर बनना चाहिये सप्तऋषियों ने नारद जी का चरित बताया सप्तऋषियों ने कहा जिसने नारद जी की सलाह मानी है उनका घर बसा नहीं है बल्कि नारद जी ने बहुतों के घर उजड़े है दक्ष ,चित्रकेतु ,हिरणाकश्यप, ऐसे कई उदाहरण है।
नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी।।
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा।।
नारद जी का जब से विवाह नहीं हुआ तब से नारद जी ने मन में पक्की ठान ली मेरा विवाह नहीं हुआ तो किसी और का विवाह ना हो और अगर हो भी जाये तो उसको गृहस्थ का सुख ही ना मिले अब तुम शंकर से विवाह करके क्या सुख भोगोगी अब सप्त ऋषि शंकर जी के अवगुणों का बखान करते है। (सरिस=सदृश, समान, तुल्य)
तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।।
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली।।
और जिस शिव जी को पति रूप में चाहती हो वो तो जन्म से ही उदासीन है ,गुणहीन, निर्ल्लज, बुरे वेश वाला ,नर मुंडो को धारण करता है ,कुलहीन ,घरबार रहित ,नंगा और पूरे शरीर पर सर्पो को धारण करता है।
हे पार्वती अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है अर्थात नारद के वचनों को त्याग दो हम तुम्हारे योग्य वर बता सकते है और उसके लिए कठोर तप की जरूरत भी नहीं है संसार में सबसे अधिक सुन्दर है स्त्रियो को भी पति की सुंदरता प्रिय होती है जटा, पांच मुख, पंद्रह नेत्र आदि की कुरूपता इनमें नहीं है ये परम रूपवान है शिव जी की तरह चिता की अपावन भस्म मुंडमाला, सर्प, बाघंबर. धारण नहीं करते वैजंतीमाला कौस्तूभ मणि धारण करते है शिव जी के तरह भयंकर नहीं है इनके दर्शन से सुख होता है सुशील है किसी का अनादर नहीं करते जैसे शिव जी ने दक्ष का किया सुंदर स्वभाव है भृगु जी के चरण प्रहार को सहा। (नीक=अच्छा,सुंदर,अनुकूल)
अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा।।
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला।।
दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी।।
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी।।
पार्वती ने कहा -हे महाराज में जानती हूँ कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको किसी अन्य से कोई लेना देना नहीं होता।वह किसी की सलाह भी नहीं मानता गुणों और अवगुणों का तो सभी को ज्ञान होता है परन्तु जिसे जो भाता है,उसे वही अच्छा लगता है।
महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।।
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥
परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी, फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे?
हे पार्वती अगर फिर भी शंकर जी विवाह के लिए तैयार नहीं हुए तब क्या करोगी।
जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
हे मुनियों आपके उपदेश के लिए मेरे पास कोई स्थान नहीं है और अगर आप यह सोचते हो कि यह जन्म तो गया अगले जन्म के लिए उपदेश है तो आप सुनिए मेरा हट तो करोड़ जन्मों तक यही रहेगा कि विवाह शिवजी से ही करूगी अन्यथा कुँआरी रहूँगी।
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥
नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ।।
हे पार्वती शिव जी के लिए तप कर रही हो शिव जी को पति मान चुकी हो फिर भी उनका कहना नहीं मानोगी हे मुनियों इष्ट से आचार्य का पद हमेशा बड़ा होता है।
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।।
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥
सप्त ऋषियों द्वारा पार्वती जी का सारा चरित सुनकर शिव जी ऐसे आनन्द मगन हुए की समाधि लग गई।
तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥
उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए, ब्रह्माजी ने सभी देवताओ से कहा- इस दैत्य की मृत्यु शिवजी के पुत्र से होगी, इसको युद्ध में वही जीतेगा।
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देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा।।