रघुबंसिन्ह कर सहज
श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण से बोले– सहज सुभाऊ’ अर्थात् उनका मन स्वतः वश में रहता है, उनको साधन करके मन को वश करना नहीं पड़ता।जैसे योगी लोग साधन से मन को कुपंथ से निवारण करते हैँ वैसे इन्हें नहीं करना पड़ता, स्वाभाविक ही इनका मन कुपंथ में नहीं जाता।’रघुबंसिन्ह’ से केवल अपने कुल से,रघु महाराज से लेकर रामजी
तक से है! जैसे सब रघुवंशी इन्द्रियजित हैं वैसे ही मैं भी हूँ। राम जी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, कितने सभल कर बोल रहे हैं जिनमें (आत्मश्लाघा = आत्मप्रशंसा) राम जी को स्वाभिमान छू भी नहीं सकता,ये कैसे अभिमान रहित वचन हैं। सपनेहु’ का भाव कि लोगों को जाग्रत में
ज्ञान रहता है पर सोते में ज्ञान नहीं रहता, पर मेरा मन तब भी परनारी को नहीं देखता,’पर-नारि’ ही कुपथ हैं।
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण से बोले–॥ जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे है। अलौकिक! का भाव त्रिलोक में न कोई सीता के समान है और न ही सीता के समान कोई उपमा ही है। (अलौकिक=अनूठी) अप्राकृतिक) (छोभा=विचलित होना) (सुभद=शुभदायक,मंगलसूचक)
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥
सो सबु कारन! रामजी ने ही नहीं कहा शंकर जी और कौसिल्या जी ने भी यही कहा
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना।।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥
यही गुरु वसिष्ठ ने भरत जी से और देव रिषि नारद ने हिमांचल जी से कहा है
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहहु मुनिनाथ।
हानि लाभ जीवन मरन जस अपजस विधि हाथ॥
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥
(सूत्र) प्रभु की इच्छा को ना तो कोई जान सका और ना ही कोई जान सकता है।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥
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