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माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर।

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माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर।
माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर।

माया मरी न मन

संत कबीर ने कहा शरीर तो नष्ट हो जाता है पर मन में उठने वाली आशा और तृष्णा की भूख कभी नष्ट नहीं होती। (तृष्णा=इच्छा, आकांक्षा)


माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर।
आषा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।।
बाबा तुलसी ने भी तो यही कहा कि प्रबल तृष्णा के कारण ही सती का जन्म पार्वती रूप में हुआ (सूत्र ) पाने के लिए (आकुल=बेचैन) करने वाली इच्छा, लोभ, लालच,प्यास होगी तभी अनुराग होगा।

सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥

यही तो भुशुंड जी ने कहा हे गरुण जी माया की प्रचंड सेना संसार भर में छाई हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दम्भ, कपट और पाखंड योद्धा हैं।माया कभी भी अकेली नहीं रहती। (कटक= समूह) (भट= योद्धा)

ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥

इसलिए मोह ,तृष्णा में  नहीं पड़ना चाहिए यही मुक्ति के बाधक है बाबा तुलसी ने भी सुन्दर कांड में विभीषण के माध्यम से यही कहा है।

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥

पुनःसंत कबीर ने कहा- यह संसार एक माया है जो शंकर भगवान से भी अधिक बलवान है।यह स्वंय आप के प्रयास से कभी नहीं छुट सकता है। केवलऔर केवल  प्रभु ही इससे आपको उवार सकते है।

शंकर हु ते सबल है, माया येह संसार।
अपने बल छुटै नहि, छुटबै सिरजनहार॥

स्वामी राजेश्वरानंद जी का सुन्दर भजन 

सब जग को रही नचाये,हरिमाया जादूगरनी॥
अति अदभुत खेल रचाय्, हरिमाया जादूगरनी।
कोऊ याको पार ना पावे, यह सबको नाच नचावै॥
दुख में सुख को रही दिखाय , हरिमाया जादूगरनी।

हे पक्षियों के स्वामी गरूण जी ! इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडंबना (मिट्टी पलीद) न की हो।

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥ 

हे पक्षियों के स्वामी गरूण जी ! लक्ष्मी के मद ने किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है जिसे मृगनयनी(युवती स्त्री)के नेत्र बाण न लगे हों॥ (बधिर=बहरा,जो सुनता न हो) (मृगलोचनि=हिरण के समान सुन्दर आँखोंवाली महिला) (अस=तुल्य, समान,इस जैसा) (सर=बाण ,तालाब)

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥ 

शिवजी कहते है हे भवानी-जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं।

ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान॥
प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥

ब्रह्मा जी ने भी तो गरुण जी से यही कहा। 

 हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥

देव रिषि नारद ने भी गरुण जी से यही कहा 

जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही॥

हे पक्षीराज! उनमें से भी किस-किस को मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया? जगत् में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया? क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया? (अंधा= विवेकशून्य) (केहि= किसे,किसको, किस,किसी प्रकार, किसी भाँति)

मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥

पर वही माया श्री रघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही है, किंतु वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ। (पद रोपि=प्रतिज्ञा करके)

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥ 

जो माया सारे जगत् को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसी ने  (लख=समझ) नहीं पाया, हे  गरुड़जी! वही माया प्रभु रामजी की भृकुटी के इशारे पर अपने समाज (परिवार) सहित नटी की तरह नाचती है।

जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥

हे गरुण जी ऐसा में ही नहीं कह रहा वेदो का भी यही मत है

नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥

भक्त कि तो हमेशा यही विचार धारा होती है। 

जग में तेरा कुछ नहीं, मिथ्या ममता-मोह।
एक कृष्ण तेरे सदा चिदानन्द-संदोह॥
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥

ब्रह्मा,विष्णु महेश की माया बड़ी प्रबल है किन्तु वह भी भरतजी की बुद्धि की ओर ताक नहीं सकती।क्योंकि भरतजी के हृदय में सीता-रामजी का निवास है।

बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥

क्योकि

भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥

क्योकि भरत जी का तो यही कहना है। 

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥

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