ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।। - manaschintan
मनुष्य शरीर,देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई।।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।

नर तन सम नहिं

मानस चिंतन,मनुष्य शरीर का मिलना सबसे दुर्लभ है। स्वर्ग के देवी-देवता भी मनुष्य शरीर चाहते हैं।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।

क्योंकि केवल यही ज्ञान और कर्म प्रधान होता है। ज्ञान तो देवताओं में भी होता है, लेकिन कर्म करने का अधिकार उन्हें नहीं होता। देवताओ का शरीर बहुत दिव्य और पुण्य मय होता है, मनुष्य शरीर के द्वारा ही आप अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा कर्म कर सकते हो,पर अन्य  जितनी भी योनियाँ है, उन सब योनियों में यह अधिकार नहीं है

वे सभी योनियाँ तो केवल और केवल भोग योनि है देवताओं तक को भी ये अधिकार प्राप्त नहीं है, इस कारण देव  भी मनुष्य जन्म के लिए तरसते है? इस कारण भुशुण्डि जी कहा  (जीव चराचर जाचत तेही)

गरुण जी ने सात प्रश्न किये जिसमें सबसे पहला प्रश्न ?

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले-

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।

मनुष्य शरीर की श्रेष्ठता कहकर प्रमाण भी देते हैं मनुष्य शरीर की श्रेष्ठ होने के कारण इसे (चराचर=संसार के सभी प्राणी) जीव मनुष्य शरीर को माँगते है। हनुमान जी ने रावण से कहा और  यही बात राजा दशरथजी ने विश्वामित्रजी से कही।

सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥

देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं

इस आधार पर भुशुण्ड जी को अपनी देह अतः कौवे का शरीर  श्रेष्ठ बताना चाहिए।

भुशुण्डि जी जैसा महा ज्ञानी जो 27 कल्पो से बैठ कर राम कथा कर रहे है राम जी 27 बार पैदा हुए। यथाः 

कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥

हे गरुण जी, 

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।

क्योकि केवल और केवल इसी मनुष्य शरीर से माला, जप, दान, कथा,परहित, सेवा, चार धाम की यात्रा  संभव है  केवल  मनुष्य शरीर ही एक मात्र साधन है। मनुष्य शरीर ही बैकुंठ के दरवाज़े की चाबी है। भुशुण्डि जी कह रहे है की बाकी सभी योनि भोग योनि है! जो आगे कर कर आये है वही भोग रहे है केवल और केवल नर तन से  ही कुछ कर सकते है।

भगवान भी मनुष्य अवतार ले कर इस धरा पर आये पर यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है की भगवान मनुष्य रूप में आये और इंसान भगवान बनने का प्रयास कर रहा है। मनुष्य शरीर का मिलना सबसे दुर्लभ है।

स्वर्ग के देवी-देवता भी मनुष्य शरीर चाहते हैं। क्योंकि केवल यही ज्ञान और कर्म प्रधान होता है। ज्ञान तो देवताओं में भी होता है, लेकिन कर्म करने का अधिकार उन्हें नहीं होता।

 रामजी और भुशुण्डि जी  ने भी तो यही कहा,

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥
चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई॥

द्वापर युग में कुबेर  उसके दो पुत्र थे। एक का नाम नलकूबर था व दूसरे का मणिग्रीव। कुबेर के ये दोनों बेटे अपने पिता की धनसम्पत्ति के घमंड  में और उद्दंड हो गए थे।

नारद जी के श्राप के कारण  दोनों मर्त्यलोक में, गोकुल में नंद बाबा के द्वार पर पेड़ बन कर खड़े हो गए। कुबेर को अपने पुत्रों की दुर्दशा की ख़बर मिली तो वह बहुत दुखी हुए, और महर्षि नारद से बार−बार क्षमा याचना करने लगे।

नारद जी  कहा, अभी तो कुछ हो नहीं सकता, किंतु जब द्वापर में भगवान विष्णु कृष्ण के रूप में वहाँ अवतरित होंगे और दोनों वृक्षों का स्पर्श करेंगे तब उन्हें मुक्ति मिल जाएगी। भगवान की लीला द्वारा नल, मणिग्रीव नारद के श्राप से मुक्त हो गए।

