सीता राम चरन रति मोरें।
तुलसीदास जी अपने भगवान राम से कह रहे- हे रघुवीर, मुझ जैसा दीनहीन कोई नहीं और तुम जैसा दीनहीनों का हित चाहने वाला इस संसार में कोई भी नहीं है। इस विचार के कारण हे रघुवंश मणि मेरे जन्म-मरण के भयंकर दुख को दूर कर दीजिए। जैसे कामी व्यक्ति को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी व्यक्ति को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे रामजी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।
हनुमान जी ने कहा- हे रावण! सुन, खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं। शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे।
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥
एक मंद में मोह बसि कुटिल ह्रदय अज्ञान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारहिं दीन बंधु भगवान।।
हनुमान जी ने ये नहीं कहा की मै हनुमान हूँ, अंजनी पुत्र हूँ, पवन सुत हूँ, शंकर सुवन केसरीनंदन हूँ हनुमान जी ने कहा एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे ह्रदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर आपने भी मुझे भुला दिया। तात्पर्य यह है कि यहाँ श्री हनुमान जी ने अपनी इस देह का परिचय ना देकर, अपने दोषों को प्रगट करते हुए कहते हैं की प्रभु मैं आपको पहिचान नहीं सका हनुमान के इस तरह से परिचय देने से श्रीराम समझ गए,कि हनुमानजी में देह अभिमान ना होकर देह होने का भी भान नहीं है।(वैसे भी वायु की कोई देह नहीं होती) हनुमान जी पवन के पुत्र है और फिर श्रीराम ने निर्णय किया कि जिसको देह अभिमान नहीं है वह ही (वैदेही=सीता) का पता लगा सकता है। (भान=ज्ञान,बोध)
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥
हनुमानजी श्रीरामजी से कहा हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि परमात्मा तो अपने भक्तों को न भूले। भक्त की यही मांग परमात्मा को बांध देती है, इसीलिए हमें भगवान से संसार नहीं मांगना चाहिए, बल्कि भगवान से भगवान को ही मांग लेना चाहिए। फिर जो मिलता है वह तो संसार कभी दे ही नहीं सकता। उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता।
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
प्रभु को पहचानकर हनुमान जी ने कहा सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को परबस होकर सेवक का पालन-पोषण करना ही पड़ता है। (परवश= पराधीन) (असोच =लापरवाही)
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछु मोरि प्रभुताई॥
हनुमान जी ने रामजी से कहा हे नाथ! बंदर का बस यही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है कि वह पेड़ की एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है मैंने जो समुद्र लाँघकर सोने का नगर (लंका) को जलाया और राक्षस गण को मारकर अशोक वन को उजड़ा डाला। यह सब तो हे रघुनाथजी आपकी कृपा का प्रताप है हे नाथ इसमें मेरा समर्थ कुछ भी नहीं है। (तव= तुम्हारा)
विनती करि मुनि नाइ सिर कह कर जोरि बहोरि ।
चरण सरोरुह नाथ जनु कबहुँ तजै मति मोर।।
अत्रि मुनि ने हाथ जोड़कर सिर को नवकार विनती कर कहा- हे नाथ! मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी न छोड़े। (सूत्र) जिसे भगवान के चरण प्राप्त हो जाते हैं, उसे संसार का सबसे बड़ा धन प्राप्त हो जाता है। उसकी जीवन माला व्यवस्थित हो जाती है। वह जीवन-मृत्यु की संधि को समझ जाता है। भगवान के चरणों में वीणा का चिह्न है। वीणा भगवान को विशेष प्रिय है, जिसे भगवान ने नारदजी को प्रदान किया था। वाद्यों में सबसे प्राचीन वीणा है। वीणा में सारे स्वर एक साथ हैं। यह आदि वाद्य है। गायन की विभूति रूप में इसे भगवान के चरणों मे स्थान मिला है। वीणा भगवान का नाम गाती है। जिसके हृदय में भगवान के चरण हैं उसे सदैव सब जगह वीणा का स्वर सुनाई देता है।अर्थात मैं भगवान के परम पवित्र चरण-कमलों की वंदना करता हूँ जिनकी ब्रह्मा, शिव, देव, ऋषि, मुनि आदि वंदना करते रहते हैं और जिनका ध्यान करने मात्र से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। (सरोरुह=कमल)
अर्थ न धर्म न काम रूचि गति न चहौं निर्वाण।
