श्रीरामजी को जहाँ भी कार्य आरंभ में हर्ष हुआ है पर कार्य की सफलता में एक भी स्थान पर हर्ष का उल्लेख नहीं मिलता है| (सूत्र) कार्य आरंभ में उत्साह कार्य सिद्धि का सूचक होता है। रामजी केवल दो कारणों से हर्ष युक्त होते हैं, एक तो जब भक्त का अनन्य प्रेम देखते हैं, दूसरा जब वे स्वयं भक्त पर परम अनुग्रह करना चाहते हैं।
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥
यहाँ सुतीछण मुनि की अनन्य भक्ति के कारण रामजी ने स्वयं कहा-
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउँ सो तोही॥
विभीषण जी मिलने पर-
अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
पुरुषों में सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) विश्वामित्र मुनि का भय हरने और समाज के कल्याण के लिए प्रसन्न होकर चले। यहाँ मुनि भय हरण के लिए हर्ष (आनंद) है।
पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥
एवमस्तु करि रमानिवासा।हरषि चले कुंभज रिषि पासा॥
हर्ष का कारण अवतार के कार्य सिद्धि के लिए मुनि से मंत्र लेंगे।
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही।जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥
अवतार की लीला के मुख्य पात्र श्री सीताजी की प्राप्ति करना है अतः हर्ष होना चाहिए पर धनुर्भंग होने पर जयमाला पहनायी जाने पर अथवा विवाह होने पर रामजी को कोई हर्ष नहीं हुआ पर वन जाते समय प्रसन्नता और उत्साह दोनों का उल्लेख है।यहाँ हर्ष का मुख्य कारण जगत का कल्याण है। प्रसन्नता इस लिए कि भक्तों पर (अनुग्रह=कृपा) करने को मिलेगी और चाव (उत्साह=हर्ष) इसलिए कि अवतार-कार्य रावण आदि का वध होगा।
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥
राम जी के भक्त हनुमान जी ने भी यही कहा जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ।तब तक आप सभी मेरा इन्तजार करना काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है।
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
श्री रामजी तो हर्ष विषाद रहित है तब यहाँ स्वभाव-विरुद्ध हर्ष कैसे हुआ?
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
(समाधान) उठे हरषि जिस कार्य के लिए चौदह वर्षो का वनवास स्वीकार किया एवं प्रतिज्ञा पूरी होने का लक्षण देखकर हर्ष उठे। रामजी सब कारण जानते हैं। रावण का भेजा मारीच आ गया। इसीलिए मारीच का वध नहीं किया था। समुद्र पार फेंक दिया था। क्योंकि इसी के द्वारा देवताओ के सब कार्य होंगे। अन्य भाव क्योकि सुर काज सवारना है। प्रभु सब जानते हैं कि यह मारीच है और साथ में रावण भी आया है । बाल्मीक रामायण में तो श्री लखन जी ने और श्री रामजी ने भी स्पष्ट कहा है कि यह मारीच है, इसे तो मुझे मारना ही है! यदि रामजी को देवकार्य को सँवारना नहीं होता तो मारीच को वहीं से मार देते जैसे जयंत को दण्डित किया। पर बिना यहाँ से उठकर दूर गए न तो रावण आयेगा, न सीताहरण होगा, न उसका वध होगा और न ही देव कार्य होगा। आगे भी कहा गया है! यद्यपि देवताओं की रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं, तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं। रामजी मानव रूप में होने के नाते मर्यादा की रक्षा करने हेतु राम जी ऐसा दिखावा करते है जैसे उनको कुछ नहीं मालूम अतः रामजी मनुज सीमाओं का पालन करते है यही राजनीति है तभी मर्यादा पुरषोत्तम कहलाये। (सुर=देव) (त्राता=रक्षा करनेवाला)
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥
जिनको मन सहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्कना नहीं कर सकते, जिनकी महिमा को वेद ‘नेति’ कहकर वर्णन करता है और जो (सच्चिदानंद) तीनों कालों में एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते है।
मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।
वेद जिनके विषय में ‘नेति-नेति’ कहकर रह जाते हैं और शिव भी जिन्हें ध्यान में नहीं पाते (अर्थात् जो मन और वाणी से नितांत परे हैं), वे ही राम माया से बने हुए मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। सरस्वती जी, शिवजी, ब्रह्मा जी, शास्त्र, वेद और पुराण ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर सदा जिनका गुणगान किया करते हैं। श्रुतियाँ, ‘नेति-नेति’ कहकर जिसका गुणगान करती हैं ( नेति नेति=न इति न इति) एक संस्कृत वाक्य है जिसका अर्थ है ‘यह नहीं, यह नहीं’ या ‘यही नहीं, वही नहीं’ या ‘अन्त नहीं है, अन्त नहीं है’। ब्रह्म या ईश्वर के संबंध में यह वाक्य उपनिषदों में अनंतता सूचित करने के लिए आया है। उपनिषद् के इस महावाक्य के अनुसार ब्रह्म शब्दों के परे है। अतः सर्व समर्थ ईश्वर की व्याख्या हो ही नहीं सकती।
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहि निरंतर गान।।
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
यह आश्चर्य ही है की भक्त जनों का उद्धार करने के लिए लीला चरित्र ही करते हैं, नहीं तो ऐसे रामजी को रावण और निशाचर वध करने के लिये ऐसी क्या आवश्यकता है?