और अपने लोक जाने के पहले  नलकूबर  मणिग्रीव। द्वारा कृष्ण की  सुन्दर स्तुति की और जो इच्छा व्यक्त वह केवल मनुष्य शरीर से ही संभव है। स्तुति (अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा का श्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इंद्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यों में लगें तथा हमारे मन सदैव आपके चरण कमलों का चिंतन करें। हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कार करें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप है, और हमारी आँखें आप से अभिन्न संतों  के रूपों का दर्शन करें। ये सभी तो केवल और केवल मनुष्य शरीर से ही संभव है। 

मनुष्य शरीर क्यों कीमती है? क्योकि मनुष्य का  शरीर स्वर्ग, नर्क, अपवर्ग अर्थात मोक्ष की यह एक सीडी है ! मनुष्य का शरीर एक जंक्शन है यहाँ से तीन रास्ते जाते है ये तो आपको ही तय करना है कि मुझे क्या करना है  कौन सी ट्रैन पकडे।

मनुष्य का शरीर एक नसेनी है ऊपर भी जा सकते हो और नीचे भी जा सकते हो अतः मनुष्य शरीर से  ही नर्क ,स्वर्ग ,बैकुंठ जा सकते हो यह मार्ग तय करने के लिए स्वयं मनुष्य स्वत्रन्त्र है। (चराचर=जड़ और चेतन,स्थावर और जंगम, संसार, संसार के सभी प्राणी) (अपवर्ग=  मोक्ष)

 मनुष्य को जो देह से प्यार है, उसमे कोई सा भी ऐसा आइटम नहीं है जो रखा जा सके आत्मा निकलने के बाद दो दिन में मनुष्य का शरीर सड़ जाता है, इस देह की तीन ही परिणाम है या तो जलना,दफनाना ,या पानी में बहाना।

आप चाहे कोई भी हो इस देह का इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता हमसे तो अच्छे पशु है जो खाते है भूसा और देते है, गोबर जो घर लीपने के काम और पूजा के पहले गोबर की जरूरत पड़ती है।

फिर भी भगवान ने स्वयं कहा है बड़े भाग मनुष्य तन पावा। क्योंकि यह हमारा शरीर ही-साधन धाम मोच्छ कर द्वारा- अर्थात मोक्ष का रास्ता है।

बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।।

बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी दया करके मनुष्य का शरीर देते है, पर मनुष्य माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ अर्थात इनके वश में होने के कारण मनुष्य सदा भटकता रहता है।

हमें इस संसार-सागर से पार कराने के लिए सद्गुरु का सान्निध्य इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। सद्गुरु = मार्गदर्शक और जीवन-नाव के खिवैया, इस प्रकार दुर्लभ अर्थात कठिनता से मिलने वाले इस शरीर साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उस संसार-सागर को पार कर लेते है। (कर्णधार= सूत्रधार,पार लगाने वाला,माँझी,  मल्लाह, सहायता करने वाला)

आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥

चौरासी लाख जीवों की खाने है कर्मानुसार यह अविनाशी जीव योनियों में भ्रमता है यह मनुष्य शरीर संसार सागर का बेड़ा है ओर उस बेड़े को  पार लागने के लिए (प्रभु ) का अनुग्रह अनुकूल पवन है अर्थात अनुकूल पवन से ही जहाज चलता है। यह शरीर जव तक सद्गुरु नहीं मिला  तब तक बेड़ा और जव सद्गुरु कणधार अर्थात माझी  मिला, तो यह  शरीर पार उतरने के योग्य दृंढ नाव हो जाता है। जिससे  इसके प्राप्त  करने से दुर्लभ साज की प्राप्ति होती है। 

यह जीव सदा माया की प्रेरणा से फिरता अर्थात भटकता है काल कर्म , स्वभाव के गुण जीव को घेरे रहते है  कभी दया करके इस प्राणी को परमेश्वर मनुष्य का शरीर  देते है इसका कारण प्रभु बिना कारण ही जीव से स्नेह करते है। (ईस=ईश्वर, प्रभु, शिव) (बेड़ा= जहाजों का समूह )

कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥

निसेनी का भाव नर तन ही कर्म क्षेत्र है ज्ञान के रास्ते समाज की जानकारी होती है क्या करना है और क्या नहीं करना यह भी ज्ञान से होता है।