जनम जनम रति रामजीपद यह वरदान न आन॥
यमुनाजी और गंगाजी की लहरों को देखकर भरतजी का शरीर पुलकित हो उठा और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा- हे तीर्थराज! आप समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। आपका प्रभाव वेदों में प्रसिद्ध और संसार में प्रकट है। भरतजी हाथ जोड़कर कहा-हे तीर्थराज मुझे न अर्थ की रुचि (इच्छा) है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ। जन्म-जन्म में मेरा श्री रामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान माँगता हूँ, दूसरा कुछ नहीं। (निर्वाण=परमपद, अपवर्ग, मोक्ष, मुक्ति, परमधाम) (आन=मर्यादा, शपथ)
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥
पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिए।
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥
भरतजी ने प्रणाम करके सबके प्रति हाथ जोड़े तथा श्री रामचन्द्रजी, राजा जनकजी, गुरु वशिष्ठजी और साधु-संत सबसे विनती की और कहा- आज मेरे इस अत्यन्त अनुचित बर्ताव को क्षमा कीजिएगा। मैं कोमल (छोटे) मुख से कठोर (धृष्टतापूर्ण) वचन कह रहा हूँ।
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू।।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥
भरतजी ने हाथ जोड़कर कहा हे दयासागर! जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो, वही कीजिए, हे देव! मैं तो अपने स्वार्थ के लिए सब बातें कह रहा हूँ। दुखी मनुष्य के चित्त में विवेक नहीं रहता। (आर्त= दुखी) (चेत=विवेक)
मोरे जिय भरोस दृढ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं।
नहीं सतसंग जोग जप जागा। नहीं दृढ चरण कमल अनुरागा।।
भरतजी प्रभु श्रीरामजी को मनाने वनवास जा रहे हैं तथा सभी अयोध्या वासी भी उनके साथ है, सभी वाहनों में बैठे हैं जबकि भरतजी पैदल चल रहे है, जब भरतजी को पैदल चलते देखकर सब अपने वाहनों से उतर गये, किसी आचार्य ने टिप्पणी की कि साधक के जीवन में यही सत्य है, हर मनुष्य के मन में अनुकरण की इच्छा होती है, महापुरुषों को देखकर सोचता है कि मैं भी इनके जैसा साधक बनूँ। (सूत्र) देखा देखी किसी की साधन पद्धति को नहीं अपनाना चाहिये, किसी दुसरे की पद्धति को देखकर अपनी पद्धति को छोड़ना भी नहीं चाहिये, सभी साधन पूर्ण हैं, जब नाम परमात्मा तक ले जा सकता है तो वाहन तो कोई भी हो, सबकी शारीरिक मानसिक क्षमता एक जैसी नहीं होती, इसलिये देखा-देखी छोड़ देना चाहिए ऐसा करना कई बार कष्टकारी हो सकता है।
भरतजी ने कहा स्वयं श्री रामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोही भले ही कहें, पर श्री सीता-रामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन प्रति दिन बढ़ता ही रहे। (अनुदिन=प्रतिदिन)
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥
भरतजी ने कहा- हे गंगे! आपकी रज सबको सुख देने वाली तथा सेवक के लिए तो कामधेनु ही है। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान माँगता हूँ कि श्री सीता-रामजी के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो।
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥
बालि ने कहा-हे रामजी! सुनिए, स्वामी आपके सामने मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभो! अंतकाल में आपकी गति (शरण) पाकर मैं अब भी पापी ही रहा।
श्रवण सुजस सुनि आनिहैं,प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरण शरण सुखद रघुवीर॥
विभीषण जी जब प्रभु राम की शरण आते हैं तो कहते हैं कि मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, मेरी रक्षा कीजिए।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥
विभीषण जी कहते हे श्री रामजी! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मैं कुशल हूँ, मेरे भारी भय मिट गए। हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयं मोहि लावा॥
विभीषण जी- मैं अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूँ। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
विभीषणजी- मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम ही है।
