सब के बचन श्रवन सुनि, कह प्रहस्त कर जोरि।
सेनापति प्रहस्त की रावण को सलाह=सेनापति प्रहस्त ने सब की बाते सुनी।देखा कि सब ठाकुर सोहाती बोलने वाले हैं।मंत्री लोग भय के मारे ठाकुर सोहाती कहते हैं,क्योंकि परिणाम देख चुके हैं की नीति-युक्त मत कहने पर रावण ने परम पूज्य नाना का और परम प्रिय छोटे भाई विभीषण का भी अपमान किया ओर उन्हें निकाल दिया,तब दूसरों की क्या सुनेगा? अब रावण की सभा में कोई हित कहने वाला नहीं है।ये सभी भय के कारण प्रियवक्ता हैं। ये मित्र रूप मे शत्रु ही हैं।
सब के बचन श्रवन सुनि, कह प्रहस्त कर जोरि।
नीति बिरोध न करिअ प्रभु, मंत्रिन्ह मति अति थोरि॥
मंत्री को कैसा होना चाहिए?
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
माल्यवंत अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर॥
बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥
पर हे तात आपके पास तो अधिकतर इन आचरणों के विपरीत मंत्री है इसी कारण आपके भाई विभीषण ने भी दुखी होकर यही कहा।
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
(सूत्र) मंत्री, (वैद्य डॉक्टर) और गुरु यदि भय या किसी आर्थिक लाभ के कारण राजा से प्रिय बोलने लगें, तो उस राज्य का शीघ्र ही नाश हो जाता है।,और गुरु के अनुचित उपदेश से धर्म शीघ्र ही नाश हो जाता है।एवं वैद्य द्वारा अनुचित सलाह से शरीर का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
हे तात निति गत बात करने वालो विभीषण,मालयवंत जी को तो आपने निकाल दिया इन मन्त्रियों ने स्वामी (आप) को ऐसी सम्मति सुनायी है जो सुनने में अच्छी है पर जिससे आगे चलकर दुःख पाना होगा।
सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा॥
प्रहस्त आगे रावण के मंत्रियों की बुद्धि-हीनता को प्रकट करता है!
ये सभी मूर्ख (खुशामदी) मन्त्र ठकुर सुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पड़ेगा। एक ही बंदर समुद्र लाँघकर आया था। उसका चरित्र सब लोग अब भी मन-ही-मन गाया करते हैं (स्मरण किया करते हैं)। (बारिधि= समुद्र) (ठकुर सोहाती =खुशामदी)
कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥
बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥
हे तात जिसने खेल–ही–खेल में समुद्र बँधा लिया और जो सेना सहित सुबेल पर्वत पर आ उतरे है। यहाँ सुबेल पर उतरना भी दुष्कर कार्य कहा है।कहा जाता है कि इस पर्वत पर रावण की तरफ से काल का पहरा रहता था क्योकि त्रिकुटाचल के जिस शिखर पर लंका बसी है उसकी अपेक्षा यह शिखर बहुत ऊँचा है। शत्रु का इस पर दखल हो जाने से उसे लंका को जीतने में सुविधा होगी।
इसी से रावण ने उस पर काल को नियुक्त कर दिया कि वहाँ कोई न आ सके और आ जाय तो काल उसे खा जाये(उतरेउ सुबेला) कहकर जनाया कि वे काल के भी काल हैं; काल उनको देखकर ही भाग गया। हे भाई! कहो वह मनुष्य है, जिसे कहते हो कि हम खा लेंगे? सब गाल फुला–फुलाकर (पागलों की तरह) वचन कह रहे हैं! (हेला= खेलवाड़,सहज ही, लीला पूर्वक) (भनु=भणन= कथन,कहो, कहते हो) (गाल फुलाना =गर्वसूचक,आकृति बनाना) (बारीस= बारीश= समुद्र)
जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला॥
सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई॥
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥
पर उस समय तुम लोगों में से किसी को भूख न थी? (जब बंदर ही तुम्हारा भोजन हैं,तो फिर) नगर जलाते समय उसे पकड़कर क्यों नहीं खा लिया? क्या उस समय आप सबकी भूख मर गई थी? (छुधा= भूख)
छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू॥
हे तात! आपने इस ठकुर सोहती कहने वाले मन्त्रियो को बात आदर के साथ सुनी। पर मेरी बात अत्यन्त आदर के साथ सुनिये अर्थात् तदनुसार कार्य कीजिये, में युद्ध से भयभीत होकर ऐसा नही कह रहा हूँ। में कादर नही हूँ। कादर समझकर मेरी वाणी की उपेक्षा न कीजिये। मे उचित वक्ता हूँ। मेरी वाणी अप्रिय जरूर है परन्तु इसमें हम सभी का हित है।
(सूत्र) प्रियवाणी लोग इसलिए कहते है कि सुनने वाला रुष्ट न हो और प्रिय वाणी इसलिए सुनना चाहते है कि इससे उन्हे सुख होता है।लाभ हानि का वाणी की प्रियता के साथ कोई सरोकार नही है। अतःप्रिय बोलने और सुनने वालो से संसार भरा पडा हुआ है। जगत् में ऐसे मनुष्य झुंड-के-झुंड (बहुत अधिक) हैं, जो प्यारी (मुँह पर मीठी लगने वाली) बात ही सुनते और कहते हैं। हे प्रभो! सुनने में कठोर परन्तु (परिणाम में) परम हितकारी वचन जो सुनते और कहते हैं,वे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं। (सूत्र) तुलसी दासजी ने आज के समय की हालात पहले ही बता दिए थे! (कादर=कायर, डरपोक) (निकाय= बहुत अधिक)
तात बचन मम सुनु अति आदर।जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं॥
बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥
हे तात! अबनीति सुनिये, पहिले साम का प्रयोग करना ही नीति है। दूत भेजिये
और सीता देकर प्रीति कर लीजिये। युद्ध तो वहाँ किया जाता है जहाँ साम और दाम से काम न चले। पहिले युद्ध ही करना नीति विरोध है। हे प्रभो! यदि आप मेरी यह सम्मति मानेंगे तो जगत् में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा।
वह कैसे?
सीता देने में यश का कारण लोग कहेंगे की शूर्पणखा के कारण सीता का हरण हुआ! लड़ने में यश इस तरह कि शत्रुता का मुख्य कारण सीताहर्ण था; सीता लौटा दी गयीं तब कोई कारण युद्ध का न रह गया था; पर रामजी ने सीता के मिलने पर भी उसका राज्य भी छिनना चाहा तब रावण बेचारा न लड़ता तो करता ही क्या? अपनी और अपने राज्य की रक्षा के लिये उसे बरबस लड़ना पड़ा। जीते तो अच्छा और न भी जीते तो भी लोग रामजी को दोष देगे हमको नहीं। (बसीठ= दूत) (उभय= जिसकी निष्ठा दोनों पक्षों में हो)
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥
यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
अभी से हृदय में सन्देह (भय) हो रहा है? हे पुत्र! तू तो बाँस की जड़ में घमोई हुआ (तू मेरे वंश के अनुकूल या अनुरूप नहीं हुआ)।
(घमोई=एक प्रकार का रोग जिससे बाँस की जड़ों में बहुत से पतले और घने अंकुर निकलकर उसकी बाढ़ और नये किल्लों का निकलना रोक देते हैं) मेरा पुत्र होकर तुझे वीरों के समान वचन कहना चाहिये था-पर तू हमारे वंश के अनुकूल पैदा नहीं हुआ; जेसे कहाँ तो बॉस कैसा कठोर होता है ओर घमोई कैसी कोमल और नर्म कि छड़ी लगते ही कट जाय, प्रहस्त की तुच्छता दिखाने के विचार से उसे घमोई और अपने को बाँस कहा! (संसय=भय) (बेनु=बाँस)
अबहीं तेउर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥
अब हीं ते उर संसय होई।भाव कि हे पुत्र! अभी तो युद्ध का आरम्भ भी नहीं हुआ। जब अभी से ऐसे वचन.”कहता है तब आगे क्या खाक लड़ेगा। तात्पर्य यह है कि तू कादर है कि बिना युद्ध हुए ही,बिना शत्रु बल के देखे पहले से ही ऐसा डरने लगा कि शूरों के लिये उपहास योग्य बचन मेरे सम्मुख कह रहा है।
सब के बचन श्रवन सुनि, कह प्रहस्त कर जोरि।
नीति बिरोध न करिअ प्रभु, मंत्रिन्ह मति अति थोरि॥