बिराग का अर्थ बि +राग संसार की सभी चीजों में रहे पर कही अटके नहीं जनक जी के पास तो सब कुछ था, संतान ,राज्य ,वैभव ,पर परम बिरागी थे। (सूत्र) बिराग का  अर्थ कुछ छोड़ना नहीं है, उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए। (अपबर्ग =मोक्ष) 

नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।

संसार चक्र को यदि छोड़ना है तो मनुष्य का जन्म ग्रहण करना ही होगा। क्योंकि 

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥

मनुष्य शरीर ही सारे साधनों का धाम यदि संसार का भी कुछ का काम करना चाहते हो तो वो भी मनुष्य शरीर से हो सकता है बिना शरीर के कल्याण नहीं होगा संतों का मत। 

ये तन मनो भवसेतु पय सेतु है।
वो सदानंद पाने का हेतु भी है ।।

इसे विषयों के पीछे व्यर्थ कर दिया।
सोच रे मन इसे  पा भला क्या किया।।

काकभुशुण्डि जी गरुण जी से बोले= जो नर तन से भजन नहीं करते वे मंद है और जो विषय रत होते है, वे तो मंदतर (महा मद)है। जैसे कांच का फूटा टुकड़ा किसी काम का नहीं होता दूसरा हाथ में गढ़ने की चीज़ है,पर कांच की झूठी चमक देख कर उसे लोग उठा लेते है। और स्पर्श मात्र से लोहे को सोना कर देने वाली मणि को फेक देते है।

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।

बिषय रत किसी भी शास्त्र ने  बिषय भोग को गलत नहीं कहा ,पर केवल  बिषयों के बारे में लगे रहना उसी के बारे में सोचना उसी में रत रहना ठीक नहीं है। (मंद मंद तर का अर्थ पागलों से भी बदतर)

कर्म तो करना ही पड़ेगा क्योकि 

कर्म प्रधान विश्व करी राखा ।  जो तस करहीं सो तस फल चाखा ।।

जिंदगी जब तक रहेगी फुरसत न होगी काम से।
कुछ समय ऐसा निकालो प्रेम कर लो राम  से।।

(सूत्र) काम भी यज्ञ हो जायेगा पर होगा कैसे ? जब ममता रहित, कामना रहित, आसक्ति रहित, पक्षपात रहित, भेदभाव रहित, अभिमान रहित, विषमता रहित, हो तब वह कार्य यज्ञ हो जायेगा। फिर उस व्यक्ति को किसी और की साधना करने की जरूरत नहीं है पर महराज आज के समय में बड़ा ही कठिन है।

ममता रहित, मेरा मानकर काम मत करो सभी कार्य प्रभु के है सघन नाइ थे, ,कबीर जुलाहे थे,हम सोचते है हम सभी इसी भ्रम में जीते है, कि मैं मेरे बच्चों को पाल रहा हूँ।

पर महराज ये बच्चे आपके नहीं है परमात्मा ने आपके द्वारा भेजे है। बेटा बहू की अमानत है बेटी दामाद की अमानत है साहिब शरीर भी आपका नहीं है यह तो मौत की अमानत है।जिस दिन आएगी उस दिन ले जाएगी।  

कामना रहित,  कोई भी इच्छा नहीं होनी चाहिए।   

आसक्ति रहित, कर्म और कर्म फल में कोई आसक्ति नहीं होनी चाहिए गीता का मूल मंत्र भी यही है कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।  

पक्षपात रहित, अपनो को छूट और गैरों को लूट वाली नीति नहीं होनी चाहिए ।   

काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।

शेष सभी शरीर भोग साधन के है दिव्य तन वाले देवता भी भोगी ही होते है। तो हीन शरीर वालो की कौन बात?

देवता स्वयं कहते है कि हे प्रभु हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पड़े हैं।

जो सब में रमा हुआ है वो राम है जो सबके चित्त को आकर्षित करता वह है कृष्ण और जो सबकी उपासना आराधना का केंद्र है वो है राधा, हितेषियों में सबसे पहला कोई हितेषी है तो  वह है गुरु, गुरु देव वह है जो सब में रमा है सभी के चित्त को आकर्षित करता है और सभी की आराधना का केंद्र है।

हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।

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