मन्दोदरी पति को “राम-विरोध करने से रोकती है क्योंकि राम द्रोही की रक्षा कोई नहीं करता, यह बात वह जयन्त के प्रसंग से जानती है। हनुमान जी से भी सुना है, और शुक ने भी कहा है। मारीच ने भी रावन को समझाया है। उसने भी यही कहा था, यह भी मन्दोदरी जानती है। जनि हठ लग धरहू॥ का भाव कि रामजी को मनुष्य समझते हो इसी से हठ करते हो, ईश्वर जानते तो हठ नहीं करते। क्योंकि रावण ने स्वर्ण मृग की परीक्षा से रामजी को मनुष्य मान लिया है। इस से मारीच, विभीषण, प्रहस्त, मन्दोदरी, कुम्भकरण ने बहुत कहा कि वे नर नहीं है,पर रावण हट नहीं छोड़ता और पूरे जीवन में छोड़ी भी नहीं नहीं। इसी हठ के कारण रावन किसी की सलाह भी नहीं मानता। (परिहरहू= त्यागने या तजना, छोड़ना) (सुरपतिसुत=जयन्त) (कंत=कान्त=पति)
हनुमान जी ने तो आपसे कहा भी
हे नाथ ऐसा नहीं की राम के बाण का प्रभाव को नीच मारीच नहीं जानता था। परंतु आपने उसका कहना भी नहीं माना।
उसने तो आपसे कहा भी-
हे नाथ जनक की सभा में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल बल वाले आप भी थे।
अब मन्दोदरी रावण को राम जी के भगवान होने का पुनः प्रमाण देती है। विश्वरूप राम जी का चरण पाताल है, सिर ब्रह्मलोक है और अन्य सभी लोक (जो ब्रह्मलोक और पाताल के बीच के हैं) राम जी के एक-एक अंग में विश्राम (ठहरने का स्थान) है। भौंह का फेरना भयंकर काल है। नेत्र सूर्य है, केश मेघ माला है। जिनकी नाक अश्विनीकुमार है, रात और दिन अपार पलकों का मारना (खोलना, बंद करना) है। (सूत्र) बाल और मेघ श्याम है, और इनमें सघनता की भी समनता है नासिका मे दो छिद्र होते है वैसे ही अश्वनीकुमार भी जुड़वाँ दो भाई हैँ। ये अश्विनी कुमार सूर्य के दो यमज पुत्र है जो देवताओं के वैद भी है पलकें बराबर खुलती-मुँदती है। वैसे ही लगातार दिन और रात हुआ करते है। (यमज= गर्भ से एक समय में एक साथ पैदा होनेवाली दो संतानों को यमज कहते है)
(पाताल=अधोलोक=सबसे नीचे का लोक) (अजधाम=सत्य वा ब्रह्म लोक) (अपार=असीम,जिसका पार न हो, असहमति) (दिवाकर=दिनकर, सूर्य) (कच=बाल, केश) (घन=मेघ, बादल) (अपार=संख्यारहित, अमित)
भृकुटि बिलास और नयन दिवाकर
मन्दोदरी रावण से बोली- अस्विनीकुमार जिनकी नासिका है, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) है।
वेदों मे कहा है प्रभु के कान दसो दिशाएँ है, पवन श्वास है, वेद खास वाणी है, लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत है, माया हँसी है, मायाहास’। हास्य को माया कहा क्योंकि हँसे नहीं कि मोहित कर लिया। दिक्पाल भुजाएँ है। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय उनकी इच्छा है। (कर्म वा चेष्टा) (क्रिया) है। (अंबुपति=वरुण देव) (समीहा=कामना, संकल्प) (आनन=मुख, मुँह) (अंबुपति=समुद्र, जलधि,वरुण)
मंदोदरी कहती हे नाथ! शिव जिनका अहंकार हैं ब्रह्मा बुद्धि हैं चंद्रमा मन हैं और महान (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचर रूप भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है (भाव कि देवताओं की विनती पर विश्वरूप से मनुष्य रूप हुए)
यह तो मेने लक्ष्मणजी से सुना- जिनके भ्रृकुटि विलास (भौं के इशारे) मात्र से सारी सृष्टि का लय (प्रलय) हो जाता है, वे श्री रामजी क्या कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते है?
और तो और हे नाथ आपके गुरु शंकर जी ने भी तो यही कहा है
(आदि अंत-तो तन धारण करने से होता है स्मरण रहे प्रभु का प्राकट्य होता है जन्म नहीं) (मति अनुमानि- वेद भी यथार्थ नहीं जानते और ना ही कह सकते है बुद्धि से अनुमान लगाते है क्योंकि आदि अंत कुछ है ही नहीं) (बकता=वक्ता, बोलनेवाला) (जोगी=योगी) (परस= स्पर्श,छूना) (घ्राण=नाक) (बास=गंध, सुगंध, बू) (असेषा=सम्पूर्ण) (अलौकिक=इस लोक से परे की ,इस लोक की नहीं,दिव्य)
अतः हे प्राणपति! सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग पर कोई संकट ना आये। (अहिवात=सौभाग्य,सुहाग)
रावण तो कुछ समझा ही नहीं तब दुखी होकर मंदोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है।
संत-असंत वंदना जितनी वन्दना मानस में बाबा तुलसी ने की उतनी वंदना किसी दूसरे ग्रंथ… Read More
जिमि जिमि तापसु कथइ अवतार के हेतु, प्रतापभानु साधारण धर्म में भले ही रत… Read More
बिस्व बिदित एक कैकय अवतार के हेतु, फल की आशा को त्याग कर कर्म करते… Read More
स्वायंभू मनु अरु अवतार के हेतु,ब्रह्म अवतार की विशेषता यह है कि इसमें रघुवीरजी ने… Read More
सुमिरत हरिहि श्राप गति अवतार के हेतु, कैलाश पर्वत तो पूरा ही पावन है पर… Read More
अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा… Read More