देखि देखि आचरन तुम्हारा।
वशिष्ठ जी कहते है- ब्रह्मा जी के कहने पर मैंने (उपरोहित्य= ब्राह्मण का कर्म) द्वारा पूर्ण ब्रह्म राम तो प्राप्त किया पर भगवान भाव से नहीं मैने रामजी को शिष्य रूप में प्राप्त किया मेरी भी इच्छा है की में भी रामजी की स्तुति करू इस भाव को पूर्ण करने के लिए रामजी ने एकांत में मिलने का संजोग बनाया।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥
मुनि वशिष्ठजी वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम रामजी थे। (सुखधाम=आनंद देनेवाला, सुखदायी)
एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए।।
मुनि ने जब नामांकरण किया तब भी यही कहा-
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
वशिष्ठ जी राम जी से एकांत में मिले क्योकि हाथ जोड़ कर निवेदन करना है इस तरह से गुरु का शिष्य से निवेदन निषेध है वशिष्ठ जी जानते है कि रामजी पूर्ण ब्रह्म है। श्री दशरथ जी ने राम जी से वन गमन के समय भी यही कहा- कि वशिष्ठजी ने तो मुझे से पहले ही कहा था। (चराचर= संसार के सभी प्राणी)
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥
रामजी ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया-यहाँ राम जी ने अपने शिष्य धर्म का पालन किया। (पादोदक =चरणामृत)
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।।
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा।।
पर रामजी पूर्ण ब्रह्म जानते हुए भी वशिष्ठजी को रामजी के साथ शिष्य जैसा व्यवहार करना पड़ता है शिष्य द्वारा इस तरह से पूजित होने के कारण वशिष्ठ जी स्वयं को अपराधी मानते है। पर वशिष्ठ जी के पिता ब्रह्मा जी ने तो पूर्ण ब्रह्म को प्राप्ति का यही रास्ता बताया है इसी कारण हाथ जोड़ कर छमा मांगते और अविचल भक्ति मांगते है।
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥
मुनि ने हाथ जोड़कर कहा- हे कृपासागर! मेरी कुछ विनती सुनिए!
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥
कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥ हे रामजी कृपा करके मेरी विनती सुनिए, बहलाये नहीं, मुझे मोह में ना डाले, आपकी माया तो प्रबल है पर हम दासों पर तो कृपा कीजिये मोह में मत डालिये, सभी के स्वामी होते हुए भी चरणामृत लेते हो, इस लिए हाथ जोड़कर बिनती करता हूँ हे कृपासागर! रामजी आपके आचरणों (मनुष्योचित चरित्रों) को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है। आप मुझ से धर्म शास्त्र सुनते हो और शास्त्रों के सम्बन्ध में जब जिज्ञासा करते हो तब मेरे हृदय में आपके ईश्वरत्व के सम्बन्ध में संदेह हो जाता है। ऐसा नहीं की श्री वशिष्ठ जी राम जी को नहीं जानते थे! वशिष्ठ जी ने तो नामाकरण में ऐसा ही कहा था।
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥
साथ ही दशरथ जी से भी कहा था तभी तो राम से वन जाते समय श्री दशरथ जी ने कहा कि तुम्हारे लिए मुनि लोग कहते हैं कि तुम राम चराचर के स्वामी हो।
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥
फिर भी राम तुम्हारा मनुष्य व्यवहार देखकर ईश्वरत्व के सम्बन्ध में संदेह हो जाता है।
होत मोह मम हृदयँ अपारा- अगर मोह का निवारण करते है तो सुलझने की जगह और उलझते ही जाते है और मोह के रहते कल्याण असंभव है। राम जी की पांच लीला में भक्तो को ही मोह हुआ बाल लीला में काक भुसुंडि जी को, विवाह लीला में ब्रह्मा जी को, वन लीला में सती जी को, रण लीला में गरुण जी को, और राज्य लीला में वशिष्ठ जी को, वशिष्ठ जी को मोह क्या है? जिनके चरण कमलों की प्राप्ति हेतु बड़े बड़े योगी वैरागी विविध प्रकार के जप, योग आदि करते हैं वही प्रभु गुरु पद कमलों पर लोट पोट हो रहे है।(सरोरूह= कमल)
जिन्ह के चरन सरोरूह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।गुरु पद कमल पलोटत प्रीते।।
और रामजी आपकी महिमा असीम है जब वेद नहीं जानते फिर में कैसे कह सकता हूँ।
महिमा अमिति बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥
सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण- ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर (पार नहीं पाकर ‘ऐसा नहीं’, ऐसा नहीं कहते हुए) सदा सदा आपके गुणों का गान किया करते है।
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥
उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥
मुनि वशिष्ठजी ने कहा-पुरोहिती का कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निंदा करते हैं (स्मृति=धर्म, दर्शन, आचार-व्यवहार आदि से संबंध रखने वाले प्राचीन हिंदू धर्मशास्त्र जिनकी रचना ऋषि-मुनियों ने की थी। प्राचीन हिंदू विधि संहिता, जैसे- मनुस्मृति) (स्मृति=हिन्दू धर्म के उन धर्मग्रन्थों का समूह है जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। इनमें वेद नहीं आते) स्मृति का शाब्दिक अर्थ है-“याद किया हुआ”। (उपरोहित्य= ब्राह्मण का कर्म)
नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥
मुनि वशिष्ठजी कहा- हे राम! मैं आप से एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिए। प्रभु (आप) के चरणकमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मांतर में भी कभी न घटे। हम यह नहीं चाहते की मेरे जन्मो का आभाव हो, केवल और केवल इतना निवेदन है कि प्रत्येक जन्म में आप से प्रीती एक रस बनी रहे! यही चाहता हूँ और यही भरत और बाली ने भी मांगी है!
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।
और यही बाली ने भी मांगी है!
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।
क्योंकि हे रघुनाथजी! प्रेमभक्ति रूपी (निर्मल) जल के बिना अंतःकरण का मल कभी नहीं जाता।
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥
मेरे सर पर रखदो बाबा,अपने ये दोनों हाथ,
देना हो तो दीजिए,जनम जनम का साथ।।