नाथ करहु बालक पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥
परशुरामजी के क्रोध रूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य राम जी जल के समान (शांत करने वाले) वचन बोले- हे नाथ !बालक पर कृपा कीजिए। इस सीधे और दूध मुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए। यदि यह आपका कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता? अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं।
करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता॥
परशुरामजी- हे राम! हे लक्ष्मीपति! मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेव के मनरूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत-से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए।
जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई॥
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥
लक्ष्मण जी श्री रामजी के साथ वनवास जाना चाहते है पर श्री राम जी उन्हें धर्म और नीति का उपदेश देते हुए अयोध्या में रहने के लिए समझाने का प्रयास करते है तब लक्ष्मण जी कहते है। जगत में जहाँ तक स्नेह का सम्बन्ध, प्रेम और विश्वास है,जिनको स्वयं वेद ने गाया है–हे स्वामी! हे दीनबन्धु! हे सबके हृदय के अंदर की जानने वाले! मेरे तो वे सब कुछ आप ही है।
हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी।।
जामवंत ने कहा- हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी हैं, जो निरंतर सगुण ब्रह्म (श्री रामजी) में प्रीति रखते हैं।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।
जामवंत- हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसका सदा कल्याण और निरंतर कुशल है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं। वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणों का समुद्र बन जाता है। उसी का सुंदर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है। प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।
श्रीराम और जानकी ने भी हनुमानजी को ‘तात’ कहकर संबोधित किया है तात यानी पिता या पिता का पिता या मातामह या पितामह। यानी घर में, वंश में जो सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है, उसे तात कहते हैं। हनुमानजी दास होने के बावजूद भी जानकी माता और प्रभु श्री रामचंद्र उन्हें क्या पुकारते हैं? हे तात।
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
हमने अनेको भक्तो की चर्चा सुनी है किन्तु ऐसे ही एक भक्त केवट भी है श्रीराम जी के, आज उन्ही के भाव और भक्ति की चर्चा करते है की क्यों भगवान केवट के वश में होकर उसके समक्ष झुके हुए है, क्यों उसकी हर बात में उसकी सहमति कर रहे है? क्या दिव्यता है केवट के भावो की? हे त्रिलोकीनाथ! आज मुझ से बड़ा भागीशाली और कौन होगा? आज कौन सा ऐसा सुख हैं, जो मैंने आपकी कृपा से नहीं पा लिया हो?
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा।।
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी।।
केवट ने कहा- हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी।
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
नारदजी ने बहुत आर्त (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और प्रार्थना की कि) कृपा कीजिए और कृपा करके मेरे सहायक बनिए। हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए। मैं आपका दास हूँ।
हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया॥
होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन॥
मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान (ज्ञानी) शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। वे मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों के सेवक थे। उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था। उन्होंने ज्यों ही प्रभु का आगमन कानों से सुन पाया, त्यों ही अनेक प्रकार के मनोरथ करते हुए वे आतुरता (शीघ्रता) से दौड़ चले। हे विधाता! क्या दीनबन्धु श्री रघुनाथजी मुझ जैसे दुष्ट पर भी दया करेंगे?
अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे।I
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
सुतीक्ष्ण बोले -ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और रघुनाथ जी मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया।(अतः) हे रामजी! हे दासों को सुख देने वाले! आपको जो अच्छा लगे, मुझे वही दीजिए। राम जी ने कहा- हे मुने! तुम प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ।
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥
शरभंग मुनि ने कहा- हे नाथ! मैं सब साधनों से हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है। राम के आने के एक दिन पूर्व ब्रह्मा जी का आदेश मिलने पर देवराज इन्द्र विमान लेकर शरभंग मुनि को ब्रह्मलोक ले जाने के लिए आये थे लेकिन शरभंग मुनि ने इन्द्र के साथ ब्रह्मलोक जाने से इनकार करते हुए उन्हें वापस भेज दिया और राम से मिलने की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान राम लक्ष्मण और सीता के साथ शरभंग मुनि के आश्रम पधारे और शरभंग मुनि ने उनकी स्तुति करने के बाद राम को आदेश दिया कि वह तब तक खड़े रहे और मुस्कुराते रहें जब तक वह योगबल से अग्नि प्रगट कर खुद को उसमें पूरी तरह भस्म ना हो जाएँ। राम ने ऐसा ही किया।
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
हे प्रभो अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ। सुग्रीव की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर (उसके क्षणिक वैराग्य को देखकर) हाथ में धनुष धारण करने वाले श्री रामजी मुस्कुरा गये।
तुलसीदास जी सब प्रकार के दोषों का भाव है। यथा–क्रोध, काम,शोक,मोह, मद, लोभ, ईर्ष्या, निंदा,यहाँ तुलसीदासजी के वचनों में आये हुए ‘सब’ अर्थात् हम शरीरों में जो अहम करते हैं उसे छोड़कर, शरीर को ‘मैं’ मानना छोड़कर ‘जो कुछ कर्म करूँ वह सब तेरी बन्दगी हो जाय’ इस प्रकार का भावार्थ यहाँ लेना है। शरीर को ‘मैं’ मानने से ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, उद्वेग, भय, चिन्ता, ईर्ष्यादि दोष उत्पन्न होते हैं और हमारे चित्त में इन दोषों के रहते हम चाहे कितना भी भजन क्यों न करें, पर आध्यात्मिक ऊंचाइयों को छूना मुश्किल है और शरीर को ‘मैं’ मानने का दोष निकल जाने पर आध्यात्मिक ऊँचाइयों को छूना हमारे लिये आसान है जिससे नित्य नवीन रस भी सहज में प्रगट होता है। (सूत्र) प्रभु श्रीराम के चरणों में अत्यंत अनुराग के लिए जीवन में वैराग्य आवश्यक है। अर्थात जब तक (जागतिक=सांसारिक) संबंधों में विराग नहीं होगा तब तक प्रभु के चरणों में अनन्य अनुराग नहीं होगा। (जलजाता= जलजात=कमल)
तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥
अंगद नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोड़कर अत्यंत विनम्र तथा मानो प्रेम के रस में डुबोए हुए (मधुर) वचन बोले-हे रामजी मेरे तो मेरे तो स्वामी, गुरु, पिता और माता सब कुछ आप ही हैं। आपके चरणकमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ?।
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥
कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ॥
निषादराज बोले- हे देव यह पृथ्वी धन और घर सब आपका है मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूँ।अब कृपा करके पुर (श्रृंगवेरपुर) में पधारिए और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइए जिससे सब लोग मेरे भाग्य की बड़ाई करें।
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥
राजा दशरथजी- महादेवजी का स्मरण करके उनसे निहोरा करते हुए कहते हैं- हे सदाशिव! आप मेरी विनती सुनिए। आप आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होने वाले) और (अवढरदानी =मुँह माँगा देने वाले) हैं। अतः मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दुःख को दूर कीजिए।
नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी।।
जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी, तब राजा दसरथ प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए। (वे बोले-) हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ।
नाथ क्रपा सब गयेऊ विषादा ।सुखी भयेऊ प्रभु चरण प्रसादा।।
सती ने शिव जी से कहा- हे नाथ आपकी कृपा से मेरा विषाद दूर हो जाता है और आपके चरणो के अनुग्रह से में सुखी हो गई।
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