अवतार के हेतु, भगवान को वृन्दा और नारद जी ने करीब करीब एक सा ही श्राप दिया।
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा।।
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि।।
गिरिजा बोली ज्ञानी और भक्त दोनो में मोह का होना आश्चर्य ही है। हे स्वामी- नारद का अर्थ ही अज्ञान हरण करनेवाला है। भक्त अपने स्वामी को ही श्राप देवे यह असंभव सा है। संत और मुनि तो शांत होते हैं, उन्हें क्रोध कैसे हुआ? हे महादेव जब
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी।सहज बिमल मन लागि समाधी।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥
कौसिल्या भरत से ऐसा ही भाव पार्वती का नारद के प्रति=मोह का नाश ही ज्ञान है।यदि मोह न मिटा तो ज्ञान कैसा? इस पर कहते हैँ कि यदि ज्ञान होने पर भी मोह न मिटे। अर्थात यदि ये चाहे महा असम्मव सम्भव हो जाये। पर तुम राम के प्रतिकूल नही हो सकते। अतः नारद भगवान के प्रतिकूल नहीं हो सकते। (बरु=भले ही,ऐसा हो जाय तो हो जाय, चाहे)
गिरिजा को अपने गुरु में अटूट आस्था है।
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥
तब रमा पति का कौन सा अपराध है।
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा।।
पार्वती ने नारद को ज्ञानी कहा ज्ञानी पर इतनी आस्था देख कर शिव जी हँसे और बोले अभी तो तुमने श्राप की बात सुनी है उनके साथ तो बड़े बड़े कौतुक हुए है, जो हम आगे कहेगे, तब तो तुम और चकित होगी शंकर जी ने कहा ,तुमको भी तो भारी मोह हुआ था। तुम भी तो ज्ञान वान रही हो पर मोह पिचास ने तुमको ऐसा डसा की इस जन्म में भी साथ लगा रहा। अन्य भाव माया की प्रबलता विचार कर शिवजी हँसे कि तुम तो नारद की कहती हो ,माया ने नारद के बाप ब्रह्मा और में स्वयं भी तो मोह के बस होकर अनेक नाच नाच चुका हूँ भगवान की इच्छा तो प्रबल है।
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥
नारद जी बोले- गरुण जी माया ने मुझे भी नहीं छोड़ा।
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही॥
ब्रह्मा जी बोले गरुण जी- माया ने मुझे भी नहीं छोड़ा।
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी।।
“यह प्रसंग”शंकर जी इतना ही कहकर कथा को समाप्त करना चाहते थे,पर गिरिजा जी की प्रेरणा से इसे कुछ विस्तार से कहा। पार्वती ने पूछा नारद जी ने भगवान को श्राप किस कारण से दिया। लक्ष्मीपति ने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शंकरजी) यह कथा मुझसे कहिए। मुनि नारद के मन में मोह होना बड़े आश्चर्य की बात है।
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
“पुरारी “का भाव की आप त्रिपुर जैसे भारी दैत्य के नाशक है मेरा संदेह भी उसी की तरह बड़ा भारी है। अतः इसका भी निवारण करो मोह के बिना अज्ञान नहीं होता और अज्ञान के बिना नारद अपने इष्ट को श्राप नहीं दे सकते अतः मुझे कोई छोटा मोटा अचरज नहीं है मुझे भारी अचरज है। नारद जी विष्णु भक्त और उस पर भी ज्ञानी भक्त है। उनको मोह नहीं हो सकता। यथाः
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
अर्थात जिनके ज्ञान वैराग्य नहीं होते,उसी के मन में मोह होता है अतः ज्ञानी और विरक्तो को मोह नहीं होता।
शंकर जी पार्वती से बोले ज्ञान और मोह दोनों के प्रेरक तो मेरे रघुनाथ जी है।
बोले बिहसि महेस तब, ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब, सो तस तेहि छन होइ॥
शंकर जी पार्वती से बोले- संसार में ज्ञानी अथवा मूड कोई नहीं है ज्ञान मोह के प्रेरक भगवान ही है इसमें जीव का कोई चारा नहीं है यह सब रघुनाथ जी का ही खेल है जब जिसको जैसा चाहे बना देते है। रघुपति का अर्थ (रघु=जीव)के पति (स्वामी) अर्थात जीव के स्वामी है।
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥
नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥
