ga('create', 'UA-XXXXX-Y', 'auto'); ga('send', 'pageview'); सरल,तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।। - manaschintan
कर्म कमण्डल कर गहे,तुलसी जहँ लग जाय।सरिता, सागर, कूप जल

सरल,तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।।

तब कर कमल जोरि रघुराई

यहाँ रामजी ने हाथ जोड़ कर अपने ऐश्वर्य को छुपाया और मुनि वाल्मीकि जी के भजन के प्रभाव की महिमा को बताया है कि में कैसे भक्तों के अधीन रहता हूँ  हम सभी  को  काल का डर रहता है, पर वह काल भी प्रभु से  डरता है। वही प्रभु के भजन का प्रभाव (जिसके कारण ऐसे महान प्रभु भी भय का नाटक करते है) दिखला रहे है। 

तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।।

जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥

रामजी वाल्मीकि जी से बोले-हे मुनिनाथ आप त्रिकालग्य है भूत, भविष्य, वर्तमान, तीनो को आप देख सकते है, यहाँ रामजी मुनि की  दिव्य दृष्टि और ऐश्वर्य का बखान करते है। त्रिकालज्ञ को जगत का सारा हाल मालूम करने में आयास अर्थात प्रयास नहीं करना पड़ता आप तो संसार को जिधर से चाहे उधर से अनायास ही सब कुछ देख सकते है।

अतः हे मुनिनाथ आपसे कोई बात छिपी नहीं है मेरे वन आने का कारण भी आप जानते हो। ज्ञानी की दृष्टि में संसार अपथ्य है अतः संसार को बेर उपमा दी गई है और भक्त को संसार पथ्य है अतः संसार को आंवले की उपमा दी गई है।

हे मुनिनाथआप तो भली भांति जानते है कि राज्य महा बंधन है। इसके छूटने से मुझे हर्ष है। वैज्ञानिकों ने काफी शोध के बाद पृथ्वी को गोल बताया, रामजी ने तो त्रेता में ही पृथ्वी को गोल बता दिया था। (बदर=बेर का पेड़ या फल) (अपथ्य= प्रतिकूल)  (आमलक= अमला) (आयास= श्रम ,प्रयत्न)  

तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥

हे मुनिनाथ आप त्रिकालग्य है- 

गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना॥

भरत जी ने भी गुरु वसिष्ठ जी को ज्ञान का समुद्र कहा हैं जिसके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। 

देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे।।
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना।।

हे मुनि नाथ-बिना पुण्य पवित्र यश प्राप्त नहीं होता ये में नहीं कहता पुण्य की महिमा वेद, संत और पुराण गाते है।हे मुनि राज! आपके चरणो को देख हमारे अर्थात हम तीनों के सब सुकृत फलयुक्त हुए। (अघ= पाप, पातक ,अधर्म)

अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई।।

अतः अब ऐसा स्थान बताए जहाँ मेरे रहने से किसी मुनि को कष्ट ना हो क्योंकि जिन राजाओ से मुनि वा तपस्वी दुख पाते है वे राजा बिना अग्नि के ही भष्म हो जाते है। (उदबेग=मानसिक पीड़ा,दुख) (राउर= आपकी,रनवास) (आयसु= आज्ञा, हुक्म, या आदेश)

मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं।।

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।। 

यह शास्त्र मत है कि जब राजा बिना अग्नि के भस्म हो जाते है तो हम तो राजा भी नहीं है यदि हमसे किसी मुनि को कष्ट हो गया या अपराध हो गया तो हमारा तो अभी कोई ठिकाना भी नहीं है। जैसे भानु प्रताप के कुल का नाश हुआ, कोटि यदुवंशी जल मरे, सगर के पुत्र कपिल मुनि के श्राप से भस्म हुये ,सहस्त्र बाहु को परशुराम जी ने मारा, इन सभी का अंत मुनियों या विप्र के श्राप से हुआ।

सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥

हे रघुनाथ रघु महाराज ने वेद मर्यादा का पालन किया उनके कुल में सब मर्यादा की रक्षा करते आये है और आप तो उस कुल में ध्वजा सरूप है।

कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥

और हे राम जी यह तो अपने ही कहा-

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥

हे रघुनाथ जगदीश जी-

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा।।

राम झरोखे बैठ के सब का मुजरा लेत । जैसी जाकी चाकरी वैसा वाको देत ॥

हे राम देवताओं का भी तो यही मत है

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥

हे रघुनाथ जगदीश आप वेदों की मर्यादा पालन करने वाले हो जानकी जी आप की माया है। वे जानकी जी आपकी इच्छा मात्र से जगत की उत्पत्ति ,पालन ,और नाश करती है और सहस्त्र शिरधारी शेष जी पृथ्वी को धारण करने वाले है वे ही चराचर के धनी लक्ष्मण जी है आप स्वयं देवताओ के हेतु मनुष्य शरीर धारण कर अब निशाचरों को मारने चले हो।

हे रामजी आप जगत के कौतुक दिखाने वाले, अथवा जगत दृश्य ओर आप देखने वाले  है और विधि (बह्मा, विष्णु  शिवजी को नचाने वाले हो वे देवता भी आपका भेद नहीं जानते और फिर दूसरा आप को कौन जाने? जिनके हृदय में आपकी शीतल चन्दन सी भक्ति है भक्ति को चन्दन इस कारण कहा  कि चन्दन से तीनों ताप दूर होकर हृदय शीतल हो जाता है। (दारुनारि= कठपुतली) (सूत्रधार= रंगमंच का प्रबन्धक)

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन।।
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।

हे रामजी आपके चरित्रों को देखकर और सुनकर मूर्खो को विपरीत ज्ञान के कारण  मोह हो जाता है, और ज्ञानी परम भाव के कारण लीला समझ कर  सुखी होते है नाट्य लीला का भी तो एक साधारण नियम है कि जैसा वेश हो तो वैसा ही अभिनय करना पड़ता है। (जड़=मूर्ख ) (बुध= बुद्धिमान एवं विद्वान व्यक्ति)

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।।

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सरल,तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।।

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