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उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।

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उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।

उपजइ राम चरन बिस्वासा

तुलसीदास जी ने कहा-अपने अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर=परिवार के लोग) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥ प्रयाग में जाने के लिए (अर्थ=धन) की आवश्यक्ता पड़ती है मगर संत समाज रुपी प्रयागराज में आदर पूर्वक सेवन करने से सब कलेश  नष्ट हो जाते है संत समाज रुपी प्रयागराज सभी को मुफ्त में प्राप्त होता है वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है। अतः संत समाज रुपी प्रयागराज की महिमा वास्तविक प्रयागराज से अधिक है (बटु=वटवृक्ष) (सद्य=तत्काल,शीघ्र) (अकथ=जिसका वर्णन न किया जा सके) (अलौकिक=लोक से परे,जिसकी समानता की कोई वस्तु इस लोक में नहीं)(अकथ=जो कहा ना जा सके) (देइ=देता है) (संत समाज प्रयाग)सभी को,सब दिन,और सभी (ठौर=जगह) प्राप्त होता है।


बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।

निज धर्म =अपना साधु धर्म,वेद सम्मत धर्म ,अपने गुरु का  उपदेश किया हुआ धर्म यथाः जप, तप, नियम, योग, अपने-अपने (वर्णाश्रम के) धर्म, श्रुतियों से उत्पन्न (वेदविहित) एवं बहुत से शुभ कर्म जैसे , ज्ञान, दया, दम (इंद्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँ तक वेद और संत जनों ने धर्म कहे हैं उनको करें।(इंद्रियनिग्रह= इंद्रियदमन= इच्छाओं को वश में रखना)

वशिष्ठ जी

जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा॥
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन॥s

वशिष्ठ जी हे प्रभो!अनेक तंत्र,वेद और पुराणों के पढ़ने और सुनने का सर्वोत्तम फल एक ही है और सब साधनों का भी यही एक सुंदर फल है कि आपके चरणकमलों में सदा-सर्वदा प्रेम हो। 

आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका॥
तव पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर॥

ईश्वर को पाने के लिए सच्ची श्रद्धा, अनन्य भक्ति, पूर्ण विश्वास एवं गहरी आस्था होनी चाहिए, तभी प्रभु के दर्शन हो सकते हैं। तुलसीदास जी ने कहा है, 1 जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे वैसी ही मूरत नज़र आती है.2 मात्र ग्रहणता की बात है कि आप क्या ग्रहण करते हैं, गुण या अवगुण? 3 दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जो पूरी तरह सर्व गुण संपन्न हो या पूरी तरह गुण हीन हो. एक न एक गुण या अवगुण सभी में होते हैं.4  जिनकी गुण ग्रहण की प्रकृति है, वे हज़ार अवगुण होने पर भी गुण देख लेते हैं! और जिनकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूंढने की आदत पड़ गई है, वे हज़ारों गुण होने पर भी दोष ढूंढ ही  लेते हैं! तन मन वचन तीनो से स्नेह होना ही है सच्चा स्नेह कहलाता है! भावना के कारण ही मनुष्य पत्थरों मे प्रभु का दर्शन करता है और मन को आनंदित करता है किंतु विपरीत सोच के  लोग केवल पत्थर ही समझते हैं!

जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥

सत्य प्रेम ही विस्वास का मूल मंत्र है!

जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू।।

श्री रामचंद्जी शबरी से बोले-॥ मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझ में दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है।सबसे पहले ये ध्यान रखें कि मंत्र आस्था से जुड़ा है और यदि आपका मन इन मंत्रों को स्वीकार करता है तभी इसका जाप करें। मंत्र जप करते समय शांत चित्त रहने का प्रयास करें। ईश्वर और स्वयं पर विश्वास आवश्यक है।
मंत्र शब्द का निर्माण मन से हुआ है। मन के द्वारा और मन के लिए। मन के द्वारा यानी मनन करके और मन के लिए यानी ‘मननेन त्रायते इति मन्त्रः’ जो मनन करने पर त्राण यानी लक्ष्य पूर्ति कर दे, उसे मन्त्र कहते हैं।हे सती! जब रामजी के चरणों में विश्वास उत्पन्न होता है! तब मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है।

मंत्रजाप मम दृढ़ विश्वासा।पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।

उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।

पार्वती सप्तऋषि से कहा- मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। (सूत्र) जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी प्राप्त  नहीं होती  माता पार्वती का  गुरु के वचनों में इतना दृंढ विश्वास के कारण ही  एक निष्ट भक्ति की आचर्य भी है !