(सूत्र) अब प्रश्न उठता है कि जब रामजी के बनाने से ही प्राणी ज्ञानी या मूढ़ बनता है, तो साधन ( भजन पूजा )करने की क्या जरूरत है साधन तो व्यर्थ है? संतो का मत इसमें कोई संदेह नहीं कि एक मात्र भगवान ही सर्वेश्वर एवं सर्वशक्तिमान है। उनकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता तो फिर उनकी इच्छा बिना के ज्ञानी-मूढ़ तो बन ही नहीं सकते वे ही चेतन को जड़ और जड़ को चेतन बनाने वाले है।इसलिए संसारके सब योगक्षेमों को उन्हीं पर छोड़ कर केवल भजन ही करना चाहिए, एकमात्र उन्हीं की कृपा एवं सन्निधि का अनुभव करते हुये निरंतर उन्हीं में स्थित रहना चाहिये। यह तो सिद्धांत है पर व्यवहार में भगवान जो किसी को ज्ञानी मूढ़, जड़ अथवा चेतन बनाते है।वह क्या केवल अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही बनाते है अथवा कुछअन्य कारण होता है, क्या उनकी इच्छा विषम होती है? क्या उनकी कृपा सब पर समान नहीं है यह कैसे संभव है? भगवान सब पर समान कृपा रखते है, सब का हित ही चाहते है और सभी की प्रार्थना पूर्ण करते है। जिससे जीव का कल्याण हो। पर जीवों के शुभा शुभ कर्म औरअधिकार केअनुसार ही होता है। उनकी विधि व्यवस्था होती है। (शुभाशुभ= भला और बुरा) तुलसी बाबा ने सुन्दर ही कहा है।
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु हृदय बिचारी॥
करम कमंडल कर गहे तुलसी जस जग माही।
सरिता सुरसरि कूप जल बूँद न अधिक समाही।।
जिनको अपने कर्तव्य का अभिमान है उनको तो कर्म बंधन में रहना ही पड़ेगा पर जिसने कर्म बंधन का परित्याग करके प्रभु की शरण ली उनका भार तो भक्तवात्सल्य प्रभु पर ही है।
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
नारद के जीवन में भी भगवान की शरणागति है। जब जब नारद जी के मन में शरणागति के विपरीत कोई भाव आया तब तब भगवान ने उसे दूर किया। काम पर विजय प्राप्त करने के बाद क्रोध न आने के कारण नारद जी के मन में कुछ अभिमान आ गया था, जो कि शरणागति का विरोधी है। इसलिए नारद जी की यह दशा हुई।
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।
जैसे ध्रुव जी तो अबोध बालक थे हरि ने अपने वेदमय शंख से कपोल को छु कर उनको तत्काल ही दिव्य वाणी दी जब जीव को अपने ज्ञान का अभिमान हो जाता है, तब भक्त वात्सल्य भगवान उसके कल्याण हेतु अभिमान को तोड़ने का उपाय रच देते है। जिससे वह सुधर जाय ,शुद्ध हो जाय ,और फिर किसी भुलावे में ना पड़े हे गोसाईं! जैसे बच्चे के शरीर में फोड़ा हो जाता है, तो माता उस फोड़े को अपना हृदय कठोर करके चिरावा डालती है।यथाः
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ।।
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना।।
ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी॥
जिमि सिसु तन ब्रन होई गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं॥
अर्थात
जेहि जस रघुपति करहिं जब। सो तस तेहि छन होइ॥
वैसे तो सामान्य तोर पर ज्ञानी का मूढ़ और मूढ़ का ज्ञानी हो जाना जल्दी से नहीं होता (यह परिवर्तन होने में कुछ ना कुछ समय लगता है) पर रघुनाथ जी के करने पर तुरंत हो जाता है ज्ञानी नारद को एक पल में मूर्ख बना दिया।(मूढ़=मूर्ख) यथाः
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
और पुनःपल भर में ज्ञानी बना दिया। (निगूढ़=रहस्यपूर्ण अर्थवाला,अत्यंत गुप्त) (गिरा=वाणी) यथाः
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
बैद्यनाथ जी का भाव “ज्ञानी मूड ना कोय “अर्थात चराचर जीव में जड़ चेतन मिले हुए है इस कारण ना कोई शुद्ध ज्ञानी है और ना कोई शुद्ध मूड ही है क्योकि शुद्ध ज्ञान तो ईश्वर में है और शुद्ध मूढ़ता माया में है, और ईश्वर अंश जीव माया के बस में है। इसी कारण जीव ना तो ज्ञानी है और ना ही मूड। यथाः
ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जीव का धर्म है कि प्रभु के सन्मुख रहे जिससे प्रभु माया के प्रवाह को रोके रहे जिससे जीव में सज्ञान बना रहे जब जब जीव अपना धर्म छोड़ कर राम जी से विमुख होता है तब तब प्रभु की कृपा रुक जाती है और जीव मूड हो जाता है। (सज्ञान=ज्ञानयुक्त, ज्ञानवान, बुद्धिमान)
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