ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); सलाह,की तजि मान अनुज इव ,प्रभु पद पंकज भृंग। - manaschintan
कर्म कमण्डल कर गहे,तुलसी जहँ लग जाय।सरिता, सागर, कूप जल

सलाह,की तजि मान अनुज इव ,प्रभु पद पंकज भृंग।

की तजि मान अनुज इव ,प्रभु पद पंकज भृंग।

लक्ष्मण ने पत्रिका के माध्यम से रावण को सलाह दी।अरे मूर्ख! बातें बनाकर अपनी आत्मा को घोखा देना शठता की पराकाष्ठा है। इस दोष से तेरे कुल  का सर्वनाश होगा। लक्ष्मण हनुमान से सुन चुके है, कि रावण ऐसी ही बातें किया करता  है। अतः लिखकर चेतावनी देते है कि यह समय बातें बनाकर मन के रिझाने का नही है। तुम सबसे विरोध करके  बच गये पर अब राम का विरोध कर बेठे अतः अब तुम नही बच सकते। केवल तुम्हारा ही नही सम्पूर्ण कुल का नाश अवश्य होगा। पुलस्ति ऋषि का उत्तम कुल है। इसलिये कुल के नाश होने पर भी खेद होता है! हे रावण यदि तुमको ब्रह्मा, रुद्रअर्थात शंकर का भरोसा हो तो उनको  भी छोड़ दोउन दोनों की कौन कहे तीनो देव मिलकर भी तेरी रक्षा नहीं कर सकते, बातों में मन का रिझाना यह कि मैंने तो शिव-ब्रह्मा से ऐसे-ऐसे वरदान पाये है,और हमारे अमुख अमुख वीर है।सभी दिकपाल मेरे अधीन है,मेने केलास तक को उठा लिया,त्रिदेव मुझ से डरते हैइत्यादि। तब नर-वानर किस गणना में है? ये सब के सब राम के सम्मुख बेकार ही है

(ऊबरे= रक्षा करना) (खीस= नष्ट, बरबाद,नाश) (घालना= करडालना)

की तजि मान अनुज इव ,प्रभु पद पंकज भृंग।

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ,जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि, सरन बिष्नु अज ईस॥

रावण सुन 

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥
जौं खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥

हे रावण क्या तुम जयंत की व्यथा को नहीं जानते राम से विमुख होने पर उसका क्या हाल हुआ(बेतरनी=वैतरणी) यह एक प्रसिद्ध पौराणिक नदी है. जो यम के द्वार पर है। कहते है कि यह नदी बहुत तेज़ बहती है, इसका जल बहुत ही गर्म  और बदबूदार  है, और उसमें हडिडयां, लहू तथा वाल आदि भरे हुए हैं। यह भी माना जाता है कि प्राणी के  मरने पर पहले यह नदी पार करनी पड़ती.है, जिसमें उसे बहुत कष्ट होता है।यहाँ राम से विमुख होने का परिणाम बताया(ओही=उसे,उसको,उस व्यक्ति को) (समन= शमन=यम)(हरिजान= हरिकी सवारी, गरुड़) (बिवुध = देवता, देव) (विवुधनदी= सुरसरि, गंगा)

काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना।।

मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी।।
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता।।

राम कृपा पात्र की  व्यवस्था इससे  उलटी  हैऔर यदि तुम रामजी की शरण में आ जओगे तो राम जी ने स्वयं ही कहा है

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

और रावण राम जी की शरणागत का फल, 

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥

जा पर कृपा राम की होई।ता पर कृपा करहिं सब कोई।॥

और रावण राम जी की शरणागत का फल परम फल, 

 राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू।।

लक्ष्मण ने कहा हे रावण, या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट!  राम के बाण रूपी अग्नि में कुल सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर) अब तुम्हें दो गति है। भृंग बनो या पतिंगा बनो।यदि अभिमान नही छोड सकते तो कुल के सहित पतंग बनोगे।(सूत्र) आसक्त तो दोनों होते हैं भृंग भी और पतंग भी,पर परिणाम दो का अलग अलग होता है भृंग’ आनंद से रस लेते हैं और पतंग काल के मुख में पड़ते हैं।सो तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो। (सूत्र) जीव की दो ही गति होती है! (इव= अव्यय, समान, सदृश) (भृंग= भौंरा) (यूथप= बंदरों का समूह) (सरानल =बाणरूपी अग्नि) (पतिंगा= तितली जैसा एक कीट)

की तजि मान अनुज इव ,प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल, खल कुल सहित पतंग॥

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