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।।

 मीरा ने भी कृष्ण में इतना ही विश्वास किया !

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई!
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई !

रामजी ने स्वयं कहा यह सोच जिस किसी भी जीव की है तो मैं तो इसी गुण के कारण उस जीव के वश में रहता हूँ।

बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई॥

पर  मेरा दास कहला कर यदि कोई मनुष्यों से आशा करता है, तो  उसका क्या विश्वास है? (अर्थात उसकी मुझ पर आस्था बहुत ही निर्बल है)

मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा

जीव न किसी से वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रखे, न भय ही करे। उसके लिए सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई भी आरंभ (फल की इच्छा से कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घर में ममता नहीं है) जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो (भक्ति करने में) निपुण और विज्ञानवान्‌ है॥ (अनारंभ=आरंभ का अभाव, फल की इच्छा से कर्म नहीं करता) (अनिकेत =बेघर) (अमानी= निरभिमान,मानहीन) (अनघ=पुण्य,पापहीन) (बिग्यानी =अध्यात्म संबंधी अनुभव,आत्मा का अनुभव,जैसे आत्मा ज्ञान)

अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी॥
बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा॥

सीता जी ने राम जी एवं सुमन्त्र से कहा॥ ऐसे पिता का घर भी, जो सब प्रकार के सुखों का भंडार है, पति के बिना मेरे मन को भूलकर भी नहीं भाता ये कोई भी श्री रघुनाथजी के चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते। (सुखनिधान= शांति का खजाना) (पदम=कमल)

सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥

रामजी ने नारदजी से कहा- हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूँ कि जो समस्त आशा-भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं। (सहरोसा=हर्ष)

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

बालि ने तारा से कहा- हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्री रघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित् वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)। (भीरु=डरा हुआ,कायर, डरपोक) (समदरसी=वह जो सभी को समान दृष्टि से देखता हो,न्यायप्रिय)

कह बाली सुनु भीरु प्रिय, समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं, तौ पुनि होउँ सनाथ॥

तुलसीदास जी ने कहा जैसे चातक की नजर एक ही जगह पर होती है, ऐसे ही हे प्रभु! हमारी दृष्टि तुम पर  हो। भगवान पर भरोसा करोगे तो क्या शरीर बीमार नहीं होगा, बूढा नहीं होगा, मरेगा नहीं ? अरे भाई ! जब शरीर पर, परिस्थितियों पर भरोसा करोगे तो जल्दी बूढ़ा होगा, जल्दी अशांत होगा, अकाल भी मर सकता है। भगवान पर भरोसा करोगे तब भी बूढ़ा होगा, मरेगा लेकिन भरोसा जिसका है देर-सवेर उससे मिलकर मुक्त हो जाओगे और भरोसा नश्वर पर है तो बार-बार नाश होते जाओगे।  पतंगे का (विश्वास-भरोसा) दीप ज्योति के मजे पर है तो उसे क्या मिलता है? परिणाम  जल मरता है।(चातक= पपीहा पक्षी)

एक भरोसा एक बल,एक आस विश्वास ।
एक राम घनश्याम हित,चातक तुलसी दास।

शिवजी ने पार्वतीजी से कहा जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंतर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस  दुर्लभ हरि भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।

मुनि दुर्लभ हरि भगति नर,पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर,सुनहिं मानि बिस्वास॥

उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।s

तुलसीदास जी ने कहा जिनके पास श्रद्धा रूपी राह-खर्च नहीं है संतों का साथ नहीं है,उनके लिये यह मानस अत्यन्त अगम है।अर्थात् श्रद्धा सत्संग और भगवत्प्रेमके बिना कोई इसको पा नहीं सकता। (अगम=दुर्गम)

जे श्रद्धा संबल रहित,नहि संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति, जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥

बाल्मीक के जाप से,निकला यह परिणाम ।
श्रद्धा होनी चाहिए,मरा कहो या राम ॥

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।
अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होए।

तुलसीदास जी विपत्ति के समय आपको ये सात गुण बचायेंगे:आपका ज्ञान या शिक्षा, आपकी विनम्रता, आपकी बुद्धि, आपके भीतर का साहस, आपके अच्छे कर्म, सच बोलने की आदत और ईश्वर में विश्वास।

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक॥

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